Wednesday, 29 July 2015

प्रेम की आरती के नेह में नत गीतों की एक सरिता


मुझ से सरिता शर्मा की कोई एक लाइन में कैफ़ियत पूछे तो मैं कहूंगा कि वह प्रेम दीवानी हैं । मीरा जैसी प्रेम दीवानी । उन के गीतों में प्रेम मंदिर की घंटियों की तरह बजता है । मस्जिद में अजान की तरह सुनाई देता है । गुरूद्वारे में गुरुबानी की तरह बजता मिलता है । चर्च में बाइबिल की इबारत की तरह उपस्थित मिलता है । किसी नदी में हिलकोरे मारता मिलता है । प्रेम के स्वर इतनी तरह से उन के गीतों में लहकते और चहकते मिलते हैं कि मन वृंदावन हो जाता है । उन के गीत सुन कर मन मुदित हो जाता है। उन के गीतों में मीरा का दर्द भी मिलता है और मीरा का प्रेम भी , मीरा का संघर्ष भी । मथुरा में मीरा के कृष्ण थे तो सरिता शर्मा की ससुराल भी मथुरा में ही है । मीरा के पास विछोह था , भक्ति थी । सरिता शर्मा भी मीरा की सहयात्री हैं । उन के गीतों में यह सब कुछ छन कर निरंतर सामने आता रहता है । मीरा यायावर थीं , सरिता शर्मा भी यायावर हैं । शहर दर शहर गीत गाती सरिता शर्मा भी घूमती रहती हैं । हिंदी गीतों की थाती ले कर समंदर पार के भी अनगिन देशों में सरिता शर्मा जा चुकी हैं । जाती ही रहती हैं । हिंदी गीतों की नदी में सरिता शर्मा नाम की जो अंत:सलिला प्रवाहित होती है , उस में जाने कितनी नदियां समा जाती हैं। उन के गीत जैसे गीत न हों , वह कोई संगम हों । प्रेम का संगम । जहां प्रेम के कई सारे फूल , चंदन और नदियां आ कर मिलती हों । उन के प्रेम गीतों की जो कल-कल रव है वह विरल है । सरिता शर्मा के गीतों में जो चंदन की खुशबू है , प्रीति की जो पुरवा है , अनुराग की जो देहरी और प्यार के विश्वास की जो छुअन है वह कब किस को विकल बना दे कोई नहीं जानता।  वह भी यह नहीं जानतीं । इस में भी सरिता शर्मा की नशीली आवाज़ और गीतों की मादकता में ऊभ-चूभ उन का पाठ हो तो उन की एक गीत पंक्ति में ही जो कहूं ;  गहरे जल में जैसे / चांदनी उतरती है , ठीक वैसे ही सरिता शर्मा के गीत मन में गहरे उतर जाते हैं । उतरते जाते हैं । भावनाएं और शब्द सुमन और सुगंध की तरह एकमेव हो जाते हैं । शाम सुरमई हो जाती है। संवेदना और संकोच में डूबा सरिता शर्मा का काव्यपाठ एक नया ही ठाट रचता है , नया ही रंग उपस्थित करता है। उन के गीतों की सुगंध के कई-कई मनोहर रंग मन में उमगने लगते हैं। उन के गीत जैसे प्रेम की आरती के नेह में नत मिलते हैं। वह लिखती ही हैं :

सारी दुनिया से दूर हो जाऊं
तेरी आंखों का नूर हो जाऊं
तेरी राधा बनूं , बनूं न बनूं
तेरी मीरा ज़रूर हो जाऊं

मीरा के कृष्ण अमूर्त हैं तो सरिता गोपियों के प्रेम के व्याकरण का भाष्य भी बांचने लगती हैं । ताकि कुछ तो मूर्त भी हो । वह जैसे पूरी बात , पूरी रात को पढ़ देने की ज़िद में गाती हैं :

रंग कुछ और ही चढ़ा होता
इक नया आचरण गढ़ा होता
तुमने गोकुल की गोपियों से अगर
प्रेम का व्याकरण पढ़ा होता

प्रेम के इस व्याकरण को भी वह मधुशाला के झील में जैसे तब्दील करना भी ज़रूरी मान लेती हैं :

प्रेम पगी एक नज़र 
देर तक ठहरती है 
गहरे जल में जैसे 
चांदनी उतरती है 

बूंद-बूंद 
मधुशाला होती है 
एक झील 


सरिता शर्मा के गीतों में सौंदर्य की नदी की अविरल धारा तो है ही , संकेत , सादगी और सकुचाहट की भी एक अजस्र धारा बहती मिलती है अबाध ।

मौन में जब अर्थ से लगने लगे
स्वर सभी असमर्थ से लगने लगे
एक नई भाषा गढ़ी जब दृष्टि ने
शब्द सारे व्यर्थ से लगने लगे।

सरिता शर्मा से लखनऊ में एक शाम की मुलाकात में यही हुआ । हमारी मुलाकात में मुलाकात के नए अर्थ , नए संदर्भ और नई-नई बातें हुईं। होती गईं । ज़िंदगी के अनछुए-अपरिभाषित पन्ने, दुःख-सुख के रंग, ऐसे-वैसे लोगों का ज़िक्र , मंच से इतर उन की नई कविताओं का पाठ उन की यात्राओं के वर्णन ! सब के सब जैसे क्षण भर में ही सिमट कर बटुर गए। इस बतकही में कब आधी रात हो गई पता नहीं चला । उन के ही एक गीत में जो कहूं :

मौन की हर अर्गला को तोड़ कर
हो गया मन
वंदना के छंद सा।

खुल गयीं सब खिड़कियां
निकली घुटन
धूप ने चूमे
निमीलित से नयन
हो गया मन
हर-सिंगारी गंध सा।

कब ह्रदय जाने बिना ही
बिक गया
नाम कोई आत्मा
पर लिख गया
हो गया मन
अनलिखे अनुबंध सा।

सरिता जी के गीतों की चांदनी में जो तरलता है , जो कसाव और उजास है , वह बरबस बांध-बांध लेता है । छोड़ता ही नहीं ।

गुनगुनाती हुई भोर में
बिंध गया मन किसी डोर में
अंकुरित एक सपना हुआ
अधमुंदे नैन की कोर में !

