Wednesday, 22 July 2020

मी लॉर्ड कहलवाने वाले हरामखोर जज लोगों , आप की अस्मिता अब पूरी तरह खतरे में है

विक्रम जोशी की पुरानी फ़ोटो 

अपने को माननीय और मी लॉर्ड कहलवाने वाले हरामखोर जज लोगों आप की अस्मिता अब पूरी तरह खतरे में है। गंभीर खतरे में। अब लोग खुल्ल्मखुल्ला पुलिस से न्याय की अपील करते हुए अपराधियों के इनकाउंटर की मांग करने लगे हैं। विकास दुबे के भी इनकाउंटर की मांग भी पुलिस कर्मियों के परिजनों ने की ही थी। विकास दुबे का इनकाउंटर हुआ भी। इस के पहले हैदराबाद में बलात्कारियों का इनकाउंटर हुआ था। सिलसिला लंबा है। ताज़ा मामला , गाज़ियाबाद में कल हुई विक्रम जोशी की हत्या के बाद , उन के परिजनों का है। विक्रम जोशी की पत्नी , बहन , भांजा सभी न्याय के लिए पुलिस से इनकाउंटर की मांग कर रहे हैं। कुछ पत्रकार भी इसी न्याय की फरियाद लिख कर मांग रहे हैं। 

विद्वान वकील साहबान , आप लोग भी ध्यान दीजिए। जजों , अपराधियों के बीच दलाली अब से सही , बंद कीजिए। तारीखों के भंवरजाल , कुतर्कों और मोटी फीस के बूते , अपराधियों को बचाना बंद कीजिए। नहीं वह दिन दूर नहीं कि लोग , पुलिस से आप लोगों का इनकाउंटर करने की भी खुल्ल्मखुल्ला मांग करने लगेंगे। समाज को सभ्य समाज ही रहने दीजिए। बंबइया फिल्मों वाला समाज मत बनाइए। पानी सिर से ऊपर जा चुका है। न्यायपालिका पाताल लोक में जा चुकी है। ऊपर से नीचे तक की सभी कचहरियों में दीवारों पर टंगी , वादी का हित सर्वोच्च है कि तख्तियां अब बेमानी हो गई हैं। लोग इतने गुस्सा हैं कि अब इसे नोच फेकेंगे। आप आर्डर , आर्डर करते रह जाएंगे। और लोग आप को भी उठा कर फेंक देंगे। 

क्यों कि अब सभी अदालतों में अपराधी का हित ही सर्वोच्च हो गया है। सड़-गल कर जीर्ण-शीर्ण हो गई है हमारी न्यायपालिका। वह कहते हैं न कि , न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे। ऐसा देखे तो दशकों बीत गया है। संभलो न्यायपालिका के कोढ़ी तथा हरामखोर जजों और वकीलों , संभलो। संभलो कि जनता आती है। क्यों कि तुम लोग अब न्याय के नाम पर सिर्फ दाग हो। जहरीला दाग। समय रहते अपना इलाज कर लो तो बहुत बेहतर। 

प्रेमचंद ने बहुत पहले ही लिखा था कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है। पर अब यह न्याय , यह न्यायपालिका तो बेल पालिका में तब्दील हो कर साक्षात रावण में तब्दील हो कर न्याय का अपहरण कर चुकी है। अफ़सोस कि अब कोई राम भी नहीं है कि इस अन्यायपालिका रूपी लंका पर चढ़ाई कर रावण का वध कर न्याय नाम की सीता को छुड़ा सके। अन्याय को खत्म कर सके। क्यों कि अगर पुलिस ही इनकाउंटर कर , कर के न्याय पर न्याय दिलाने लग जाएगी तो फिर हम एक जंगली राज का निर्माण कर बैठेंगे। सभ्य और सामाजिक जीवन त्याज किसी कबीलाई समाज में रहने लायक रह जाएंगे। आज पुलिस से लोग इनकाउंटर के न्याय की गुहार लगा रहे हैं। कल को खुद भी न्याय करने लग जाएंगे। ईंट का जवाब पत्थर से देने लग जाएंगे। तब तो मंज़र बहुत भयानक हो जाएगा। 

लेकिन न्यायपालिका के बेहद बीमार और बिकाऊ हो जाने के कारण यह भयानक मंज़र जैसे दस्तक दे रहा है। लगातार दरवाज़ा खटखटा रहा है। हमारा समाज रोक पाएगा , इस मंज़र को ? इस लिए भी कि न्याय , क़ानून और व्यवस्था की बात सिर्फ गरीब , कमजोर और निर्बल लोगों की जुबानी कवायद बन कर रह गई है। और अब यही लोग पुलिस से इनकाउंटर की गुहार लगा रहे हैं। न्यायपालिका से नहीं। बाकी समर्थ लोग तो हमेशा इस न्यायपालिका पर यकीन जताने वालों में से हैं। 

आप ने देखा ही होगा कि अमूमन हर अपराधी , चाहे हत्यारा हो या भ्रष्टाचारी अकसर बड़ी शान से टी वी चैनलों पर सीना फुला कर कहता है कि मुझे अपनी  न्यायपालिका पर पूरा यकीन है। पूरा भरोसा है। कैसे और किस अधिकार से कह लेते हैं यह सब , यह लोग। और यह देखिए , चुटकी बजाते ही इन कमीनों को न्याय मिल भी जाता है। यह हरामखोर और लतिहड़ जज और वकील , कंचन और कामिनी की सेवा पा कर उसे न्याय दिला भी देते हैं। न्याय फिर लक्ष्मी की दासी बन जाता है। लेकिन गरीब , कमज़ोर और निर्बल आदमी अब पुलिस से इनकाउंटर का न्याय मांगने पर विवश , लाचार और अभिशप्त हो गया है। तो अब ?

Thursday, 9 July 2020

पुलिस इनकाउंटर से जान बचा कर मुलायम सिंह यादव इटावा से साइकिल से खेत-खेत दिल्ली भागे




बहुत कम लोग जानते हैं कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री थे तब मुलायम सिंह यादव को इनकाउंटर करने का निर्देश उत्तर प्रदेश पुलिस को दे दिया था। इटावा पुलिस के मार्फत मुलायम सिंह यादव को यह खबर लीक हो गई। मुलायम सिंह यादव ने इटावा छोड़ने में एक सेकेण्ड नहीं लगाया। एक साइकिल उठाई और चल दिए। मुलायम सिंह यादव उस समय विधायक थे। 1977 में राम नरेश यादव और फिर बनारसीदास की सरकार में कैबिनेट मंत्री रह चुके थे। सहकारिता मंत्री रहे थे , दोनों बार। लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह उन दिनों बतौर मुख्य मंत्री , उत्तर प्रदेश दस्यु उन्मूलन अभियान में लगे थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह के पास पुष्ट सूचना थी कि मुलायम सिंह यादव के दस्यु गिरोहों से न सिर्फ सक्रिय संबंध थे। बल्कि डकैती और हत्या में भी वह संलग्न थे। फूलन देवी सहित तमाम डकैतों को मुलायम सिंह न सिर्फ संरक्षण देते थे बल्कि उन से हिस्सा भी लेते थे। ऐसा विश्वनाथ प्रताप सिंह का मानना था।

