मुझ से सरिता शर्मा की कोई एक लाइन में कैफ़ियत पूछे तो मैं कहूंगा कि वह प्रेम दीवानी हैं । मीरा जैसी प्रेम दीवानी । उन के गीतों में प्रेम मंदिर की घंटियों की तरह बजता है । मस्जिद में अजान की तरह सुनाई देता है । गुरूद्वारे में गुरुबानी की तरह बजता मिलता है । चर्च में बाइबिल की इबारत की तरह उपस्थित मिलता है । किसी नदी में हिलकोरे मारता मिलता है । प्रेम के स्वर इतनी तरह से उन के गीतों में लहकते और चहकते मिलते हैं कि मन वृंदावन हो जाता है । उन के गीत सुन कर मन मुदित हो जाता है। उन के गीतों में मीरा का दर्द भी मिलता है और मीरा का प्रेम भी , मीरा का संघर्ष भी । मथुरा में मीरा के कृष्ण थे तो सरिता शर्मा की ससुराल भी मथुरा में ही है । मीरा के पास विछोह था , भक्ति थी । सरिता शर्मा भी मीरा की सहयात्री हैं । उन के गीतों में यह सब कुछ छन कर निरंतर सामने आता रहता है । मीरा यायावर थीं , सरिता शर्मा भी यायावर हैं । शहर दर शहर गीत गाती सरिता शर्मा भी घूमती रहती हैं । हिंदी गीतों की थाती ले कर समंदर पार के भी अनगिन देशों में सरिता शर्मा जा चुकी हैं । जाती ही रहती हैं । हिंदी गीतों की नदी में सरिता शर्मा नाम की जो अंत:सलिला प्रवाहित होती है , उस में जाने कितनी नदियां समा जाती हैं। उन के गीत जैसे गीत न हों , वह कोई संगम हों । प्रेम का संगम । जहां प्रेम के कई सारे फूल , चंदन और नदियां आ कर मिलती हों । उन के प्रेम गीतों की जो कल-कल रव है वह विरल है । सरिता शर्मा के गीतों में जो चंदन की खुशबू है , प्रीति की जो पुरवा है , अनुराग की जो देहरी और प्यार के विश्वास की जो छुअन है वह कब किस को विकल बना दे कोई नहीं जानता। वह भी यह नहीं जानतीं । इस में भी सरिता शर्मा की नशीली आवाज़ और गीतों की मादकता में ऊभ-चूभ
उन का पाठ हो तो उन की एक गीत पंक्ति में ही जो कहूं ; गहरे जल में जैसे / चांदनी उतरती है , ठीक वैसे ही सरिता शर्मा के गीत मन में गहरे उतर जाते हैं । उतरते जाते हैं । भावनाएं और शब्द सुमन और सुगंध की तरह एकमेव हो जाते हैं । शाम सुरमई हो जाती है। संवेदना
और संकोच में डूबा सरिता शर्मा का काव्यपाठ एक नया ही ठाट रचता है , नया ही रंग उपस्थित करता है। उन के
गीतों की सुगंध के कई-कई मनोहर रंग मन में उमगने लगते हैं। उन के गीत जैसे प्रेम की आरती के नेह में नत मिलते हैं। वह लिखती ही हैं :
सारी दुनिया से दूर हो जाऊं
तेरी आंखों का नूर हो जाऊं
तेरी राधा बनूं , बनूं न बनूं
तेरी मीरा ज़रूर हो जाऊं
मीरा के कृष्ण अमूर्त हैं तो सरिता गोपियों के प्रेम के व्याकरण का भाष्य भी बांचने लगती हैं । ताकि कुछ तो मूर्त भी हो । वह जैसे पूरी बात , पूरी रात को पढ़ देने की ज़िद में गाती हैं :
रंग कुछ और ही चढ़ा होता
इक नया आचरण गढ़ा होता
तुमने गोकुल की गोपियों से अगर
प्रेम का व्याकरण पढ़ा होता