देहरी -देहरी अल्पना
धर गयी बावली कल्पना
आ बंधे रंग सातों मेरी -
ओधनी के धवल छोर में !!

दोपहर चम्पई सी लगी
सांझ कैसी नई सी लगी
मन्त्र सा नाम गुंजित हुआ
धडकनों के मधुर शोर में !!

वर्जना जब हवन हो गयी
सांस गंधिल पवन हो गयी
रम गयी बिन छुए इक छुवन
ज्ञात-अज्ञात हर पोर में !!



सरिता जी के गीतों की खुशबू उन की बातचीत में भी उतरती जाती है। उन के मोहक गीत, उन के पढ़ने का दिलकश अंदाज़ बहुतों को अपने सरोवर में डुबो लेता है। मैं भी उन के चंदन गीतों की इसी खुशबू में डूबा तर-बतर हूं । मुलाकात पहले भी होती रही है सरिता जी से पर इस मुलाकात को सरिता शर्मा  के ही शेर में जो कहूं :

बोल तुम्हारे, शब्द तुम्हारे और तुम्हारा स्वर
रेशम से अहसास मुझे उलझाये रखते हैं ।

उन से जब विदा ली तो चांदनी अपने शबाब पर थी । बच्चन जी का गीत याद आ गया , इस चांदनी में सब क्षमा है। राह में सरिता शर्मा के गीतों की सरिता में फिर डूब गया ।

राजा लिखना रानी लिखना
भूली एक कहानी लिखना

मेरा नाम अगर लिखना हो
मीरा सी दीवानी लिखना

जिसने प्रेम किया हो उसकी
आंखों में बस पानी लिखना

दुनिया साथ कहां  देती है
दुनिया को बेगानी लिखना !!!

बाबूलाल शर्मा का एक गीत है कि ,

चांदनी को छू लिया है
हाय मैं ने क्या किया है !

सरिता शर्मा और उन के गीत ऐसे ही मन को छूते हैं । उन के गीतों का संस्पर्श उस की मादकता ऐसे ही दीवाना बना लेती है ।


तुम बादल-बादल , मैं पानी-पानी हूं 
तुम थोड़े पागल और मैं दीवानी हूं 
बौराये मौसम के जाने से पहले 
मन करता है थोड़ी मनमानी कर लूं 

 वह तो कहती हैं , मैं ' सरिता ' हूं , समंदर के लिए बेकल रही हूँ मैं । इसी गीत में वह लिखती हैं :

मिले अवरोध कितने ही ,  मुझे रुकना नहीं आता 
किसी पत्थर के कदमों में मुझे झुकना नहीं आता 
नुकीले पत्थरों को मैं , सुघर शिवलिंग बनाती हूं 
अकेली राह चलती हूं  , मैं छल-छल गुनगुनाती हूं 

सरिता के  गीतों में आंगन भी टूटता है  , अकेलापन भी और मन भी टूटता है , अमृत भी ढलकता है और तुम्हारा दुःख बजा है  तुम  ' हलो ' बोले का कातर दुःख भी । नींद और आंखों का शीतयुद्ध भी उन के गीतों में आहत लेता है तो कस्तूरी भी रात भर महकती है और सांस का जंगल-जंगल भटकना भी , नदी की लहर पागल होती हुई मिलती है तो बादलों के साथ उड़ता हुआ मन भी कहीं ठहरा हुआ मिल जाता है । गीतों का ऐसा विविध सोंधापन सरिता शर्मा बुनती हैं कि पूछिए मत :

आज फिर मधुगंध में 
डूबी हुई है शाम -
राम जाने रात कितनी छटपटायेगी 

उंगलियां तेरी हथेली में बंधी 
मन बंधा है चांद से मेरा 
प्यास तेरी दृष्टि में छलकी हुई 
थरथराता बांह का घेरा 
एक मीठी सी कसक 
अधरों से अंतस तक 
राम जाने कब तलक 
हम को सताएगी 

मैं हुई धरती , हुए आकाश तुम 
दूरियों के दंश तीखे हो गए 
रक्त में बिजली कोई घुलने लगी 
हम विकल पागल सरीखे हो गए 
कामना है सिर पटकती 
वक्ष पर प्रतिपल 
राम जाने कब अभागी 
तृप्ति पाएगी 

सच खो मेरे बिना ये ज़िंदगी 
कुछ अधूरी क्या तुम्हें लगती नहीं 
चांदनी की चादरें ओढ़े हुए 
प्यास कोई प्राण में जगती नहीं 
तुम पुकारो नाम ले 
मैं दौड़ती आऊं 
राम जाने आस ये कब तक लुभाएगी । 

सरिता शर्मा के गीतों में मादकता और मांसलता के साथ-साथ यह जो विरह की भी छटपटाहट है , इस छटपटाहट का जो ठाट है , इस की जो उछाह है , यह जो कंट्रास्ट है यही उन्हें हिंदी गीतों में और सब से अलग करता है। नेह की देहरी पर / दिया बाल कर / कर रही हूं प्रतीक्षा / चले आइए ! में जो मनुहार है , वही सरिता शर्मा को गीतों की नदी की सरताज बना देती है :

कुछ पलों के लिए आओ मिल जाएं हम 
खुशबुओं की तरह , बादलों की तरह 
भूल जाएं चलो मान-अभिमान को 
सूफियों की तरह , पागलों की तरह 



सरिता के गीतों में प्रेम की जो गुनगुनी और गुलगुली देहरी है , जो बुनावट , जो पुकार और अंतस की प्यास है वह हिंदी गीतों के प्रति बहुत बड़ी आस जगाती मिलती है :

