Monday, 8 June 2015

केशव कहि न जाय का कहिए ........


 राजेंद्र यादव

हंस के पिछले संपादकियों को लेकर जैसे हंगामे हुए उनसे मैं बांगला मुहावरे में ‘दारुण’ चिंता में पड़ गया हूं, अपने लिए नहीं, आस-पास की स्थितियों के स्वरूप को लेकर। पहले हम सिर्फ शोर मचाते थे: फासीवाद आया, फासीवाद आया। अब जब समाज में फासीवाद सचमुच आ गया है तो सब चुप है: आज न आप धर्म के बारे में कुछ बोल सकते हैं, न इतिहास के, न फिल्म-नाटक बना सकते हैं, न चित्रा-कार्टून-अगले दिन राष्ट्रीयता और धर्म-संस्कृति के एकमात्रा तालिबान आपका जीना हराम कर देंगे- वे सिर्फ अखबारों और मंचों से ही नहीं धमकाएंगे-सड़कों पर प्रदर्शन करेंगे, पुतले जलाएंगे, तोड़-फोड़ करेंगे। कोर्ट-कचहरी में घसीटेंगे, शारीरिक हमले करेंगे और स्थिति यह पैदा कर दी जाएगी कि आपको जान के लाले पड़ जाएं। ‘ऐसे कैसे कोई हमारे धर्म-संस्कृति-इतिहास के बारे में कुछ भी बोलकर बच निकलेगा ? ये तो हम हैं कि सब कुछ बर्दाश्त करते रहें है -- की होती इन्होंने यह हरकत पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान में, कहीं दिखाई भी न देते अब तक। रखिए अपने अध्ययन, शोध और अनुसंधान को अपनी ‘उसमें’, आपको तर्कों, प्रमाणों और खोजों की मां की....कान खोलकर सुन लीजिए। सच यह है जो हम कह रहे हैं: आगे से इतिहास, धर्म और संस्कृति वही होंगे जो हम तय करेंगे-पढ़ाया और लिखा वही जाएगा जो हमारे जटा-जनेऊधारी ऋषि पास कर देंगे....क्या होता है विश्वविख्यात विद्वान ? जिस पश्चिम ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय हैसियत दी है-वहीं जाकर मरें। यहां क्यों अपनी ऐसी-तैसी करा रहे हैं। इस देश में रहना हो तो पड़े रहिए एक तरफ चुपचाप....यही गनीमत है कि हम त्रिशूल छाती पर रखकर यह नहीं कह रहे कि हम जो कहते हैं वही करो....मगर आपको मनमाना कहने, लिखने, उकेरने की छूट हरगिज नहीं दी जाएगी....साले कम्यूनिस्ट कहीं के....मार्क्स के पोदने....’

    अब यही सब भुगतना पड़ेगा गुरुशरण सिंह और हबीब तनवीर को, हुसैन और जतीनदास को, तरुण तेजपाल और मीरा नायर को....रोमिला थापर और रामशरण शर्मा, डी.एन. झा को और निखिल वागले या राजेन्द्र  यादव को....नहीं छोड़ा जाएगा ‘पीली छतरी’ लगाये उदय प्रकाश को, या ‘सहमत’ के गद्दारों को।

