Friday, 20 March 2015

सपनों का सिनेमा

दयानंद पांडेय 


कभी कभी अब भी तुम सपनों में झांक जाती हो तो लगता है जैसे कोई सिनेमा शुरू हो गया है। ऐसा सिनेमा जिस की कोई एक कहानी नहीं होती। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी कई सारी कहानियां। उन दिनों की कहानियां जब मैं तुम से प्यार करता था। इकरार और इसरार करता था। बेकरार तुम्हारी आंखों में झांक-झांक निसार होता था। बिलकुल ठीक वैसे ही तुम आज भी सपनों में झांक गई हो।

और सपनों की एक रेल चल गई है। सॉरी रेल नहीं, मेट्रो रेल। कि चली नहीं कि तुम्हारा हाथ हाथों में ले लूं कि दूसरा स्टेशन आ गया है। आता ही जा रहा स्टेशन-दर-स्टेशन पर तुम्हारा हाथ मेरे हाथों में नहीं आ पाता। जैसे तुम मेरी ज़िंदगी में आ कर भी नहीं आ पाई। जैसे कोई क्लास में तो रोज बैठे। सारे पीरियडस भी पढ़े। इम्तहान का फ़ार्म भी भरे। पर ऐन वक्त पर इम्तहान देने से रह जाए। और जब इम्तहान ही नहीं दिया तो फिर रिजल्ट भी कैसे आए भला ?

मैं पूछना चाहता हूं कि यह हमारे सपनों में तुम्हारी मेट्रो इतनी तेज़ चलती क्यों है? कि सारा सिनेमा गडमड हो जाता है। टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी कहानी वाला सिनेमा। कुछ-कुछ कहानियां ऐसी जिन के टुकड़े कैमरा क़ैद नहीं कर पाता। कुछ दृश्यों को निर्देशक समझ नहीं पाता। तो कुछ को पटकथा लेखक पहले ही निकाल बाहर फेंक देता है। कि इस से तो सिनेमा स्लो हो जाएगा। और सब को फास्ट चाहिए। बिलकुल कसा हुआ। चाहे सिनेमा हो, चाहे औरत, चाहे प्रेम। क्या इसी लिए कहते हैं कि कथा और पटकथा नदी के दो छोर हैं। कथा इस पार, पटकथा उस पार। ज़्यादा कुछ तो इसी में साफ हो जाएगा। बाक़ी का निर्देशक और कैमरा मारेगा। तो कुछ एडिटिंग में खो जाएगा। मतलब कहानी का सत्यानाश्! लेकिन सिनेमा चलेगा हमारे सपनों का।

तुम्हें याद है

मुगल गार्डेंन में अंत्याक्षरी खेलते-खेलते हम लोग जब-तब लिपट जाते थे। अंत्याक्षरी तो एक बहाना था। तुम मुझ से गाना सुनना चाहती थी। और मैं गाता था। तुम्हारे लिए। एक बार गांधी समाधि पर जब रधुपति राघव राजा राम गाने लगा था तो तुम कैसे तो तमक कर उठ खड़ी हुई थी कि अभी मैं मरी नहीं हूं ! मेरे मरने पर यह गाना। और मैं, ‘कोरा कागज था ये मन मेरा, लिख दिया नाम उस पे तेरा !’ गाने लगा था। 

उन्हीं दिनों एशियाड हुआ था। इंदिरा गांधी ने दिल्ली में एक साथ कई फ्लाई ओवर बनवा दिए थे। उन फ्लाई ओवरों पर जब कोई युवा जोड़ा चिपटा-चिपटा अपनी बाइक से सन-सन करता गुज़रता तो तुम फिर मचल जाती। कहती कि, ‘तुम भी बाइक ख़रीदो न! मैं भी तुम्हारी कमर में हाथ डाल कर तुम्हारे साथ चिपट कर बैठना चाहती हूं। पर पैसे ही इतने नहीं हुए तब कि कभी बाइक ख़रीद कर तुम्हें चिपटा कर बैठाता। कुछ बैंकों के चक्कर भी मारे। कि लोन मिल जाए। बाइक के लिए। पर नहीं मिला। तुम्हारी यह फ़र्माइश नहीं पूरी कर पाने का मलाल आज तक है। इतना कि बाइक चलाना भी आज तक नहीं सीखा।

