Monday, 4 July 2016

मेरे मन के आषाढ़ को अपने सावन से मिलने तो दो


ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

रिमझिम फुहारों में भीज कर मुझे फिसलने तो दो 
मेरे मन के आषाढ़ को अपने सावन से मिलने तो दो

तुम्हारे प्यार में पुलक कर मन मेघ हुआ जाता है
इसे अपने भीतर बरस बरस जी भर भीजने तो दो

अकारथ कुछ भी नहीं जाता मन के मेघ बरसेंगे ज़रुर
मेह के नेह को सरोवर नदी सागर तक पहुंचने तो दो

बादल है बरखा है जंगल है मादक हवा और तुम
इस बरसते मेघ को मेरा कोई संदेश कहने तो दो

मन की मछली को तड़प कर मरने से बचाना ज़रुरी 
प्रेम की नाव को अपने मन की नदी में उतरने तो दो

एक आग मेरे भीतर मुसलसल सुलग रही है कब से
इस सुलगती आग को मन के जंगल में जलने तो दो

आकाश नदी जंगल और समंदर हर कहीं तुम्हारी तलब
एक सपना देखा है उसे ज़मीन पर ज़रा उतरने तो दो


[ 4 जुलाई , 2016 ]

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