जी हां, लगभग इसी सबसे गुजरना पड़ा है मुझे। मेरे एक वाक्य को आधा-अधूरा तोड़-मरोड़कर पेश किए जाने पर....(‘‘रावण की लंका में हनुमान पहला आतंकवादी था’’) मुकदमा चलाओ, जेल भेजो, देश निकाला दो वरना हम अपने ढंग से देखेंगे....हंस की प्रतियां, संपादक के पुतले जलाए गए, प्रदर्शन हुए और धिक्कार प्रस्ताव पास हुए....साहित्य छोड़कर राजनेताओं की जूतियां लेकर चलने वाले/वाली ‘समाजकर्मियों’ ने चुनौदी दी: ‘यही सब बोलकर दिखाएं क्राइस्ट और मोहम्मद साहब के बारे में’ अखबारों के सलाहकारों ने मालिकों की नमक-अदायगी की कि हमें इन सब झंझटों में नहीं पड़ना है। हां, हमारी जाति के किसी भूत-नेता का अभिनंदन वगैरा करना होगा तो देखेंगे, अभी तो अपना ही कराने से हमें फुरसत नहीं है....पुराने मित्रा बोले। हां, हो तो गलत रहा है, बात भी उनकी ठीक ही है, मगर खुद हमारी मदद मांगने आएंगे तो सोचेंगे....एक ने भन्नाकर कहा कि याद नहीं है, मेरे पुरस्कार और मेरी रचना के साथ उन्होंने क्या किया था ? मेरी विश्वस्तरीय रचना नहीं लौटा दी थी ? मेरी किताब की समीक्षा नहीं कराई तो मैं किसी साले की समीक्षा क्यों करूंगा....? अब अपना किया खुद भुगतें, हमें क्या पड़ी है कि किसी के फटे में पांव दें...? एक संत/संतनी ने झुंझलाकर फैसला दिया कि ‘‘रोज-रोज एक न एक विवाद उठाते रहना उनकी मजबूरी है। इन सबमें भी यह मजा ले रहे होंगे....वैसे तो कोई पूछता नहीं है। चलो इसी बहाने सही....चर्खे विवादास्पद होने का फल....प्रसार भारती में थे तो सरकार, ब्यूरोक्रैसी और मंत्रियों से पंगा लेते रहे; फिर औरतों का लफड़ा उठा दिया होना-सोना लिखकर और अब धर्म-ध्वजियों से जा ड़ि....मिला है सवा सेर तो नानी याद आ रही है....करवाचौथी सावित्रियों ने अपने टॉमी पतियों से कहा: अजी सुनते हो डार्लिंग, बड़े चले थे हमें दलितों से जोड़ने; अब कहां गई उनकी घाघरा-पलटन। बुला ले अपने चूहड़े-चमार  दोस्तों को....’’
   
किस्सा-कोताह यह कि जिन बातों पर मुझे विवादास्पद करार दिया जाता रहा है वे सब मेरी व्यक्तिगत समस्याएं थीं, न उनमें कुछ सामाजिक था, न ऐसा कोई मुद्दा शामिल था जिस पर औरों को भी कुछ सोचना चाहिए था। साहित्य तो था ही नहीं, अगर कुछ थी तो शुद्ध राजनीति....अपने को चर्चा में बनाये रखने का हथकंडा, कोई ऊंचा एंगिल भिड़ाने की जुगाड़....हंस की बिक्री बढ़ाने की तिकड़म और प्रेमचंद की कब्र खोदने का पराक्रम....बुद्धिजीवी का काम इन सारी गलाजत में पड़ना है या राजनीति के आगे मशाल लेकर चलना....? अंतिम फतवा परम-विद्वान प्रोफेसर का था, ‘‘अरे ये किस मुंह से दलित-स्त्रिायों के पक्ष में या धर्मान्धता को विरुद्ध बोलेंगे-जो बोलना था वह इनके बाप कबीर, निराला, मुक्तिबोध, हरशिंकर परसाई बोल गए....’’

और अनायास ही मुझे मार्टिन नीमोलर की वे पंक्तियां याद आने लगीं जिन्हें शायद ब्रैख्त ने भी दुहराया है-

    जर्मनी में नाजी पहले-पहल
    कम्यूनिस्टों के लिए आए ....
    मैं चुप रहा/क्योंकि मैं कम्यूनिस्ट नहीं था
    फिर वे आए यहूदियों के लिए
    मैं फिर चुप रहा क्योंकि मैं यहूदी भी नहीं था
    फिर वे ट्रेड-यूनियनों के लिए आए
    मैं फिर कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं तो ट्रेड-यूनियनी भी नहीं था
    फिर वे कैथोलिको के लिए आए
    मैं चूंकि प्रोटेस्टेंट था इसलिए इस बार भी चुप रहा
    और अब जब वे मेरे लिए आए
    तो किसी के लिए भी बोलने वाला बचा ही कौन था ?

