Friday, 3 April 2020

नर्स का मोजा और कामरेड का पुलिस से पिटना

उन दिनों हम विद्यार्थी थे। कविता बहुत थी जीवन में। कविता ही ओढ़ते-बिछाते थे। पर पत्रकारिता क्या अख़बारों में लिखने की पेंग भी मार रहे थे। उन दिनों लिखने के लिए सब से आसान था कुछ सवाल बना कर कुछ सेलिब्रेटी टाइप लोगों से बतिया कर परिचर्चा आयोजित करना। परिचर्चा फट से छप भी जाती थी बड़े-बड़े अखबारों और पत्रिकाओं में भी। गोरखपुर में साप्ताहिक अखबारों का भी तब खूब जोर था। उत्तरी हेराल्ड साप्ताहिक के संपादक थे जयप्रकाश शाही। हमारे गांव के पास के थे। कविताएं लिखते थे। हमारे संघतिया थे। हम लोग बेसबब साइकिल लिए , पैदल घूमते रहते थे। सिनेमा के पोस्टरों पर हीरोइनों को देखते और सड़क पर लड़कियों को। तब सड़कों पर लड़कियां भी कम होती थीं और सिनेमा के पोस्टर तो और भी कम। तो हम लोग इधर-उधर की बतियाते बहुत थे। शाही जी हम से उम्र में चार-पांच बरस बड़े थे लेकिन महसूस नहीं होने देते थे। आखिर तक हम लोगों का याराना रहा। फ़रवरी , 1998 की एक दुर्घटना में मैं मरते-मरते बचा और शाही जी मुझे छोड़ कर चले गए। हम लोग एम्बेस्डर कार में अगल-बगल ही बैठे थे। संभल जा रहे थे , मुलायम सिंह के चुनाव के कवरेज में। कि कार सामने से आ रहे एक ट्रक से टकरा गई। शाही जी और ड्राइवर एट स्पॉट चले गए थे। खैर , यह कहानी फिर कभी।

तो उन दिनों एक युवा , अब नाम क्या बताऊं भला उन का , हम लोगों से मिले। पत्रकार बनने के लिए परेशान थे। शाही जी ने उन्हें परिचर्चा की डोर पकड़ा दी। सवाल भी उन के पास होते नहीं थे। हम और शाही जी , उन्हें सवाल लिखवाते। उन का लिखा भी फिर से लिखना पड़ता था , शाही जी को। खैर , उन्हीं दिनों उन युवा को अस्पताल आते-जाते किसी नर्स की बीमारी लग गई। अब वह नए-नए बने नर्स हॉस्टल में जाने की जुगत बनाने में लगे थे। लेकिन सुरक्षा कर्मी काम पूछ कर रोक देते थे। अब वह परेशान। अंतत: उन्हें नर्सों की समस्या पर परिचर्चा करने की सूझी। सवाल लिखवाने भी वह हम लोगों के पास आए। शाही जी खिलंदण भी बहुत थे। सो छूटते ही पूछा , कहीं आंख मिल गई है का हो ! वह नहीं-नहीं करने लगे। खैर सवाल लिखवा दिए गए। सवालों में एक सवाल शाही जी ने बहुत गंभीर हो कर आख़िरी सवाल लिखवा दिया कि आप यह मोजा कहां तक पहनती हैं ? अब उन युवा पत्रकार को जाने क्या सूझी कि नर्स हॉस्टल में परिचर्चा के सवालों में इसे ही पहला सवाल बना बैठे कि मोजा कहां तक पहनती हैं। अब नर्सों ने जो उन की सामूहिक सेवा की , कि उसी नर्स के अस्पताल में इलाज के लिए जाना पड़ा। नर्स से टांका भी टूटा और धुलाई भी बेहतर हो गई थी। कुछ दिन बाद वह हम लोगों को सड़क पर टहलते हुए पकड़ लिए। और बरस पड़े। शाही जी ने मौके की नजाकत समझी। धीरे से बोले , सारी पत्रकारिता सड़क पर ही करेंगे ? वह बोले , फिर ? शाही जी ने कहा , आइए आफिस चलते हैं। बैठ कर बात करते हैं। आए हम लोग आफिस। तब तक उन का गुस्सा भी कुछ नरम हो गया था। फिर उन्हों ने अपनी व्यथा-कथा सुनाई। शाही जी ने पूरा मजा ले कर सुना। फिर धीरे से बोले , इस सवाल का जवाब तो समझ गया। लेकिन बाकी सवालों का जवाब कहां है ? लिख कर लाइए छापते हैं। वह भन्नाए , बाकी सवाल पूछ कहां पाए ?

