अंजू उपाध्याय
‘अपने-अपने युद्ध’ उपन्यास काफी चौकाने वाला उपन्यास है। प्रिंट मीडिया को
फ्रेम करके लिखा गया यह उपन्यास स्त्री-प्रसंगों और न्यायपालिका प्रसंगों
के बाबत न सिर्फ कई सवाल खड़े करता है बल्कि उनका एक जीता-जागता नरक भी
उपस्थित करता है। दुनिया भर की ख़बर लिखने वाले अख़बार कर्मियों का अपनी ही
खबर से बेखबर रहना, रोज नये-नये नरक जीना, घुट-घुटकर रहना फिर भी बाहर
खिल-खिल करना, ऐसा बहुत कुछ इस उपन्यास में उभर कर आता है। थिएटर, दहेज,
मनुवाद, गांधी, लोहिया और रजनीश जैसे कई विषय इस उपन्यास को बहस तलब बनाते
हैं। लेकिन जो कहते हैं सिर चढ़ कर बोलना तो सिर चढ़ कर बोलने का काम यहां
सिर्फ दो प्रसंगों ने किया है। एक है स्त्री प्रसंग, दूसरा न्यायपालिका
प्रसंग।
यह अजब नहीं होगा
जो इस उपन्यास को विवादित करार दे दिया जाये। इस उपन्यास में वर्णित
न्यायपालिका प्रसंग का ब्यौरा समूची न्यायपालिका को कटघरे में खड़ा कर देता
है। और एक तरह से न्यायपालिका की प्रासंगिकता पर न सिर्फ कड़े सवाल उठाता है
बल्कि उसके अस्तित्व पर गहरी चोट भी करता है। बहुत संभव है न्यायपालिका से
जुड़े लोग चाहें वकील हों, चाहे न्यायमूर्ति या न्यायाधीश या अन्य लोग इस
पर कड़े ऐतराज जतायें इस उपन्यास को भी न्यायिक हलकों से इस उपन्यास को
प्रतिबंधित करने की भी मांग उठे क्योंकि इस उपन्यास में वर्णित न्यायपालिका
के ब्यौरे काफी तल्ख तो है ही, कई जगह वह न्यायपालिका की प्रक्रिया की हवा
भी निकाल देते हैं। उपन्यास में बताया गया है, ‘हाईकोर्ट जो रावणों का घर
है। जहां हर जज, वकील रावण है। न्याय वहां सीता है और कानून मारीच। जैसे
रावण अपने मामा मारीच को आगे कर सीता को हर ले गया ठीक वैसे ही हाईकोर्ट
में जज और वकील कानून को मामा मारीच बना कर न्याय की सीता को छलते हैं। फिर
वह व्यक्ति राम की तरह ‘तुम देखी सीता मृगनयनी’ कहता हुआ यहां-वहां
तारीखों के मकड़जाल में भटकता रहता है। ऐसा भी नहीं कि न्याय वहां नहीं
मिलता। न्याय मिलता भी है पर राम को नहीं। रावण को और उसके परिजनों को।
हत्यारों, डकैतों को जमानत मिलती है। हां, राम को तारीख़ मिलती है।’ (पृष्ठ
241) यह और ऐसे तमाम प्रसंग तथा संवाद न्यायपालिका की छाती चीर कर रख देते
हैं। इस उपन्यास में एक चरित्रा है। रामकेवल। जो तारीखों के मकड़जाल में
उलझा कोर्ट में बैठे-बैठे ही मर जाता है, लेकिन उसे उसके केस का फैसला नहीं
मिल पाता।
संजय इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र है। ‘यह लड़ाई है दिये की और तूफान की’ गाना गुनगुना कर वह खुद भी न्यायपालिका के चक्कर काटता है लेकिन ‘इन्टरप्रेटेशन’ और ‘प्रोसीडिंग’ की चकरघिन्नी में तारीखों के तंत्रा उलझा हुआ वह भी टूट जाता है और उसे भी न्याय नहीं मिलता है। इस उपन्यास में वर्णित न्यायपालिका के कई प्रसंग दिल हिला कर रख देते हैं और भारतीय न्याय व्यवस्था को न सिर्फ मुंह चिढ़ाते हैं बल्कि उसकी कलई खोल, उसकी बेईमान होने का चीख-चीख कर ऐलान करते हैं। एक दृश्य में तो उपन्यास का नायक संजय मारे विरोध में हाईकोर्ट में पेशाब कर देता है। तो कथ्य और तल्खी और ज्यादा चुभन पैदा करती है।
‘अपने-अपने युद्ध’ उपन्यास न्यायपालिका के अलावा अगर विवाद में आयेगा तो अपने स्त्री प्रसंगों के लिये भी। हो सकता है कुछ ‘सती सावित्री ’ टाइप सुधी समीक्षक इस उपन्यास पर अश्लीलता का भी आरोप लगा दें।
