Thursday, 29 June 2023

स्मृतियों की सरिता


दयानंद पांडेय 

स्मृतियों को धरोहर बनाना अगर किसी को सीखना हो तो रीता जैन से सीखे। फिर यह स्मृतियां तो साझी धरोहर हैं। धरोहर बन चली स्मृतियों की इस नदी में छोटी-छोटी लहरें हैं। छोटी-छोटी बातें हैं। छोटे-छोटे रास्ते हैं। छोटे-मोटे दुःख-सुख हैं। दुःख का भंवर है तो सुख की नाव भी उपस्थित है। बोलती-बतियाती इन स्मृतियों में भारतीय मध्यवर्गीय चेतना का स्वर बहुत मुखर है। बहुत प्रबल है। अनथक संघर्ष और प्रेम पाग में सनी ज़िंदगी की स्मृतियां टुकड़ों-टुकड़ों में बहुत सहेज कर पाठकों के लिए परोसा है रीता जैन ने। ऐसे जैसे शबरी एक-एक बेर चख-चख कर अतिथि राम को खिला रही हो। नाऊन काकी से जो पन्ना खुलता है तो लगता है जैसे सिनेमा का कोई पर्दा हमारे सामने उपस्थित हो गया हो। घर का आंगन आता है तो बचपन ठुमकने लगता है। रामलीला आती है और मां जैसी बहन भी। अनजाने ही रोज-रोज दूध में सोंठ की जगह खटाई मिला कर देने वाली , टोकने पर , नखरे मत करिए , पी लीजिए , कहने वाली मासूम देवरानी सुचित्रा , यशोदा बुआ जैसे परिवारीजन भी स्मृति की इस नदी की प्रमुख धारा हैं। ऐसे जैसे किसी गीत-संगीत की तरह यह और ऐसे लोग रीता जैन के जीवन में उपस्थित हैं और रीता जैन , उन के जीवन में। नाना-नानी , माता-पिता , सास-श्वसुर बच्चे , संयुक्त परिवार के लोग स्मृतियां में ऐसे आते-जाते रहते हैं गोया कोई रेलगाड़ी हो , स्टेशन आ रहे हों , जा रहे हों। लोग मुसाफ़िर की तरह मिलते-बिछड़ते जा रहे हों। 

रीता जैन की स्मृतियां पढ़ते हुए कई बार महादेवी वर्मा याद आईं। महादेवी भी अपने परिजनों के शब्द-चित्र कहिए , रेखा-चित्र लिख गई हैं। स्मृतियां क्या है , समझिए कि रीता जैन की आत्म-कथा है। बस फ़र्क़ इतना सा ही है कि अपनी कथा रीता परिजनों के मार्फ़त कहती मिलती हैं। जहां आप पहुंचे छलांगे लगा कर / वहां मैं भी आया मगर धीरे-धीरे जैसी काव्य-पंक्तियां लिखने वाले हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक रामदरश मिश्र की आत्म-कथा अपने लोग की भी याद आती है , रीता जैन की स्मृतियां पढ़ते हुए। रामदरश मिश्र भी अपने लोग में अपनी बात कम , अपने लोगों की बात ज़्यादा करते हैं। अपने लोगों के मार्फ़त ही वह अपनी कथा भी कह जाते हैं। इसी तरह स्मृतियां में रीता जैन भी परिवारीजनों की बात कहते-कहते बहुत आहिस्ता से अपनी बात भी कह जाती हैं। यह आहिस्ता ही रीता जैन की स्मृतियां को ख़ास बना देता है। बताइए कि रीता जी को , अरुण नाम के लड़के से प्रेम भी होता है तो यह बात भी हम उन की सहेली के चिढ़ाने से जान पाते हैं। तब जब कि दोनों गहरे प्रेम में डूबे हुए हैं। लेखन में मर्यादा और गरिमा की ऐसी धज मैं ने दूसरी नहीं देखी। सामाजिक और पारिवारिक मर्यादा की यह इबारत स्मृतियां में बारंबार उपस्थित हैं। कोई अप्रिय बात भी बड़े निरापद और सर्द ढंग से ऐसे कह दी गई है , जैसे कुछ हुआ ही नहीं। संकोच और शिष्टता की सिलवटें भी स्मृतियां की शिनाख़्त हैं। थाती हैं। स्मृतियां पढ़ते हुए मशहूर अंगरेजी लेखक खुशवंत सिंह की आत्मकथा सच , प्यार और थोड़ी सी शरारत की भी याद आई। याद इस लिए आई कि जो थोड़ी बहुत आत्मकथाएं मैं ने पढ़ी हैं , उन में सब से रोमांचक और ईमानदार आत्मकथा खुशवंत सिंह की ही है। रीता जैन की स्मृतियों की इस नदी की बड़ी ख़ासियत है कि वह जो भी कुछ लिखती हैं , पूरी ईमानदारी से लिखती हैं। कोई घालमेल , कोई मिलावट , कोई झूठ नहीं। कबीर की तरह सब कुछ जस का तस रख देती हैं। जस की तस धर दीनी चदरिया ! चंद्रकिरन सोनरिक्सा की आत्मकथा पिंजरे की मैना जैसा खरापन भी रीता जैन की स्मृतियां में बांचा जा सकता है। अविकल , अविराम। 