फिर सघन अनुभूति का 
घेरा बनेगा मन 
और जब तुम ने छुआ था 
मुझ को पहली बार 
बस उसी दिन को 
खयालों में चुनेगा मन 

उन के गीतों में प्रेम के दर्द और मोह की जो सीवन है , रह-रह कर खुलती मिलती है ऐसे जैसे कोई अनुबंध , कोई तटबंध टूट गया हो :

आज बहुत आंखें बरसेंगी 
आज घिरे सुधियों के बादल 

सौ टुकड़ों में टूटे , बिखरे 
और हुए अपमानित सपने 

आंसू-आंसू हो जाना , उदासी की ओस में पत्तियों से भींगते मन को गाना , दर्द को भी आनंद की निशानी दे कर गाना भी अप्रतिम है उन का :

 ढाल कर गीतों में 
जीवन की कहानी गए रही हूं 
फूल कांटे चुन रही हूं 
आग पानी गा रही हूं 

सरिता शर्मा के गीतों में जो रवानी है , जो लावण्य और लाफ़ानी  है , जो मादकता और मांसलता है , प्रेम की जो अकथ कहानी है , जो मीरा की सी दीवानगी और बेचैनी है , जो सूफियाना रंग है , उन की ग़ज़लों में भी वह उसी तरह मानीखेज है : 

तुझे क्या बताऊं ऐ हमनशीं तुझे चाह कर मैं संवर गई 
तेरे इश्क में वो जूनून है कि मैं सब हदों से गुज़र गई 

तेरी रहमतों की वो बारिशें जो हुई हैं मेरे वजूद पर 
मेरे जिस्म से मेरी रूह तक कोई चांदनी सी उतर गई 

तेरे हर कदम पे निसार हैं मेरी चाहतें  , मेरी उल्फतें 
मेरी राह तुझ से जुड़ा नहीं , तू जिधर गया मैं उधर गई 

और जब वह लिखती हैं कि :

प्रेम , निष्ठां , सत्य सब इतिहास बन कर रह गए 
आज कल इन की कहीं परछाईयां मिलती नहीं 



मछली सी चपल तेरी आंखें  / सपनों का महल तेरी आंखें । जैसे शेर कहने वाली सरिता की ग़ज़लों की तासीर और तीरगी ऐसी है कि कोई भी उन की ग़ज़लों के शैदाई बन जाएगा; उड़ते पंखों वाले दिन / थे कैसे मतवाले दिन । या फिर तू मेरी नज़र में है / ये खबर , खबर में है / पत्थरों का देश ये / प्यार कांच घर में है । सरिता  की ग़ज़लों में स्त्री की जद्दोजहद की बारीक इबारतें भी बहुत शिद्द्त से दर्ज हैं :

दिखाई देती है हर सू कटघरों में खड़ी औरत 
समाजी बंदिशों में और पहरों में खड़ी औरत 

जो अपनी अस्मिता के अर्थ को पहचान जाएगी 
मिलेगी ज्वार भाटों और लहरों में खड़ी औरत 

जो आंखें जिस्म से आगे न कुछ भी देखना चाहें 
उन्हें कैसे दिखे हस्सास चेहरों में खड़ी औरत 

रसोई से बिछौने तक बहुत से फ़र्ज़ हैं उन के 
मगर हक मांगते ही मानो बहरों में खड़ी औरत 

उसे तो प्यार देना है उसे ममता लुटानी है 
रहे वो गांव में या फिर शहरों में खड़ी औरत 

सरिता के यहां तल्खी , तंगी और कमजर्फी की शिनाख्त में डूबे शेर भी बहुतायत में हैं :

देखते ही देखते कैसे ज़माने आ गए 
जो मुकम्मल खुद नहीं वो आज़माने आ गए 

ज़िंदगी की दौड़ का है कायदा बदला हुआ 
कोई आगे क्यों निकल जाए , गिराने आ गए 

सरिता जानती हैं :

भले इतराये जलकुंभी , कंवल तो हो नहीं जाती 
ग़ज़ल सी चीज़ कहने से ग़ज़ल तो हो नहीं जाती

सरिता शर्मा के दोहों में भी जो सरलता है , वह मोहित करती है :

मृग तृष्णाएं छल गईं, कंचन हिरन समान,
भटके मन का राम अब, मिले नहीं हनुमान।

अग्नि परीक्षा भी कहां, जोड़ सकी विश्वास,
युग बीते, बीता नहीं, सीता का बनवास। 

सरिता के गीतों में प्यार की पुकार ही नहीं है , मनुहार और दुलार ही नहीं है , चीत्कार और विद्रोह की परवाह भी छलकती और गरजती मिलती है :

सुनो समंदर  !
तिरस्कार सहते-सहते 
सूख रही है एक नदी बहते-बहते 

उन के गीतों में तल्खी और तुर्सी का स्वर  बहुत सजग और बहुत प्रबल है :

बिना किए अपराध 
कोई अपराधी हो जाता है 
गैरों की क्या दरपन तक 
प्रतिवादी हो जाता है 
बिना जिरह ही हुक्म सज़ा का जारी होता है 
सन्नाटे का शोर बहुत भारी होता है !

