दयानंद पांडेय
बीते 9 जुलाई को जब साधना जी का निधन हुआ तभी समझ आ गया था कि अब मुलायम भी महाप्रस्थान की राह पर हैं और आज तीन महीने बाद वह भी उसी मेदांता अस्पताल से विदा हो गए। इस लिए भी कि वह परिवार में बहुत अकेले हो गए थे। आज उन का अकेलापन खत्म हो गया। उन का सन्नाटा टूट गया।
मुलायम हालां कि मुझ से तब बहुत नाराज़ हुए थे जब नब्बे के दशक में मैं ने लिखा था कि मुलायम सिंह यादव बिजली का ऐसा नंगा तार हैं जिन्हें दुश्मनी में छुइए तब तो मरना ही है। लेकिन दोस्ती में छुइए तब भी मरना है। तमाम-तमाम घटनाएं इस की साक्षी हैं। अपनी सत्ता साधने के लिए मुलायम कुछ भी कर सकते थे। चरखा दांव की ओट ले कर हर सही-ग़लत काम को अंजाम दे देते। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के बाद जब भाजपा ने मुलायम सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब राजीव गांधी ने मुलायम को कांग्रेस का समर्थन दे दिया। और मुलायम से कहा कि एक बार लखनऊ में औपचारिक रुप से नारायणदत्त तिवारी से मिल लें। सुबह-सुबह मुलायम गए नारायणदत्त तिवारी से मिलने उन के घर। खड़े-खड़े ही मिले और चलने लगे तो तिवारी जी ने हाथ जोड़ कर कहा , कम से कम दूध तो पी लीजिए। संयोग से उस दिन नागपंचमी थी। मुलायम तिवारी जी का तंज समझ गए और बोले , ' अब दूध विधानसभा में ही पिलाना ! ' राजीव गांधी के निर्देश पर तिवारी जी ने विधानसभा में कांग्रेस के समर्थन का दूध पिला दिया। अंतत: कांग्रेस उत्तर प्रदेश से साफ़ हो गई। आज तक साफ़ है। अपने गुरु चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह को भी इस के पहले साफ़ कर चुके थे। अपने मित्र सत्यप्रकाश मालवीय को भी बाद में साफ़ कर दिया। बलराम सिंह यादव एक समय कांग्रेस के बड़े नेता थे। इटावा से ही थे। वीरबहादुर सिंह उन दिनों मुख्यमंत्री थे। वीरबहादुर बलराम को निपटाने के लिए मुलायम सिंह यादव को प्रकारांतर से उन के समानांतर खड़ा कर देते थे। मुलायम ने उन्हें इतना छकाया कि वह मुलायम की पार्टी ज्वाइन कर बैठे। अंतत: एक दिन अपने ही रिवाल्वर से आत्महत्या कर बैठे। गोया दोस्त-दुश्मन हर किसी को मुलायम नाम का बिजली का नंगा तार करंट मारता गया। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। यह अलग बात है कि बेटा अखिलेश यादव , मुलायम के लिए नंगा तार बन कर उपस्थित हुआ। मुलायम को डस गया। बेटा औरंगज़ेब बन गया।
नाम मुलायम , काम कठोर से लगायत नाम मुलायम , गुंडई क़ायम तक की यात्रा से निकल कर मुलायम सिंह यादव ने एक उदार और मददगार नेता की अपनी छवि भी निर्मित की। मुलायम सिंह यादव में धैर्य , बर्दाश्त और उदारता आख़िर समय में इतनी आ गई थी कि अखिलेश से तमाम असहमति और मतभेद के बाद , शिवपाल और अमर सिंह के तमाम दबाव के बावजूद चुनाव आयोग में पार्टी की लड़ाई में सब कुछ किया पर शपथपत्र नहीं दिया।