दयानंद पांडेय
इधर कुछ बरस से जब भी बच्चों के परीक्षा परिणाम आते हैं तो कुछ विघ्न संतोषी अपना ज़माना ले कर बैठ जाते हैं। यह सैडिस्ट लोग हैं। बच्चों की प्रतिभा से जलते हैं। भूल जाते हैं कि कभी पहले राष्ट्रपति रहे राजेंद्र प्रसाद की परीक्षा कॉपी पर एक अंगरेज शिक्षक ने लिखा था , इक्जामिन इज बेटर दैन इक्ज़ामिनर। ठीक है कि वह ज़माना और था। नंबर कम मिलते थे। इस लिए भी कि तब हम कम जानते थे। बहुत-बहुत कम जानते थे। आज के बच्चों जैसा हमारा आई क्यू नहीं था। हमारे पास सुविधाएं भी नहीं थीं। ज्ञान के इतने ऑप्शन नहीं थे। किताब , कॉपी , कलम तक की कमी थी। शिक्षा और चिकित्सा में घनघोर विपन्नता थी। परिवार स्तर पर भी , समाज स्तर पर भी और सरकार स्तर पर भी। चौतरफा विपन्नता और कृपणता। हमारी गोरखपुर यूनिवर्सिटी में तो मैं ने पाया कि अंगरेजी जैसे विषय में थर्ड डिवीजन में पास लोग ही सालो-साल टॉपर रहे हैं। मतलब गोल्ड मेडलिस्ट। और भी विषयों का यही हाल था। तब अध्यापक लोग नंबर देने में भी बहुत कृपण थे।
संयोग से मैं भी परीक्षक हूं। कभी-कभार पढ़ाता भी हूं। विभिन्न विश्वविद्यालयों में। बताते हुए ख़ुशी होती है कि विद्यार्थियों को नंबर देने के मामले में पूरी उदारता बरतता हूं। एक पैसे की भी कृपणता नहीं बरतता। कभी भी नहीं। यहां तक कि दो-चार नंबर से फेल हो रहे छात्र को भी खींच-खांच कर पास कर देता हूं। जो छात्र पचास-पचपन प्रतिशत तक जाता होता है , उसे भी खींच-खांच कर साठ प्रतिशत पार करवा देता हूं। साठ प्रतिशत वाले को सत्तर प्रतिशत तक पहुंचाने में मुझे दिली खुशी होती है। हां , अभी तक ऐसा कोई छात्र मुझे सौ प्रतिशत वाला नहीं मिला। पर पचासी-नब्बे प्रतिशत तक वाले विद्यार्थी तो मिले हैं। इन पर बहुत खींच-खांच नहीं करता। परीक्षा की कापियां जांचने , पेपर बनाने के अनेक अनुभव हैं। एक से एक बढ़ कर। अजब-ग़ज़ब के विद्यार्थी भी।
एक बार बी एच यू का अनुभव नहीं भूलता। संयोग से हिंदी और अंगरेजी दोनों ही परीक्षक लखनऊ से ही गए थे। स्पष्ट है कि मैं हिंदी माध्यम की कापियां जांचता , पढ़ाता हूं। बी एच यू में पत्रकारिता विभाग में तब यह था कि परीक्षा के दिन ही पेपर बनता था , परीक्षा होती थी और उसी दिन तुरंत कॉपी भी जांच दी जाती थीं। तो हम दोनों एक ही कमरे में अगल-बगल बैठ कर कॉपी जांच रहे थे। अंगरेजी की कॉपी जांचने वाली भी पत्रकार ही थीं। बंगाली थीं। हमारे एक रिपोर्टर मित्र की पत्नी भी। हम दोनों दो संस्थान में साथ काम भी कर चुके थे। वह पायनियर में थीं , उन के पति भी पायनियर में ही थे। तब मैं स्वतंत्र भारत में था। घर आना-जाना भी था। फिर जब मैं नवभारत टाइम्स में था तब वह टाइम्स आफ इंडिया में थीं। तो कोई अजनबीपन नहीं था।
अचानक अंगरेजी की कॉपी जांचते-जांचते वह गधा , उल्लू का पट्ठा जैसे शब्द बोलने लगीं। कापियां पलटतीं और किचकिचा कर कलम से कुछ काटने-पीटने लगतीं। थोड़ी देर में मुझ से मुखातिब हुईं। पूछने लगीं , ' आप की हिंदी में क्या है ? कैसे हैं यह लोग ? हमारे यहां तो एक से एक गधे , उल्लू के पट्ठे मिल रहे हैं ! '
' अच्छा यह बताएं कि आप के साथ जो लोग काम करते हैं , वह लोग कैसे हैं ? क्या हंड्रेड परसेंट परफेक्ट लोग हैं ? ' मैं ने हंस कर पूछा।
' कहां भला ! ' वह अब कुर्सी से पीठ सटाते हुए रिलैक्स होते हुए कलम मेज़ पर रखती हुई बोलीं , ' एक से एक बड़े गधे वहां भी बैठे हैं। ' वह भड़कती हुई बोलीं , ' काम लेना मुश्किल हो जाता है। ' उन दिनों वह लखनऊ में एक अख़बार की इंचार्ज थीं।
' तो जब दस-दस , पंद्रह साल के अनुभवी लोग ठीक से काम नहीं कर पाते। आप के मुताबिक़ काम नहीं कर पाते। तो यह बिचारे तो स्टूडेंट हैं। इन से इस तरह परफेक्ट होने की उम्मीद क्यों करती हैं। '
' हां , यह तो है ! ' कंधे उचकाते हुए वह बोलीं।
