Monday, 8 June 2015

लोक संस्कृति , बाज़ारवाद और राजनीति की संघर्षगाथा

 राजकुमार 


दयानंद पांडेय ने अपने नवीनतम उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं’ में एक कलावंत ‘मोहना’ यानी ‘लोक कवि’ को रचना का विषय बनाया है। पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में ही नहीं अन्य भारतीय भाषाओं में भी लोक कलाकारों को रचना का विषय बनाया गया है। मराठी उपन्यासकार आनंद यादव ने ‘नटरंग’ उपन्यास में लोक कलाकार ‘गुनवत’ को, संजीव ने ‘सूत्राधार’ उपन्यास में ‘भिखारी ठाकुर’ को, मंगलेश डबराल ने ‘आवाज भी एक जगह है’ कविता-संग्रह में ‘केशव अनुरागी’ समेत अनेक कलाकारों को रचना का विषय बनाया है। इस कड़ी में अशोक वाजपेयी, राजेश जोशी समेत और भी लेखकों के नाम गिनाए जा सकते हैं। अब सवाल उठता है कि यह साहित्यिक फैशन बन गया है, कोई ट्रेंड चल गया है या किसी संकट का सूचक है। क्या होरी, शेखर, कालीचरण, बाबनदास सरीखे औपन्यासिक पात्रों की जरूरत खत्म हो गयी या इस तरह के पात्र अप्रासंगिक हो गये हैं जो ‘कलावंतों’ को रचना का विषय बनाया जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है ? यह ‘क्यों’ एक साथ अनेक सवालों को पैदा करता है। मसलन क्या साहित्य की रचनात्मक ऊर्जा का हृास हो रहा है जो वह कला के ही दूसरे माध्यम, रूप और शिल्प को रचना का विषय बना रहा है ? या फिर साहित्य और भाषा के लेखकों का कला-प्रेम उमड़ा पड़ा और उनकी चेतना का विस्तार हो गया है ? या फिर यह समाज के बदल जाने का सूचक है ? ध्यान देने की बात है कि लोक संस्कृति, लोकगीत, लोकनृत्य आदि के गायक, उन्नायक और निर्माता ये सभी पात्र-गुनवंत, भिखारी, केशव अनुरागी और मोहना निम्न जाति से संबंधित हैं। कहीं ये सामाजिक-राजनीतिक चेतना में आये बदलाव के सूचक तो नहीं हैं ? या फिर कहीं ऐसा तो नहीं है कि इन ‘कलावंतों’ के माध्यम से आज भारतीय सभ्यता और संस्कृति के ठेकेदार बन चुके फासीवादी ताकतों को चुनौती दिया जा रहा है ? ये सवाल निश्चित रूप से सामाज शास्त्रीय अध्ययन की मांग करते हैं। अगर इन सवालों की तफसील दयानंद पांडेय के उपन्यास ‘लोक कवि अब गाते नहीं’ में किया जाए तो लेखक का सारा विमर्श उघड़ जाता है।

पांडेय के यहां ‘कलावंत’ का विषय बनना महज पात्र या विषय का बदलना नहीं है बल्कि इसके माध्यम से नये विमर्श पैदा करना है, नयी चुनौतियों एवं संकटों का सामना करना है, बिखर रहे समाज का चित्र खींचना है और एक तरह से कलावंत की त्रासदी, पीड़ा एवं संघर्ष की गाथा लिखना है। पांडेय का लेखक भूमंडलीकरण, बाजारवाद, बांझ हो चुकी राजनीति, कानून व्यवस्था और समाज के भीतर आंतरिक उपनिवेशवाद कायम रखने वाली शक्तिशाली संस्था व संरचना जातिवाद/वर्णवाद से टकराता है। समाज की यह संस्थाएं एवं संरचनाएं इतनी ताकतवर है कि यह ‘पैराडाइम शिफ्ट’ भी उसके सामने लाचार नजर आता है।

पांडेय ने भी इस उपन्यास में दिखाया है कि बाजार की ताकत के  सामने सब बौने पड़े जाते हैं। ‘लोक’ में भी यह क्षमता नहीं है कि वह बाजार का मुकाबला कर सके। ‘लोक’ की ताकत एकजुटता में है लेकिन भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद का जहर इस एकजुटता में बाधक हैं ऊपर से भ्रष्ट अवसरवादी, अतार्किक राजनीति के पास भी कोई योजना इनसे लड़ने की नहीं है। तब तो पराजय निश्चित है। लेखक ने इस उपन्यास में ‘लोक कवि’ की पराजय दिखा कर इसे साबित भी किया है।

पांडेय दिखाते हैं कि गांव का निर्धन, पिछड़ी जाति का गली-गूची में चंग बजाने वाला मोहना अनथक संघर्ष कर लोकगीतों को स्वर देता है। धाना के प्रेम में वशीभूत होकर ‘आव चली ददरी क मेला, आ हो धाना’ गाने वाला मोहना गांव में सामाजिक कुप्रथाओं, सामंती व्यवहारों, जमींदारी अत्याचारों और गरीबों को बंधुआ बनाने की साजिश के खिलाफ गीत लिखता और गाता है। मार भी खाता है लेकिन गायकी नहीं छोड़ता है। धीरे-धीरे वह अपनी गायकी से ‘फेमस’ होने लगता है। फिर एक कम्युनिस्ट नेता इलेक्शन में उसकी गायन कला का राजनीतिक इस्तेमाल करता है। जीतने के बाद वह मोहना को लखनऊ ले आता है और उसका नया नामकरण करता है- ‘लोक कवि’।