अगर शपथपत्र दे दिया होता तो साईकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। चुनाव सिर पर था। मायावती गेस्ट हाऊस कांड के समय वह धैर्य खोने का परिणाम वह भुगत चुके थे। कांग्रेस द्वारा सी बी आई का फंदा कसने पर वह निरंतर धैर्य बनाए रखे। परमाणु मसले पर कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा मनमोहन सरकार से समर्थन वापसी पर मुलायम ने समर्थन दे कर सरकार बचा ली। नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में वह निरंतर खर्च होते रहे ताकि लालू यादव की तरह जेल न काटनी पड़े। संसद में आशीर्वाद भी देते रहे। सोचिए कि उत्तर प्रदेश में छप्पन इंच के सीने की बात मोदी ने मुलायम को ही एड्रेस कर कही थी। पर आज मोदी ने भी मुलायम को दी गई श्रद्धांजलि में मुलायम के ख़ूब गुण गाए ।
एक बार अटल बिहारी वाजपेयी लखनऊ आए थे। राजभवन में ठहरे थे। मैं अटल जी का इंटरव्यू कर रहा था। अचानक मुलायम सिंह यादव आए। मुलायम ने झुक कर अटल जी के दोनों पांव छुए। अटल जी ने उठ कर उन्हें गले लगा लिया और पीठ ठोंक-ठोंक कर , आयुष्मान ! आयुष्मान ! का आशीष देते रहे। मुलायम चाय पी कर जल्दी ही चले गए तो मैं ने अटल जी से कहा कि जब मुलायम सिंह आप का इतना आदर करते हैं तो इन को क्यों नहीं कुछ समझाते हैं। उन दिनों मुलायम , मौलाना मुलायम , मुल्ला मुलायम के तौर पर बदबू मार रहे थे। अटल जी ने कहा , मुलायम सिंह जी की अपनी राजनीति है , हमारी अपनी। व्यक्तिगत संबंध अपनी जगह है। अटल जी बोलते-बोलते बोले , ' अभी कलम रख दीजिए। अभी जो कह रहा हूं , लिखने के लिए नहीं है। ' अटल जी कहने लगे , ' आज के दिन मुस्लिम समाज के पास अपना कोई नेता नहीं है। तो उन को कंधा देने के लिए मुलायम सिंह जैसे लोग बहुत ज़रुरी हैं। मुलायम सिंह जी , मुस्लिम समाज के लिए प्रेशर कुकर की सीटी हैं। उन का गुस्सा , उन का दुःख मुलायम सिंह जी जैसे लोग निकाल देते हैं। मुलायम सिंह जी जैसे लोग न हों तो प्रेशर कुकर फट जाएगा तो सोचिए क्या होगा ?
बहरहाल तमाम क़वायद के बावजूद यादववाद और मुस्लिम परस्ती के दाग़ को वह फिर भी कभी नहीं धो पाए। तीन ए और दो एस ने मिल कर धरती पुत्र कहे जाने वाले मुलायम की राजनीति को बदल कर उन की छवि को धूमिल भी किया। और उन्हें गगन विहारी बना दिया जाए। उन के जीवन की , उन के राजनीति की प्राथमिकताएं बदल दीं। तीन ए मतलब अमर सिंह , अंबानी और अमिताभ बच्चन। दो एस मतलब साधना गुप्ता और सुब्रत राय सहारा। साधना गुप्ता ने मुलायम से विवाह कर उन के निजी और पारिवारिक जीवन में भूचाल ला दिया था। अखिलेश यादव की मां मालती यादव के जीवित रहते ही मुलायम ने साधना को परिवार का हिस्सा बना लिया था। यह तो मालती यादव का बड़प्पन था कि उन्हों ने कभी मुलायम के ख़िलाफ़ अपने लब नहीं खोले। अलबत्ता इसी बिना पर अखिलेश यादव ने मुलायम को निरंतर ब्लैकमेल किया और 2012 में मुख्यमंत्री बने। आज सोचता हूं तो पाता हूं कि काश अमर सिंह मुलायम सिंह की ज़िंदगी में न आए होते तो मुलायम की राजनीति और व्यक्तित्व की अलग ही छटा होती। अमर सिंह ने मुलायम को अय्यास बना दिया। सामंती बना दिया। उन के चापलूस सलाहकारों ने उन्हें यादववादी बना दिया। मुस्लिम वोट बैंक की लालच ने उन्हें मुस्लिम परस्त बना दिया। राम विरोधी की छवि बन गई। गो कि वह हनुमान भक्त थे। और हनुमान भक्त , रामद्रोही कैसे हो सकता है भला !