प्रेम के इस व्याकरण को भी वह मधुशाला के झील में जैसे तब्दील करना भी ज़रूरी मान लेती हैं :
प्रेम पगी एक नज़र
देर तक ठहरती है
गहरे जल में जैसे
चांदनी उतरती है
बूंद-बूंद
मधुशाला होती है
एक झील
सरिता शर्मा के गीतों में सौंदर्य की नदी की अविरल धारा तो है ही , संकेत , सादगी और सकुचाहट की भी एक अजस्र धारा बहती मिलती है अबाध ।
मौन में जब अर्थ से लगने लगे
स्वर सभी असमर्थ से लगने लगे
एक नई भाषा गढ़ी जब दृष्टि ने
शब्द सारे व्यर्थ से लगने लगे।
सरिता शर्मा से लखनऊ में एक शाम की मुलाकात में यही हुआ । हमारी मुलाकात में मुलाकात के नए अर्थ , नए संदर्भ और नई-नई बातें हुईं। होती गईं । ज़िंदगी के अनछुए-अपरिभाषित पन्ने, दुःख-सुख के रंग, ऐसे-वैसे लोगों का ज़िक्र , मंच से इतर उन की नई कविताओं का पाठ उन की यात्राओं के वर्णन ! सब के सब जैसे क्षण भर में ही सिमट कर बटुर गए। इस बतकही में कब आधी रात हो गई पता नहीं चला । उन के ही एक गीत में जो कहूं :
मौन की हर अर्गला को तोड़ कर
हो गया मन
वंदना के छंद सा।
खुल गयीं सब खिड़कियां
निकली घुटन
धूप ने चूमे
निमीलित से नयन
हो गया मन
हर-सिंगारी गंध सा।
कब ह्रदय जाने बिना ही
बिक गया
नाम कोई आत्मा
पर लिख गया
हो गया मन
अनलिखे अनुबंध सा।
सरिता जी के गीतों की चांदनी में जो तरलता है , जो कसाव और उजास है , वह बरबस बांध-बांध लेता है । छोड़ता ही नहीं ।
गुनगुनाती हुई भोर में
बिंध गया मन किसी डोर में
अंकुरित एक सपना हुआ
अधमुंदे नैन की कोर में !
देहरी -देहरी अल्पना
धर गयी बावली कल्पना
आ बंधे रंग सातों मेरी -
ओधनी के धवल छोर में !!
दोपहर चम्पई सी लगी
सांझ कैसी नई सी लगी
मन्त्र सा नाम गुंजित हुआ
धडकनों के मधुर शोर में !!
वर्जना जब हवन हो गयी
सांस गंधिल पवन हो गयी
रम गयी बिन छुए इक छुवन
ज्ञात-अज्ञात हर पोर में !!
एक नई भाषा गढ़ी जब दृष्टि ने
शब्द सारे व्यर्थ से लगने लगे।
सरिता शर्मा से लखनऊ में एक शाम की मुलाकात में यही हुआ । हमारी मुलाकात में मुलाकात के नए अर्थ , नए संदर्भ और नई-नई बातें हुईं। होती गईं । ज़िंदगी के अनछुए-अपरिभाषित पन्ने, दुःख-सुख के रंग, ऐसे-वैसे लोगों का ज़िक्र , मंच से इतर उन की नई कविताओं का पाठ उन की यात्राओं के वर्णन ! सब के सब जैसे क्षण भर में ही सिमट कर बटुर गए। इस बतकही में कब आधी रात हो गई पता नहीं चला । उन के ही एक गीत में जो कहूं :
मौन की हर अर्गला को तोड़ कर
हो गया मन
वंदना के छंद सा।
खुल गयीं सब खिड़कियां
निकली घुटन
धूप ने चूमे
निमीलित से नयन
हो गया मन
हर-सिंगारी गंध सा।
कब ह्रदय जाने बिना ही
बिक गया
नाम कोई आत्मा
पर लिख गया
हो गया मन
अनलिखे अनुबंध सा।
सरिता जी के गीतों की चांदनी में जो तरलता है , जो कसाव और उजास है , वह बरबस बांध-बांध लेता है । छोड़ता ही नहीं ।
गुनगुनाती हुई भोर में
बिंध गया मन किसी डोर में
अंकुरित एक सपना हुआ
अधमुंदे नैन की कोर में !