    जब प्रतिरोधी और परिवर्तनकारी शक्तियां बिखरी हों, आपसी हिसाब-किताब चुका रही हों और फंडामेंटलिस्ट यथास्थितिवादी ताकतें एकजुट होकर आक्रामक हों तो फासीवाद आता है। या जब हम स्वयं अपने व्यक्तिगत हिसाब चुकाने में लगे हों और बाहरी शक्तियों को परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से ‘दुश्मन’ को सबक सिखाने के लिए आमंत्रित करें तो गुलामी का दौर शुरू होता है। मुसलमानी आक्रमण से लेकर अंग्रेजों तक का इतिहास गवाह है।

इस मनोहारी वातावरण में आप ही बताइए दयानंद पांडेयजी, अगर आपने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में कोर्ट या जजों के यानी न्यायपालिका के विरुद्ध कुछ सच्चाइयां लिख दी हैं तो मुझे क्या लेना-देना ? अब अगर कुछ न्यायमूर्ति इसे व्यक्तिगत आक्षेप मानकर आपको जेल भेज दें तो इसमें मैं क्या करूं ? क्या करूं ? गणतंत्र-दिवस के एक दिन पहले के भाषण में राष्ट्रपति न्यायपालिका को जुआघर कहें, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस कृष्ण अइयर खुद इन्हें भ्रष्टाचार के अड्डे बताएं, या कहीं न्याय न मिलने पर फिल्मों के गुस्सैल नायक भ्रष्ट जजों और न्यायपालिका को खुलेआम गालियां दें तो कुछ नहीं होता। करते रहें वे ऐसा, मगर आपको किस कुत्ते ने काटा था कि इन अप्रिय सत्यों को बघारते फिरें ?-मेरे लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि दूध के धुले जज लोग आपको कहां-कहां दौड़ाते हैं; मेरे लिए तो यह महत्वपूर्ण है कि आपने एक निहायत ही खराब उपन्यास लिखा है और उसमें लंबे-लंबे वीभत्स और अश्लील संभोग-वर्णन है। आप जैसे व्यक्ति को न्यायमूर्तियों को भ्रष्ट कहने और न्यायपालिका को रंडीखाना कहने का क्या हक है ? देख नहीं रहे कितनी ईमानदारी से उन्होंने भंवरीदेवी पर अपना फैसला दिया और कितनी तत्परता से तहलका कंपनी के शेयर होल्डरों के आर्थिक घपलों को पकड़ने में जुटे शंकर शर्मा को घर रहे हैं-प्रधानमंत्राी कार्यालय तक सूत्र तलाश कर रहे थे....दयानंदजी आप जेल जाएं या भाड़ में, मैं बिल्कुल आपके पक्ष में कुछ नहीं बोलूंगा क्योंकि जब मैं लखनऊ गया था  तो क्या आप मेरा इंटरव्यू लेने आए थे ? की थी आपने अपने अखबार में मेरे भाषण की विस्तृत रिपोर्टिंग ? फिर मैं क्यों आपके पक्ष में बोलूं ? मेधा पाटेकर और अरुंधति राय को अगर अवमानना के केस में सुप्रीम कोर्ट घसीट रहा है, पेशियों में दौड़ा रहा है तो वे जानें...दिस इज देयर प्रॉब्लम....