समझ नहीं आता कि इस्लाम के अनुयायियों में देश के प्रति इतनी नफरत क्यों हैं। कि हरदम पिनक में रहते हैं। कि हर किसी सीधी बात में भी बईठब तोरे गोद में उखारब तोर दाढ़ी ! की रवायत तलाशने की कसरत में लग ही जाते हैं। अब आरोग्य सेतु ऐप्प से उन का ऐतराज आ गया है। कि सरकार इस के जरिए लोगों का निजी डेटा हासिल कर लेगी। जाने क्या-क्या छुपाने को है इन के पास। एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी का कहना है कि ''केंद्र सरकार कोरोना वायरस से ताली, थाली, बिजली और एक बहुत संदेहास्पद ऐप से लड़ रही है। अब दिल्ली के सुल्तान ने एक फरमान जारी किया है कि जिसमें लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है। उन्हें अपना प्राइवेट डेटा सरकार (और जिसके साथ सरकार चाहे) के साथ जरूर शेयर करना है।'' और कि जैसे सारी भेड़ एक दूसरे के पीछे चल पड़ती हैं , अल्ला-अल्ला कह कर चल पड़े हैं लोग , ओवैसी को फॉलो करते हुए। हर बात पर इन्हें मुश्किल है। बात-बेबात।
1947 से क्या पहले ही से सर्वदा रवैया आक्रमणकारियों सरीखा रहा है। सर्वदा रहेगा। यह रवैया कभी अब बदल भी सकेगा , संदेह है। तिस पर तुर्रा यह भी कि हिंदुस्तान किसी के बाप का थोड़े ही है !
फिर कोरोना काल में मुस्लिम समाज ने जो जगह-जगह अतियां की हैं , अतियों का कोहराम मचा रखा है , उसे देखते हुए अब दो ही रास्ते दीखते हैं। या तो जैसे चीन ने तीस लाख उइगर मुसलमानों को नज़रबंद कर देशभक्ति का पाठ पढ़ाना शुरू किया है , वही किया जाए। या फिर म्यांमार में जिस तरह सेना ने मार-मार कर रोहिंग्या मुसलमानो को देश से बाहर खदेड़ दिया है , खदेड़ दिया जाए। या फिर इन की आबादी के हिसाब से जैसा कि यह चाहते हैं इन्हें एक और पाकिस्तान दे कर इन से एकदम से मुक्ति पा ली जाए। ताकि देश में लोग अमन-चैन से रह सकें। आए दिन कभी कश्मीर , कभी शहर-दर-शहर मिनी पाकिस्तान , कभी इन की जहालत , इन का आतंकवादी क्रिया कलाप , इन का दंगा फ़साद , इन का तबलीग , इन का वहाबी , इन का यह , इन का वह , इन की अशिक्षा , इन की मज़हब की ज़िद और सनक बहुत भारी पड़ रही है देश और समाज के लिए। अर्थव्यवस्था और समाज पर बहुत बड़ा बोझ और सिरदर्द रोज-रोज का झेलने से बेहतर है इन को , इन के मन का देश दे ही दिया जाए। बस पहले पाकिस्तान वाली गलती नहीं दुहराई जाए। कि जो चाहे , जाए। जो न चाहे , न जाए। बस जाए तो मुकम्मल जाए। जैसा कि अंबेडकर चाहते थे। कहते रहे थे कि पाकिस्तान बना , अच्छा हुआ। भारत से एक अभिशाप गया। अंबेडकर खुल्ल्मखुल्ला इस्लाम को अभिशाप मानते थे। दुनिया भर में इस्लाम के नाम पर जो कोहराम मचा रखा है , उसे देख कर लगता है कि अंबेडकर ठीक ही कहते थे।