तब तो नहीं लेकिन कुछ समय बाद दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस में पहले पेज पर तीन कालम की एक खबर छपी थी जिस में मुलायम सिंह की हिस्ट्री शीट नंबर सहित , उन के खिलाफ हत्या और डकैती के कोई 32 मामलों की डिटेल भी दी गई थी। इंडियन एक्सप्रेस में खबर लखनऊ डेटलाइन से छपी थी , एस के त्रिपाठी की बाई लाइन के साथ। एस के त्रिपाठी भी इटावा के मूल निवासी थे। लखनऊ में रहते थे। इंडियन एक्सप्रेस में स्पेशल करस्पांडेंट थे। बेहद ईमानदार और बेहद शार्प रिपोर्टर। कभी किसी के दबाव में झुकते नहीं थे। न किसी से कभी डरते थे। अपने काम से काम रखने वाले निडर पत्रकार। कम बोलते थे लेकिन सार्थक बोलते थे। फॉलो अप स्टोरी में उन का कोई जवाब नहीं था। बहुतेरी खबरें ब्रेक करने के लिए हम उन्हें याद करते हैं। कई बार वह लखनऊ से खबर लिखते थे पर दिल्ली में मंत्रियों का इस्तीफ़ा हो जाता था। चारा घोटाला तो बहुत बाद में बिहार में लालू प्रसाद यादव ने किया और अब जेल भुगत रहे हैं। पर इस के पहले केंद्र में चारा मशीन घोटाला हुआ था। लखनऊ से उस खबर का एक फॉलो अप एस के त्रिपाठी ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा तो तत्कालीन कृषि मंत्री बलराम जाखड़ को इस्तीफ़ा देना पड़ा था। तो मुलायम सिंह यादव की हिस्ट्रीशीट और हत्या , डकैती के 32 मामलों की खबर जब इंडियन एक्सप्रेस में एस के त्रिपाठी ने लिखी तो हंगामा हो गया।

चौधरी चरण सिंह तब मुलायम सिंह यादव से बहुत नाराज हुए थे। और मुलायम का सांसद का टिकट काट दिया था। इन दिनों जद यू नेता के सी त्यागी भी तब लोकदल में थे। त्यागी ने इस खबर को ले कर बहुत हंगामा मचाया था। इन दिनों कांग्रेस में निर्वासन काट रहे हरिकेश प्रताप बहादुर सिंह भी तब लोकदल में थे और मुलायम के आपराधिक इतिहास को ले कर बहुत हल्ला मचाते रहे थे। यह 1984 की बात है। उन दिनों मुलायम उत्तर प्रदेश लोकदल में महामंत्री भी थे। उन के साथ सत्यप्रकाश मालवीय भी महामंत्री थे। मुलायम चौधरी चरण सिंह का इतना आदर करते थे कि उन के सामने कुर्सी पर नहीं बैठते थे। चौधरी चरण सिंह के साथ चाहे वह तुग़लक रोड पर उन का घर हो या फ़िरोज़शाह रोड पर लोकदल का कार्यालय , मैं ने जब भी मुलायम को देखा उन के साथ वह , उन के पैरों के पास नीचे ही बैठते थे। जाने यह सिर्फ श्रद्धा ही थी कि चौधरी चरण सिंह द्वारा जान बचाने की कृतज्ञता भी थी।

बहरहाल मुलायम सिंह यादव को इनकाउंटर में मारने का निर्देश विश्वनाथ प्रताप सिंह ने 1981-1982 में दिया था। मुलायम सिंह यादव ने ज्यों इटावा पुलिस में अपने सूत्र से यह सूचना पाई कि उन के इनकाउंटर की तैयारी है तो उन्हों ने इटावा छोड़ने में एक सेकेण्ड की भी देरी नहीं की। भागने के लिए कार , जीप , मोटर साइकिल का सहारा नहीं लिया। एक साइकिल उठाई और गांव-गांव , खेत-खेत होते हुए , किसी न किसी गांव में रात बिताते हुए , चुपचाप दिल्ली पहुंचे , चौधरी चरण सिंह के घर। चौधरी चरण सिंह के पैर पकड़ कर लेट गए। कहा कि मुझे बचा लीजिए। मेरी जान बचा लीजिए। वी पी सिंह ने मेरा इनकाउंटर करवाने के लिए आदेश दे दिया है।

इधर उत्तर प्रदेश पुलिस मुलायम सिंह को रेलवे स्टेशन , बस स्टेशन और सड़कों पर तलाशी लेती खोज रही थी। खेत और मेड़ के रास्ते , गांव-गांव होते हुए मुलायम इटावा से भाग सकते हैं , किसी ने सोचा ही नहीं था। लेकिन मुलायम ने सोचा था अपने लिए। इस से सेफ पैसेज हो ही नहीं सकता था। अब जब मुलायम सिंह यादव , चौधरी चरण सिंह की शरण में थे तो चौधरी चरण सिंह ने पहला काम यह किया कि मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी के उत्तर प्रदेश विधान मंडल दल का नेता घोषित कर दिया।

विधान मंडल दल का नेता घोषित होते ही मुलायम सिंह यादव को जो उत्तर प्रदेश पुलिस इनकाउंटर के लिए खोज रही थी , वही पुलिस उन की सुरक्षा में लग गई। तो भी मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में अपने को सुरक्षित नहीं पाते थे। मारे डर के दिल्ली में चौधरी चरण सिंह के घर में ही रहते रहे। जब कभी उत्तर प्रदेश विधान सभा का सत्र होता तब ही वह अपने सुरक्षा कर्मियों के साथ महज हाजिरी देने और विश्वनाथ प्रताप सिंह को लगभग चिढ़ाने के लिए विधान सभा में उपस्थित होते थे। लखनऊ से इटावा नहीं , दिल्ली ही वापस जाते थे। संयोग था कि 28 जून , 1982 को फूलन देवी ने बेहमई गांव में एक साथ 22 क्षत्रिय लोगों की हत्या कर दी। दस्यु उन्मूलन अभियान में ज़ोर-शोर से लगे विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस्तीफ़ा देना पड़ा। विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गई तो मुलायम सिंह यादव की जान में जान आई। चैन की सांस ली मुलायम ने। लेकिन मुलायम और विश्वनाथ प्रताप सिंह की आपसी दुश्मनी खत्म नहीं हुई कभी। मुलायम ने बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के डइया ट्रस्ट का मामला बड़े ज़ोर-शोर से उठाया।

तब के वित्त मंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह बैकफुट पर आ गए थे। जनता दल के समय विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधान मंत्री थे और मुलायम उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री। तलवारें दोनों की फिर भी खिंची रहीं। मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का विश्वनाथ प्रताप सिंह का लालकिले से ऐलान भी मुलायम को नहीं पिघला पाया , विश्वनाथ प्रताप सिंह खातिर। वैसे भी मंडल के पहले ही उत्तर प्रदेश में बतौर मुख्य मंत्री रामनरेश यादव ने यादवों को आरक्षण पहले ही दे दिया था। 1977-1978 में। तो यादवों का मंडल आयोग से कुछ लेना-देना नहीं था। पर यादव समाज तो जैसे इतने बड़े उपकार के लिए रामनरेश यादव को जानता ही नहीं। खैर , लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा रोकने का श्रेय मुलायम न ले लें , इस लिए लालू प्रसाद यादव को उकसा कर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने बिहार में ही आडवाणी को गिरफ्तार करवा कर रथ यात्रा रुकवा दी थी।

ऐसे तमाम प्रसंग हैं जो विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम की अनबन को घना करते हैं। जैसे कि फूलन देवी को मुलायम ने न सिर्फ सांसद बनवा कर अपना संबंध निभाया बल्कि विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपमानित करने और उन से बदला लेने का काम भी किया। लेकिन जैसे बेहमई काण्ड के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह को मुख्य मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था , वैसे ही विश्वनाथ प्रताप सिंह किडनी की बीमारी के चलते मृत्यु को प्राप्त हो गए। मुलायम के जीवन का बड़ा कांटा निकल गया। जिस कांटे ने उन्हें साइकिल से खेत-खेत की पगडंडी से दिल्ली पहुंचाया था , संयोग देखिए कि मुलायम की समाजवादी पार्टी का चुनाव निशान बन गया।

शायद यह वही भावनात्मक संबंध था कि बेटे अखिलेश से तमाम मतभेद और झगड़े के बावजूद चुनाव आयोग में अखिलेश के खिलाफ शपथ पत्र नहीं दिया। क्यों कि शपथ पत्र देते ही साइकिल चुनाव चिन्ह , चुनाव आयोग ज़ब्त कर लेता। मुलायम समझदार , शातिर और भावुक राजनीति एक साथ कर लेने में माहिर हैं। उतना ही जितना एक साथ लोहिया , चौधरी चरण सिंह और अपराधियों को गांठना जानते हैं। आप जानिए कि वामपंथियों ने लोहिया को कभी पसंद नहीं किया। लोहिया को फासिस्ट कहते नहीं अघाते वामपंथी। लेकिन लोहिया की माला जपने वाले मुलायम सिंह यादव ने वामपंथियों का भी जम कर इस्तेमाल किया।