फिर ?

पहला सवाल ही यही पूछा था।  शाही जी बोले , अरे मूर्ख हम ने तो इसे आखिरी सवाल के रूप में लिखवाया था। तो वह थोड़ा झिझके और बोले , मुझे लगा पहले ही देख लें कि कहां तक है , मोजा ! शाही जी को हंसी आ गई। पान थूक , हंसे। वह और नाराज हो गए। कहने लगे कि आप ने ऐसा सवाल लिखवाया ही क्यों कि पिटाई हो जाए ! शाही जी अब चुप थे। बहुत दिनों तक उन का यह सवाल जारी था कि ऐसा सवाल लिखवाया ही क्यों था ? जवाब दिया एक दूसरे पत्रकार ने दिया। बकलोल कहीं के जब बिच्छू का मंत्र नहीं पता है तो सांप के बिल में हाथ डालने गए ही क्यों थे। ऐसे तो ज़िंदगी भर पिटते रहोगे। फिर एक बार शाही जी ने पूछ लिया कि जिस के लिए पिटे , वह पटी भी कि मुफ्त में पिट गए। वह सुन कर मुस्कुराए , देखिए एक बार फिर से लगे तो हैं ! फिर पता नहीं क्या हुआ। पहले शाही जी ने फिर हम ने भी नौकरी के चक्कर में शहर से बाहर आ गए। 

यह किस्सा इस लिए याद आ गया कि मोदी विरोध में इधर एक युवा कामरेड बहुत ज़्यादा पिट गए। वह मोदी के फासीवादी लॉक डाऊन का विरोध करने न सिर्फ सड़क पर निकल गए बल्कि पुलिस ने उन्हें रोका तो वह नरेंद्र मोदी मुर्दाबाद , योगी मुर्दाबाद , फासीवाद मुर्दाबाद ! के नारे भी जोर-जोर से लगाने लगे थे। पुलिस ने तबीयत भर तुड़ाई की। ख़ास कर पृष्ठ भाग पर। अभी तक उन से बैठने और पीठ के बल लेटने में दिक्क्त हो रही है। बाइक थाने में बंद कर दी। मुझे पता लगा तो फोन कर हालचाल लिया। तो पता चला कि उन के सीनियर कामरेड ने उन्हें ताईद की थी कि फासीवादी मोदी , योगी का विरोध हर कीमत पर , हर जगह जारी रहनी चाहिए। यह लॉक डाऊन फासीवादी है। इस का भी विरोध ज़रूरी है। मैं ने पूछा , सीनियर कामरेड खुद क्यों नहीं सड़क पर उतरे ? वह युवा रो पड़ा। बोला , यही तो ! यह जनता कर्फ्यू के एक दिन बाद का वाकया है। मैं ने इस युवा कामरेड को समझाया कि लेकिन यह तो कोरोना से लड़ने का समय है , फासीवाद से लड़ने का नहीं। वह बेचारा रोता रहा। उस की एक मुश्किल यह भी है कि हल्दी , दूध आदि की फासीवादी दवा पर उतरना पड़ा है। कहने लगा कि बस गोमूत्र छोड़ कर घर वाले सारे इलाज वही कर रहे हैं। मुझे भी शाही जी याद आ गए और पूछ लिया कि गाय उपलब्ध है , वहां। या गोमूत्र न मिल पाने की बाध्यता है ? वह भड़क कर बोला , यहां गाय कहां से आएगी ? गांव नहीं है यह। शहर है। गाय मिलती तो भी मैं नहीं पीता। किसी सूरत नहीं पीता। मैं समझ गया कि अब युवा कामरेड घर के फासीवाद और देसी इलाज दोनों से नाराज है। खैर उन्हें समझाया। और बताया कि सीनियर कामरेड लोग वगैरह कुएं में कूदने के लिए कहें तो सौ बार सोचें। या फिर उन से कहें कि आप के नेतृत्व में ही कूदेंगे। पहले आप !

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