लेकिन जब एक पहाड़ सा दुःख रीता जैन पर टूटता है , बेटा मोनू [ विश्रुत ] जब अचानक दुनिया छोड़ जाता है , वह दहल जाती हैं। टूट-टूट जाती हैं। बिखर-बिखर जाती हैं। स्मृतियां में इस पहाड़ से भी विकट दुःख का बिरवा अक्षर-अक्षर में धड़कता मिलता है। लेकिन बेटे का यह विराट दुःख रीता जैन को एक ऐसा काम दे जाता है जो उन की ज़िंदगी का एकमात्र ध्येय बन जाता है। बेसहारा , गरीब लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई और उन की ज़िंदगी को संवारने का काम बिरलों को ही नसीब होता है। रीता जैन को नसीब हुआ है , अपने बेटे के कारण। यह बहुत बड़ी बात है। माता-पिता की सेवा के लिए श्रवण कुमार के क़िस्से हम ने बहुत पढ़े और सुने हैं। अब आगे से बेटे के लिए जीने वाले , माता-पिता का जब भी नाम लिया जाएगा , रीता जैन और अरुण कुमार जैन का नाम सर्वदा लिया जाएगा। बेटे के लोक कल्याण के लिए शुरू किए गए काम को और आगे बढ़ाने के लिए , बल्कि इसी काम को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लेने वालों में बिरले हैं रीता जैन और अरुण कुमार जैन। अरुण कुमार जैन जैसे पति और पिता भी बिरले होते हैं। रीता जैन इस मामले में सौभाग्यशाली हैं। 

उम्मीद करता हूं रीता जैन की स्मृतियों की नदी कभी थमेगी नहीं। मंथर-मंथर , कल-कल करती हुई सर्वदा बहती रहेगी। तब तक जब तक वह सागर से न मिल जाए। बहती रहेगी यादों की नदी इन कागज़ों में। हमारे मन में। कुलांचे मारती हुई। मोनू [ विश्रुत ] देखेगा जब अपने नए महल से यह सब तो कितना तो ख़ुश होगा कि ऐसे माता-पिता तो सिर्फ़ अकेले मेरे हैं। किसी और को कहां नसीब होंगे , ऐसे माता-पिता। रीता जैन अकेली ऐसी मां हैं जो अपने बेटे के विदा होने पर मीरा की तरह झूम कर गाती हैं : छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइ के ! बेटे के उपयोग में आने वाले सभी सामान का संग्रहालय बना कर रखना भी एक नदी है , प्रेम नदी ! भागीरथ की तरह गंगा लाना ही है , बेटे के शुरू किए लोक कल्याण के काम को और आगे , और आगे ले जाना।  जननी सर्वदा जग से जंग जीतने वाली होती है। और जो वह जननी रीता जैन नाम की हो तो क्या कहने ! तिस पर अरुण कुमार जैन जैसा सुलझा और सशक्त पिता भी साथ हो तो सोने पर सुहागा !

स्मृतियां के लिए ढेर सारी शुभकामना और अशेष मंगलकामना ! रीता जैन की स्मृतियों की सरिता कभी न रीते।  लहर-लहर सर्वदा हिलोरें मारती रहे। 


[ स्मृतियां की भूमिका ]


स्मृतियां 

लेखिका : रीता जैन 

योगदान राशि : 251 

प्रकाशक : विश्रुत मेमोरियल चैरिटेबल ट्रस्ट 

सत्या हॉस्पिटल 

विश्वास खंड -3 , गोमती नगर , लखनऊ - 226010 






Tuesday, 27 June 2023

वह रेडियो , वह काव्य-पाठ अब अगर मिल भी जाए तो क्या है !

दयानंद पांडेय 

प्रधान मंत्री चाहे जितने रेडियो केंद्रों का उदघाटन करें , करते ही रहते हैं जब-तब। पर घरों से तो टी वी ने रेडियो को विदा ही कर दिया है। बाज़ार में भी रेडियो ख़रीदने निकलिए तो छक्के छूट जाएंगे। लेकिन मिलेगा नहीं। घर में रख कर बजाने वाला रेडियो। भूले-भटके कहीं कोई छोटा-मोटा रेडियो मिल भी जाए तो सौभाग्य समझिए। हां , पुराना रेडियो ख़राब हो गया हो तो उसे बनवाना तो भूल ही जाइए। मेरे पास कई ख़राब रेडियो हैं। बहुत खोजा पर कहीं कोई मेकेनिक नहीं मिला , कहीं। ऐसे में रेडियो केंद्र खोलने और रेडियो पर मन की बात कहने का प्रधान मंत्री का मसला बिलकुल अलहदा है। मन की बात भी रेडियो की जगह टी वी पर ही लोग सुनते हैं। यह तो हुई एक बात। 

दूसरी बात यह है कि रेडियो मैं अमूमन तभी सुनता हूं जब कार में होता हूं। बिना रेडियो के कार ड्राइव करना मेरे लिए कठिन होता है। दिक्कत यह है कि कार वाली रेडियो भी इन दिनों कभी बज जाती है , कभी विश्राम ले लेती है। जब मन बज जाए , जब मन बंद। सोनी का रेडियो है। बहुत खोजते-खाजते लखनऊ में सोनी रेडियो का एक वर्कशाप मिला। पर वहां के निकम्मे कर्मचारी कहने लगे कि रेडियो खुलवा कर लाइए। हफ़्ते-दस दिन छोड़ जाइए। देख लिया जाएगा कि बन सकता है कि नहीं। वहां उपस्थित मेकैनिक , मैनेजर , इंजीनियर , चपरासी सभी की हिंदी में ऐसी-तैसी की। कहा कि तुम लोग बोझ हो सोनी कंपनी पर। खा जाओगे , कंपनी को। ऊंचे स्वर में भी यह सब कहा। पर किसी को घंटा फ़र्क़ नहीं पड़ा। मतलब ड्राइविंग के साथ रेडियो का आनंद लेने के लिए अब नई रेडियो ख़रीदना ज़रूरी जान पड़ता है। कार वाली रेडियो तो मिल भी जाएगी पर घर में सुनने के लिए रेडियो कहां से लाऊं ? बहुत खोजा तो फिलिप्स का एक छोटा रेडियो किसी तरह मिला। पर उस से कुछ सुन पाना कठिन ही है। तो गाने भी अब टी वी पर यू ट्यूब लगा कर सुनना हो पाता हूं। इस नाते ज़्यादातर समय टी वी रेडियो में कनवर्ट रहता है। 