भले भारत की धरती का अपनी आबादी के अनुपात से एक बड़ा टुकड़ा भी ले ले मुस्लिम समाज। लेकिन जान छोड़े। जो भी हो , पर अगर समय रहते कोई बड़ा और कारगर फैसला न किया गया तो भारत को अब सीरिया बनने से रोकना बहुत मुश्किल हो जाएगा। आप मानिए , न मानिए एक अघोषित गृह युद्ध में हमें ले जा चुका है मुस्लिम समाज। और जो लोग आंख पर सेक्यूलरिज्म की पट्टी बांध कर इस तथ्य को अनदेखा कर रहे हैं , उन का भी कोई कुछ नहीं कर सकता। क्यों कि भारत में सेक्यूलरिज्म दो ही लोगों के हाथ में हैं। एक वह जो बेहिसाब विदेशी फंडिंग से सराबोर हैं , सुविधाएं भोग रहे हैं। या फिर जिन का माइंड सेट ऐसा अवरुद्ध हो चुका है , कंडीशंड हो चुका है , सनक और ज़िद की हद तक वह जा चुके हैं , ऐसे कट्टर लोगों के हाथ। इतना कि देश की 99 प्रतिशत गैर मुस्लिम आबादी इन सेक्यूलरिस्टों से आजिज आ चुकी है। त्राहिमाम कर चुकी है। मुक्ति चाहती है इन से। मुस्लिम समाज की अतियों का निरंतर कवच बनते रहने से सेक्यूलरिज्म अब गाली बन चुका है भारतीय समाज में। इन की सेलेक्टिव चुप्पी , सेलेक्टिव विरोध अब कोरोना से भी ज़्यादा घातक और मारक हो चुका है। रही बात मुस्लिम समाज की तो इन से संवाद करना , दीवार में सिर मारना है।
यह कितना भी पढ़-लिख लें। कितना भी पैसा कमा लें। लेकिन मज़हब छोड़ कर यह कुछ सोच नहीं सकते। और इन का मज़हब इन्हें खुल्ल्मखुल्ला सिखाता है कि काफिरों को मारो। काफिर वह जो मुसलमान नहीं है। सीधा फंडा है इन का। नो इफ , नो बट। बाकी बातें आंख में धूल झोंकने के लिए है। भारत में तो इन के पास संघियों , भाजपाइयों की ओट है , अपनी बदतमीजियों , अपनी हिंसा को कवर करने के लिए। पर क्या समूची दुनिया में ही संघी और भाजपाई हैं ? अपनी हिंसा , अपनी अतियों और अपनी कट्टरता के चलते इस्लाम और कम्युनिस्ट पूरी दुनिया में बदबू मार रहे हैं। इन लोगों को अब अल्ला मिया भी कुछ नहीं समझा सकते।
भारत में कम्युनिस्ट पार्टियां बेसबब ही नहीं खारिज हुईं। देश की संसद , विधान सभाओं से यह निरंतर समाप्त होती जा रही हैं तो अकारण ? कुछ बौद्धिक अवशेष कहिए , खण्डहर रह गए हैं भारत में। वह भी बस चंद रोज मिरि जान बस चंद रोज और। रही बात मुस्लिम समाज की तो आंख उठा कर देख लीजिए , अमरीका , यूरोप , चीन , जापान , फ़्रांस , म्यांमार समेत सभी जगह इन की क्या दुर्गति , क्या अपमानित ज़िंदगी है , इन के कर्मों के कारण। एक भारत में ही इन को सम्मान हासिल है। पर अपने इस सम्मान को किस तरह किसी चूहे की तरह लगातार कुतर-कुतर कर सब का जीवन कष्टमय बनाते जा रहे हैं। कैसे कबीलाई कल्चर में ही तर-बतर पूरे देश को कोरोना की आपदा में भी लगातार तबाह कर जगह-जगह हिंसा और उपद्रव मचाए हुए हैं। मनुष्यता से जैसे कुछ लेना-देना ही नहीं है। अदभुत ताना-बाना है इन का।
कम से कम भारतीय संदर्भ में तो हम मुगलिया सल्तनत के इतिहास के 700 वर्ष को विध्वंस के इतिहास के रूप में जानते हैं । लोक कल्याण के नहीं । जो भी ऐतिहासिक इमारतें मुगल काल के आक्रमणकारी शासकों ने बनाई हैं अपने रहने और अपनी शानो-शौकत के लिए । लालकिला , ताजमहल , कुतुबमीनार या चारमीनार जैसी तमाम इमारतों का ऐतिहासिक महत्व तो है पर क्या यह जनता के भले के लिए बनाई गईं ? जनता के रहने के लिए बनाई गईं ? बाबरी मस्जिद के लिए जान लड़ाने वाले लोग कभी इस मुद्दे पर बात क्यों नहीं करते कि अयोध्या में राम जन्म-भूमि , मथुरा में कृष्ण जन्म-भूमि या काशी में काशी विश्वनाथ मंदिर से ही सट कर , दीवार से दीवार सटा कर ही मस्जिद बनाना इतना ज़रूरी क्यों था ? जजिया , खून खराबा तथा तलवार के बल पर जबरिया धर्म परिवर्तन के लिए