‘लखनऊ लोक कवि के लिए नयी जमीन थी। अपरिचित और अनजानी। चौतरफा संघर्ष उनकी राह देख रहा था।’ लेकिन लोक कवि ‘रइ-रइ-रइ-रइ’ गुहार कर अवधी की जमीन पर भोजपुरी में कहरवा सुनाने लगा और भोजपुरी लोक गीत, लोक संगीत, लोक भाषा, लोक नृत्य को शिखर पर पहुंचा दिया। पारंपरिक धुनों, छंदों को जोड़-घटा कर नया बनाता साथ ही सोहर, गारी, कजरी, लचारी भी निराले ढंग से गाता। धीरे-धीरे उस की ख्याति लखनऊ की ज़मीन छोड़ कर बिहार तक फैल गयी। उसके कैसेट रिलीज जुए तो हिंदी प्रांतों की सीमा भी टूटने लगी। इस प्रसिद्धि को राजनीति ने भी ‘कैस’ करना शुरू कर दिया और लोक कवि ने भी। इस क्रम में राजनीति और कला ने एक-दूसरे की शक्ल बिगाड़ दी।

गरज यह कि लोक कवि कला से निकल कर बाजार का रुख कर रहे थे। बाजार को समझ-तौल रहे थे। बाजार भी लोक कवि को तौल रहा था। इसी तौल में वह समझ गये कि अब सिर्फ पारंपरिक गाने और बिरहा के बूते बाजार में नहीं टिका जा सकता। सो लोक कवि ने पैंतरा बदला। पहले लोकगीतों की मिक्सिंग की, फिर डबल मीनिंग गानों का घालमेल किया। डबल मीनिंग गानों ने बाजार में ऐसा चढ़ाया कि बड़े-बड़े गायक पीछे छूट गये लीेकिन बाजार ने उनके ‘लोक कवि’ की छवि को भी झुलसा दिया। मार्केट से गायब होने के डर से लोक कवि ने बाजार का इस्तेमाल किया और उसने ‘बिरहा पार्टी’ को ‘म्यूजिकल पार्टी’ फिर ‘आर्केस्ट्रा पार्टी’ में तब्दील कर दिया। साथ ही उसमें लड़कियों की इंट्री अंग्रेजी भाषा के साथ कर दी। ऐसा नहीं है कि लोक कवि इसे नहीं समझते थे लेकिन बाजार की ताकत और दर्शकों की पतनशील अभिरुचियों के सामने विवश थे- ‘नाचे न नचावै केहू पइसा नचावेला।’ बाजार ने एक तरफ लोक कवि को ‘पैसा’ और ‘प्रसिद्धि’ दिया तो दूसरी तरफ लोक संस्कृति, लोक भाषा, लोक परंपरा, लोक गीत, लोक नृत्य, लोक संगीत, आदर्श, मूल्य और नैतिकता सबका गला घोट दिया। उसकी आदर्श, मूल्य और नैतिकता सबका गला घोंट दिया। उसकी शक्ल बिगाड़ दी। अस्तित्व मिटा दिया। बाजारू ‘टोटका’ अपनाने वाले लोक कवि ऐय्याशी के गर्त में ऐसे गिरे की फिर नहीं निकल पाये। बाजार के दलदल में धंसे तो धंसे रह गये। शराब, तानाशाही, ग्रुप सेक्स स्थायी आदत बन गयी।

उपकथा के माध्यम से पांडेय ने गांव की विद्रूपता को ठकुराइन और गणेश तिवारी के माध्यम से दिखाने का प्रयास किया है। जातिवाद के रंग को भी लेखक ने दिखाया है। गांव में पंडित जी के सामने भोजपुरी के शिखर गायक लोक कवि की हैसियत महज ‘नचनिया पदनिया’ से अधिक नहीं है। लोक कवि गांव में लड़कियों का दलाल भी माना जाता है। उजड्ड, कलाहीन, अ-संस्कारी समाज भी उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाता है। यह कलाकार की त्रासदी की कथा को कहता है।

इस उपन्यास में सबसे अधिक शोषित पात्र महिलाएं हैं। इसमें अनेक तरह की महिला पात्र हैं और सभी किसी न किसी रूप में शोषित हैं। पत्नी, बेटी, बहू, रखैल, कलाकार हर रूप में चाहे वह शहर की हों या गांव की सभी शोषित है। पांडेय के लेखक ने भोजपुरी भाषा और उसकी अस्मिता के संकट का सवाल उठा कर जहां उपन्यास को राजनीतिक आयाम दिया है वहीं लोक कवि की पीड़ा, दुःख को भी दिखाया है। कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि उपन्यास में बाजारवाद के सामने लोक कला की त्रासदी पाठकों को दृष्टि देने वाली है।

[ राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित ]



समीक्ष्य पुस्तक :
 लोक कवि अब गाते नहीं
पृष्ठ सं.184
मूल्य-200 रुपए

प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2003


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