लेखन के शुरू के काल में आकाशवाणी के लिए कुछ नाटक लिखे थे। ग़लती हुई कि उन नाटकों को संभाल कर नहीं रख सका। यही हाल बहुत सी कविताओं , कहानियों , लेखों के साथ भी हुआ। तब लगा कि रेडियो वाले तो संभाल कर रखेंगे ही। रेडियो से नाटक प्रसारित हो गया है तो अब अमर हो गया। हमेशा के लिए सुरक्षित। यही हाल तमाम पत्रिकाओं और अख़बारों में छपी रचनाओं के साथ भी हुआ। वह रचनाएं अब न किसी आकाशवाणी में हैं , न किसी पत्रिका , अख़बार में छपी रचना प्राप्य हैं। हुआ यह कि जब गोरखपुर से दिल्ली गया तो कई प्रकाशकों से साबक़ा पड़ा। कुछ उपन्यास , कहानी-संग्रह  छपे। तो लगा कि रेडियो नाटकों की किताब भी क्यों न छपवा लूं। एक प्रकाशक से बात हुई तो वह तैयार भी हो गए। एक बार गोरखपुर गया तो गया आकाशवाणी केंद्र भी। अपने नाटकों की तलाश में। कई लोगों से बात की। सब ने एक सुर से एक ही बात की। बताया कि न रिकार्डिंग मिल पाएगी , न स्क्रिप्ट। रिकार्डिंग रेज हो चुकी है। स्क्रिप्ट रखने की परंपरा ही नहीं है। यह सब सुन कर दिल धक्क से रह गया। 

बाद के समय में कुछ महत्वपूर्ण कवियों यथा निराला , पंत , महादेवी , दिनकर , बच्चन आदि के काव्य-पाठ की रिकार्डिंग की तलाश भी बहुत की विभिन्न आकशवाणी केंद्रों पर। रेडियो के बड़े-बड़े अफ़सरों से बात की। लखनऊ , गोरखपुर , दिल्ली तक। किसी कवि की कोई रिकार्डिंग कहीं मिली नहीं। बारी-बारी सब ने हाथ खड़े कर दिए। ऐसे ही भोजपुरी में एक अमर गायक हुए हैं मोहम्मद खलील। उन के गाने भी आकशवाणी या दूरदर्शन पर खोजना बहुत कठिन है। भोलानाथ गहमरी के लिखे और मोहम्मद खलील के गाए एक गीत को याद करते हुए जो कहूं तो मन में ढूंढलीं , जन में ढूंढलीं , ढूंढलीं बीच बजारे , कौन खोंतवा में लुकइलू , आहि हो बालम चिरई ! तो मोहम्मद खलील को भी इस उस आकाशवाणी में खोजा। नहीं मिले। एक बार प्रयाग गया तो कवि मित्र कैलाश गौतम से भेंट हुई। उन से ज़िक्र किया। वह उन दिनों आकाशवाणी में थे। वह बोले , कुछ करता हूं। हैं , कुछ गीत मेरे पास। तलाश करता हूं। गो कि उन्हों ने स्पष्ट कहा कि आकशवाणी की रिकार्डिंग को बाहर करना नियमत : ठीक नहीं है। पर उन्हों ने कहा कि , ' रजा कुछ करब ! और भेजब , लखनऊ। ' 

गाज़ीपुर के हमारे अनुज योगेश विक्रांत अब तो मुंबई में रहते हैं। फ़िल्म-धारावाहिक लिखते हैं। पर तब प्रयाग में ही रहते थे। पत्रकार थे तब। उन्हों ने जिम्मा लिया। और कैलाश गौतम के सौजन्य से मोहम्मद खलील के कुछ गीत रिकार्ड कर एक कैसेट में लखनऊ मेरे पास भेजा। बहुत आनंद लिया हम ने मोहम्मद खलील के गए गीतों का। अब भी सुनता रहता हूं। पर तब जब कैसेट अचानक विदा होने लगे। रेडियो ही नहीं , टेप रिकार्डर भी विदा होने लगे। तो लखनऊ के अमीनाबाद में गोमती एजेंसी से कैसेट पर उपलब्ध मोहम्मद खलील के उन गीतों को , कुछ कवियों के काव्यपाठ भी सी डी में , फिर डी वी डी में कनवर्ट करवा कर सुरक्षित किया। बाद में योगेश विक्रांत जब मुंबई गए और अपने पांव जमा लिए तो मोहम्मद खलील के गीतों को यू ट्यूब पर डाल दिया। मोहम्मद खलील के गाए गीत अब , जब मन तब सुनना आसान हो गया है। पर कवियों की कविताएं सुनना अब भी कठिन ही नहीं , असंभव सा है। वह कहते हैं न हरि अनंत , हरि कथा अनंता ! तो ऐसे अनंत क़िस्से हमारे पास उपस्थित हैं। क्या-क्या लिखूं , क्या न लिखूं ? 