इतिहास में मुगल काल को जाना जाता है । लूट-पाट और आक्रमणकारी छवि आज भी मिटी नहीं है , बावजूद तमाम ऐतिहासिक बेईमानियों और सो काल्ड सेक्यूलरिज्म के । यहां तक कि अकबर दुनिया का पहला सम्राज्यवादी शासक है । ब्रिटेन का साम्राज्यवाद तो बहुत बाद में आया । आज भी समूची दुनिया में मुसलमान अपने इस खून खराबे के इतिहास से बाहर निकलने को तैयार नहीं दीखते । ब्रिटिशर्स ने तो फिर भी बहुत से लोक कल्याणकारी कार्य किए जो आज भी अपनी पूरी बुलंदी के साथ दीखते हैं ।
आज इस सभ्य समाज में भी मुस्लिम समाज के लोग अपनी उन्नति मदरसों , मज़हबी अफीम और दारुल उलूम में ही देखते हैं । इस्लाम उन के लिए पहले है , मनुष्यता और देश भाड़ में जाए । एक से एक पढ़े-लिखे मुसलमान भी इस्लाम में ही पहली सांस ढूंढते हैं । एक मौलाना अंसार रज़ा बड़े फख्र से कहते हैं कि अगर मुसलमान होगा तो शरीयत का ही क़ानून मानेगा। ज्ञान-विज्ञान पढ़े मुस्लिम लोग भी अपनी पहचान मदरसों और दारुल उलूम में खोजते मिलते हैं तो यह देख कर बहुत हैरानी और तकलीफ होती है । सोचता हूं कि क्या यह पढ़े-लिखे लोग हैं ? आज भी आग पर चलना , देह पर छुरी मारना इन के लिए ज़रूरी है । यह अनायास नहीं है कि मुस्लिम समाज के स्वाभाविक नेता ओवैसी या आज़म खान जैसे जाहिल और जहरीले लोग हैं । यही रहेंगे । कांग्रेस , कम्युनिस्ट , सपा , बसपा , लालू , ममता जैसे लोग इन को बिगाड़ कर पत्ते की तरह इन का वोट बटोरने के लिए हैं ही । सेक्यूलरिज्म का एक सो काल्ड कवच-कुंडल इन के पास है ही ।
ब्रिटिशर्स जिन को गांधी ने देश छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया , वह ब्रिटेन के संसद परिसर में गांधी की प्रतिमा बड़ी शान से लगाते हैं , रिचर्ड एटनबरो गांधी पर शानदार फ़िल्म बनाते हैं । अपने रुलर की छवि तोड़ कर , गुलाम बनाना भूल कर दोस्ताना व्यवहार बनाते हैं । और यहां हमारे मुस्लिम समाज के लोग आज भी एक आक्रमणकारी की निशानी बाबरी के लिए जान लड़ाने में अपना शौर्य समझते हैं । अपने आक्रमणकारी इतिहास में इन्हें इतना मजा आता है कि उस से निकलना अपनी तौहीन समझते हैं । वह आज भी अपने को वही खूखार रुलर समझने के नशे में चूर रहते हैं । गंगा-जमुनी तहज़ीब का नशीला फ़रेब अलग है । खैर , गंगा जमुनी तहज़ीब के बरक्स राहत इंदौरी का एक शेर मुलाहिजा कीजिए :
कब्रों की ज़मीनें दे कर हम मत बहलाइए
राजधानी दी थी , राजधानी चाहिए ।
भारत , चीन की तरह कोई तानाशाह देश तो है नहीं जो लोगों को नज़रबंद कर रखा जा सके। तो समय आ गया है कि इन को इन की एक राजधानी सहित एक नया देश दे दिया जाए या फिर म्यांमार की तरह सेना लगा कर , इन को खदेड़ कर , इन से मुक्ति पा ली जाए। ताकि यह भी अपने इस्लाम में सुकून से रह सकें और बाकी सभ्य लोग भी शांति से रह सकें। यह रोज-रोज के हिंदू , मुसलमान के जहर से किसी तरह छुट्टी मिले। क्यों कि जो लोग इस महामारी में भी मनुष्य होना नहीं , मुसलसल मुसलमान होना ही , मुसलमान होने के नाम पर अराजकता और हिंसा ही चाहते हैं , उन की किसी भी सभ्य समाज में ज़रूरत कैसे हो सकती है। कैसे खप सकते हैं ऐसे कट्टर लोग किसी मनुष्यता में , किसी सभ्यता में भला।