गुज़र रही है ट्रेन मेरी प्रिया के नगर से
और मैं धड़क रहा हूं
कि जैसे रेल की पटरी बन गया हूं
और वह मुझ पर से गुज़र रही है
दुष्यंत कुमार के शेर की तरह
लेकिन कोई पुल भी नहीं है
और मैं थरथरा रहा हूं
ट्रेन जब रुकी प्रिया के शहर के स्टेशन पर
तो मैं ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया है उस शहर को
और चलते समय फिर से प्रणाम कर विदा ली है
बाहर रिमझिम है , भीतर ठंडा
मेरे भीतर एक दूसरी बरखा है
बरखा है प्रिया के शहर से जुड़ी उस की यादों की
इस शहर में ली गई उस की सांसों की
ऐसे जैसे उस की सांसों में
आक्सीजन बन कर मैं ही जा रहा हूं
इस स्टेशन से भी वह बारंबार गुज़री है
आते और जाते हुए
अनगिन बार
उस की वह सारी यादें
बरस रही हैं बरखा बन कर
बरस रही हैं मेरे भीतर एक एक कर के
टुकड़ों-टुकड़ों में मेरे भीतर
कुछ यादें पहले से दर्ज हैं
कुछ अब वह बताती जा रही है
प्रिया साथ नहीं है ट्रेन में
पर सफर में साथ है
वाया वॉट्स अप
वह निरंतर संवादरत है
पूछती जा रही है एक-एक हाल
जैसे सी रही हो सुई-धागे से मेरा हाल-हवाल
मुझे किसी शिशु की तरह सिखा और बता रही है
एक-एक पाठ किसी शिक्षिका की तरह
जैसे कि कुछ समय पहले एक स्टेशन आया
तो मैं ने बताया प्रिया को कि फला स्टेशन आ गया है
तो वह जैसे भावुक हो गई है
बता रही है कि यह मेरा ननिहाल है
मैं ने तुरंत उस स्टेशन
उस नगर को प्रणाम किया है
हाथ जोड़ कर विदा ली है
और बताया है उसे
कि ट्रेन तो चल दी , बड़ी जल्दी
हां , दो मिनट ही रुकती है
वह कहती है
मैं सोचने लगता हूं कि क्या ननिहाल की ज़िंदगी भी
ऐसे ही दो मिनट की नहीं होती है ?
मां का मायका तो मां की स्मृतियों में
जीवन भर समाया रहता है
जाता ही नहीं उस के मन से
जैसे जीवन भर वह उसे ही ओढ़ती-बिछाती रहती है
रहती है अयोध्या में , वन में , लंका में , फिर-फिर वन में
पर जीती जनकपुर में ही है , रहती जनकपुर में ही है
सांस उस की जैसे वहीं से संचालित होती रहती है
स्त्री कहीं भी रहे , उस की सांस का पावर हाऊस
उस के मायके में ही होता है , उस के जनकपुर में
कहते ही हैं कि नईहर का कुत्ता भी सगा लगता है
सतहत्तर साल की मेरी मां आज भी मायके में जीती है
मायके का सुख , उस की स्मृतियां
उस के जीवन से जाती ही नहीं
नाना गए , नानी गईं ,
सारी मामी गईं , सारे मामा गए , बारी-बारी
पर मां का मायका नहीं गया
नहीं जाएगा , कभी भी
जनकपुर कभी नहीं जाता , किसी स्त्री के जीवन से
अयोध्या , वन , या लंका उसे नहीं सुहाता
महारानी बन कर भी , कैदी बन कर भी
वह जीती जनकपुर की राजकुमारी में ही है
उस के सारे सुख-दुःख जनकपुर में ही बसे हैं जैसे
तो क्या गांधारी भी आंखों पर पट्टी बांध कर गांधार ही जीती थी
हस्तिनापुर के विद्रोह में
भाई शकुनी के साथ हस्तिनापुर के प्रतिशोध में
और दुर्योधन ?