ख़ैर , आज का दिन बहुत अच्छा गुज़रा। कार ड्राइव करते समय संगीतकार नौशाद का एक बहुत पुराना इंटरव्यू और अभिनेत्री नरगिस द्वारा प्रस्तुत जयमाला कार्यक्रम सुनने को मिल गया। मन आनंद से भीग गया। तो क्या फ़िल्मी गीत-संगीत ही या शास्त्रीय संगीत की ही दरकार है हमारी सरकारी या निजी संस्थाओं को , साहित्य की नहीं। साहित्य के बिना कोई संगीत जीवित रहा है ? रहा भी है तो कितने दिन ? संगीत के एक लेखक हैं मुन्ना लाल। बहुत पहले बहुवचन में छपा उन का एक लेख , संगीत में विचार की याद आ रही है। 

Monday, 26 June 2023

जो कुछ भी दयानंद का लिखा है, विशुद्ध उसका अपना और निपट देसी है : अरविंद कुमार

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , नई दिल्ली में अरविंद जी पर बनी फ़िल्म के एक पोस्टर के साथ 

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , नई दिल्ली में अरविंद जी पर बनी फ़िल्म के
एक पोस्टर के साथ। साथ में अरविंद जी की बेटी मीता लाल। 


20 नवंबर , 2017 को एक मेल से यह लेख अरविंद कुमार ने मुझे भेजा था। हालां कि मेरे कुछ उपन्यासों की समीक्षा इंडिया टुडे में लिख चुके थे। पर वह एक बड़ा लेख लिखना चाहते थे। अलग बात है कि वह इतने सारे काम में व्यस्त थे सो बड़ा लेख लिख नहीं पाए। लेख मुझ पर ही लिखा था सो मैं चुप ही रहा। वह बहुत दिनों से मेरी रचनाओं पर लिखना चाहते थे। इस की चर्चा फ़ोन पर भी करते थे। मेल में भी। यह लेख ‘अक्षर पर्व’ या कहीं और छपा या नहीं , मैं नहीं जानता। फ़िलहाल सरोकारनामा में आज इसे प्रकाशित कर रहा हूं। अरविंद जी अब इस दुनिया में भले नहीं हैं , पर हमारे दिल में सर्वदा उपस्थित रहेंगे। हिंदी की हर धड़कन में हैं। 




प्रिय दयानंद, रोज़ तुम्हेँ ले कर बैठता हूँ, आगे न बढ़ पाने पर कुछ और करने बैठ जाता हूँ. आज सुबह यह नई शुरूआत हुई है. प्रण कर के बैठा हूँ कि इसे आगे बढ़ाता ही रहूँगा.

इसे पहला ड्राफ़्ट समझ कर पढ़ना, जहाँ कहीँ भूल हो सुधार देना. मैँ ने रिवाइज़ भी नहीँ किया है. ग़लतियाँ होँगी. सुझावोँ का भी स्वागत है. मैँ यह ‘अक्षर पर्व’ पत्रिका मेँ भेजना चाहता हूँ. देखते हैँ उस की नई संपादक क्या कहती हैँ. उन से नई जानपहचान हुई है. कहीँ और भिजवाना चाहो तो वह भी लिखना.

अरविंद


 “जब एक दल के बहुमत की सरकारें बहुत ताक़तवर हो जाती हैं तो उन के निरंकुश होने के ख़तरे भी बहुत बढ़ जाते हैं.” --दयानंद के उपन्यास अपने अपने युद्ध से.


दयानंद पांडेय मेरे प्रिय लेखकोँ मेँ से हैँ. इसलिए नहीँ कि ‘सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट’ मेँ वह मेरे साथ थे. तब तक वे इधर उधर छिटपुट रचनाएँ लिखते थे. चर्चित कथाकार और उपन्यासकार दयानंद भविष्य के गर्भ मेँ था. रवानीदार गद्य तब भी उन की पहचान था जो कभी काटता धारदार व्यंग्य तो कभी प्रेमरस से सराबोर काव्य हो जाता है. क़िस्सागोई उनका forte हिंदी मेँ कहेँ तो गढ़, या strong point या विशिष्ट गुण है. वह इंग्लिश कम जानते हैं. इस का लाभ यह है कि साहित्य और कलाओँ के उन विदेशी आंदोलनोँ से उनका लिखा कोसोँ दूर होना जिन से बीसवीँ सदी का तीन चौथाई खंड आक्रांत या प्रभावित रहा है और धीरे लोकमानस से कटता गया है. 

वह किसी राजनीतिक पक्ष विपक्ष के हामी नहीँ हैँ. जब जो अच्छा या सही लगता है वही लिखते हैँ और उन की रचनाओँ प्रकट होता रहता है. फ़ील्ड पत्रकार यानी रिपोर्टर के रूप मेँ बड़े से बड़े नेताओँ से उन का साबक़ा पड़ा, उन्हेँ नज़दीक़ से देखा परखा, सराहा या ठुकराया, लेकिन न किसी से कुछ माँगा, न किसी से कुछ लिया. हाँ, उन की परतेँ उघाड़ने मेँ कोताही नहीँ बरती.

जो कुछ भी दयानंद का लिखा है, विशुद्ध उसका अपना और निपट देसी है. किसी भी तरह के विलायती प्रभाव या वाद से अछूतापन. उस के लिखे मेँ कुछ अनोखा है, कुछ अप्रत्याशित. विलायती ही नहीं, वह किसी भी तरह के हिंदी साहित्य के किसी वाद से भी असंपृक्त है. न प्रगतिशील है, न कला कला के लिए वादी. न माडर्न न पोस्टमाडर्न. जो जैसा उस के मन को लगा, वैसा उस ने रवानीदार भाषा मेँ उतार दिया. इस उतार देने को सशक्त बनाती है उस की क़िस्से कहानियाँ बुनने की कला. और उन क़िस्सोँ मेँ कल्पित पात्रों के साथ साथ सच्चे जीवित पात्रों का समावेश.

