तो भीम आर्मी के चंद्रशेखर के बहाने बनारस को दलित हिंसा में धधका कर विपक्ष नरेंद्र मोदी को मात देगा। विपक्ष की ताज़ा कसरत तो यही है। खास कर कांग्रेस की कोशिश यही है। अब अखिलेश और मायावती को कांग्रेस के इस चक्रव्यूह में अपनी आहुति देनी शेष है।
अपनी अराजकता, हिंसा और सवर्णों के प्रति हिंसा भरी नफ़रत के लिए मशहूर भीम आर्मी के चंद्रशेखर अब बनारस में नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार होंगे। ऐसा चंद्रशेखर ने ख़ुद कहा है। प्रियंका से मिलने के बाद मीडिया से बातचीत में कहा है। इतना ही नहीं अस्पताल के विस्तर से समूचे प्रतिपक्ष को धौंस देते हुए , पूरी हेकड़ी में ब्लैकमेल करते हुए यह भी कहा कि जिस को समर्थन देना हो दे , मैं किसी से समर्थन मांगने नहीं जाऊंगा , न मांग रहा हूं। प्रियंका ने चंद्रशेखर से अपना बहनापा भी जोड़ लिया है।
उम्मीद भी की जानी चाहिए कांग्रेस चंद्रशेखर को अपना समर्थन भी देगी। अब गेंद अखिलेश के पाले में है। क्यों कि बसपा से हुए गठबंधन में बनारस सीट सपा के हिस्से में है । अब अखिलेश की तरफ से हां या ना में अभी तक इस बाबत कोई संकेत नहीं मिला है। वैसे एक तथ्य यह भी है कि अखिलेश की साझेदार मायावती चंद्रशेखर को किसी सूरत पसंद नहीं करतीं , न बर्दाश्त करती हैं। मायावती को लगता है कि चंद्रशेखर उन के दलित जनाधार में सेंधमारी कर रहा है। नरेंद्र मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने से चंद्रशेखर चुनाव भले न जीते पर उस का कद और बढ़ जाएगा। तो मायावती यहां अखिलेश के दोनों हाथ बांध सकती हैं। मायावती गांधी को भले शैतान की औलाद कहती हैं , जातिवाद और भ्रष्टाचार की राजनीति करती हैं लेकिन हिंसा और अपराध की राजनीति नहीं करतीं। यह तथ्य तो सब के सामने है। लेकिन भीम आर्मी का चंद्रशेखर तो विशुद्ध रूप से हिंसा की ही राजनीति करता है। जिग्नेश मेवाड़ी भी हिंसा की राजनीति करता है। मायावती को जिग्नेश मेवाड़ी से भी खतरा दीखता है। हार्दिक पटेल भी हिंसा की राजनीति करता है। और कांग्रेस हार्दिक पटेल , जिग्नेश मेवाड़ी , चंद्रशेखर को अपना चुकी है। तो क्या अभी तक यह तीनों कांग्रेस के स्लीपर सेल के रूप में काम कर रहे थे ? क्या यह अहिंसावादी गांधी के नेतृत्व वाली वही कांग्रेस है , जो इन हिंसक राजनीति करने वालों को अपने कंधे पर बिठाए घूम रही है।
लेकिन सोचिए कि समूचा विपक्ष नरेंद्र मोदी को हटाना तो दिल से चाहता है लेकिन नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ कोई एक कद्दावर साझा उम्मीदवार खड़ा करने की कूवत नहीं रखता जो ताल ठोंक कर पूरे जज्बे के साथ नरेंद्र मोदी को हराने के बनारस से लड़ सके। अभी तक तो नहीं ही। मिलता भी है तो हिंसक और जातीय नफरत की राजनीति का हामीदार चंद्रशेखर। हां एक बात नरेंद्र मोदी को भी अब सोचने की है है। नरेंद्र मोदी को बनारस के अलावा किसी एक और जगह से चुनाव लड़ना ही पड़ेगा। क्यों कि बनारस से चंद्रशेखर की उम्मीदवारी का मतलब है , बनारस के चुनाव का हिंसात्मक हो जाना। हत्या , आगजनी आदि के फेर में बनारस का चुनाव स्थगित या रद्द भी हो सकता है। विपक्ष चंद्रशेखर द्वारा संभावित इस हिंसा में घी डालने का काम बखूबी करेगा। सहारनपुर और मेरठ बेल्ट चंद्रशेखर की नफ़रत भरी जातीय हिंसा से अभी तक कराह रहा है। अब बनारस की बारी है।
जाहिर है इस हिंसा को दलितों पर अत्याचार से जोड़ कर देश में दलित के समर्थन में आग और धधकाई जा सकती है। अगर सरकार पहले की तरह फिर से चंद्रशेखर पर रासुका लगा कर बनारस को चुनावी हिंसा से बचाने का उपक्रम करेगी तब भी यह मोदी और भाजपा के ख़िलाफ़ जाएगा। देखना दिलचस्प होगा कि चुनाव आयोग इस बाबत क्या करेगा। वैसे भी योगी सरकार जो भी करेगी चुनाव आयोग के मार्फ़त ही करेगी। सीधे-सीधे कोई रिस्क नहीं लेगी। हालां कि मुझे याद है कि दिसंबर , 1984 के लोकसभा चुनाव तथा फ़रवरी , 1985 में उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में गोरखपुर के दो माफ़िया हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही पर प्रदेश सरकार ने रासुका लगा दिया था। फर्क बस इतना है कि यह दोनों दलित नहीं थे , न तब दलितों को ले कर समाज में इतना बवाल था। बहरहाल तब इन दोनों ने जेल से ही चुनाव लड़ा था। लोकसभा चुनाव में तो दोनों की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी , इंदिरा लहर में लेकिन विधानसभा चुनाव दोनों ही जीत गए थे।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (15-03-2019) को दोहे "होता है अनुमान" (चर्चा अंक-3275) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भगवान इन राजनीतिज्ञों को थोड़ी समझदारी दे कि हिंसा को बढ़ावा न दें
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