सच यह है कि सरिता शर्मा के गीत हों , ग़ज़ल हो , दोहे हों या मुक्तक श्रोताओं को , पाठकों को एक ऐसी कैद में ले लेती हैं , अपने जादू में ऐसे बांध लेती हैं कि उन से मुक्त हो पाना कठिन ही नहीं नामुमकिन सा हो जाता है । उन के चुंबकीय गंध से निकल पाना मुश्किल हो जाता है । उन के ही एक शेर में जो कहूं तो , मुट्ठियों में कोई खुशबू कैद है / दिल में धड़कन की तरह तू कैद है । उन को सुनते हुए , उन का एक दोहा भी यहां बहुत मौजू है :

देख तुम्हें ऐसा लगा, देख लिया मधुमास,
पग-पग पर कलियां खिलीं, महक उठा वातास।




Sunday, 26 July 2015

प्रिया का जनकपुर



गुज़र रही है ट्रेन मेरी प्रिया के नगर से
और मैं धड़क रहा हूं
कि जैसे रेल की पटरी बन गया हूं
और वह मुझ पर से गुज़र रही है
दुष्यंत कुमार के शेर की तरह
लेकिन कोई पुल भी नहीं है
और मैं थरथरा रहा हूं

ट्रेन जब रुकी प्रिया के शहर के स्टेशन पर
तो मैं ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया है उस शहर को
और चलते समय फिर से प्रणाम कर विदा ली है

बाहर रिमझिम है , भीतर ठंडा
मेरे भीतर एक दूसरी बरखा है
बरखा है प्रिया के शहर से जुड़ी उस की यादों की
इस शहर में ली गई उस की सांसों की 
ऐसे जैसे उस की सांसों में 
आक्सीजन बन कर मैं ही जा रहा हूं

इस स्टेशन से भी वह बारंबार गुज़री है
आते और जाते हुए
अनगिन बार
उस की वह सारी यादें
बरस रही हैं बरखा बन कर
बरस रही हैं मेरे भीतर एक एक कर के
टुकड़ों-टुकड़ों में मेरे भीतर

कुछ यादें पहले से दर्ज हैं
कुछ अब वह बताती जा रही है
प्रिया साथ नहीं है ट्रेन में
पर सफर में साथ है
वाया वॉट्स अप

वह निरंतर संवादरत है
पूछती जा रही है एक-एक हाल

जैसे सी रही हो सुई-धागे से मेरा हाल-हवाल
मुझे किसी शिशु की तरह सिखा और बता रही है
एक-एक पाठ किसी शिक्षिका की तरह

जैसे कि कुछ समय पहले एक स्टेशन आया
तो मैं ने बताया प्रिया को कि फला स्टेशन आ गया है
तो वह जैसे भावुक हो गई है
बता रही है कि यह मेरा ननिहाल है

मैं ने तुरंत उस स्टेशन
उस नगर को प्रणाम किया है
हाथ जोड़ कर विदा ली है
और बताया है उसे
कि ट्रेन तो चल दी , बड़ी जल्दी
हां , दो मिनट ही रुकती है
वह कहती है

मैं सोचने लगता हूं  कि क्या ननिहाल की ज़िंदगी भी
ऐसे ही दो मिनट की नहीं होती है ?

मां का मायका तो मां की स्मृतियों में
जीवन भर समाया रहता है
जाता ही नहीं उस के मन से
जैसे जीवन भर वह उसे ही ओढ़ती-बिछाती रहती है

रहती है अयोध्या में , वन में , लंका में , फिर-फिर वन में
पर जीती जनकपुर में ही है , रहती जनकपुर में ही है
सांस उस की जैसे वहीं से संचालित होती रहती है
स्त्री कहीं भी रहे , उस की सांस का पावर हाऊस
उस के मायके में ही होता है , उस के जनकपुर में
कहते ही हैं कि नईहर का कुत्ता भी सगा लगता है

सतहत्तर साल की मेरी मां आज भी मायके में जीती है
मायके का सुख , उस की स्मृतियां
उस के जीवन से जाती ही नहीं
नाना गए , नानी गईं ,
सारी मामी गईं , सारे मामा गए , बारी-बारी
पर मां का मायका नहीं गया
नहीं जाएगा , कभी भी

जनकपुर कभी नहीं जाता , किसी स्त्री के जीवन से
अयोध्या , वन , या लंका उसे नहीं सुहाता
महारानी बन कर भी , कैदी बन कर भी
वह जीती जनकपुर की राजकुमारी में ही है
उस के सारे सुख-दुःख जनकपुर में ही बसे हैं जैसे
तो क्या गांधारी भी आंखों पर पट्टी बांध कर गांधार ही जीती थी
हस्तिनापुर के विद्रोह में
भाई शकुनी के साथ हस्तिनापुर के प्रतिशोध में
और दुर्योधन ?

क्या पता

पर बच्चों के मन में ननिहाल
बस दो मिनट का स्टेशन बन कर रह जाता है
क्या पता प्रिया का ननिहाल भी हो उस के जीवन में
दो मिनट का ही स्टेशन

पर मेरे जीवन में मेरा ननिहाल दो मिनट का स्टेशन नहीं है
मां की ही तरह मैं भी उसी मोह और उसी नाल से जुड़ा हूं
मां के जनकपुर को कैसे भूल सकता हूं भला
क्यों भूलूंगा मां का मान और उस का मायका
गर्भ और नाल का रिश्ता है मां का
और मां से ही मैं हूं

बाहर बारिश तेज़ हो गई है
वॉट्स पर मेरी प्रिया के संदेश भी
वह सवाल दर सवाल में उलझी है
बताती जा रही है अब फला स्टेशन आएगा , अब अला स्टेशन
सारा स्टेशन , सारा रास्ता रटा हुआ है उस का
लेकिन वह यह नहीं कह रही
कि वह इन रास्तों और स्टेशनों को जीती रहती है
गो कि कहना चाहती है
स्त्रियां कई बार कुछ कहना चाह कर भी नहीं कह पातीं

वह सफ़र के शुरू में ही वॉट्स अप पर आई थी
और मैं हलो , हाय के बाद सो गया था
उस की सलाह पर ही

कहा था उस ने तान कर सो जाईए
पर वह बतियाना चाहती थी

मेरे सोने में भी
उस के संवाद , उस के संदेश जारी थे
पर मैं बेखबर

थोड़ी देर में किसी स्टेशन पर एक औरत डब्बे में चढ़ी
हड़बड़ाती हुई , बड़बड़ाती हुई
मेरी बर्थ के ऊपर की उस की बर्थ थी
तो नींद टूटी