उत्तर प्रदेश में तो एक समय वामपंथी जैसे आज कांग्रेस के पेरोल पर हैं , तब के दिनों मुलायम के पेरोल पर थे। भाकपा महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत तो जैसे मुलायम सिंह यादव के पालतू कुत्ता बन गए थे। जो मुलायम कहें , हरिकिशन सिंह सुरजीत वही दुहराएं। मुलायम को प्रधान मंत्री बनाने के लिए हरिकिशन सिंह सुरजीत ने क्या-क्या जतन नहीं किए थे। पर विश्वनाथ प्रताप सिंह , उन दिनों अस्पताल में होने के बावजूद मुलायम के खिलाफ रणनीति बनाई , और देवगौड़ा की ताजपोशी करवा दी। मुलायम हाथ मल कर रह गए। एक बार फिर मौका मिला , मुलायम को लेकिन फिर लालू ने घेर लिया।

ज्योति बसु की बात चली थी। लेकिन पोलित ब्यूरो ने लंगड़ी लगा दी। मुलायम की बात हरिकिशन सिंह ने फिर शुरू की। पर लालू के मुलायम विरोध के चलते इंद्र कुमार गुजराल प्रधान मंत्री बन गए। पर बाद में अपनी बेटी मीसा की शादी , अखिलेश यादव से करने के फेर में लालू , पत्नी और तब की बिहार मुख्य मंत्री राबड़ी देवी के साथ लखनऊ आए। ताज होटल में ठहरे। अमर सिंह बीच में पड़े थे । सब कुछ लगभग फाइनल हो गया था सो एक प्रेस कांफ्रेंस में लालू ने मुलायम का हाथ , अपने हाथ में उठा कर ऐलान किया कि अब मुलायम को प्रधान मंत्री बना कर ही दम लेना है। लालू उन दिनों चारा घोटाला फेस कर रहे थे। और बता रहे थे कि देवगौड़वा ने हम को फंसा दिया। खैर , विवाह भी भी मीसा और अखिलेश का फंस गया। अखिलेश ने बता दिया कि वह किसी और को पसंद करते हैं। यह 1998 की बात है। एक साल बाद 1999 में डिंपल से अखिलेश की शादी हुई।

और इसी अखिलेश को 2012 में मुलायम ने मुख्य मंत्री बना कर पुत्र मोह में अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली। अखिलेश ने पिता की पीठ में न सिर्फ छुरा घोंपा बल्कि कभी कांग्रेस , कभी बसपा से हाथ मिला कर पिता की साइकिल को पंचर कर उसे अप्रासंगिक बना दिया। पिता की सारी राजनीतिक कमाई और अपनी राजनीति को चाचा रामगोपाल यादव के शकुनि चाल में गंवा दिया। एक चाचा शिवपाल को ठिकाने लगाते-लगाते समाजवादी पार्टी को ही ठिकाने लगा दिया। अब मुलायम साइकिल चला नहीं सकते , पराजित पिता की तरह अकेले में आंसू बहाते हैं। मुलायम ने भोजपुरी लोकगायक बालेश्वर को एक समय यश भारती से सम्मानित किया था। वही बालेश्वर एक गाना गाते थे , जे केहू से नाहीं हारल , ते हारि गइल अपने से !

मुलायम हार भले गए हैं , बेटे से पर साइकिल नहीं हारी है। हां , अखिलेश ने ज़रूर अपने लिए एक स्लोगन दर्ज कर लिया है कि जो अपने बाप का नहीं हो सकता , वह किसी का नहीं हो सकता । ऐसा औरंगज़ेब बेटा , भगवान किसी को न दे। क्या संयोग है कि शाहजहां को कैद कर , बड़े भाई दाराशिकोह की हत्या कर , औरंगज़ेब ने गद्दी हथिया ली थी और शाहजहां ने औरंगज़ेब से सिर्फ इतनी फ़रमाइश की थी कि ऐसी जगह मुझे रखो कि जहां से ताजमहल देख सकूं। औरंगज़ेब ने ऐसा कर भी दिया था। मुलायम भी चाहते तो अखिलेश की अकल ठिकाने लाने के लिए चुनाव आयोग में एक शपथ पत्र दे दिए होते। पर दे देते शपथ पत्र तो साइकिल चुनाव चिन्ह ज़ब्त हो जाता। न वह साइकिल फिर अखिलेश को मिलती , न मुलायम को। अपनी पार्टी , अपनी साइकिल बचाने के लिए शपथ पत्र नहीं दिया मुलायम ने । शाहजहां की तरह अब चुपचाप अपनी साइकिल देखने के लिए अभिशप्त हैं। वह साइकिल जिस पर बैठ कर वह कभी दिल्ली भागे थे , विश्वनाथ प्रताप सिंह की पुलिस के इनकाउंटर से बचने के लिए। विश्वनाथ प्रताप सिंह के इनकाउंटर से तो तब बच गए थे , मुलायम सिंह यादव लेकिन बेटे अखिलेश यादव के राजनीतिक इनकाउंटर में तमाम हो गए। अपनी पहलवानी का सारा धोबी पाट भूल गए। राजनीति का सारा छल-छंद भूल गए।

Tuesday, 7 July 2020

कहीं ऐसे भी युद्ध का नज़ारा परोसा जाता है , मीडिया पर भला ?



रिपोर्टिंग के दौरान कुछ समय तक मिलेट्री भी हमारी बीट रही है। लेकिन जनरल लोगों से लाख पूछने पर सेना की संख्या और साजो सामान आदि-इत्यादि की कोई अधिकृत सूचना कभी नहीं मिली। टॉप सीक्रेट कह कर मामला टाल दिया जाता था। मिलेट्री कवरेज के नाम पर उन की परेड , उन का खेल , उन का खाना , उन का पीना ही नसीब रहा। ख़ास कर मिलेट्री का एक सालाना बड़ा खान का कार्यक्रम बहुत भव्य रहता था। बरेली में सेना दिवस मनाने का कवरेज करने भी गया हूं। वायु सेना के हेलीकाप्टर और जहाज का भी आनंद लिया है।

मुलायम सिंह यादव जब रक्षा मंत्री थे तब उन को भी कवर किया है। मुलायम भी सेना को अच्छा बनाने , अच्छा वेतन देने आदि की ही मीठी-मीठी बातों में बात खत्म कर देते थे। सेना की जासूसी में पकड़े जाने वाले लोगों के पास से भी नक्शे और सेना की तादाद और हथियार आदि की सूचनाएं बताई जाती थीं। लेकिन अब चीन से बिगड़े हालात में देख रहा हूं कि रिपोर्टर और एंकर लोग धड़ल्ले से सेना की तादाद , जहाज कौन-कौन से और कितने , सारे साजो-सामान आदि के विवरण ऐसे परोस रहे हैं गोया क्रिकेट की कमेंट्री सुना रहे हों। गोया कार्ड खोल कर ताश खेल रहे हों। इतना ही नहीं युद्ध की सारी रणनीति भी बताए दे रहे हैं। यह परिवर्तन क्यों और कैसे हो गया है , समझ बिलकुल नहीं आ रहा।

कहीं ऐसे भी युद्ध का नज़ारा परोसा जाता है , मीडिया पर भला ? जब आप को इतना कुछ मालूम है तो चीन और पाकिस्तान को कितना मालूम होगा। और दिलचस्प यह कि सेना , मीडिया और चीन से भी ज़्यादा राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रवक्ताओं को मालूम है। कि भारतीय सेना कहां-कहां चीन के आगे घुटने टेके हुए है। जब कि भाजपा प्रवक्ताओं को यह मालूम है कि चीन कैसे और कितना डरा हुआ है। थर-थर कांप रहा है। इतना कि वीर रस के मंचीय कवि भी फेल। सेना के पूर्व अधिकारियों में ज़रूर फूट पड़ी हुई है। कुछ जनरल कांग्रेस की बोली बोल रहे हैं तो ज़्यादातर सेना और देश की भाषा बोल रहे हैं।