अपने को लोहियावादी बताने वाले मुलायम सच्चे लोहियावादी नहीं थे। वास्तव में वह पहलवान थे। और पहलवान का एकमात्र ध्येय अगले को पटक कर विजेता बनना ही होता है। लोहियावाद और समाजवाद को वह अपना कुण्डल और कवच बना कर रखते थे। इस से अधिक कुछ और नहीं। हां , लालू प्रसाद यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह न होते तो मुलायम सिंह प्रधानमंत्री ज़रुर बने होते। विश्वनाथ प्रताप सिंह की चली होती तो मुलायम का इनकाउंटर करवा दिए होते। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब मुलायम के इनकाउंटर के लिए पुलिस को आदेश दे चुके थे। मुलायम को समय रहते पता चल गया। तो वह खेत-खेत साइकिल से दिल्ली भाग गए चरण सिंह के पास। चरण सिंह ने उन्हें बचा लिया। विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस टापती रह गई थी। लेकिन दूसरी बार विश्वनाथ प्रताप सिंह अपने इनकाउंटर में सफल रहे। बहुत चतुराई से लालू यादव को आपरेशन मुलायम पर लगा दिया और लालू ने मुलायम को प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। इस प्रसंग के विवरण बहुत हैं। फिर कभी।
अयोध्या प्रसंग के खलनायक माने जाने वाले मुलायम किसी समय अयोध्या की राजनीति के बारे में किताब लिखना चाहते थे। क्यों कि उन के पास अयोध्या के बारे में बहुत सारे तथ्य थे। लेकिन मधुलिमये ने किताब लिखने से मना कर दिया। तो मुलायम सिंह मान गए।
संयोग से मैं मुलायम सिंह यादव का प्रशंसक और निंदक दोनों ही हूं। अमूमन किसी की मृत्यु के बाद प्रशंसा के पद गाने की परंपरा सी है। मुलायम के निंदक भी आज सरल मन से उन की प्रशंसा में नतमस्तक हैं। मैं भी आज मुलायम की प्रशंसा में ही लिखना चाहता हूं। उन की भाषा और हिंदी प्रेम की कहानी बांचना चाहता हूं। बताना चाहता हूं कि मुलायम भारतीय भाषाओं के बहुत बड़े हामीदार थे।
मुलायम सिंह यादव दरअसल हिंदी के ही समर्थक नहीं थे , वह सभी भारतीय भाषाओं के समर्थक थे । उन का सोचना यह था कि किसी भी विदेशी भाषा का देश पर एकाधिकार न हो। उन की राय थी कि देश में विदेशी भाषा में काम न हो। मुलायम कहते थे कि जब अकेली अंगरेजी ने सारी भारतीय भाषाओं का हक मार रखा है तो विदेशी कंपनियां आने के बाद हमारी स्वदेशी कंपनियों की क्या हालत होगी। मुलायम कहते थे कि अगर अंगरेजी रहेगी, विदेशी भाषा रहेगी तो विदेशी कंपनियों को भी कोई रोक नहीं सकता। भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को मिटने से कोई रोक नहीं सकेगा तब। मुलायम की राय थी कि भाषा का रिश्ता केवल हमारे आर्थिक जीवन से ही नहीं, भाषा का रिश्ता हमारे देश की नींव से जुड़ा हुआ है। हमारे देश के सम्मान से जुड़ा हुआ है।
27 नवंबर, 2003 को लखनऊ में तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने डॉ॰ हरिवंश राय बच्चन के नाम पर डाक टिकट जारी किया था तो इस मौके पर मुलायम ने कहा यदि मधुशाला का अंगरेजी में प्रभावी अनुवाद हो, तो अंगरेजी जानने वालों को भी पता चल जाएगा कि बच्चन जी कीट्स और शैली से बहुत आगे थे। उन्हों ने कहा कि किसी रचनाकार का सही सम्मान यही हो सकता है कि उस की कृतियों को पूरे विश्व समाज तक पहुंचाया जाए। उन्होंने घोषणा भी की कि मधुशाला का अनुवाद क्षेत्राीय भाषाओं में भी कराने का पूरा प्रयास करेंगे।