देहरी -देहरी अल्पना
धर गयी बावली कल्पना
आ बंधे रंग सातों मेरी -
ओधनी के धवल छोर में !!
दोपहर चम्पई सी लगी
सांझ कैसी नई सी लगी
मन्त्र सा नाम गुंजित हुआ
धडकनों के मधुर शोर में !!
वर्जना जब हवन हो गयी
सांस गंधिल पवन हो गयी
रम गयी बिन छुए इक छुवन
ज्ञात-अज्ञात हर पोर में !!
सरिता जी के गीतों की खुशबू उन की बातचीत में भी उतरती जाती है। उन के मोहक गीत, उन के पढ़ने का दिलकश अंदाज़ बहुतों को अपने सरोवर में डुबो लेता है। मैं भी उन के चंदन गीतों की इसी खुशबू में डूबा तर-बतर हूं । मुलाकात पहले भी होती रही है सरिता जी से पर इस मुलाकात को सरिता शर्मा के ही शेर में जो कहूं :
बोल तुम्हारे, शब्द तुम्हारे और तुम्हारा स्वर
रेशम से अहसास मुझे उलझाये रखते हैं ।
उन से जब विदा ली तो चांदनी अपने शबाब पर थी । बच्चन जी का गीत याद आ गया , इस चांदनी में सब क्षमा है। राह में सरिता शर्मा के गीतों की सरिता में फिर डूब गया ।
राजा लिखना रानी लिखना
भूली एक कहानी लिखना
मेरा नाम अगर लिखना हो
मीरा सी दीवानी लिखना
जिसने प्रेम किया हो उसकी
आंखों में बस पानी लिखना
दुनिया साथ कहां देती है
दुनिया को बेगानी लिखना !!!
दुनिया साथ कहां देती है
दुनिया को बेगानी लिखना !!!
बाबूलाल शर्मा का एक गीत है कि ,
चांदनी को छू लिया है
हाय मैं ने क्या किया है !
सरिता शर्मा और उन के गीत ऐसे ही मन को छूते हैं । उन के गीतों का संस्पर्श उस की मादकता ऐसे ही दीवाना बना लेती है ।
तुम बादल-बादल , मैं पानी-पानी हूं
तुम थोड़े पागल और मैं दीवानी हूं
बौराये मौसम के जाने से पहले
मन करता है थोड़ी मनमानी कर लूं
वह तो कहती हैं , मैं ' सरिता ' हूं , समंदर के लिए बेकल रही हूँ मैं । इसी गीत में वह लिखती हैं :
मिले अवरोध कितने ही , मुझे रुकना नहीं आता
किसी पत्थर के कदमों में मुझे झुकना नहीं आता
नुकीले पत्थरों को मैं , सुघर शिवलिंग बनाती हूं
अकेली राह चलती हूं , मैं छल-छल गुनगुनाती हूं
सरिता के गीतों में आंगन भी टूटता है , अकेलापन भी और मन भी टूटता है , अमृत भी ढलकता है और तुम्हारा दुःख बजा है तुम ' हलो ' बोले का कातर दुःख भी । नींद और आंखों का शीतयुद्ध भी उन के गीतों में आहत लेता है तो कस्तूरी भी रात भर महकती है और सांस का जंगल-जंगल भटकना भी , नदी की लहर पागल होती हुई मिलती है तो बादलों के साथ उड़ता हुआ मन भी कहीं ठहरा हुआ मिल जाता है । गीतों का ऐसा विविध सोंधापन सरिता शर्मा बुनती हैं कि पूछिए मत :
आज फिर मधुगंध में
डूबी हुई है शाम -
राम जाने रात कितनी छटपटायेगी
उंगलियां तेरी हथेली में बंधी
मन बंधा है चांद से मेरा
प्यास तेरी दृष्टि में छलकी हुई
थरथराता बांह का घेरा
एक मीठी सी कसक
अधरों से अंतस तक