हम लोग एक शाम जब दिल्ली के लोहे वाले पुल पर पैदल चलने वाले हिस्से पर खड़े थे। हाथों में हाथ लिए यमुना की धारा को निहारते हुए। पुल के नीचे से एक नाव गुज़री थी। उस नाव पर भी एक जोड़ा था। लगभग लिपटा हुआ, गुत्थमगुत्था। यह देख कर तुम मचल गई थी कि, ‘हम भी नाव पर बैठेंगे! ’ कि तभी पुल के  ऊपर से कोई रेल गुज़री थी धड़-धड़ ! समूचा पुल हिलने लगा था। और तुम मारे डर के मेरे सीने से लिपट गई थी। किसी सिनेमाई हिरोइन की तरह। बगल से गुज़रते हुए लोग ‘ओए-ओए!’ कहते हुए मज़ा लेने लगे थे। मैं असहज हो गया था। पर तुम बेख़बर सीने से चिपटी रही। ट्रेन के गुज़र जाने के बाद हम लोग नाव के लिए घाट पर भी गए थे। अंधेरा होने को था। कोई नाव वाला तैयार नहीं हुआ। हम दोनों मायूस लौटे थे। दूसरे दिन मुद्रिका वाली बस में हम बैठे। हाथ में हाथ लिए। एक दूसरे के स्पर्श में खोए। बस से कौन उतर रहा है, कौन चढ़ रहा है, इस सब से बेख़बर। एक ही बस में अप-डाउन करते रहे। दिन भर। उतरे नहीं। बस एक दूसरे को महसूसते हुए बैठे रहे। कंडक्टर अजीब़ नज़रों से घूरता रहा। मैं असहज हो गया। पर तुम बेख़बर रही।

वह जाड़ों के दिन थे। जब तुम गांधी नगर की गलियों में एक रात मुझ से सट कर चल रही थी। कि अचानक दो तीन कुत्तों ने भौंकना शुरू किया। मैं डर गया। डर कर ýक गया। कुत्ते पास आए। तुम्हें मुझ से प्रेम में पड़े देख कर यकायक भौंक कर चुप हो गए। मैं तो कुत्तों से डरता रहा, तुम मुस्कुराती खड़ी रही। कुत्ते हमारे प्रेम को देख कर जैसे मुदित हो गए। चुप हो गए। और दुम हिलाते हुए चले गए। तुम से, तुम्हारे प्रेम के ऐसे अनगिन दृश्य हैं मेरी आंखों में, मेरी यादों में, मेरी सांसों में। किसी न ख़त्म होने वाले सिनेमा की तरह। जैसे सिनेमा तो वही हो पर उस के सारे शो में हम तुम ही बैठे हों। फ़िल्म एक दूजे के लिए की याद है तुम्हें? दरियागंज के गोलचा सिनेमा में तुम्हारे साथ देखी थी। कमल हासन और रति अग्निहोत्री जब लाईट जला-बुझा कर, संकेत दे कर अपने-अपने घरों से मौन संदेश भेजते हैं। और एक दृश्य में कपड़ा धोते-धोते, कपड़ा पटकते-पटकते, कपड़ा फाड़ देने वाला वाकया देख कर कितना तो ठठा कर हंसा था मैं। और तुम ने अपना हाथ मेरे मुंह पर रख दिया था। और खुसफुसाई थी कि, ‘इस तरह मत हंसो, लोग देख रहे हैं।’

अब तो कुतुबमीनार की सीढ़ियां बंद हैं चढ़ने के लिए। पर तुम्हें याद है कि एक बार कुतुबमीनार की अंधेरी सीढ़ियां उतरते हुए पीछे से बांहों में भर कर चूम लिया था तुम्हें। और तुम खूब ज़ोर से चीख़ी थी। कि सब लोग ठिठक गए थे। यह हमारे प्यार के पछुवा के दिन थे। पछुवा हवा बहती है तो पानी लाती है। बादर को बरसाती है।