प्रिया आन लाइन थी वॉट्स अप पर
बात शुरू हुई तो
नींद कैसे टूटी
पूछा उसने
बताया मैं ने कि किसी स्टेशन पर एक औरत आई
हड़बड़ाती हुई , बड़बड़ाती हुई
मेरी बर्थ के ऊपर की उस की बर्थ थी
तो नींद टूटी

सुनते ही वह भड़की
और आप ने सोये में भी उस को सूंघ लिया
फिर जाग गए
उस की मदद की
उस को व्यवस्थित किया

थोड़ी देर वह इस औरत के
इस तरह के बेवकूफी के डिटेल में ही उलझी रही
निकाला बड़ी मुश्किल से उसे इस भंवर से

प्रिया बता रही है कि अब मायका आने वाला है
अच्छा , उस को भी प्रणाम करूंगा

उस को तो ज़रूर कीजिये
यह मैं
यह मैं आप की प्रिया
उसी की देन हूं
उस को भी प्रणाम कीजिए 

प्रिया खो जाती है अपने जनकपुर की यादों में
अपनी अयोध्या की राहों में

वह अपनी ससुराल के शहर का नाम लेती है
और कहती है सोचो कहां यह शहर , कहां वह शहर
कहां यह ज़िला , कहां वह ज़िला
जैसे कह रही हो
कहां जनकपुर , कहां अयोध्या

दोनों में दूरी बहुत है
दिशाएं नहीं मिलतीं
ऐसे जैसे यौवन ढल जाने के बाद
स्त्री के वक्ष
इधर-उधर हो जाते हैं
वैसे ही विवाह के बाद
स्त्री का जीवन
इधर-उधर हो जाता है
जैसे फेंस के इधर और फेंस के उधर

यह अयोध्या की राह इतनी कंटीली क्यों होती है
जैसे वह कहना चाहती है
लेकिन गोया वह किसी क़िले में क़ैद हो 
और कहती नहीं

अयोध्या के बहाने वन , लंका और रावण
उस के हिस्से आ जाते हैं
राम उस के हो कर भी उस के राम कहां रह पाते हैं

बताइए कि राम को वनवास होता है
तो सीता सहर्ष उन के साथ वनवास के लिए
चल देती हैं चौदह साल के लिए
पर जब सीता को वनवास होता है
तो वह अकेली जाती हैं
राम साथ नहीं जाते

पूछती हैं वन में स्त्रियां सीता से
कि राम को वनवास हुआ तो तुम उन के साथ गई
तुम को वनवास हुआ तो राम क्यों नहीं आए साथ
गर्भवती सीता चुप रहती हैं

स्त्रियां ऐसे ही चुप रहती हैं
और उन की अयोध्या , उन का राम ऐसे ही
उन्हें ऐसे ही वनवास देता रहता है
इस यातना में भीजती रहती हैं स्त्रियां
चुपचाप 

गुज़र रही है ट्रेन प्रिया के नगर से
और मैं धड़क रहा हूं
प्रिया के नगर को बारंबार प्रणाम करते हुए
उस की यातना में भीजते हुए

बाहर रिमझिम बारिश में
पानी भरे खेतों में 
स्त्रियां झुक-झुक कर धान रोप रही हैं
कि जैसे ख़ुद को रोप रही हैं
किसी अयोध्या , किसी वन , किसी लंका में
गोया उन का जनकपुर उन से छूट गया है
ऐसे जैसे वह धान की बेहन हों

[ 26 जुलाई , 2015 ]





Tuesday, 21 July 2015

गीतों की चांदनी में एक माहेश्वर तिवारी का होना

दयानंद पांडेय 


गीतों की चांदनी में एक माहेश्वर तिवारी का होना दूब से भी कोमल मन का होना है । गीतों की चांदनी में चंदन सी खुशबू का होना है । मह-मह महकती धरती और चम-चम चमकते आकाश का होना है । माहेश्वर तिवारी के गीतों की नदी में बहना जैसे अपने मन के साथ बहना है । इस नदी में प्रेम की पुरवाई की पुरकशिश लहरें हैं तो चुभते हुए हिलकोरे भी । भीतर के सन्नाटे भी और इन सन्नाटों में भी अकेलेपन की महागाथा का त्रास और उस की फांस भी । माहेश्वर के गीतों में जो सांघातिक तनाव रह-रह कर उपस्थित होता रहता है ।  निर्मल वर्मा के गद्य सा तनाव रोपते माहेश्वर के गीतों में नालंदा जलता रहता है ।  खरगोश सा सपना उछल कर भागता रहता है ।  घास का घराना कुचलता रहता है ।  बाहर का दर्द भीतर से छूता रहता है , कोयलों के बोल / पपीहे की रटन / पिता की खांसी / थकी मां के भजन बहने लगते हैं।  भाषा का छल , नदी का अकेलापन खुलने लगता है।  और इन्हीं सारी मुश्किलों और झंझावातों में किलकारी का एक दोना भी दिन के संसार में उपस्थित हो मन को थाम लेता है ।

