फ़ोटो : विजय पुष्पम पाठक |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
इस दुनिया में मेरा चरखा मेरा सूत मेरा कपास हो तुम
मधुमास बीत गया अब चढ़ते चईत का खरमास हो तुम
चली भी आओ इस टूटते समय में सूर्य की किरन की तरह
ज़िंदगी की धार में उगते सूरज का सुनहरा उजास हो तुम
तुम्हारा आना अचानक आते ही आंख बचा कर लिपट जाना
आ जाए जो बाढ़ घर में दो नदियों के बीच का कछार हो तुम
आ जाए जो बाढ़ घर में दो नदियों के बीच का कछार हो तुम
परियों राजकुमारों के किस्से सुनते दादी के साथ सो जाना
खिलखिलाते बचपन में दादी के कटोरे में दूध भात हो तुम
तुम्हारे साथ बैठ कर लौट लौट आता है बचपन अनायास
महुआ टपकते रात की सुबह के पहले की भिनसार हो तुम
तुम्हारे साथ बैठ कर लौट लौट आता है बचपन अनायास
महुआ टपकते रात की सुबह के पहले की भिनसार हो तुम
ढेला मार कर खाते थे कोईलासी लग जाता दाग मुंह पर
वह बचपन वह अल्हड़पन खोया जिस में वह बाग़ हो तुम
बाग़ में खेलते खेलते खो जाती थी गाय हमारी हम रोते थे
कभी अंकुआता टिकोरा कभी पकते गेहूं की गाछ हो तुम
[ 5 अप्रैल , 2016 ]
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