कनाट प्लेस में पालिका बाज़ार उन दिनों नया-नया बना था। दिल्ली का पहला अंडर ग्राउंड मार्केट। हम बाज़ार में बेवज़ह घूम ही रहे थे। कि कुछ लोग आए जो बरसात में भीगे हुए थे। तुम मचल गई कि हम भी भीगेंगे। हम ऊपर आ गए थे। भीगने लगे। तुम भीगती हुई घास पर लेट गई। मुझे भी बुला कर अपने पास लिटा लिया। हम गुत्थमगुत्था पड़े रहे थोड़ी देर। बारिश बंद हो गई। सन्नाटा टूट गया। लोग आने-जाने लगे। हम भी उठ गए। मद्रास होटल के बस स्टैंड पर आ कर बैठे तो तुम अचानक चीख़ पड़ी, ‘हाय मेरी चुन्नी!’ हम भाग कर फिर वहां गए। बहुत खोजा पर तुम्हारी चुन्नी नहीं मिली।

बहुत दिन हो गया था तुम मिली नहीं थी। एक शाम तुम्हारे घर की सीढ़ियां चढ़ रहा था। सीढ़ियां चढ़ते हुए तुम्हारे घर से तुम्हारी मां की चीख़ती-चिल्लाती आवाज़ सुनाई दे रही थी। मन हुआ कि लौट जाउळं। पर ठिठक कर रुक  गया। ज़रा रुक कर सीढ़ियां चढ़ते हुए तुम्हारे घर के दरवाज़े पर आया तो दरवाज़ा खुला था। मैं भीतर घुस आया। देखा कि तुम्हारी मां तुम्हें पीट रही हैं कपड़े धोने वाली थापी से। मैं अवाक् था। घर में सब लोग थे। लेकिन तुम्हें पिटने से रोकने में किसी की भी दिलचस्पी नहीं थी। सो मैं ने बढ़ कर तुम्हारी मां का हाथ पकड़ लिया। उन्हों ने मुझे आग्नेय नेत्रों से देखा और कपड़े धोने वाली थापी वहीं फर्श पर पटक कर भीतर के कमरे में चली गईं। मैं ने तुम से पूछा कि, ‘आखि़र बात क्या है?’ तो तुम जैसे बिलखती हुई फूट पड़ी, ‘तुम!’  

मैं अवाक्, हैरान, परेशान सा तुम्हें देखता रहा। मेरी घिघ्घी बंध गई। धीरे से बुदबुदाया, ‘अरे!’

मैं ने तुम्हारा हाथ पकड़ा ज़ोर से और तुम्हारे घर से तुम्हें बाहर निकाल लाया। हमें सीढ़ियां उतरते हुए तुम्हारे पिता, भाई, बहन और मां देखते रहे। पड़ोसी भी लेकिन हम दोनों साथ-साथ चुपचाप सीढ़ियां उतरते रहे। गोया सूरज की किरने उतर रही हों और शाम हो गई हो।

लेकिन हमारे घर आ कर तुम खिल उठी थी। हमारी ज़िंदगी में सवेरा हो चुका था। सवेरे की लाली हमारी ज़िंदगी पर तारी हो गई थी। हम बिना शादी के साथ-साथ रहने लगे। लोगों ने इसे लिव-इन-रिलेशनशिप का नाम दे दिया था। इस लिव इन के पहले भी तुम कई बार मेरे इस कमरे पर आई थी। और हमने बहुत बार देह को संभोग के आवेग में ढकेला था। पर जाने क्यों अब की इस लिव-इन में दस दिन बीत जाने के बाद भी हम संभोगरत नहीं हुए। न हमने कभी सोचा इस बारे में न तुम ने कोई पहल की। एक बिस्तर में सोने के बावजूद। यह तुम्हारी मां की थापी से तुम्हारी पिटाई का असर था, कि तुम्हारी देह में दर्द का असर था कि किस का डर और किस का असर था, जान पाना कठिन था। लेकिन ठीक ग्यारहवें दिन हम संभोगरत हो गए। फिर नियमित। पर वह पहले वाला आवेग नहीं था हम दोनों के संबंधों में। कहीं कुछ रिक्तता थी, कहीं कुछ छूट रहा था। कहीं कुछ टूट रहा था।

क्या यह हम दोनों का एक दूसरे से मोहभंग का समय था?