वे मेरी व्यक्तिगत स्कीम ऑफ थिंग्स में कहां है ? वे क्या हंस पढ़ती है जो मैं उनके पक्ष में बोलूं ? दयानंदजी या तो आप सत्ता में बैठिए और मजे में जॉर्ज फर्नांडीज, प्रमोद महाजन, अरुण शौरी, जसवंत सिन्हा, रंजन भट्टाचार्य या अरुण जेटली की तरह मन चाहे फैसले कराइएµया फिर नरसिंह राव, सुखराम, जैसिका हत्याकांड के अभियुक्तों, अभिषेक वर्मा, राकेश शर्मा, रोमेश शर्मा, चन्द्रास्वामी या नंदा की तरह खरीद-फरोख्त का पैसा जुटाइए और दनदनाते घूमिए....आप तो इमाम बुखारी, आचार्य गिरिराज किशोर या बालठाकरे भी नहीं है जो ललकार कर कह सकें कि सुप्रीम कोर्ट किस चिड़िया का नाम है ? हम उन्हें ठेंगे पर रखते हैं। हमें तो जो करना होगा करेंगे !....आप जैसे नत्थूखैरे अगर न्यायपालिका के खिलाफ, मंत्राी-मुख्यमंत्राी के खिलाफ लिखेंगे तब आपके खिलाफ वारंट नहीं तो क्या अभिनंदन-पत्रा भेजे जाएंगे ? जनाब, आपके ऊपर पोटो नाम का बुलडांग छोड़ दिया जाएगा। वीरप्पन, सुंदरलाल बहुगुणा, बाबा आमटे और डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा के साथ ‘इंडियाज मोस्ट वांटेड’ में आपकी तस्वीरें दिखाई जाएंगी। शंकरगुहा नियोगी की तरह ठिकाने लगा दिया जाएगा और पुलिस पूछताछ के लिए उठा ले जाएगी। फिर ढूंढते रहें आपके परिवार वाले आपका अता-पता....देख नहीं रहे, फरीदाबाद के पत्रकार सतीश शर्मा का हश्र-स्थानीय एस.पी. के खिलाफ कुछ लिख देने के अपराध में एक केस से छूटता है तो दूसरे में फंसा दिया जाता है। हत्या और अपहरण के नए केस में फंसाने पर और-तो-और उसका पक्ष लेने वाले वकील का भी आपराधिक रिकार्ड खोज निकाला गया है....कल को हम कुछ लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर आपका पक्ष लें और मालूम हो कि सन् 1955 में हम अफीम-गांजे की तस्करी में लगे हुए थे-तब क्या आप बचाने आएंगे ? हां, दारासिंह की तरह छाती ठोककर कहिए कि पादरी स्टेन्स और उसके बच्चों को हमने जलाया था, करना हो जिसे जो कर ले...फिर देखिए, किस तरह धर्म-ध्वजी आपकी जय-जयकर बोलते हैं। अगले दिन निहायत ईमानदार मंत्रियों-नेताओं का कमीशन जाकर दो घंटे में तय कर देगा कि स्टेन्स ने अपने आपको बच्चों सहित जीप में बंद करके खुद आग लगा ली थी....सुना नहीं, रूपकुंवर पर फैसला कि उसने स्वयं दैवी शक्ति से अग्नि पैदा की और भस्म हो गई-उसे कोई जलाये या मरने को मजबूर करे-इसका सवाल ही पैदा नहीं होता। ईसाई साध्वियां खुद अपने साथ बलात्कार करती हैं या नहीं ? बाबरी मस्जिद को खुद मुसलमानों ने बम रखकर ध्वस्त किया था या नहीं ? हमारे गेरुआ नेता बेचारे तो मस्जिद बचाने गए थे। कारगिल के ताबूतों में कमीशन हमने खाया या आतंकवादियों की आर्थिक मदद के लिए पाकिस्तानी आई.एस.आई. ने यह घोटाला किया ? फिर उन्हें इतनी ऊंची कीमतों पर खरीदने के आदेश तो खुद जवाहरलाल नेहरू ने 1962 में चीन-भारत के युद्ध के समय दिए थे....