राम जाने कब तलक
हम को सताएगी
मैं हुई धरती , हुए आकाश तुम
दूरियों के दंश तीखे हो गए
हम विकल पागल सरीखे हो गए
कामना है सिर पटकती
वक्ष पर प्रतिपल
राम जाने कब अभागी
तृप्ति पाएगी
सच खो मेरे बिना ये ज़िंदगी
कुछ अधूरी क्या तुम्हें लगती नहीं
चांदनी की चादरें ओढ़े हुए
प्यास कोई प्राण में जगती नहीं
तुम पुकारो नाम ले
मैं दौड़ती आऊं
राम जाने आस ये कब तक लुभाएगी ।
सरिता शर्मा के गीतों में मादकता और मांसलता के साथ-साथ यह जो विरह की भी छटपटाहट है , इस छटपटाहट का जो ठाट है , इस की जो उछाह है , यह जो कंट्रास्ट है यही उन्हें हिंदी गीतों में और सब से अलग करता है। नेह की देहरी पर / दिया बाल कर / कर रही हूं प्रतीक्षा / चले आइए ! में जो मनुहार है , वही सरिता शर्मा को गीतों की नदी की सरताज बना देती है :
कुछ पलों के लिए आओ मिल जाएं हम
खुशबुओं की तरह , बादलों की तरह
भूल जाएं चलो मान-अभिमान को
सूफियों की तरह , पागलों की तरह
सरिता के गीतों में प्रेम की जो गुनगुनी और गुलगुली देहरी है , जो बुनावट , जो पुकार और अंतस की प्यास है वह हिंदी गीतों के प्रति बहुत बड़ी आस जगाती मिलती है :
फिर सघन अनुभूति का
घेरा बनेगा मन
और जब तुम ने छुआ था
मुझ को पहली बार
बस उसी दिन को
खयालों में चुनेगा मन
उन के गीतों में प्रेम के दर्द और मोह की जो सीवन है , रह-रह कर खुलती मिलती है ऐसे जैसे कोई अनुबंध , कोई तटबंध टूट गया हो :
आज बहुत आंखें बरसेंगी
आज घिरे सुधियों के बादल
सौ टुकड़ों में टूटे , बिखरे
और हुए अपमानित सपने
आंसू-आंसू हो जाना , उदासी की ओस में पत्तियों से भींगते मन को गाना , दर्द को भी आनंद की निशानी दे कर गाना भी अप्रतिम है उन का :
ढाल कर गीतों में
जीवन की कहानी गए रही हूं
फूल कांटे चुन रही हूं
आग पानी गा रही हूं
सरिता शर्मा के गीतों में जो रवानी है , जो लावण्य और लाफ़ानी है , जो मादकता और मांसलता है , प्रेम की जो अकथ कहानी है , जो मीरा की सी दीवानगी और बेचैनी है , जो सूफियाना रंग है , उन की ग़ज़लों में भी वह उसी तरह मानीखेज है :
तुझे क्या बताऊं ऐ हमनशीं तुझे चाह कर मैं संवर गई
तेरे इश्क में वो जूनून है कि मैं सब हदों से गुज़र गई
तेरी रहमतों की वो बारिशें जो हुई हैं मेरे वजूद पर
मेरे जिस्म से मेरी रूह तक कोई चांदनी सी उतर गई
तेरे हर कदम पे निसार हैं मेरी चाहतें , मेरी उल्फतें
मेरी राह तुझ से जुड़ा नहीं , तू जिधर गया मैं उधर गई
और जब वह लिखती हैं कि :
प्रेम , निष्ठां , सत्य सब इतिहास बन कर रह गए
आज कल इन की कहीं परछाईयां मिलती नहीं
मछली सी चपल तेरी आंखें / सपनों का महल तेरी आंखें । जैसे शेर कहने वाली
सरिता की ग़ज़लों की तासीर और तीरगी ऐसी है कि कोई भी उन की ग़ज़लों के शैदाई