पता नहीं। पर जल्दी ही हम दोनों में बात-बेबात झगड़े शुरू हो गए थे। नौबत हाथा-पाई की आ गई। सारा प्यार, सारा इकरार भस्म हो गया था। तब के दिनों। एक पड़ोसिन ने बीच बचाव किया। समझाया-बुझाया। गाड़ी फिर चल निकली। हम छुट्टियां मनाने हफ़्ते भर के लिए चंडीगढ़ गए। वहां रॉक गार्डेन, रोज गार्डेन घूमते-घामते, सुकना झील में बोटिंग करते हुए, भुट्टे और आइसक्रीम खाते, साथ-साथ रहते हुए लगा कि सचमुच हम एक दूजे के लिए ही हैं। दो रात पिंजौर गार्डेन में गुज़ारने के बाद यह एहसास और घना हुआ। जैसे कि कोई नदी बहती हुई अच्छी लगती है, वैसे ही हम इस शहर से उस शहर घूमते हुए अच्छे लगते। फिर तो हमने तय कर लिया कि हम छुट्टियां बाहर ही मनाया करेंगे। बाहर जा कर घूमने-फिरने से हमारा प्यार और गहरा हो जाता। हमारा आपसी विश्वास और उस की संवेदनाएं और गाढ़ी हो जातीं। आगरा से चंडीगढ़ तक हम ने कई-कई बार घुमाई की। लोगों का पसंदीदा ताजमहल होता है पर फतेहपुर सीकरी हमारी पसंदीदा जगह थी। जो छुटिट्यां मैं अम्मा के साथ गांव में बिताता था, तुम्हारे साथ घूमने में बिताने लगा। अम्मा नाराज भी होती और कहती कि, ‘बाबू तुम बदल रहे हो। अब तुम मेरे पास बहुत कम आते हो। यह क्या हो गया है तुम्हें ?’ मैं चुप रहता।  भला क्या जवाब देता अम्मा की बातों का? श्रीनगर घूमने जाने की तैयारी में थे तब हम। 

कि अचानक मेरी नौकरी छूट गई। घर खर्च में दिक्कतें आने लगीं। घूमना-फिरना थम सा गया। प्यार की नदी दुबराने लगी। अचानक एक शाम घर पहुंचा तो तुम्हारी मां आई हुई थीं। वह तुम्हें ले जाने के लिए आई थीं। ले गईं। मैं ने कुछ कहा नहीं।

कुछ दिन बाद मैं ने नई नौकरी शुरू की। सोचा घर कुछ व्यवस्थित होने के बाद तुम्हें लिवा लाऊंगा । और कि अब की कुछ दिन तुम्हारे साथ रहने के बाद तुम्हारे साथ लिव-इन के बजाय शादी कर के रहूंगा। पर यह सब सोचना सिनेमा बन कर रह गया।

एक संडे की सुबह-सुबह मेरे घर पुलिस आ गई। पुलिस आई तो पड़ोसी भी आ गए। मैं तमाशा बन गया। ख़ैर, पुलिस ने थोड़ी बहुत बदतमीजी से पेश आने के बाद थोड़ी सहूलियत दी। एक दारोगा बोला,‘कपडे़-सपड़े पहऩ ले और थाने चल !’

थाने आया तो पाया कि तुम्हारा पूरा घर उपस्थित था वहां। भाई, पिता, मां, बहन समेत तुम खुद। मेरे ख़िलाफ़ दहेज उत्पीड़न की तहरीर तुम्हारी ओर से लिखी जा चुकी थी। यह जान कर मेरे पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई। मैं ने दबी जबान कहा कि, ‘जब शादी ही नहीं हुई, न शादी की बात, तो यह दहेज कहां से आ गया?’