मोदी वार्ड के बुद्धिजीवी मरीजों ने , कठमुल्ले मुस्लिमों ने पहले तो मोदी की हार की प्रत्याशा में चीन का गुणगान किया और बताया कि मोदी देश को बेच खाएगा , चीन भारत को खा जाएगा। अब जब चीन की सेना की वापसी की खबरें आने लगीं , चीन अपना ही थूक चाटने लगा तो इन्हीं लोगों ने कहना शुरू किया कि चीन के लिए भारत कभी तनाव का सबब था ही नहीं। चीन तो हांगकांग की फ़िक्र में है। अमरीका की फ़िक्र में है। भारत तो चीन के आगे पिद्दी है। अजब मंज़र है।

Monday, 6 July 2020

मोदी वार्ड के मरीज आडवाणी नाम की ऐसी फ़ोटो तलाश कर रवीश कुमार के शो में ग़म ग़लत करते हैं




मोदी वार्ड के कुछ मरीजों ने लालकृष्ण आडवाणी की इस फोटो को जैसे अपनी खुराक बना ली है। अभी गुरु पूर्णिमा पर भी इस फोटो को मोदी वार्ड के मरीजों ने सोशल मीडिया पर , कैप्शन सहित खूब परोसा। इस कैप्शन से उलट मेरा मानना है कि भगवान किसी भी को लालकृष्ण आडवाणी जैसा गुरु न दे। मेरी जानकारी में लालकृष्ण आडवाणी जैसा कृतघ्न गुरु कोई दूसरा नहीं होगा। यह पहली बार मैं ने देखा है कि अपने शिष्य की प्रगति पर , कोई गुरु इतना और किस कदर अपने को पीड़ित बता कर निरंतर विक्टिम कार्ड खेला हो। अब तो खैर लालकृष्ण आडवाणी का सार्वजनिक जीवन लगभग समाप्त है। लेकिन मोदी के पहले कार्यकाल में जब भी कभी किसी सार्वजनिक कार्यक्रम में आडवाणी जी नरेंद्र मोदी को देखते , देखते ही अपना चेहरा इतना बेचारा और बेबस बना लेते थे गोया नरेंद्र मोदी ने उन्हें कितने जूते मारे हों।

मोदी वार्ड के मरीजों ने आडवाणी के इस जूता खाने का अभिनय वाले चेहरे की फोटो को अपना हथियार बना लिया। आज तक बनाए हुए हैं। आडवाणी जी की अंगुलबाजी की यह आदत नई नहीं है , मोदी के साथ। अटल बिहारी वाजपेयी के साथ भी आडवाणी जी बावजूद तमाम मित्रता और प्रगाढ़ता के , अपनी अंगुलबाजी करते ही रहते थे। याद कीजिए कि एक समय आडवाणी जी की निरंतर अंगुलबाजी से परेशान अटल बिहारी वाजपेयी ने गोवा सम्मेलन में जब अपने भाषण में साफ़ कहा कि न टायर्ड , न रिटायर्ड , आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान ! इतना ही कह कर अटल जी बैठ गए थे। पूरी भाजपा सन्नाटे में आ गई और वाजपेयी जी के चरणों में बैठ गई। आडवाणी जी को तब भी लगता था कि भाजपा के लिए सारी मेहनत तो मैं ने की और सत्ता की असल मलाई अटल जी काट रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने की आडवाणी जी की लालसा और महत्वाकांक्षा बलवती थी। लेकिन वह भूल जाते थे कि अयोध्या रथ यात्रा और बाबरी ढांचा ध्वस्त करने , कट्टर हिंदूवादी की उन की छवि के कारण मिली-जुली सरकार में उन की स्वीकार्यता खंडित हो जाती थी।

इसी खंडित स्वीकार्यता को अखंड करने के चक्कर में आडवाणी जी पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जा पहुंचे। नतीजतन न इधर के रह गए , न उधर के। धोबी का कुत्ता बन गए। राष्ट्रीय स्वयं संघ ने उन्हें दूध से मक्खी की तरह सत्ता दौड़ से बाहर कर दिया। संयोग ही था कि जब 2014 में बतौर मुख्य मंत्री , गुजरात की सफलता के कारण प्रधान मंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम को प्रस्तावित कर दिया गया। आडवाणी जी तुरंत ही कैकेयी की तरह कोपभवन चले गए। प्राइम मिनिस्टर इन वोटिंग का सपना ही टूट गया। तो यशवंत सिनहा , अरुण शौरी , शत्रुघन सिनहा जैसे लोगों को अपनी चाल में फांसा। चुनाव के पहले ही से मोदी को घेरने और हराने की रणनीति बनाई। ब्लैकमेलिंग की सारी हदें पार कीं। लाक्षागृह की कमीनगी के तीर चलाए। इतना कि तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी भी संदेह के घेरे में आ गए। फौरन नितिन गडकरी को हटा कर , राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाया गया। और नरेंद्र मोदी को कमान सौंप दी गई। लेकिन आडवाणी जी का आपरेशन मोदी जारी रहा। सुषमा स्वराज भी आडवाणी ग्रुप के प्रभाव में आईं।

पर समय रहते अरुण जेटली ने उन्हें मोदी शिविर में खींच लिया। लेकिन कांग्रेस सरकार की हरमजदगियों और भाजपा को छोड़ लगभग सभी पार्टियों के मुस्लिम तुष्टिकरण की अति से जनता इतनी त्रस्त हो गई थी कि नरेंद्र मोदी की हाहाकारी जीत दर्ज हो गई। अब हिंदू ह्रदय सम्राट लालकृष्ण आडवाणी जो सेक्यूलर फोर्सेज की आंख का कभी कांटा रहे थे , घोर सांप्रदायिक कहे जा रहे थे , इन की आंख का तारा बन गए। इन के दुलारे और आदरणीय बन गए। नरेंद्र मोदी को खलनायक बताने की तरक़ीब बन गए। फिर 2019 के चुनाव में मोदी की अनन्य जीत ने आडवाणी और मोदी वार्ड के मरीजों का जैसे अटूट रिश्ता बना दिया है। मोदी की काट वह आडवाणी के गुरुडम की यातना में तलाश लेते हैं। ऐसा अहमक गुरु जो अपने गुरुडम की बीमारी में अपने शिष्य की सफलता पर मातम मनाता है। राष्ट्रपति पद की खीर की कटोरी अपने इसी मातम में गंवा बैठता है।

लेकिन अच्छा यह भी है कि मोदी वार्ड के मरीजों के लिए यह गुरु दवा न सही , दवा का भ्रम बन कर ही सही उपस्थित है। कुछ तो उपयोगिता है , इस भटके और कुंठित गुरु की। इस के गुरुडम की। कि मोदी वार्ड के मरीज आडवाणी नाम की ऐसी फ़ोटो तलाशते हैं और इस की तकिया लगा कर एन डी टी वी पर रवीश कुमार का शो देख कर अपने जीवित होने और जीत की उम्मीद का सपना जोड़ते हैं। गुड है यह भी। कि मोदी वार्ड के मरीज आडवाणी नाम की ऐसी फ़ोटो तलाश कर रवीश कुमार के शो में ग़म ग़लत करते हैं। एक बार सोच कर देखिए कि यह लालकृष्ण आडवाणी की फोटो न होती , रवीश कुमार का एन डी टी पर शो न होता तो मोदी वार्ड के बिचारे मरीजों का क्या होता भला ! आडवाणी जी की यह फ़ोटो न होती तो भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहां जाते बेचारे। नहीं यह कोरोना , यह चीन आदि-इत्यादि तो अस्थाई विषय हैं , मोदी को गरियाने के लिए। लेकिन आडवाणी की यह फ़ोटो स्थाई विषय है। मानवीय स्वभाव के अनुसार करुणा भी उपजाती है और मासूम लोगों की नज़र में नरेंद्र मोदी को कमीना बताने में पूरा काम करती है। बस दिक्कत यही है कि आडवाणी की ऐसी करुण फ़ोटो को पेश करने वाले बीमार भले हों , दर कमीने भी हैं। सो यह करुणा भाप बन कर उड़ जाती है। फ़ोटो अपना प्रभाव नहीं डाल पाती। और आडवाणी जी की यह करुण फोटो उन का ही उपहास उड़ाने लगती है।

Friday, 3 July 2020

तो प्रियंका गांधी के लखनऊ में रहने के ख़तरे बहुत हैं , बड़े धोखे हैं इस राह में !