    तो दयानंद पांडेय जी, आप खराब उपन्यासकार और गुमनाम पत्राकार ही बने रहिए-आलोचना करने की स्वतंत्रता के नाम पर क्यों नेताओं, न्यायमूर्तियों, हत्यारों, बलात्कारियों की पूंछ में पलीता लगाते हैं। यह पुलिस राज्य है हुजूर, अगले दिन सुराग नहीं मिलेगा.... बहरहाल, हमें तो इस झंझट में मत डालिए। हमें अभी सरकार और सत्ता से बहुत कुछ लेना है। वे लोग जो करते हैं, करने दीजिए सर्वेश्वर के शब्दों में ‘‘दिल जलता है तो जलने दे, तेरे बाप का क्या ?’’ अब झख मारकर मान ही लीजिए कि यहां राजा-रंक सभी को बराबर का न्याय, अवसर, सुरक्षा और सम्मान मिलता है-ऐसा गेरुआ रामराज्य इतिहास में कभी नहीं आया....हम आपकी लड़ाई बिल्कुल नहीं लड़ेंगे। लड़ने के लिए हमारे प्रतिद्वंद्वी और प्रतिर्स्धी साहित्य में क्या कम हैं ? देख नहीं रहे किस उत्साह और निष्ठा से हम एक-दूसरे की खाल खींच रहे हैं ? संपादकियों, वक्तव्यों और इंटरव्युओं में उनकी मां-बहनों का पुण्य-स्मरण कर रहे हैं। हमारी जिंदगी के मान-मूल्य और आदर्श अब वे नहीं है जहां हम दूसरों की लड़ाइयां लड़ा करते थे-सार्वजनिक हितों और अधिकारों के लिए जान दे देते थे....अब तो न किसी को कोई सवाल उठाने है, न स्थितियों पर पुनर्विचार करना है-सभी को भली-भली अच्छी बातें लिखनी हैं या सारी बातें इस बात से तय करनी है कि आपने व्यक्तिगत रूप से कहां क्या फायदा पहुंचाया ? जिन्हें यथास्थिति के विरोध का कीड़ा काट रहा है वे अपना बोया काटें.... अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, आलोचना का अधिकार, मानवाधिकार के लिए आवाज-सब सिरफिरों के सन्निपाती फितूर है....अभी तो तीस साल भी नहीं हुए और आप एमर्जेन्सी के दिन भूल गए जब हम एक-दूसरे के खिलाफ जासूसी करते थे, दल बनाकर इंदिरा गांधी के दरबार में निष्ठा जताने जाया करते थे और देश के दुश्मनों को रात में पुलिस उठाकर ले जाया करती थी ? उस समय भी हम चैन की ‘वंशी’ बजा रहे थे, आज भी वही कर रहे हैं। बीस साल बाद अपनी व्यक्तिगत डायरियां निकालकर बता देंगे कि हम इस फासीवाद के कितने विरोधी थे....

ऐसे में क्यों किसी के लिए कोई बोलेगा ? सबके अपने हिसाब-किताब और गणित हैं....इस सांस्कृतिक परिदृश्य में जब कोई रास्ता नहीं रहेगा तो मैं भी पाला बदल दूंगा। साहित्य-अकादेमी, यू.जी.सी. या हिंदी निदेशालय के खर्चे पर बंगलौर, चैन्नई, अंडमान जाऊंगा या अंतर्राष्ट्रीय महात्मा गांधी विश्वविद्यालय, आई.सी.सी.आर. और फिर मानव संसाधन मंत्रालय की ओर से हंगरी, हॉलैंड, इंग्लैंड की यात्राएं करूंगा, लौटकर थोक के भाव यात्रा-संस्मरण लिखूंगा। आकर बताऊंगा कि हम कितने दरिद्र, असंस्कृत और गैर-साहित्यिक लोग हैं, न अपने कवियों का सम्मान करते हैं, न हमारे बारीक अमूर्तनों को समझ पाते हैं....सालों को पता ही नहीं कि विश्वसाहित्य किन ईथरीय ऊंचाइयों पर पहुंच चुका है। इधर ये लगे हैं अब भी वही स्त्रिायों-दलितों के विधवा-विलाप, भूख बेकारी संघर्ष की छाती-पीट रुदाली में....बोलो, साहित्य का काम यह सब करना है या मानवीय सौंदर्य-बोध की वैश्विक पड़ताल ? इन्हें अभी सौ साल लगेंगे साहित्याध्यात्म की ऊंचाइयों तक पहुंचने में....