' बच्चों ने पहले मेडिकल , इंजीनियरिंग ट्राई किया होगा। नहीं हुआ होगा। तो कुछ और भी ट्राई किया होगा। एम बी ए वगैरह भी ट्राई किया होगा। फिर थक-हार कर पत्रकारिता की तरफ रुख़ किया होगा। ' मैं ने कहा , ' फिर इन्हें हम भी यहां पीछे धकेल देंगे तो बिचारे क्या करेंगे ? '
' तो क्या करें ? इन्हें बॉल की तरह उछाल कर इन की बल्ले-बल्ले कर दें ? ' वह खीझती हुई बोलीं।
' बिलकुल ! ' मैं ने कहा , ' ' सोचिए कि कंप्टीशन कितना बढ़ गया है। मासकम्युनिकेशन करने के बाद अगर यह नेट का फ़ार्म भी भरेंगे तब भी मिनिमम साठ प्रतिशत नंबर पा कर ही भरेंगे। ऐसे ही तमाम जगह पर्सेंटेज की बैरियर बनी हुई है। तो हम इन के इस बैरियर को तोड़ कर इन की मदद तो कर ही सकते हैं। बाक़ी इन की मेहनत , इन की योग्यता , इन का भाग्य ! '
' अरे , इस तरह तो मैं ने सोचा ही नहीं ! ' कह कर वह ख़ुद पर झल्ला पड़ीं। लेकिन यह सुनने के बाद वह ख़ुश हो गईं। कहने लगीं , ' यह भी हमारे बच्चे ही ठहरे ! '
' फिर आज की पत्रकारिता भी निरंतर बदल रही है। इन में से हर कोई तो मशहूर एंकर , एडीटर तो हो नहीं जाएगा। जैसा कि यह सोच रहे होंगे। ' मैं ने कहा , ' इस दलाली वाली पत्रकारिता में अब कौन सर्वाइव कर पाएगा , कहना मुश्किल है। तो इन के बाक़ी की नौकरियों के ऑप्शन हम क्यों बंद कर दें , नंबर देने में कंजूसी कर के। ' मैं ने उन से साफ़ कहा।
वह सहमत हो गईं। बाक़ी आगे उन्हों ने क्या किया , वह ही जानें। पर जब रिजल्ट आया तो हिंदी मीडियम का छात्र टॉपर निकला।
तो बताऊं कि मैं अपने छात्रों को बिलकुल निराश नहीं करता। न अपने पाठकों को। जानता हूं कि अगर अपठनीय , कुतर्क या झूठ लिखूंगा तो मुझे कोई भला क्यों पढ़ेगा। फिर अगर कोई विद्यार्थी भी अपने कैरियर में तरक्की करता है तो मेरा दिल बल्लियों उछल जाता है। जैसे कि बी एच यू में ही एक छात्र मुझे मिला। बिहार से था। उस के घर में , रिश्ते में हर कोई आगे था। कोई आई ए एस , आई पी एस , डाक्टर आदि। बस वह ही एक पिछड़ता जा रहा था। ओवर एज होने के मुहाने पर खड़ा , फ्रस्ट्रेशन की घंटी बजा रहा था। हार कर मॉस कम्युनिकेशन करने आ गया। मैं ने उसे भरपूर समझाया। बाद में फ़ोन पर भी। बराबर। फिर मॉस कम्युनिकेशन की एक सफलता ने उस की ज़िंदगी में रंग भर दिया। कुछ समय बाद वह बिहार की प्रशासनिक सेवा में चुन लिया गया। उस के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं था। मैं भी चकित था।
मुलायम सिंह यादव जब पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बने तो उन का ध्यान सरकारी नौकरियों में , ख़ास कर पुलिस फ़ोर्स में अपने लोगों को भर्ती करने पर बहुत था। अपने लोगों , मतलब यादव लोगों को। एक बार पुलिस भर्ती में एक यादव डी आई जी को उन्हों ने सिपाही भर्ती के लिए तैनात किया। उस डी आई जी को सिपाही में भर्ती के लिए एक लंबी सूची भी भेज दी। एक दिन उस डी आई जी से फ़ोन पर भर्ती के बारे में पड़ताल की। तो डी आई जी ने उन्हें संकोच में पड़ते हुए , सहमते हुए बताया कि , ' एक बड़ी दिक़्क़त आ गई है सो आप की भेजी सूची में सभी की भर्ती नहीं हो पाएगी। '
मुलायम ने पूछा कि , ' क्या दिक़्क़त है ? ' कौन अड़ंगा लगा रहा है , उस का नाम बताओ। अभी हटाता हूं उसे। ' तो उक्त डी आई जी ने बताया कि , ' कोई अड़ंगा नहीं लगा रहा। '
मुलायम ने पूछा , ' फिर ? '
' किसी की लंबाई कम पड़ रही है। किसी का सीना कम पड़ रहा है। ' उक्त डी आई जी ने अपनी मुश्किल बताई।
' बस इतनी सी बात ? ' मुलायम ने कहा , ' ऐसा करो कि जिस की लंबाई कम है , उस का सीना उस में एडजस्ट कर दो। जिस का सीना कम पड़ रहा हो , उस की लंबाई उस में एडजस्ट कर दो। सब को भर्ती कर दो ! '
तो मैं नंबर देते समय उदारता तो बहुत बरतता हूं। लेकिन कभी भूल कर भी मुलायम फ़ार्मूला अख़्तियार नहीं करता। न लंबाई , सीने में एडजस्ट करता हूं न सीना , लंबाई में। बहुत से बच्चों को फेल भी करने का दुर्भाग्य झेलता रहता हूं। भारी मन से।
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