तो प्रियंका गांधी अब लखनऊ में रहेंगी। इंदिरा गांधी की मामी शीला कौल के घर में। गुड है। बहुत कम लोग इस बात को जानते हैं कि एक समय इंदिरा गांधी भी लखनऊ में रही थीं। पंडित नेहरू ने भेजा था , इंदिरा गांधी और फ़िरोज़ गांधी को लखनऊ रहने के लिए। हुआ यह था कि फ़िरोज़ और इंदिरा गांधी के बीच दूरियां बहुत बढ़ गई थीं। तलाक़ के तिराहे पर खड़े होते दोनों कि पंडित नेहरू ने लखनऊ में नेशनल हेराल्ड का काम संभालने के लिए फ़िरोज़ गांधी को नियुक्त कर लखनऊ रवाना किया। साथ ही इंदिरा गांधी को भी। इंदिरा , फ़िरोज़ तब लखनऊ के शाहनजफ रोड पर के एक बड़े से बंगले में रहने लगे। लेकिन दोनों के बीच अनबन थमी नहीं। झगड़े सड़क तक सुनाई देने लगे। बर्तन तक सड़क पर आने लगे। तो भी फ़िरोज़ इंदिरा गांधी को भले न संभाल पाए लेकिन नेशनल हेराल्ड का काम ठीक से संभाल लिया। उन्हीं दिनों भारत कोकिला कही जाने वाली सरोजनी नायडू उत्तर प्रदेश की राज्यपाल थीं। तो फ़िरोज़ गांधी ने सरोजिनी नायडू की बेटी को भी संभाल लिया। सरोजनी नायडू भी कभी गांधी के सत्य के प्रयोग की साथी रही थीं। यहां तक कि सरोजनी नायडू के पति कई बार आश्रम में आ कर गांधी से लड़ते-झगड़ते भी थे। पर सरोजनी नायडू वापस नहीं जाती थीं। तो फ़िरोज़ गांधी की शाम अब राजभवन में सरोजनी नायडू की बेटी पद्मजा के साथ बीतने लगी। फ़िरोज़ गांधी वैसे भी अपने समय के लेडी किलर थे।

एक समय तो ऐसा भी आया था कि फ़िरोज़ गांधी का नाम इंदिरा गांधी की मां कमला नेहरू से भी जुड़ गया था। नेहरू उन दिनों जेल में थे। कमला नेहरू इलाहाबाद के आनंद भवन में रहती थीं। स्वतंत्रता सेनानी थीं कमला नेहरू। नेहरू भले जेल में थे पर कमला नेहरू ने अंगरेजों से अपनी लड़ाई जारी रखी थी। भरी दोपहर में एक प्रदर्शन के दौरान एक कालेज के मैदान में वह महिलाओं की एक मीटिंग को संबोधित कर रही थीं कि पुलिस टूट पड़ी। कमला नेहरू अचानक गश खा कर गिर पड़ीं। कालेज की बाउंड्री पर बैठे फ़िरोज़ बाउंड्री कूद कर , दौड़ कर कमला नेहरू को उठाया। अस्पताल ले गए। फिर अस्पताल से वापस आनंद भवन ले आए। दूसरे दिन से कमला नेहरू की देखभाल में फ़िरोज़ खुद तैनात हो गए। हर सभा , हर समय फ़िरोज़ , कमला नेहरू के साथ। लगभग दैनदिन कार्यक्रम बन गया , दोनों का साथ रहना। बात यहां तक बढ़ी कि कमला नेहरू और फिरोज की एक साथ फोटो वाले पोस्टर , इलाहाबाद की सड़कों पर चिपक गए। चहुं ओर चर्चा में कमला नेहरू और फ़िरोज़ । बात और आग इतनी फैली कि नेहरू के पास जेल में भी यह खबर पहुंची। कई लोगों से , कई तरह की बातें।

किसी भी पति की तरह नेहरू भी यह सब सुन कर बहुत परेशान हुए। इस बात की सत्यता जांचने के लिए नेहरू ने अपने करीबी रफ़ी अहमद किदवई को इलाहाबाद भेजा। किदवई ने लौट कर नेहरू को बताया , ऐसी कोई बात नहीं। पर कमला नेहरू और फ़िरोज़ की चर्चा नहीं थमी। इस से कुछ समय पहले की बात है कि एक बार आनंद भवन में डिनर के समय जवाहर लाल नेहरू ने अपने कांग्रेस साथी मीनू मसानी से मजाक में कहा था, मीनू तुम कल्पना कर सकते हो कि कोई मेरी पत्नी से प्रेम कर सकता है?’ इस पर मीनू मसानी ने हिम्मत करके कहा था-‘वे खुद ही कमला से प्रेम कर सकते हैं।’ नेहरू मीनू मसानी से नाराज़ हो कर उन्हें तरेर कर देखने लगे। और अब उन्हीं की पत्नी कमला नेहरू का फ़िरोज़ नाम के लड़के से प्रेम की चर्चाएं थीं। प्रेम था कि नहीं , लेकिन चर्चा थी कि थमती ही नहीं थी। संयोग देखिए कि जब कमला नेहरू टी बी रोग से पीड़ित हुईं तो उन के अंतिम समय में सेवा सुश्रुषा करने के लिए कोई और नहीं , फ़िरोज़ गांधी ही उपस्थित थे। टी बी उन दिनों असाध्य रोग था और छुआछूत वाला भी। कमला नेहरू के निधन के समय भी उन के पास नेहरू नहीं , फ़िरोज़ गांधी ही थे। यह 1936 की बात है।

बहरहाल पंडित नेहरू की यातनाओं को अंत यहीं तक नहीं था। बाद में इसी फ़िरोज़ नाम के लड़के से उन की इकलौती बेटी इंदिरा गांधी का प्रेम लंदन में शुरू हो गया। पत्नी से छुट्टी मिली तो बेटी आ गई फ़िरोज़ की बातों में। बात इतनी बढ़ी कि न चाहते हुए भी इंदिरा का विवाह फ़िरोज़ के साथ मंज़ूर करना पड़ा पंडित नेहरू को। बीच में महात्मा गांधी को न सिर्फ पड़ना पड़ा बल्कि गांधी नाम भी देना पड़ा पारसी फ़िरोज़ को और फ़िरोज़ गांधी से इंदिरा का विवाह कर इंदिरा गांधी बनाना पड़ा। बहुत से विवरण हैं , बहुत से विवाद हैं इस विवाह को ले कर लेकिन अगर गांधी बीच में नहीं पड़े होते तो कम से कम पंडित नेहरू इस विवाह के लिए हरगिज राजी नहीं हुए होते। बहरहाल विवाह हुआ। पर न फ़िरोज़ इंदिरा का प्रेम स्वाभाविक था , न विवाह। सो खटर-पटर भी जल्दी ही सामने उपस्थित हो गया। बात बहुत बिगड़े नहीं सो एक पिता को बेटी का दांपत्य बचाने के लिए फ़िरोज़ गांधी को लखनऊ भेजना पड़ा। नेशनल हेराल्ड पंडित नेहरू द्वारा शुरू किया हुआ अखबार था। जो तब के अंगरेजों के अखबार दि पायनियर के बरक्स निकाला था। स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई का हथियार बना कर।