रामायण महाभारत के चर्वित चर्वण से बने तथाकथित दिग्गज लेखकोँ से कई गुना पाठक उन की झोली मेँ हैँ जो उन्हेँ किताबोँ मेँ तो पढ़ते ही हैँ, उन की वैबसाइट ‘सरोकारनामा’ पर भी, जिस की फ़ालोअरशिप सात लाख पार कर गई है. हर जगह जो अनाचार है, जो भ्रष्टता है, चाहे नेताओँ की, या पत्रकारोँ की, या चिकित्सा की, उस की बखिया उधेड़ना उन के निजी युद्ध का प्रमुख अंग है. 

‘अपने अपने युद्ध’ नामक उपन्यास से वह चर्चा में आए, और उन के युद्ध अभी समाप्त नहीं हुए हैं. ‘अपने अपने युद्ध’ की कथा का आधार है नेशनल स्कूल आफ़ ड्रामा जैसे किसी संस्थान मेँ कुछ छात्रोँ की आत्महत्या पर तहक़ीक़ात की रपट. कल्पित पात्रों के बीच हम मिलते हैँ देवेंद्र राज अंकुर, हेमा, वागीश सिंह, अजय, अलका, बी.एम. शाह, वानी शरद, कारंत, अल्काज़ी आदि एन.एस.डी. (राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली) से जुड़े और कई लोग. परिणाम यह होता है कि पाठक को लगता है कि वह घटित सत्य पढ़ रहा है. यूँ दयानंद की हर रचना जीवन का घटित सत्य ही है.

‘अपने अपने युद्ध’ का मुख्य केंद्र है प्रिंट मीडिया, प्रसंगवश थिएटर, दहेज, मनुवाद, गांधी, लोहिया और रजनीश, तथा पुरुष-स्त्री सैक्स और न्यायपालिका जैसे विषय उस मेँ आना स्वाभाविक ही था. हर विषय पर दोटूक साफ़गोई दयानंद को अकसर संकट मेँ डाल देती है. भारतीय अदालतोँ की विभीषिका के मुझ जैसे गवाह कम नहीँ हैँ. पिछले दिनोँ कन्हैया कुमार जैसे मामलोँ मेँ हाई कोर्टों की काररवाई टीवी पर देखने को मिलती रही है. दयानंद पर इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में ‘अपने अपने युद्ध’ को ले कर अदालत की अवमानना का निराधार मामला भी दर्ज़ किया गया जो साबित नहीँ किया जा सका. 

उपन्यास मेँ कोई भी पुरुष-स्त्री सैक्स प्रसंग अश्लील नहीँ था. संदर्भवश मैँ सच्ची अश्लीलता का एक उदाहरण बयान करना चाहता हूँ इंग्लिश मेँ लिखने वाले तथाकथित महान लेखक अमिताव घोष के अनेक पुरस्कार विजेता उपन्यास ‘द सी आफ़ पौपीज़’ से. ग़ाज़ीपुर. सन 1839 से कुछ पहले. गाँव के बिगड़ैल और अत्याचारी ज़मीँदार. उन के ग़ुलाम जैसा लहीमशहीम कलुआ. बहुत लंबा है. ज़मीँदार के लौंडे उसे मज़बूर करते हैँ ठिंगनी घोड़ी का बलात्कार करने को. इस क्रिया का ग्राफ़िक वर्णन. इस के कुछ पहले उसी उपन्यास मेँ नायिका दिति का विवाह सीँकिया पहलवान नपुंसक व्यक्ति से करा दिया जाता है. उस की सास को उस से बच्चा चाहिए ही. एक रिश्तेदार से उस पर बलात्कार कराने की कोशिशेँ और अंत मेँ वह दुष्कर्म भी पूरे ब्योरे से लिखा गया है. ऐसी अनेक घटनाएँ तब दिखाई जाती हैँ जब महान लेखक को लगता है कि कुछ रोचक मसाला डालना चाहिए. सच तो यह है कि पिछले पचास साठ सालोँ से बिकाऊ इंग्लिश उपन्यासोँ का बनेबनाए फ़ारमूला का अंग बन गए हैँ इस तरह के कभी अप्राकृतिक कभी अवैध यौन व्यापारोँ के उत्तेजक वर्णन.

दयानंद की बस एक दो कृतियोँ की बात करके मैँ अपने प्रिय उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीँ’ की बात कर के यह लेख ख़त्म करूँगा.

‘वे जो हारे हुए’ समाज और राजनीति की सड़ाँध के विरोध की महागाथा है. इस मेँ प्रदर्शित हैँ -  अस्पतालोँ मेँ फैला भ्रष्टाचार, मंदिरोँ मेँ कुत्सित महंत, गाँव गाँव विष घोलती हिंदु युवा वाहिनी, पतनशील राजनीति, नेताओँ को ख़रीदते उद्योगपति, उन का साथ देने को उत्सुक बिकाऊ मीडिया. इस के साथ ही, इस के बरक्स, है नए समाज के उदय की आकांक्षा. पढ़ कर मन कहता है ‘वह सुबह कभी तो आएगी जब दुख के बादल पिघलेंगे जब सुख का सागर झलकेगा’.