इस उपन्यास का केन्द्रीय चरित्र संजय जो जुझारू भी है और लंपट भी। कई बार लगता है वह दिग्भ्रमित भी है। अकसर वह नैतिकता और सिद्धांत की लड़ाई लड़ता दिखता है। लेकिन स्त्री प्रसंगों के मामले में उसकी सारी नैतिकता हवा हो जाती है। पारम्परिक और दुनियावी अर्थों में संजय का जो चरित्र छन कर सामने आता है। उसे ‘चरित्रहीन’ कहा जाता है। वह लगातार एकाधिक स्त्रिायों के फरे में रहता है। ऐसे गोया वह कोई प्लेव्यॉय हो। स्त्रियां उसके जीवन में ऐसे हैं जैसे किसी लॉन में घास। लेकिन वह स्त्रियों को बराबर आदर व मान देता है। शायद इसलिए भी कि उसके आस-पास की सभी स्त्रियां पढ़ी-लिखी और विदुषी हैं। इस बहाने जैसे एक डाल से दूसरी डाल पर होते हुए स्त्री प्रसंगों को जिस तरह से वर्णित किया गया है उपन्यास में पठनीयता का ‘रस’ तो जोड़ता ही है कथा को आगे बढ़ाने में भी बहुत काम आता है। इन स्त्री प्रसंगों में कई बार समाज और उससे जुड़े कई खौलते हुए सवाल उठ खड़े होते हैं। बड़ी तल्खी और तुर्शी के साथ। जैसे एक महिला पात्र है रीना। वह एक जगह संजय से पूछती है ‘सेक्स और पत्रकारिता, पत्रकारिता और सेक्स। इस के अलावा भी तुम्हें कुछ आता है?’
तो संजय कहता है ‘जिस को सेक्स की समझ हो, पत्रकारिता की समझ हो, समझो वह दुनिया जानता है।’ (पृष्ठ 130)
और सचमुच इस उपन्यास में यह और ऐसे तमाम बहानों के बहाने कई ऐसी सच्चाईयां उद्घटित हुई हैं जिनका ब्यौरा हिन्दी में कहीं अन्यत्र मिलना मुश्किल है। रीना, नीला, चेतना और साधना इस उपन्यास के मुख्य स्त्री चरित्र हैं और संजय इन सबका ‘साथी’ है बारी-बारी। लेकिन वह किसी के साथ छल नहीं करता। यह उसकी लम्पटता का प्लस प्वाइंट है। शायद इसीलिए इस उपन्यास की स्त्रियां उस पर ‘यकीन’ भी करती हैं और खूब।
‘अपने-अपने युद्ध’ की शुरुआत थिएटर प्रसंगों से होती है। दिल्ली के नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से लेकर लखनऊ तक के थिएटर के कई सवाल उपस्थित हैं। और अपनी पूरी तल्खी के साथ। इस उपन्यास में दहेज जैसे विषयों को भी उठाया गया है और पूरी निर्ममता से। एक दारोगा का परिवार अपनी बहू को जलाकर जो यातना देता है उसके ब्यौरे पढ़ कर दिल दहल जाता है।
यह उपन्यास चूंकि प्रिंट मीडिया पर केंद्रित है। इसलिए इस उपन्यास में पत्रकार, लेखक और कवि चरित्रों की भरमार है। अजब-गजब चरित्र है। लड़कियों से लाइनबाजी करने वाले वृद्ध सुरेंद्र मोहन तल्ख हैं तो वेश्यावृत्ति के शौकीन सुजान पुरिया जैसे लोग भी हैं। वेश्याओं के कोठे पर सुजान पुरिया वाला दृश्य हंसाता भी है। और खीझ भी दिलाता है। आलोक जैसा चरित्र भी गौरतलब है। सुरेश, उमेश, प्रकाश और मनोहर जैसे चरित्र उपन्यास की कथा को बढ़ाने में तो सहायक हैं ही, पत्रकारिता और उसके दोगलेपन को भी तार-तार करते हैं। सरोज जैसे भडुआ पत्रकारों का चरित्रा भी इस उपन्यास में उपस्थित है तो मधुकर और शेखर जैसे चार सौ बीस कवियों की जमात भी खड़ी मिलती है। सरोज और मधुकर के चरित्र ‘व्यक्ति चित्र’ के लिहाज से अनूठे बन पड़े हैं।
[ हिंदुस्तान समाचार फ़ीचर्स नेटवर्क द्वारा जारी ]
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए
प्रकाशक :
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001
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