खैर , नेहरू भले विभिन्न-विभिन्न औरतों के लिए बहुत बदनाम हों , उन के दामाद फ़िरोज़ गांधी उन से भी कोसो आगे थे। सरोजनी नायडू की बेटी पद्मजा नायडू के साथ फ़िरोज़ नत्थी हो गए। दिलचस्प यह कि पद्मजा नायडू नेहरू के साथ भी अंतरंग रहीं। पुपुल जयकर के लिखे को अगर मानें तो 1936 में कमला नेहरू के निधन के बाद पंडित नेहरू , पद्मजा नायडू के साथ जुड़ गए। विवाह भी करना चाहते थे पर इंदिरा को इस से तकलीफ न हो इस लिए , विवाह का इरादा बदल दिया। लेकिन नेहरू के कमरे में इंदिरा ने पद्मजा नायडू के फोटो पाए और फाड़ कर फेंक दिए। पुपुल जयकार को यह बात पंडित नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने बताई थी। बात यहीं तक नहीं थी एक समय बिहार की सांसद तारकेश्वरी सिनहा से भी नेहरू के रिश्ते रहे। तारकेश्वरी सिनहा ने धर्मयुग में छपे लेख में खुलासा किया था कि जब वह लोकसभा में पहुंचीं तो सब से युवा महिला सांसद थीं।

एक दिन पंडित नेहरू के पी ए मथाई ने उन्हें फोन कर कहा कि , पंडित जी आप से मिलना चाहते हैं। तय समय पर तारकेश्वरी पहुंचीं। मथाई ने उन्हें अपने पास ही बैठा लिया। और इधर-उधर की बातें करने लगे। जब बहुत देर हुई तो तारकेश्वरी ने वापस जाने की बात की। तो मथाई ने बताया कि पंडित जी अभी एक मीटिंग में हैं। मीटिंग खत्म होते ही वह आप से मिलेंगे। आइए तब तक आप को कुछ पेंटिंग दिखाता हूं। और एक कमरे में ले जा कर पेंटिंग दिखाने लगे। उन पेंटिंग में कुछ न्यूड पेंटिंग भी थीं। जिसे देख कर वह बिदकीं भी। इतना ही नहीं पंडित नेहरू से मुलाकात होने पर मथाई की शिकायत भी की और बताया कि मुझे न्यूड पेंटिंग दिखाई है। यह सुन कर पंडित नेहरू नाराज नहीं हुए बल्कि मुस्कुराए। तारकेश्वरी समझ गईं कि पंडित नेहरू की सहमति से ही मथाई ने उन्हें न्यूड पेंटिंग दिखाई। तारकेश्वरी ने लिखा है कि इस बहाने वह तारकेश्वरी के मन की थाह लेना चाहते थे।

पर बाद में यही तारकेश्वरी सिनहा नेहरू के रिश्ते से गुज़रते हुए , इंदिरा गांधी की सौत भी बनने की राह में आ गईं। फ़िरोज़ गांधी के तारकेश्वरी सिनहा से रिश्ते की खबर खूब थी। यह अलग बात है कि तारकेश्वरी सिनहा , लोहिया के फेर में भी आईं और मोरारजी देसाई के फेर में भी पड़ीं। और जैसे कुछ साल पहले गोविंदाचार्य से रिश्ते के चक्कर में उमा भारती ने नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या की कोशिश की थी , वैसे ही तारकेश्वरी सिनहा ने भी मोरारजी देसाई के लिए नींद की गोलियां खा कर आत्महत्या की कोशिश की थी। उमा भारती भी बच गई थीं और तारकेश्वरी सिनहा भी। तारकेश्वरी सिनहा के किस्से और भी तमाम हैं। और पंडित नेहरू के भी। लेकिन पंडित नेहरू एडविना के लिए ही बदनाम हैं। अलग बात है कि एडविना के चक्कर में जिन्ना भी था। लेकिन जाने क्यों जिन्ना और एडविना की चर्चा नहीं होती। जब कि यहां मामला त्रिकोणात्मक था। खैर बात फ़िरोज़ गांधी और लखनऊ की हो रही थी। फ़िरोज़ और पद्मजा नायडू की हो रही थी। लेकिन फ़िरोज़ के पास सिर्फ पद्मजा नायडू ही लखनऊ में नहीं थीं। एक स्वरूप कुमारी बख्शी भी थीं। बल्कि पद्मजा नायडू से कहीं ज़्यादा आसक्त थीं फ़िरोज़ पर । कहा जाता था कि फ़िरोज़ गांधी से मिलने जाने के लिए वह बाथ टब में शराब भरवा कर लेट जाती थीं। ताकि फ़िरोज़ को प्रसन्न कर सकें। खूब गोरी लेकिन छोटे कद की स्वरूप कुमारी बख्शी कविताएं लिखती थीं। नाटक करती थीं। अध्यापिका भी थीं। बाद में प्रिंसिपल भी बनीं। और जब कांग्रेस की सरकार बनी तो मंत्री भी बनीं।

इंदिरा गांधी ने अपनी तमाम सौतों को दरकिनार किया पर स्वरूप कुमारी बख्शी में जाने क्या था , जाने क्या नस जानती थीं इंदिरा गांधी की , स्वरूप कुमारी बख्शी कि इंदिरा गांधी ने उन्हें तमाम उम्र ढोया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का मुख्य मंत्री कोई भी हो , स्वरूप कुमारी बख्शी का नाम हर कैबिनेट में सर्वदा बना रहा। वह ताकतवर भी बहुत थीं। राजनीति में लखनऊ से आगे की धरती नहीं देखी स्वरूप कुमारी बख्शी ने लेकिन दबदबा उन का हमेशा रहा। लखनऊ में वह लोकप्रिय भी बहुत थीं। खैर , स्वरूप कुमारी बख्शी और पद्मजा नायडू के बाद उत्तर प्रदेश में एक वरिष्ठ मंत्री की बेटी से भी फ़िरोज़ गांधी जुड़े। इतना जुड़े कि बात निकाह तक आ गई। पंडित नेहरू इस ख़बर से बहुत परेशान हो गए। फिर अपने दोस्त रफ़ी अहमद किदवई की मदद ली। किदवई ने इस प्रकरण को समाप्त करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। प्रकरण किसी तरह समाप्त भी हुआ। इंदिरा गांधी भी कम नहीं थीं। तब के उत्तर प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष शुक्ल जी के साथ समय गुज़ारने लगीं। दो-एक नाम और आए इंदिरा के नाम के साथ। लेकिन फ़िरोज़ गांधी की बैटिंग के आगे इंदिरा परेशान हो गईं। अंतत: दिल्ली लौट गईं। फ़िरोज़ गांधी लखनऊ ही रह गए। पर नेहरू ने जल्दी ही फिरोज को भी दिल्ली बुला लिया। फ़िरोज़ गांधी अब तीनमूर्ति भवन में नेहरू और इंदिरा गांधी के साथ ही रहने लगे। इसी बीच इंदिरा गांधी कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गईं।

आज वामपंथी भले कांग्रेस के लिए आऊटसोर्सिंग करते नहीं अघाते हैं , कांग्रेस की प्रशस्ति में सर्वदा बैंड बजाते रहते हैं , इंदिरा गांधी के गुण गाते रहते हैं पर कांग्रेस की अध्यक्ष बनते ही इंदिरा गांधी ने केरल में कम्युनिस्टों की नंबूदरीपाद की सरकार को 1959 में बर्खास्त करवा कर राष्ट्रपति शासन लगवा दिया। फ़िरोज़ गांधी इंदिरा गांधी के इस फैसले से बहुत नाराज हुए। नंबूदरीपाद सरकार की बर्खास्तगी पर वह तीनमूर्ति भवन में इंदिरा गांधी से बहुत लड़े। तू-तू , मैं-मैं की। और अंतत: तीनमूर्ति भवन छोड़ कर निकल गए। फिर तीनमूर्ति भवन नहीं लौटे। आई तो उन की पार्थिव देह ही तीनमूर्ति भवन। वह नहीं। खैर , सरकार बर्खास्त करने और राष्ट्रपति शासन लगाने का इंदिरा गांधी का अटूट रिश्ता रहा है। इंदिरा गांधी तो अपनी कांग्रेस की ही सरकार बार-बार गिरा देती थीं। लंबी सूची है इस की। ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी के पुरुषों की लंबी सूची है। नेहरू के पी ए मथाई , उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष शुक्ल जी , दिनेश सिंह , धीरेंद्र ब्रह्मचारी , मोहम्मद यूनुस , ब्रेजनेव , फिदेल कास्त्रो आदि। एक अमरीकी राष्ट्रपति का भी नाम आता है। जिस ने डिनर पार्टी में डांस करते-करते अचानक इंदिरा गांधी को बाहों में भर कर उठा लिया। खैर , अब उसी दादी इंदिरा गांधी के लखनऊ प्रियंका गांधी पहुंच रही हैं। तो लखनऊ प्रियंका को कैसे स्वीकार करेगा भला , देखना दिलचस्प होगा। फिर भी इंदिरा जब लखनऊ गई थीं तब नेहरू और कांग्रेस का उत्कर्ष काल था। गोल्डन पीरियड था। नेहरू के लिए लोगों में अजब जूनून था। कांग्रेस लोगों के सांस-सांस में बसी थी।

पर अब ?