दयानंद ने पत्रकारिता को भीतर से देखा है, परखा है और भोगा है. बारबार वह इस ढोल की पोल खोलता है. अजीब से और विषय से पूरी तरह असंबद्ध लगने वाले नाम ‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ दयानंद ने लिखा है “‘हारमोनियम के हज़ार टुकड़े’ मतलब थके हारे मीडियाजनों के पराजित मन के असंख्य टुकड़े.”  कथानक है ऐतिहासिक महत्व के दो अख़बारोँ का व्यावसायीकरण के  भयानक दौर मेँ जब चौहान जैसे थके हारे कर्मी गाना चाहते हैं, ‘हम होंगे कामयाब!’ तो उन का हारमोनियम तोड़ दिया जाता है. उपन्यास पराजित मीडिया मेँ काम करने वाले पत्रकारोँ का संत्रास उभार कर दिखाता है. मकड़जाल मेँ फँसे बेबस से सूर्य प्रताप सिंह जैसे ईमानदार और ऊर्जावान पत्रकार को धीरे धीरे दलाल बनते हमेँ झकझोरता है. मनमोहन कमल, सरोज और भैया जैसे दलाल और भडुवे पत्रकारोँ की शानशौकत जुगुप्सा और नफ़रत पैदा करती है. अजबगजब चरित्र हैँ - लड़कियों से लाइनबाजी करने वाले वृद्ध सुरेंद्र मोहन तल्ख हैं तो उन के साथ हैँ वेश्यावृत्ति के शौकीन ग़लीज़ सुजान पुरिया भी. 

दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ. हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए. वर्ष 1978 से पत्रकारिता. उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 36 पुस्तकें प्रकाशित हैं. लोककवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान.

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दयानंद की तमाम रचनाओँ मेँ मुझे सब से ज़्यादा पसंद है ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ –  स्वतःस्फूर्त भोलेभाले भोजपुरिया कवि-गायक की सच्ची और आँखोँ-देखी जीवन गाथा. जैसे वाल्मीकि रामायण मेँ उपस्थित हैँ उसी तरह पत्रकार-लेखक अपने मित्र की कथा मेँ वर्तमान है. जहाँ रामायण बुराई पर अच्छाई की जीत की कहानी है, लोककवि अच्छाई पर बुराई की कथा है. लेखक मोहना की रग़ रग़ पहचानता है, लगता है कि वह उस की सखी धाना को भी जानता रहा है. दोनोँ के उभरते प्रेम का जो काव्यात्मक कोमलकांत वर्णन उस ने किया है, वह दुर्लभ है. वह उस परिवेश को भी अच्छी तरह जानता समझता और बयान करता है जिस मेँ मोहना और धाना मिल नहीँ सकते. किस तरह मोहना की पिटाई होनी ही है यह भी उसे पता है और किस तरह धाना पराई हो गई यह भी मानोँ उस ने अपनी आँखोँ देखा है. वह यह बताने मेँ समर्थ है कि किस तरह एक नेता उसे शहर ले आता है और गाँव से बिछड़े मोहना को चुनाव के मंचोँ पर जो लोकप्रियता मिलती है, उसी मेँ उस के पतन का बीज गहरे जमा है. उस के गीतोँ मेँ जो खांटी भोजपुर था, धीरे धीरे वह बिलाता चला गया. क्योँ? गीतोँ की अपील अखिल भारतीय करने के लिए! बढ़ती लोकप्रियता ने अहंकार को जन्म दिया, कई तरह के लालच दिए – और अधिक प्रशंसा का, मंच पर जाने के लिए और अधिक पारिश्रमिक का, लोकप्रियता भुनाने के लिए मंडली बनाने का, मंडली मेँ गायिकाओँ के समावेश का, लिप्सा ने जन्म दिया पुरस्कारोँ का, सम्मानोँ का, उन के लिए तरह तरह की जुगत भिड़ाने का. महिलाओँ के समावेश ने यौन लिप्सा को बढ़ाया, शराबख़ोरी को बढ़ाया. और फिर जब एक बार फिर धाना से मुलाक़ात हो गई तो उस का, उस के पति का साथ ही उस के परिवार बोझ सँभालने का दायित्व, अपने निजी परिवार से निपटने का झमेला... देर रात तक महफ़िलेँ, देर दिन चढ़े तक सोने का.

यह सब दयानंद ने बड़ी आसानी से सँभाला है. वह लिखते हैँ, “एक समय ऐसा आया जब मंडली की लड़कियाँ जब सुस्तातीँ तो लोक कवि को गा लेने का मौका मिलता.” तभी लोक कवि समझ पाए कि वह क्या से क्या हुए और क्या रह गए हैँ.

अंत मेँ –

यूँ तो दयानंद पांडे की सभी रचनाएँ उन्हीँ से प्रेरित हैँ जिन्हेँ वह जानते रहे हैँ या जिन जैसोँ से उन का साबक़ा पड़ा है. लोक कवि उपन्यास उन के निजी मित्र बालेश्वर के जीवन से प्रेरित है, जिस मेँ उन्होँ ने भोजपुरिया ग्रामांचल मेँ अपने देखे लोगोँ की अनेक उपकथाएँ जोड़ कर चौथा आयाम जोड़ दिया है.


अरविंद कुमार...