तो बिना शादी के ही हनीमून मना रहा था चंडीगढ़ और आगरा में?’ दारोगा कुछ फ़ोटुओं को दिखाता हुआ बोला।
हनीमून तो नहीं पर हां हम साथ-साथ थे। दिल्ली में भी साथ ही रहते थे। लिव-इन-रिलेशनशिप में थे हम।’
ये कौन सा रिलेशन होवे है जी!’ दारोगा बोला, ‘इंडिया है यह, लंदन-अमरीका ना!’

ठीक है पर यह दहेज वहेज की बात बकवास है। आप पूरी तफ़्तीश कर लीजिए। फिर, बेशक मुझे जेल भेज दीजिए।’

सात साल तक जमानत ना होगी!’ दारोगा ने फिर कहा।

मालूम है।’

थाने में तुम्हारी तरफ से सब लोग थे और मैं अकेला। मैं ने तुम से अकेले में दो मिनट बात करने की मोहलत मांगी। जिस का पुरज़ोर विरोध तुम्हारी मां ने किया। लेकिन पुलिस ने इज़ाज़त दे दी। मैं मौक़ा पाते ही थाना परिसर में नीम के पेड़ के नीचे तुम से लिपट गया था। बरबस रो पड़ा। फूट-फूट कर। रोते हुए ही तुम से गिड़गिड़ाया, ‘क्यों मेरी और अपनी ज़िंदगी ख़राब कर रही हो। क्यों प्रेम में गांठ डाल रही हो!’

मैं नहीं, मम्मी!’ तुम ने भी सुबकते हुए कहा था और अपनी पिटाई के निशान दिखने लगी थी कि तभी तुम्हारी मां आईं और तुम्हें घसीट ले गईं, ‘लैला की अम्मा चल यहां से !’ और तुम चली गई थी।

पुलिस ने बाद में मुझे भी शक के बिना पर छोड़ दिया था। बाद में पुलिस मेरे नए दफ़्तर भी जब-तब तफ़्तीश के नाम पर आती रही। मुझे बदनाम करती रही। कुछ पैसे दे कर कंप्रोमाइज़ करने का दबाव डालती रही। मैं ने आजिज आ कर सोच लिया कि अब यह नौकरी ही नहीं, यह शहर दिल्ली भी छोड़ देना है। अभी इसी उधेड़बुन में था कि एक दिन तुम्हारा भाई आया। बोला, ‘पापा की तबीयत बहुत ख़राब है। हिंदूराव अस्पताल में हैं। आप से मिलना चाहते हैं। कह कर रोने लगा। हिंदूराव अस्पताल में तुम्हारे पापा की हालत देख कर तकलीफ हुई। वह लाचार थे और मैं अभिशप्त। तुम्हारे पापा चाहते थे कि मेैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी ले लूं। तुम से शादी कर लूं। वहीं पता चला कि तुम्हारी मां से पूरा परिवार परेशान है। और कि तुम्हारे पापा उन्हीं की बदतमीजियों से उपजी बीमारियां झेल रहे हैं। लेकिन मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता था। मैं ने वह नौकरी छोड़ दी, दिल्ली छोड़ दी। तुम को छोड़ दिया। अपने आप को छोड़ दिया। 

फिर दिल्ली तभी आया जब बेटे का नाम जे.एन.यू. में लिखवाने आना पड़ा। नहीं पता था कि तुम मिल जाओगी ! जे.एन.यू. की उन रोमांटिक पहाड़ियों के बीच। तुम मिली खूब चटक सिंदूर लगाए। बड़ी सी गाड़ी में। ऐसे मिली जैसे इतने सालों में हमारे बीच कुछ हुआ ही न हो। तुम्हें अपने बेटे का नाम लिखवाना था, मुझे अपने। सारी औपचारिकताओं के बाद तुम ने अपने हसबैंड से भी मिलवाया। वह भी ऐसे मिला गोया कब से मुझे जानता हो। तुम और तुम्हारे पति मेरे बेटे के लोकल गार्जियन बन गए। 