क्या बादल भी कभी कांपता है ? यक़ीन न हो तो माहेश्वर तिवारी के गीत में यह बादल का कांपना आप देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं । बादल ही नहीं , जंगल और झील भी कांप-कांप जाते हैं । और इतनी मासूमियत से कि मन सिहर-सिहर जाता है । वास्तव में माहेश्वर तिवारी के गीतों में प्रेम और प्रकृति की उछाह , उस की विवशता ,  उस की मादकता का रंग अपनी पूरी गमक के साथ अपनी पूरी उहापोह के साथ उपस्थित मिलता है कि मन उमग-उमग जाता है।  माहेश्वर तिवारी की गीत यात्रा के इतने मधुर , इतने मादक, इतने मनोहर मोड़ प्रेम , प्रकृति और मनुष्यता की सुगंध में इस तरह लिपटे मिलते हैं कि जैसे मन की समूची धरती झूम-झूम जाती है । माहेश्वर के गीतों में प्रेम इस धैर्य और इस उदात्तता के साथ उपस्थित मिलता है गोया वह किसी उपन्यास का धीरोदात्त नायक हो । माहेश्वर के गीतों के रूप विधान और विलक्षण बिंब अपनी पूरी व्यंजना में प्रेम के आलोक में गुंजायमान तो होते ही हैं प्रेम का एक अलौकिक संसार भी रचते हैं । इतने देशज और मिट्टी में सने बिंब माहेश्वर तिवारी के यहां अनायास मिलते हैं , जो औचक सौंदर्य रचते हुए ठिठक कर प्रेम का एक नया वितान भी उपस्थित कर देते हैं तो यहीं माहेश्वर के गीत हिंदी गीत में ही नहीं वरन विश्व कविता में भी एक नया प्रतिमान बन जाते हैं । उन के गीतों में ही प्रेम का रूपक , बिंब और व्यंजना का अविकल पाठ अपने पूरे विस्तार के साथ प्रेम के वेग का रेशा - रेशा मन में एक तसवीर की तरह पैबस्त हो जाता है। अब सोचिए कि , लौट रही गायों के / संग-संग / याद तुम्हारी आती / और धूल के / संग-संग / मेरे माथे को छू जाती ! गायों के संग लौटती माथे को छूती धूल में सन कर जब प्रिय की याद घुलती हो तो प्रेम का यह रूप कितना उदात्त और कितना मोहक मोड़ उपस्थित कर मन में किस रुपहली तसवीर का तसव्वुर मन में दर्ज होता है । फिर एक अकेली किरण का पर्वत पार करने की जिजीविषा के भी क्या कहने ! और तो और इस चिड़िया हो जाने के मन का भी क्या करें। माहेश्वर के गीतों में प्रेम की कोंपलें फूटती है तो यातना के अनगिन स्वर भी । यह स्वर कभी थरथरा कर तो कभी भरभरा कर गिरते उठते है और मन को उद्वेलित करते हैं , मथते हैं । पानी में पड़े बताशे सा गलाते यह स्वर गुमसुम-गुमसुम , हकलाते संवाद की तरह उपस्थित होते हैं । चांदनी की झुर्रियां गिनते माहेश्वर के गीतों में बिना आहट संबंधों के टूटने का महीन व्यौरा भी है और झील के जल में डूबने गए कई भिनसारे भी ।  ऐसे जैसे कड़ाही के गरम तेल में पानी की कोई बूंद अचानक पड़ कर छन्न से बोल जाए , ऐसे ही माहेश्वर  के गीत बोलते हैं । माहेश्वर तिवारी अपने गीतों में चाबुक मारते हुए घुटन के अनगिन सांकल ऐसे ही खोलते हैं । और इन खुलती संकलन को जब माहेश्वर  तिवारी का मधुर कंठ भी नसीब हो जाता है तो जैसे घुटन और दुःख की नदी की विपदा पार हो जाती है। वह लिखते ही हैं , धूप में जब भी जले हैं पांव / घर की याद आई । हिंदी गीतों की चांदनी में माहेश्वर तिवारी का यही होना , होना है । माहेश्वर के  गीतों  का कंचन कलश इतना भरा-भरा है , इतना समृद्ध है कि क्या कहने :

याद तुम्हारी जैसे कोई
कंचन कलश भरे।
जैसे कोई किरन अकेली
पर्वत पार करे।

लौट रही गायों के
संग-संग
याद तुम्हारी आती
और धूल के
संग-संग
मेरे माथे को छू जाती
दर्पण में अपनी ही छाया-सी
रह-रह कर उभरे,
जैसे कोई हंस अकेला
आंगन में उतरे।

जब इकला कपोत का जोड़ा
कंगनी पर आ जाए
दूर चिनारों के
वन से
कोई वंशी स्वर आए
सो जाता सूखी टहनी पर
अपने अधर धरे
लगता जैसे रीते घट से
कोई प्यास हरे।

फिर वह जब  नदी , झील , झरनों सा बह कर चिड़िया हो जाने की खुशी भी किसी बच्चे की बेसुध ललक की तरह बांचते हैं और मौसम पर छा जाने की बात करते हैं तो मन वृंदावन हो जाता है :

नदी झील
झरनों सा बहना
चाह रहा
कुछ पल यों रहना

चिड़िया हो
जाने का मन है

फिर जब मूंगिया हथेली पर एक और शाम रचते हुए बांहों में याद के सीवान कसने का जो रूपक गढ़ते हैं , जो सांसों को आमों के बौर में गमकाते हैं तो उन का यह चिड़िया हो जाने का मन का मेटाफर मदमस्त हो कर मुदित हो  जाता है :

भरी-भरी मूंगिया हथेली पर
लिखने दो एक शाम और।

कांप कर ठहरने दो
भरे हुए ताल
इंद्र धनुष को
बन जाने दो रूमाल
सांसों तक आने दो
आमों के बौर।

झरने दो यह फैली
धूप की थकान
बांहों में कसने दो
याद के सिवान
कस्तूरी-आमंत्रण जड़े
ठौर-ठौर।

और वह अजानी घाटियों में शीतल -हिमानी छांह के छोड़ आने का विलाप भी जब माहेश्वर अपनी पूरी मांसलता में दर्ज करते हैं तो मन के भीतर जैसे अनगिन घंटियां बज जाती हैं । मंदिर की निर्दोष घंटियां । भटका हुआ मन जैसे थिर हो जाता है प्यार की उस हिमानी छांह में । और विदा की वह बांह जैसे थाम-थाम लेती है :