कांग्रेस अब एक दुःस्वप्न की तरह है। राजवंश को ढोते-ढोते , ध्वस्त हो चुकी , घोटालों और मुसलसल चुनावी हार के चलते कांग्रेस इस समय वेंटिलेटर पर है। तिस पर राहुल गांधी जैसा व्यक्ति कांग्रेस के इस वेंटिलेटर को भी जब तब अपनी सनक में नोचता फिरता दीखता है। नब्बे के दशक में लखनऊ में नारा लगता था , प्रियंका गांधी नहीं , आंधी है ! प्रियंका लाओ , देश बचाओ ! तब भी प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि देखी गई थी। लेकिन पुत्र मोह में धृतराष्ट्र बनी सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश और लखनऊ से चले इस नारे पर कान नहीं दिया। फिर इंदिरा की तरह प्रियंका भी वाड्रा के प्रेम जाल में फंस गईं। पारिवारिक विरोध से गुज़रते हुए विवाह हो गया। पर इंदिरा के पति फ़िरोज़ गांधी , लंपट भले थे , हद से अधिक औरतबाज थे पर राजनीतिक शुचिता और नैतिकता के हामीदार थे। भ्रष्टाचार के मसले पर फ़िरोज़ गांधी कांग्रेस में रहते हुए भी नेहरू सरकार की ईंट से ईंट बजा देते थे। संसद में नेहरू की नाक में दम कर देते थे। मूंदड़ा कांड पर फ़िरोज़ गांधी ने इतना हल्ला मचाया कि तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। तब कहा जाता था कि कांग्रेस में रह कर भी फ़िरोज़ गांधी , प्रतिपक्ष के नेता बन कर रहते थे। फ़िरोज़ गांधी को संगीत से बहुत प्यार था।

इंदिरा गांधी कहती भी थीं कि कविता से प्रेम करना पापा ने सिखाया लेकिन संगीत से प्रेम करना फ़िरोज़ ने सिखाया। वैसे भी इंदिरा गांधी फ़िरोज़ गांधी को पसंद भले नहीं करती थीं पर प्रेम बहुत करती थीं। एक ऋण भी था , इंदिरा गांधी के दिल पर फ़िरोज़ का कि उन की मां कमला नेहरू की अंतिम समय में अगर किसी ने देखभाल की थी तो वह फ़िरोज़ गांधी ही थे। फ़िरोज़ ने सब कुछ छोड़-छाड़ कर कमला नेहरू की सेवा की थी। तब जब कि कमला नेहरू को टी बी थी। तब के समय असाध्य और छुआछूत वाला रोग। फ़िरोज़ गांधी की बायोग्राफी में बहुत से पॉजिटिव काम भी दर्ज हैं। उन की औरतों की तरह उन के पॉजिटिव काम की सूची भी लंबी है। और इस सब से भी बड़ी बात यह कि फ़िरोज़ गांधी एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। इंदिरा गांधी खुद बताती थीं कि लंदन में होटल में चाय पिलाने के लिए फ़िरोज़ गांधी सैकड़ों प्लेट धोते थे। लेकिन चाय का पेमेंट किसी भी सूरत मुझे नहीं करने देते थे। खुद करते थे।

लेकिन राबर्ट वाड्रा ?

प्रियंका के पति के रूप में जाने , जाने वाले रावर्ट वाड्रा फ़िरोज़ गांधी से उलट बहुत बड़े भ्रष्टाचारी के रूप में भी जाने जाते हैं। जाने कितने किस्म की जांच के फंदे में हैं रावर्ट वाड्रा। और तमाम बातों पर ट्वीट पर ट्वीट करने वाली प्रियंका रावर्ट वाड्रा के पक्ष में भी कोई ट्वीट नहीं करतीं। वाड्रा की जांच में अपनी सुरक्षा खातिर मिली एस पी जी का इतना दुरूपयोग किया प्रियंका ने कि उन की एस पी जी सुरक्षा समाप्त हो गई। एस पी जी सुरक्षा गई तो सरकारी घर भी गया। सरकारी घर गया तो दिल्ली भी गई। हालां कि कहने के लिए ही सही , नाम भर के लिए ही प्रियंका लखनऊ जाने की बात कर रही हैं। लिख कर रख लीजिए कि लखनऊ में रहने का थोड़ा सा ड्रामा कर दिल्ली में वह अपनी मां के पास या कोई नया घर ले कर रहने लगेंगी। भाई के पास नहीं रहेंगी। क्यों कि भाई और बहन के शौक बहुत मिलते हैं। टकराहट हो जाएगी। हालां कि मां के पास भी प्रियंका की प्राइवेसी कितनी मेनटेन रह पाएगी , यह वही बेहतर जानती हैं। क्यों कि दादी का पुरुषों वाला शगल पोती में भी पाया जाता है। किस्से तो सोनिया गांधी और राजीव गांधी के भी तमाम हैं। वाइफ स्वैपिंग तक के किस्से हैं। अंतरराष्ट्रीय पत्रिका टाइम में एक बार थोड़ा सा कुछ छपा था। बल्कि टाइम पत्रिका के उस अंक का कवर पेज भी सोनिया के सेक्सी पोज , वक्ष के उभार को पारदर्शी कपडे में एक्सपोज करता हुआ छपा था। राजीव गांधी तब प्रधान मंत्री थे। भारत में टाइम पत्रिका का वह अंक तब प्रतिबंधित कर दिया गया था।

कायदे से राजीव गांधी और सोनिया गांधी को टाइम पर तब मानहानि का मुकदमा करना चाहिए था। पर नहीं किया। फिर कुछ समय बाद ही राजीव गांधी के बालसखा , दून स्कूल में सहपाठी रहे , राजीव मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री रहे अरुण सिंह अचानक सब कुछ त्याग कर अल्मोड़ा के बिनसर में ऊंची पहाड़ी पर रहने चले गए। जहां बिजली भी नहीं है और कि वहां कोई सवारी भी नहीं जाती। वह अरुण सिंह जिन का बंगला राजीव गांधी के बंगले से सटा हुआ था। और नियम विरुद्ध बाउंड्री तोड़ कर भीतर-भीतर दरवाज़ा खोल दिया गया था। क्यों चले गए बिनसर अरुण सिंह यह भी एक बड़ी दिलचस्प कथा है। अमिताभ बच्चन का सोनिया विवाद भी सब के सामने है। विवाद का उथला भी सब के सामने है। पर असली कथा कम लोग जानते हैं। वह अमिताभ बच्चन जो पहली बार भारत आई सोनिया को रिसीव करने अकेले दिल्ली एयरपोर्ट न सिर्फ पहुंचे थे बल्कि उन्हें अपने पिता के दिल्ली वाले घर ले जा कर रखा था। आखिर सोनिया इतनी नाराज क्यों हुईं अपने पति राजीव गांधी के बालसखा अमिताभ बच्चन से कि उन को सड़क पर ला देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सड़क पर अमिताभ बच्चन आ भी गए थे। कौन सी जांच थी जो अमिताभ बच्चन के खिलाफ नहीं हुई। दिवालिया हो गए। मकान तक नीलामी पर लग गए। अमिताभ बच्चन को इस मुश्किल से बचाने वाले लोग भी निशाने पर आ गए। अस्पताल में भर्ती अमिताभ बच्चन को बेड पर इनकम टैक्स की नोटिसें सर्व की गईं। ऐसा बहुत कुछ अप्रिय हुआ , जो अमिताभ बच्चन ही जानते हैं। लेकिन वह अपनी सूझ-बूझ , मेहनत और किस्मत से सोनिया का सारा जाल छिन्न-भिन्न कर बाहर आ गए। लेकिन सभी तो किस्मत के धनी नहीं होते। सभी तो अमिताभ बच्चन नहीं होते। कुछ अरुण सिंह भी होते हैं। कुछ अनाम और अनजान लोग भी होते हैं।