क्या पता
पर बच्चों के मन में ननिहाल
बस दो मिनट का स्टेशन बन कर रह जाता है
क्या पता प्रिया का ननिहाल भी हो उस के जीवन में
दो मिनट का ही स्टेशन
पर मेरे जीवन में मेरा ननिहाल दो मिनट का स्टेशन नहीं है
मां की ही तरह मैं भी उसी मोह और उसी नाल से जुड़ा हूं
मां के जनकपुर को कैसे भूल सकता हूं भला
क्यों भूलूंगा मां का मान और उस का मायका
गर्भ और नाल का रिश्ता है मां का
और मां से ही मैं हूं
बाहर बारिश तेज़ हो गई है
वॉट्स पर मेरी प्रिया के संदेश भी
वह सवाल दर सवाल में उलझी है
बताती जा रही है अब फला स्टेशन आएगा , अब अला स्टेशन
सारा स्टेशन , सारा रास्ता रटा हुआ है उस का
लेकिन वह यह नहीं कह रही
कि वह इन रास्तों और स्टेशनों को जीती रहती है
गो कि कहना चाहती है
स्त्रियां कई बार कुछ कहना चाह कर भी नहीं कह पातीं
वह सफ़र के शुरू में ही वॉट्स अप पर आई थी
और मैं हलो , हाय के बाद सो गया था
उस की सलाह पर ही
कहा था उस ने तान कर सो जाईए
पर वह बतियाना चाहती थी
मेरे सोने में भी
उस के संवाद , उस के संदेश जारी थे
पर मैं बेखबर
थोड़ी देर में किसी स्टेशन पर एक औरत डब्बे में चढ़ी
हड़बड़ाती हुई , बड़बड़ाती हुई
मेरी बर्थ के ऊपर की उस की बर्थ थी
तो नींद टूटी
प्रिया आन लाइन थी वॉट्स अप पर
बात शुरू हुई तो
नींद कैसे टूटी
पूछा उसने
बताया मैं ने कि किसी स्टेशन पर एक औरत आई
हड़बड़ाती हुई , बड़बड़ाती हुई
मेरी बर्थ के ऊपर की उस की बर्थ थी
तो नींद टूटी
सुनते ही वह भड़की
और आप ने सोये में भी उस को सूंघ लिया
फिर जाग गए
उस की मदद की
उस को व्यवस्थित किया
थोड़ी देर वह इस औरत के
इस तरह के बेवकूफी के डिटेल में ही उलझी रही
निकाला बड़ी मुश्किल से उसे इस भंवर से
प्रिया बता रही है कि अब मायका आने वाला है
अच्छा , उस को भी प्रणाम करूंगा
उस को तो ज़रूर कीजिये
यह मैं
यह मैं आप की प्रिया
उसी की देन हूं
उस को भी प्रणाम कीजिए
प्रिया खो जाती है अपने जनकपुर की यादों में
अपनी अयोध्या की राहों में
वह अपनी ससुराल के शहर का नाम लेती है
और कहती है सोचो कहां यह शहर , कहां वह शहर
कहां यह ज़िला , कहां वह ज़िला
जैसे कह रही हो
कहां जनकपुर , कहां अयोध्या
दोनों में दूरी बहुत है
दिशाएं नहीं मिलतीं
ऐसे जैसे यौवन ढल जाने के बाद
स्त्री के वक्ष
इधर-उधर हो जाते हैं
वैसे ही विवाह के बाद
स्त्री का जीवन
इधर-उधर हो जाता है
जैसे फेंस के इधर और फेंस के उधर
यह अयोध्या की राह इतनी कंटीली क्यों होती है
जैसे वह कहना चाहती है
लेकिन गोया वह किसी क़िले में क़ैद हो
और कहती नहीं
अयोध्या के बहाने वन , लंका और रावण
उस के हिस्से आ जाते हैं
राम उस के हो कर भी उस के राम कहां रह पाते हैं
बताइए कि राम को वनवास होता है
तो सीता सहर्ष उन के साथ वनवास के लिए
चल देती हैं चौदह साल के लिए
पर जब सीता को वनवास होता है
तो वह अकेली जाती हैं
राम साथ नहीं जाते
पूछती हैं वन में स्त्रियां सीता से
कि राम को वनवास हुआ तो तुम उन के साथ गई
तुम को वनवास हुआ तो राम क्यों नहीं आए साथ
गर्भवती सीता चुप रहती हैं
स्त्रियां ऐसे ही चुप रहती हैं
और उन की अयोध्या , उन का राम ऐसे ही
उन्हें ऐसे ही वनवास देता रहता है
इस यातना में भीजती रहती हैं स्त्रियां
चुपचाप
गुज़र रही है ट्रेन प्रिया के नगर से
और मैं धड़क रहा हूं
प्रिया के नगर को बारंबार प्रणाम करते हुए
उस की यातना में भीजते हुए
बाहर रिमझिम बारिश में
पानी भरे खेतों में
स्त्रियां झुक-झुक कर धान रोप रही हैं
कि जैसे ख़ुद को रोप रही हैं
किसी अयोध्या , किसी वन , किसी लंका में
गोया उन का जनकपुर उन से छूट गया है
ऐसे जैसे वह धान की बेहन हों
[ 26 जुलाई , 2015 ]
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