छोड़ आए हम अजानी
घाटियों में
प्यार की शीतल-हिमानी छांह ।

हंसी के झरने,
नदी की गति,
वनस्पति का
हरापन
ढूढ़ता है फिर
शहर-दर-शहर
यह भटका हुआ मन
छोड़ आए हम हिमानी
घाटियों में
धार की चंचल, सयानी छांह ।

ऋचाओं-सी गूंजती
अंतर्कथाएं
डबडबाई आस्तिक ध्वनियां ,
कहां ले जाएं
चिटकते हुए मनके
सर्प के फन में
पड़ी मणियां,
छोड़ आए हम पुरानी घाटियों में
कांपते-से पल, विदा की बांह ।

और नंगे पावों में नर्म दूब की जो वह छुअन जाग जाए तो ? मन में रंगोली रच जाए तो ? तब कोयल बोलती है महेश्वर के गीतों में। स्वर की पंखुरी खुलती है , हंसते - बतियाते :

बहुत दिनों के बाद
आज फिर
कोयल बोली है

बहुत दिनों के बाद
हुआ फिर मन
कुछ गाने का
घंटों बैठ किसी से
हंसने का-बतियाने का

बहुत दिनों के बाद
स्वरों ने
पंखुरी खोली है

शहर हुआ तब्दील
अचानक
कल के गांवों में
नर्म दूब की
छुअन जगी
फिर नंगे पांवों में

मन में कोई
रचा गया
जैसे रंगोली है।

माहेश्वर के यहां  तो पेड़ों का रोना भी इस चुप और इस यातना के साथ दर्ज होता है कि पत्ता , टहनी , सपना , शहर , जंगल सब के सब एक लंबी ख़ामोशी के साथ साक्ष्य बन कर उपस्थित हो जाते हैं :

कुहरे में सोये हैं पेड़
पत्ता पत्ता नम है
यह सबूत क्या कम है

लगता है
लिपट कर टहनियों से
बहुत बहुत
रोये हैं पेड़

जंगल का घर छूटा
कुछ कुछ भीतर टूटा
शहरों में
बेघर होकर जीते
सपनों में खोये हैं पेड़

वह एक गहरी उदासी में खींच ले जाते है आहिस्ता-आहिस्ता और कच्ची अमियों वाली उदासी शाम पर इस तरह तारी हो जाती है गोया ; भीतर एक अलाव जला कर / गुमसुम बैठे रहना / कितना / भला-भला लगता है अपने से कुछ कहना,  हो जाता है । अब घरों से खपरैल भले विदा हो गए हैं , खेतों से बैल और रात से ढिबरी भी अपने अवसान की राह पर हैं लेकिन माहेश्वर के गीतों में इन का धूसर और मोहक बिंब अपने पूरे कसैलेपन ,  सारी कड़वाहट और पूरी छटपटाहट के साथ एकसार हैं ऐसे जैसे भिनसार का कोई सपना टूट गया हो , अपनेपन की कोई ज़मीन दरक गई हो :

गर्दन पर, कुहनी पर
जमी हुई मैल-सी ।
मन की सारी यादें
टूटे खपरैल-सी ।

आलों पर जमे हुए
मकड़ी के जाले,
ढिबरी से निकले
धब्बे काले-काले,
उखड़ी-उखड़ी साँसे हैं
बूढे बैल-सी ।

हम हुए अंधेरों से
भरी हुई खानें,
कोयल का दर्द यह
पहाड़ी क्या जाने,
रातें सभी हैं
ठेकेदार की रखैल-सी।

माहेश्वर के गीतों में इतवार भी इस कातरता के साथ बीतता है गोया किसी नन्हे बच्चे का गीत कोई कीड़ा कुतर गया हो :

मुन्ने का तुतलाता गीत-
अनसुना गया बिल्कुल बीत
कई बार करके स्वीकार ।
सारे दिन पढ़ते अख़बार ।
बीत गया है फिर इतवार ।

और थके हारे लोगों का साल भी ऐसे क्यों बीतता है भला , जैसा माहेश्वर बांचते हैं :

बघनखा पहन कर
स्पर्शों में
घेरता रहा हम को
शब्दों का
आक्टोपस-जाल

कहीं पास से / नया-नया फागुन का / रथ गुज़रा है जैसे गीतों में उन की बेकली जब इस तरह उच्चारित होती है कि  ; जिस तरह ख़ूंख़ार / आहट से सहम कर / सरसराहट भरा जंगल कांप जाता है। तो यह  सब अनायास नहीं होता है :

मुड़ गए जो रास्ते चुपचाप
जंगल की तरफ़,
ले गए वे एक जीवित भीड़
दलदल की तरफ़ ।

आहटें होने लगीं सब
चीख़ में तब्दील,
हैं टंगी सारे घरों में
दर्द की कन्दील,

मुड़ गया इतिहास फिर
बीते हुए कल की तरफ़ ।

नालंदा जलता है तो बर्बरता का कोई नया अर्थ पलता है । तक्षशिला और नालंदा की यातना एक है । एकमेव है । नदी का अकेलापन कैसे तो तोड़ता है माहेश्वर के गीतों में और मन उसे बांचते हुए क्षण-क्षण टूटता है , दरकता है :

सूरज को
गोद में
बिठाये अकुलाना
सौ नए बहनों  में
एक सा बहाना

माहेश्वर तिवारी के गीतों में सांघातिक तनाव के इतने सारे तंतु हैं , इतने सारे पड़ाव हैं , इतने सारे विवरण हैं कि वह मन में नदी की तरह बहने लगते हैं । देह में नसों के भीतर चलने और नसों को चटकाने लगते हैं :

लगता जैसे
हरा-भरा चंदन वन
जलता है
कोई पहने बूट
नसों के भीतर
चलता है

मन ही नहीं माहेश्वर घर भर की स्थितियों को बांचने लगते हैं । उन का तापमान दर्ज करने लगते हैं ।