मैं मानता हूं कि मैं पक्षी-विशेषज्ञ सालिम अली नहीं हूं मगर क्या मैं चिड़िया, चुनमुन, टी.वी.टी. ट्विट....कोयल की कूक और मोर की काकली पर, बलाका मालिका पर, नदी-नाले पहाड़ों पर, समुद्र पर होती हुई बारिश और पहाड़ों पर गिरती बरसात या उटकमंड और कंचनजंघा के सौंदर्य पर ललित-निबंधों के कॉलम-दर-कॉलम नहीं लिख सकता....? गांव, घर, खेत, खलिहानों के ‘‘वे दिन भी कितने सुंदर थे’’ मार्का संस्मरण लिखने से मुझे कौन रोकेगा ? इतने मेले त्योहार हैं। बड़े-बूढ़े, दादा-बाबा, मास्साब और अब्बू चाचा हैं, महतरानी भाभी और चमरू भैया हैं-वे सब किस दिन काम आएंगे ? बाप का त्याग और मां की सेवा तो शाश्वत कविता के चिरंतन विषय है ही, अपने किशोर अतीत का पुनर्स्मरण, पर्यावरण प्रेम, लोक-जीवन से जुड़ाव, शुद्ध-साहित्य लिखने का आध्यात्मिक संतोष और साप्ताहिक चैक-चर्वण....एक ही आइसक्रीम में सोलह मजे चूसिए और चुसवाइए....चालीस सालों से महानगर में हूं। फ्लैट, गाड़ी, फोन, दारू-दारा सभी कुछ अपने ‘पराक्रम’ से अर्जित किया है, मगर यहां की उपभोक्ता संस्कृति में मानवता किस तरह मर गई है-यह मुझसे ज्यादा कौन समझता है ? घटना-दर-घटना सुना सकता हूं। मेरा दिल हर वक्त रोता रहता है। याद नहीं है उस दिन मंत्री जी के घर पर रस-रंजन करते समय मैं किस तरह फूट-फूटकर रोया था कि उन्हें स्वयं मुझे गाड़ी में भिजवाना पड़ा था ! हाय, बेचारे बड़े अच्छे और सरल व्यक्ति हैं। बेकार ही लोग उन पर कीचड़ उछालते हैं। अपने ही आदमी है। साहित्य की कृपा है कि इस महानगर में रोज कहीं-न-कहीं दारू और दाल-रोटी का जुगाड़ हो जाता है, लाने-पहुंचाने का सुख ऊपर से....चूतिया हूं जो अपनी जेब में हाथ डालूंगा....? नीच और हरामजादे हैं साले, जो पीछे मुझे ‘दारुकुट्टा’ या ‘मुफ्तखोर’ कहते हैं....वही कौन अपने बाप का पैसा फूंक रहे है....? जी हां, मैं भी देशी-विदेशी किताबों की दुकानों में घूम-घूमकर एक से एक दिग्गज लेखकों की उद्धरणबाज सूचनाएं हिंदी के अनपढ़ों के मुंह पर मार सकता हूं-संगीतकारों, चित्रकारों और कला-कर्मियों की जीवनियां सुना सकता हूं....