कुछ राजीव शुक्ला भी होते हैं। जिन को राजीव गांधी जैसे लोग लगभग उपकृत करते हुए अपनी महिला मित्र अनुराधा प्रसाद से विवाह करवा देते हैं। और वह फिर मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखते। फिर यही राजीव शुक्ला जैसे कहानी का चक्र घुमाते मिलते हैं। प्रियंका और शाहरुख खान की मेल-मुलाक़ात करवाते हैं। खबर सोनिया तक पहुंचती है। नाराजगी भी झेलते हैं राजीव शुक्ला। और मंत्री बनते-बनते रह जाते हैं। पर राजीव शुक्ला में और सब कुछ के अलावा धैर्य भी बहुत है। प्रियंका कार्ड चल कर थोड़ा देर से सही मंत्री भी बन जाते हैं। लेकिन यह सब दिल्ली , मुंबई में करना आसान होता है। यहां ज़्यादा किसी को किसी से मतलब नहीं होता। तो सब चल जाता है। लेकिन लखनऊ दिल्ली, मुंबई के मुकाबले अनुपातत: बहुत छोटा शहर है। सब लोग , सब कुछ जान जाते हैं। अब तो कार के शीशे पर काला शीशा भी क़ानून अलाऊ नहीं है। एस पी जी का सुरक्षा चक्र भी नहीं है। फिर लखनऊ नवाबों का शहर रहा है। नवाबों के किस्सों का शौक़ीन। नवाब नए हों , पुराने हों , अमा यार सब जानते ही हैं। तो प्रियंका के शौक लखनऊ में छुपने मुश्किल हैं। यह बात प्रियंका , बेहतर जानती हैं।

इस लिए जान लीजिए कि सिवाय राजनीतिक प्रोपगैंडा और नौटंकी के प्रियंका का लखनऊ प्रवास और कुछ भी नहीं है। रहना उन्हें दिल्ली में ही है। बाक़ी रहने को तो लखनऊ के सांसद और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी लखनऊ में नहीं रहते। बस आते-जाते रहते हैं। लखनऊ आते हैं तो खबर छपती है कि आ रहे हैं। जा रहे हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जब सांसद थे लखनऊ के तो उन के साथ भी यही था। वह भी लखनऊ यदा-कदा ही रहते थे। इंदिरा गांधी की मामी शीला कौल , जिन के घर प्रियंका रहने आने का डंका बजा रही हैं , वह भी जब लखनऊ की सांसद थीं , तब भी लखनऊ में नहीं रहती थीं। आती-जाती रहती थीं। केंद्र में मंत्री थीं। राज्यपाल भी रहीं। तो लखनऊ में क्या धरा था। शीला कौल की बेटी दीपा कौल तो उत्तर प्रदेश सरकार में सूचना राज्य मंत्री थीं तो भी सदन के समय ही लखनऊ में रहती थीं। इस लिए भी कि जो नेता एक बार लखनऊ भोग लेता है , अपने गांव में नहीं रहता। ऐसे ही जो नेता दिल्ली भोग लेता है , वह लखनऊ नहीं रह पाता। फिर प्रियंका तो अपने को राजवंश का मानती हैं। राजवंश की हैं तभी तो प्रियंका दिल्ली छोड़ कर , लखनऊ रहेंगी की ढोल बज रही है।

नहीं जाने कितनी प्रियंका इधर से उधर होती रहती हैं। कौन जानता है।

हमारे लखनऊ में एक से एक बिरयानी बेचते , पंचर जोड़ते , ठेले लगाते लोग मिल जाते है , जो बड़े अदब और शान से अपने पुरखों को नवाब बताते नहीं थकते। इस समय भी एक मोहतरम हैं जो लखनऊ के घोषित नवाब हैं , इस-उस कार्यक्रम में लोगों के साथ चिपक कर फ़ोटो खिंचवाते दिख जाते हैं। मौसम कोई हो , शेरवानी उन की नहीं उतरती। तो दिल्ली में रहने वाली कांग्रेस की राजकुमारी प्रियंका के लखनऊ में रहने के खतरे बहुत हैं। बड़े धोखे हैं इस राह में। नुकसान बहुत हैं। व्यक्तिगत ज़िंदगी एक तो सार्वजनिक हो जाएगी। शॉर्ट्स पहन कर जो किसी दिन वाक पर निकल जाएंगी तो तमाम नवाब भी वाक पर आ जाएंगे। एस पी जी का घेरा है नहीं। तो और मुश्किल। शाहरुख़ खान जैसे सैकड़ो , हज़ारो दिल्ली आते-जाते रहते हैं लेकिन पता नहीं पड़ता। उसे खुद बताना पड़ता है। खबर छपवानी पड़ती है कि मैं आया हूं। लेकिन लखनऊ में मुंबई से कोई छुटभैया भी आ जाता है तो खबर छप जाती है। उस के उठने , बैठने , नहाने , खाने , मिलने की डिटेल छप जाती है। उसे देखने के लिए पुलिस से लाठियां खाने पब्लिक पहुंच जाती है।

फिर गोखले मार्ग , जहां शीला कौल का घर है , मेरे घर से एक किलोमीटर पर ही है। वहां सड़क भी फोरलेन वाली नहीं है। बाउंड्री भी छोटी वाली है। उजड़ा-उजड़ा दयार है। राजकुमारी प्रियंका को चेक यह भी ज़रूर कर लेना चाहिए कि इस बंगले का हाऊस टैक्स और बिजली का बिल आदि कहीं बकाया तो नहीं है। अगर बकाया हो तो चुपके से जमा करवा दीजिएगा। नहीं ऐसी ही खबरों से स्वागत शुरू हो जाएगा। इस लिए भी कि कांग्रेसियों को यह सब बकाया रखने का नवाबी शौक रहा है। आप चिल्लाती रहिएगा कि यह योगी का जुल्म है। लेकिन यह सब कोई सुनेगा नहीं। फिर लखनऊ में रहेंगी तो 10 , माल एवेन्यू कांग्रेस के दफ्तर भी जाना-आना होगा ही। माल एवेन्यू का यह कांग्रेस दफ्तर भी आप की बहुत खबर लेने और देने वाला है। कर्मचारियों का वेतन , भवन का मालिकाना विवाद , खराब मेंटेनेंस , गंदगी , जाला आदि अपनी मनहूसियत के साथ मिलेंगे ही , एक से एक घाघ मगरमच्छ भी मिलेंगे। जो आप से कुछ न मिलते ही , आप ही को काट खाएंगे। तो उलटे बांस बरेली कहिए , उलटे पांव भागना पड़ेगा।

प्रियंका की ज़िंदगी और उन की ज़िंदगी के नखरे सब लखनऊ वालों को दिख जाएंगे। महात्मा गांधी तो हैं नहीं , प्रियंका गांधी कि जो भी कुछ करेंगी , खुलेआम। तो प्रियंका जी बड़े धोखे हैं इस राह में। मनो लखनऊ में रहने की राह में। बाकी आप की यह लखनऊ में रहने की ढोल न बजती तो मुझे भी यह सारा सितार न बजाना पड़ता। अब बज गया है यह सितार तो लोग सुनेंगे ही। बाक़ी लखनऊ में आप कितना रहेंगी , यह आप भी जानती हैं और मैं भी। सचमुच रहेंगी लखनऊ में तो एक दिन आऊंगा गोखले मार्ग , आप के घर , आप से मिलने। अगर आप देंगी तो एक बढ़िया इंटरव्यू लूंगा। कि लोग पढ़ कर , अश-अश करेंगे।