सुबह-सुबह
किरनों ने आ कर
जैसे हमें छुआ
सूरज उगते ही
घर भर का माथा गर्म हुआ

माहेश्वर के गीतों में बेचैनी , प्यार और उस की धार और जीवन की अनिवार्य उदासियां इस सहजता से गश्त करती हैं गोया सड़क पर ट्रैफिक चल रही हो , गोया किसी राह में कोई गुजरिया चल रही हो , गोया नदी में नाव चल रही हो , गोया किसी मेड़ पर चढ़ते-उतरते कोई राही अपने पैरों को साध रहा हो और अपनी बेचैनियों को बेवजह बांच रहा हो :

धूप  थे , बादल हुए , तिनके हुए
सैकड़ों हिस्से गए दिन के हुए
उदासी की पर्त-सी जमने लगी
रेंगती-सी भीड़ फिर थमने लगी
हम कभी उन के , कभी इन के हुए

माहेश्वर के गीतों में बतकही , उम्मीद और तितलियों के किताबों से निकलने की तस्वीरें और उन की गंध भी हैं । फूल वाले रंग भी हैं और बदहाल वैशाली और आम्रपाली भी । तक्षशिला और नालंदा की यातना भी । डराता हस्तिनापुर भी झांकता ही है । यातना और तनाव के इन व्याकुल पहर में लेकिन उत्सव मनाती दूब भी है अपनी पलकें उठाती , घुटन की सांकलें खोलती और एक गहरी आश्वस्ति देती हुई । और इन सब में भी प्यार और उस की बारीक इबारत बांचती साहस और उम्मीद की वह किरण भी जो अकेली पर्वत पार करती बार-बार मिलती है ऐसे जैसे देवदार के हरे-हरे, लंबे-लंबे वृक्ष मन के पर्वत में उग-उग आते हों । सारी अड़चनें और बाधाएं तोड़-ताड़  कर । माहेश्वर तिवारी के गीतों की यही ताकत है । हम इसी में झूम-झूम जाते हैं । फिर जब इन गीतों को माहेश्वर तिवारी का मीठा कंठ भी मिल जाता है तो हम इन में डूब-डूब जाते हैं । इन गीतों की चांदनी में न्यौछावर हो-हो जाते हैं । माहेश्वर तिवारी हम में और माहेश्वर तिवारी में हम बहने लग जाते हैं । अजानी घाटियों में , प्यार की शीतल-हिमानी छांह में सो जाते हैं। माहेश्वर तिवारी के गीतों की तासीर ही यही है। करें तो क्या करें ?

Thursday, 9 July 2015

यह बारिश है कि मैं ही बरस रहा हूं


 

इस भरी बारिश में
दरवाज़े से झांकता यह आम का पेड़
तुम्हारी दशहरी को चूसना 
उस की मिठास का भास, एहसास
और दशहरी की नशीली खुशबू में तर
यह मादक साथ तुम्हारा !

आह , यह तुम्हारी याद !
 
तुम मिलती भी हो तो बरखा बन कर
यह बारिश है कि मैं ही बरस रहा हूं
तुम्हारे भीतर
जैसे कोई संगीत बज रहा है
मद्धम-मद्धम
किसी जलतरंग सा
तुम्हारी देह में
मैं उतर रहा हूं धीरे-धीरे
इस देह सरोवर में

यह तुम्हारी देह का सरोवर है
या मन की कोई देहरी
जो अभी-अभी पुलक गई है
इस बरखा में भीज कर
और तुम वसुंधरा हो गई हो
मैं जैसे कोई एक जोड़ी बैल लिए
हल जोतता हुआ

प्रकृति जैसे हमें दुलरा रही है
यह प्रकृति है कि तुम हो
सावन की इस बरखा में नहाई हुई धुत्त !

[ 9 जुलाई , 2015 ]




Thursday, 2 July 2015

इस रमज़ान में तुम्हें देखना



इस रमज़ान में तुम्हें देखना
ठीक वैसे ही जैसे पूरी चांदनी में
तनहा चांद को देखना
जैसे भरे बाज़ार में
ख़ुद को अकेला देखना

तुम्हारे रूप के बाग़ में
जैसे चांद छुप जाए
और चांदनी छुप-छुप कर उतरे
दिप-दिप कर उतरे
तुम्हारे आंचल से छन-छन कर उतरे
पेड़ों की डालियों के बीच मचल-मचल कर उतरे
किसी अमराई में
आम से लदे बाग़ की धरती पर उतरे
और उस की मिठास सी मचल जाए
जैसे मचलती है जीभ पर दशहरी की मिठास
और उस का भास
किसी मस्त मिठाई को मात देते हुए
इस तरह तुम्हें देखना
दशहरी की मिठास में भर कर
मैं तुम्हें देखता हूं इस रमज़ान में

तुम्हें देखते हुए उतरता हूं
अपने मन में ऐसे
जैसे किसी नदी की लहर में
सावन की बरखा उतरे
जैसे उतरे कोई रूपसी डगमगाती नाव से
जैसे उड़ते-उड़ते हर सांझ
उतरता हो कोई पक्षी
आसमान से
जैसे कोई थका हुआ परदेसी
किसी शहर से कमा कर
बरसों बाद उतरा हो नाव से
अपने ही गांव में बड़े चाव से
और उतरते ही भांस जाए उस का पांव
नदी किनारे उपज आए कीचड़ के किसी कोटर  में
फिर धंस जाए आंख उस की उस लंगड़ाती चाल में
पांव से कीचड़ छुड़ाते चलते उस के हाव-भाव में
इस तरह तुम्हें देखना इस रमज़ान में
कितने सुख से भर देता है
जैसे भरी चांदनी में भर लेता है
कोई दूल्हा
अपनी नई नवेली दुल्हन को
भर अंकवार में

अभी फिर-फिर देखा है
तुम्हें इस भरे-पुरे रमज़ान में
बिलकुल इसी तरह

[ 2 जुलाई , 2015 ]