[ अरविंद कुमार माधुरी और सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक रहे 

अरविंद कुमार थिसारस के लिए जाने जाते हैं। ]


दिल्ली में सहज समांतर कोश के विमोचन के समय अरविंद जी के साथ 

अरविंद जी को जब हिंदी अकादमी , दिल्ली ने शलाका सम्मान दिया , तब उन के साथ 



Thursday, 22 June 2023

जहां कहीं भी नफ़रत के बीज बोते लोग दिखें उन्हें संगीत की संगत में बुला लेना चाहिए , वह प्यार की भाषा बोलने लगेंगे

दयानंद पांडेय

एक गीत और संगीत ही ऐसा तत्व है जो किसी को कभी तोड़ता नहीं , सिर्फ़ और सिर्फ़ जोड़ता है। तो इस लिए कि संगीत में सिर्फ़ एक ही विचार होता है । जोड़ने का विचार । भारतीय वांग्मय में माना जाता है कि शिव और सरस्वती की आराधना से ही संगीत की शुरुआत हुई है । यह दोनों ही जोड़ना जानते हैं , घटाना नहीं । कहा ही गया है , सत्य ही शिव है , शिव ही सुंदर है । सत्यम , शिवम , सुंदरम । यही तो है संगीत । सरगम यही तो है । कालिदास, तानसेन, अमीर खुसरो आदि ने इसे नया रंग दिया। पंडित रवि शंकर, भीमसेन गुरूराज जोशी, पंडित जसराज, प्रभा अत्रे, सुल्तान खान ने इसे नई शान दी । बहुत मशहूर है एक गीत , का करूं सजनी आए न बालम ! सुनिए इसे कभी एक साथ बड़े गुलाम अली खां की आवाज़ और बिस्मिल्ला खां की शहनाई में इसे । भूल जाएंगे सारे रंजो गम । गा कर पढ़िए न गीत गोविंदम , भूल जाएंगे सारे भटकाव । जाइए न कभी काशी के संकटमोचन मंदिर में आयोजित संगीत सभा में , हिंदू - मुसलमान का भेद भूल जाएंगे । रविशंकर के सितार , बिस्मिल्ला की शहनाई , हरिप्रसाद चौरसिया की बांसुरी , शिव कुमार शर्मा का संतूर , किशन महराज का तबला , गिरिजा देवी का गायन , छन्नू लाल मिश्र की स्वर-लहरी , गुलाम अली की तान आप को अपने सुख की गोद में सुला लेगी ।

शकील बदायूनी और साहिर लुधियानवी ने हिंदी फिल्मों के लिए अधिकतर भजन लिखे हैं , नौशाद ने इन भजनों को संगीत दिया है , मुहम्मद रफ़ी ने गाया और दिलीप कुमार , मीना कुमारी पर फिल्माया गया है। इस की कोई और मिसाल नहीं है । अमीर खुसरो और कबीर ने जितने निर्गुण लिखे हैं उन का कोई सानी नहीं है । आज भी भक्ति संगीत के यह सिरमौर हैं । आप सुनिए न कभी दमा दम मस्त कलंदर, सखी शाबाज़ कलंदर । भूल जाएंगे कौन गा रहा है , किस ने लिखा है । मन्ना डे जब कौव्वाली गाते थे तो कोई उन को हिंदू या बंगाली कह कर ख़ारिज नहीं करता।

लता मंगेशकर कोंकणी भाषा की हैं , उन की मातृभाषा कोंकणी ही है लेकिन जब वह किसी भी भारतीय भाषा में गाती हैं तो कौन उन्हें अपनी भाषा का नहीं मानता । मराठी और हिंदी फ़िल्मों में गायन के लिए तो दुनिया भर में वह जानी जाती हैं । हिंदी भाषा की सब से बड़ी और अनकही अम्बेसडर हैं । पूरे भारत में एक सुर से सुनी जाती हैं । बिना किसी विरोध और मतभेद के । हमारी मातृभाषा भोजपुरी में भी कुछ गीत गाए हैं लता मंगेशकर ने । क्या खूब गाया है । लागे वाली बतिया न बोले मोरे राजा हो करेजा छुए ला ! सुन कर lलगता ही नहीं कि वह भोजपुरी की नहीं हैं । लता ही क्यों आशा भोसले , हेमलता और अलका याज्ञनिक ने भी भोजपुरी में कुछ गाने गाए हैं और इतना डूब कर गाए हैं कि कलेजा काढ़ लेती हैं ।

भोजपुरी लोकगीत गायकी के शिखर पर विराजमान इस समय चार स्त्रियां हैं , शारदा सिनहा , मालिनी अवस्थी , कल्पना और विजया भारती । लेकिन इन चारो ही की मातृभाषा भोजपुरी नहीं है । लेकिन इन की भोजपुरी गायकी लोगों के दिलों को जोड़ती हैं । माइकल जैक्सन अब नहीं हैं । लेकिन क्या डूब कर गाते थे । मुझे अंगरेजी बहुत समझ में नहीं आती । लेकिन माइकल जैक्सन का गाया समझ में आता है । इस लिए कि उन का संगीत भी दिल जोड़ता है । एक कोल्ड ड्रिंक के विज्ञापन में माइकल जैक्सन ऐसे गाते थे गोया संस्कृत के श्लोक पढ़ रहे हों , वेद की कोई ऋचा पढ़ रहे हों । मेरा तो स्पष्ट मानना है कि जब भी , जहां कहीं भी नफ़रत के बीज बोते लोग दिखें उन्हें संगीत की संगत में बुला लेना चाहिए । वह प्यार की भाषा बोलने लगेंगे । एक बार आज़मा कर तो देखिए । एक बार आंख खोल कर देखिए तो सही , देखेंगे तो पाएंगे कि दुनिया के सारे लोग कोई और भाषा समझें , नहीं समझें लेकिन संगीत ही एक भाषा है जिसे सारी दुनिया चुपचाप समझती है । दिल से समझती है , समझ कर संतोष और सुकून के दरिया में गहरे डूब जाती है । तो इस लिए भी कि गीत-संगीत तपस्या है , राजनीतिक या वैचारिक लफ्फाजी नहीं ,, बड़ी मुश्किल से नसीब होती है ।