समय, समाज, सत्ता पर हवाई लफ्फाजी करना मुझे भी आता है। विदेशों में न्याय के पक्ष में या अत्याचारों के खिलाफ लड़ने वालों की कतार भी तो छोटी नहीं है। याद नहीं है नाजियों ने बुद्धिजीवियों और लेखकों के साथ क्या किया था ? हंगरी में सोवियत सेनाओं ने किस तरह निर्दोष लोगों की सामूहिक हत्याएं की थीं ? और इस सब पर यहां के कम्यूनिस्ट किस तरह चुनी हुई चुप्पियां साधे रहे थे ? हां, मैं क्यों लिखूं कि अडवानी की रथ-यात्रा के बाद बंबई-गुजरात में अल्पसंख्यकों की कितनी हत्याएं हुईं, बलात्कारों की कितनी सामूहिक फिल्में बनाई गईं, दलितों की कितनी बस्तियां जलाई गईं, या आज भी हमें कैसे युद्धोन्माद में रखा जा रहा है। लिखना ही होगा तो अणु-विस्फोट पर बुद्ध किस तरह मुस्कराये थे या अमेरिका किस तरह हमारा ‘प्राकृतिक-मित्रा’ है-इस पर लिखूंगा, राष्ट्रीय सम्मान पर लिखूंगा, कुंभ और वैष्णों देवी की महान अध्यात्मिक एकात्मकता, सनातन की संस्कार-यात्रा पर लिखूंगा, वैदिक-गणित और भारतीय ज्योतिष या कर्मकांडों के प्रशिक्षण के पक्ष पर लिखूंगा....न भी लिखूं तो चुप तो रह ही सकता हूं। मुझे क्या ज्ञानपीठ और व्यास-सम्मान नहीं लेने ? अपने को याद दिलाये रखना जरूरी है कि साहित्यकार या बुद्धिजीवी अमूर्तन की सत्ता का छापामार है, दैनिक भौतिकवाद का कुत्सित एक्टिविस्ट नहीं। मैं क्यों अपने देश में होने वाली इन धांधलियों के विपक्ष में बोलकर खतरा मोल लूं....?

    इतना तो जानता ही हूं कि दुनियाभर के विचारकों-दार्शनिकों का जन्म ही इसलिए हुआ था कि मैं उनके उद्धरणों की जुगाली करूं-मदारी की तरह उनकी सूक्तियों के गोले मुंह से निकालूं....उदाहरण के लिए क्या स्पेसवादी विवेचन की शब्दावली मैं भी नहीं सीख सकता ?-स्पंदन और अनुभूति के बीच का स्पेस, अलस-बुद्धि और भोंथरे संवेदना-तंत्र के बीच का स्पेस, बिंदुओं के संघटन और रेखा के बीच का स्पेस, साहित्य के स्वायत्त लोकतंत्र और रोजमर्रापन की क्रूरता के बीच का स्पेस....स्वयंभू ब्रह्म और जीव की मर्त्यता के बीच का स्पेस....सनातन और क्षणिकता का स्पेस....पर्सैप्सन और कंसैप्ट के बीच का स्पेस। अपने चिंतनपरक मंथनों में मैं भी ऐसा स्पेसवाद फैला दूंगा कि सांस लेने का स्पेस न मिले। इस अनौपनिषदिक स्पेस से जब नीचे उतरूंगा तो सोचूंगा कि अब क्या करना है....

    इस भविष्यहीनता या अपनी आसन्न नियति से उदासीन होने का अपराध-बोध, वर्तमान के अस्वीकार के लिए या तो अतीत में बौद्धिक पलायन से अपना जस्टिफिकेशन मांगता है या विदेशी उधारी से अपनी समृद्धि और समस्याओं का हल तलाश करता है। बौद्धिक अवधारणाएं और देश चलाने की पॉलसियां बाहर से ली जाती हैं, फिर उनके अनुरूप अपनी सामाजिक समस्याओं को समझा या रचनाओं का विश्लेषण किया जाता है। इस स्वप्न-ध्वस्त समय से स्वर्णिम अतीत और वैश्विक कलावाद ही हमें बाहर निकालेगा-इसे वर्तमान से जोड़कर देखना बौद्धिक जड़ता है। आमीन....

[ अपने-अपने युद्ध लिखने पर इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में जब कंटेम्प्ट आफ कोर्ट का मुकदमा हुआ तो उस संदर्भ में राजेंद्र यादव ने हंस के मार्च , 2002 अंक में यह संपादकीय लिखा था । ]



पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए

प्रकाशक :
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.

30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001

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