बन जाएगा; उड़ते पंखों वाले दिन / थे कैसे मतवाले दिन । या फिर तू मेरी नज़र
में है / ये खबर , खबर में है / पत्थरों का देश ये / प्यार कांच घर में है
। सरिता की ग़ज़लों में स्त्री की जद्दोजहद की बारीक इबारतें भी बहुत
शिद्द्त से दर्ज हैं :
दिखाई देती है हर सू कटघरों में खड़ी औरत
समाजी बंदिशों में और पहरों में खड़ी औरत
जो अपनी अस्मिता के अर्थ को पहचान जाएगी
मिलेगी ज्वार भाटों और लहरों में खड़ी औरत
जो आंखें जिस्म से आगे न कुछ भी देखना चाहें
उन्हें कैसे दिखे हस्सास चेहरों में खड़ी औरत
रसोई से बिछौने तक बहुत से फ़र्ज़ हैं उन के
मगर हक मांगते ही मानो बहरों में खड़ी औरत
उसे तो प्यार देना है उसे ममता लुटानी है
रहे वो गांव में या फिर शहरों में खड़ी औरत
सरिता के यहां तल्खी , तंगी और कमजर्फी की शिनाख्त में डूबे शेर भी बहुतायत में हैं :
जो मुकम्मल खुद नहीं वो आज़माने आ गए
ज़िंदगी की दौड़ का है कायदा बदला हुआ
कोई आगे क्यों निकल जाए , गिराने आ गए
सरिता जानती हैं :
भले इतराये जलकुंभी , कंवल तो हो नहीं जाती
ग़ज़ल सी चीज़ कहने से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती
सरिता शर्मा के दोहों में भी जो सरलता है , वह मोहित करती है :
मृग तृष्णाएं छल गईं, कंचन हिरन समान,
भटके मन का राम अब, मिले नहीं हनुमान।
अग्नि परीक्षा भी कहां, जोड़ सकी विश्वास,
युग बीते, बीता नहीं, सीता का बनवास।
भटके मन का राम अब, मिले नहीं हनुमान।
अग्नि परीक्षा भी कहां, जोड़ सकी विश्वास,
युग बीते, बीता नहीं, सीता का बनवास।
सरिता
के गीतों में प्यार की पुकार ही नहीं है , मनुहार और दुलार ही नहीं है ,
चीत्कार और विद्रोह की परवाह भी छलकती और गरजती मिलती है :
सुनो समंदर !
तिरस्कार सहते-सहते
सूख रही है एक नदी बहते-बहते
उन के गीतों में तल्खी और तुर्सी का स्वर बहुत सजग और बहुत प्रबल है :
बिना किए अपराध
कोई अपराधी हो जाता है
गैरों की क्या दरपन तक
प्रतिवादी हो जाता है
बिना जिरह ही हुक्म सज़ा का जारी होता है
सन्नाटे का शोर बहुत भारी होता है !
सच यह है कि सरिता शर्मा के गीत हों , ग़ज़ल हो , दोहे हों या मुक्तक श्रोताओं को , पाठकों को एक ऐसी कैद में ले लेती हैं , अपने जादू में ऐसे बांध लेती हैं कि उन से मुक्त हो पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन सा हो जाता है । उन के चुंबकीय गंध से निकल पाना मुश्किल हो जाता है । उन के ही एक शेर में जो कहूं तो , मुट्ठियों में कोई खुशबू कैद है / दिल में धड़कन की तरह तू कैद है । उन को सुनते हुए , उन का एक दोहा भी यहां बहुत मौजू है :
देख तुम्हें ऐसा लगा, देख लिया मधुमास,
पग-पग पर कलियां खिलीं, महक उठा वातास।