Wednesday, 21 June 2023

नेहरू ही नहीं , इंदिरा गांधी भी योग प्रेमी थीं जिन्हें धीरेंद्र ब्रह्मचारी योग सिखाते थे


इंदिरा गांधी और धीरेंद्र ब्रह्मचारी 

दयानंद पांडेय 

भाजपाई लाख तंज कसें पर यह तो सही है कि पंडित नेहरू योग करते थे और कि नेहरू का शीर्षासन उन के समय में भी चर्चित था। लेकिन कांग्रेसियों ने आज जिस तरह प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू के योग प्रेम और उन के शीर्षासन का बखान किया उस में इंदिरा गांधी का नाम लेना क्यों भूल गए ? सच यह है कि पूर्व प्रधानमंत्री और पंडित नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी भी योग करती थीं। धीरेंद्र ब्रह्मचारी इंदिरा जी को योग सिखाते थे। 

कैथरीन फ़्रैंक इंदिरा गांधी की जीवनी में लिखती हैं, "ब्रह्मचारी ने सबसे पहले नेहरू को योग सिखाना शुरू किया। कुछ ही दिनों में दूसरे कई राजनेता जैसे लाल बहादुर शास्त्री, जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और डाक्टर राजेंद्र प्रसाद भी उनके अनुयायी बन गए थे। ' कैथरीन फ़्रैंक लिखती हैं, "ब्रह्मचारी अकेले पुरुष थे जो योग सिखाने के बहाने इंदिरा गांधी के कमरे में अकेले जा सकते थे। धीरे-धीरे इंदिरा गांधी के साथ नज़दीकी के कारण उन्हें भारत का रासपुतिन कहा जाने लगा था। " इंदिरा जी को ही नहीं बल्कि दूरदर्शन के मार्फ़त धीरेंद्र ब्रह्मचारी पूरे देश को रोज योग सिखाते थे। धीरेंद्र ब्रह्मचारी का जलवा उन दिनों देखने के लायक़ था। अडानी से ज़्यादा चर्चा तब के दिनों धीरेंद्र ब्रह्मचारी की हुआ करती थी। धीरेंद्र ब्रह्मचारी को दिल्ली के जंतर-मंतर पर सरकारी बंगला भी आवंटित किया गया था। धीरेंद्र ब्रह्मचारी के पास अपना जहाज था जिसे बिना कस्टम ड्यूटी दिए उन्हों ने ख़रीदा था। बिहार में मधुबनी के धीरेंद्र चौधरी ने लखनऊ में योग सीखा और वह धीरेंद्र ब्रह्मचारी बन गए। रामदेव को क्या सुविधा मिली है। सुविधा और संपन्नता तो धीरेंद्र ब्रह्मचारी को मिली थी। सत्ता में पैठ ऐसी थी कि इंद्र कुमार गुजराल और उमाशंकर दीक्षित जैसों की वह मंत्री पद से छुट्टी करवा देते थे। संजय गांधी के भी बहुत करीब थे , धीरेंद्र ब्रह्मचारी। संयोग ही था कि संजय गांधी की तरह अपने विमान में ही वह दुर्घटना में मारे गए। उस समय वह अपने आश्रम के लिए सौ एकड़ ज़मीन का हवाई सर्वेक्षण कर रहे थे। 

खैर , योग की शरण में रहने वाली कांग्रेस सोनिया की शरण में आ गई। बाद के दिनों में कांग्रेस राज के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने अचानक योग गुरू रामदेव को जिस छल-कपट के साथ अपमानित कर उन्हें गिरफ़्तार किया और उन्हें सलवारी बाबा बना दिया , वह भी ठीक नहीं था।

फिर तो ऐसे ही अनाचारों से आजिज भारतीय मतदाता ने मोदी सरकार बनवा दी। आगे के दिनों में मोदी विरोध के नशे में धुत्त कांग्रेस ने भारतीय अस्मिता के सभी चिन्ह का अपमान करना ही अपना मक़सद बना लिया है। भले नेस्तनाबूद हो जाए कांग्रेस पर मोदी विरोध के विष में आकंठ डूब कर ध्वस्त हो जाने का जैसे लक्ष्य ही बना बैठी है। मोदी द्वारा शुरू किए गए अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का मजाक बनाना और करना भी कांग्रेस का यही आत्मघाती क़दम है। योग का बुखार उतरते ही जाहिर है अमरीका से ख़रीदे जाने वाले ड्रोन का विरोध भी होना दूसरा क़दम होगा। तीसरा क़दम अमरीकी राष्ट्रपति वाइडेन द्वारा दिया जाने वाला भोज का विरोध और मज़ाक उड़ाना होगा।

अभी ट्वीटर के एक पूर्व सी ई ओ द्वारा मोदी सरकार पर हमलावर रही कांग्रेस आज वैसे भी ट्वीटर के मालिक द्वारा मैं भी मोदी का फैन हूं , कहने पर ही बेहोश हो कर , गश खा कर , अफना कर बता ही रही है कि मोदी ने ट्वीटर को ख़रीद लिया है। बताइए कि दुनिया के सब से अमीर आदमी एलन मस्क को भी मोदी ख़रीद लेता है। अदभुत है यह भी। गरज यह कि मोदी की अमरीका की यह राजकीय यात्रा कांग्रेस और विपक्ष की राय में दो कौड़ी की हो कर रहेगी। 

इंदिरा गांधी और धीरेंद्र ब्रह्मचारी