लगा जैसे तुम फिर मिल गई हो। जे एन यू की पहाड़ियों के बीच हमारा प्यार जैसे फिर से खिल गया। तुम्हारे हसबैंड खुद आ कर होटल से मेरा सामान ले कर तुम्हारे घर लाए।

अब हम दिल्ली फिर से आने-जाने लगे। लगा कि जैसे तुम और तुम्हारी यह दिल्ली मेरे लिए ही बनी हो। एक दिन देखा कि मेरा बेटा तुम्हें मम्मी जी ! कह रहा है। मैं ने टोका तो बोला, ‘आंटी ने ही कहा है कि आंटी मत कहा करो, ख़राब लगता है। मम्मी ही कहा करो।’ मैं ने तुम को भी टोका तो तुम बोली, ‘हां, वह मेरा मानस पुत्र है !’

मैं चुप रह गया। सोचने लगा कि यह कौन सा नया सिनेमा चल रहा है हमारी जिंदगी में ? इस की परिणति क्या होगी ? कथा-पटकथा किस की है और निर्देशक कौन है इस नई फ़िल्म का?

अब दिल्ली बहुत बदल गई थी। पर हमारा प्रेम नहीं बदला था। हमारी चाहत बरकरार थी। मेट्रो लाइन के लिए जगह-जगह सड़कें खुद रही थीं पर हम दोनों ने कभी भूल कर भी अपने अतीत को नहीं खोदा। न तुम ने, न मैं ने। जब भी कभी मौक़ा मिलता हम आलिंगनबद्ध हो जाते। छिटपुट संभोग के आवेग भी घट जाते। तुम्हारा पति बड़ा सरकारी अफसर था। उसे समय वैसे ही नहीं रहता था। पर मैं जब भी दिल्ली में होता तो वह कोशिश करता कि शाम की शराब वह मेरे साथ ज़रूर पिये। धीरे-धीरे हम लोग हम निवाला, हम प्याला बन गए। लेकिन तमाम नशे के बावजूद उस ने कभी हमारा अतीत जानने की कोशिश नहीं की। बावजूद इस के कि उसे यह पूरा एहसास था कि मैं तुम्हारा प्रेमी हूं। मैं इस से बहुत प्रसन्न रहता। तुम दोनों के बीच जाने यह कौन सी संधि थी। जाने कौन सी डिप्लोमेसी थी। जाने कौन सी केमेस्ट्री थी। ख़ैर, सब कुछ स्मूथली चल रहा था कि एक दिन तुम अचानक मुझ पर बरस पड़ी। बोली, ‘तुम अब मेरे घर मत आया करो !’

. के. !’ कहते हुए मैं सकते में आ गया। फिर संभलते ही धीरे से पूछा, ‘लेकिन क्यों?’

तुम ने मेरे हसबैंड को शराबी बना दिया है।’ तुम तुनकती हुई बोली, ‘तुम चाहे जितना शराब पियो मुझे कोई मतलब नहीं। पर मेरे हसबैंड को बख्श दो !’

मैं चुपचाप तुम्हारे घर से मय सामान के चला आया। हमारे सपनों के सिनेमा का यह जाने कौन सा मोड़ आ गया था। जो मेट्रो के लिए खुद रही सड़कों में दफन हो रहा था। मायूस मन से मैं लौटा था तब दिल्ली से। छोड़ दिया शराब भी। और एक बार फिर भूल गया तुम को और तुम्हारी दिल्ली को भी।

पर भूल कहां पाया?

बेटा भी पढ़-लिख कर मुंबई चला गया नौकरी करने।

बहुत दिनों बाद तुम दिखी फ़ेसबुक पर। तुम्हें फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजी पर तुम्हारा कनफ़र्मेशन नहीं आया। अब तक नहीं आया। तुम्हारी वाल पर जा -जा कर तुम्हारी फ़ोटुएं और पोस्ट देख-देख कर चला आता हूं। 

अब देखो कि एक शादी में शरीक़ होने कुछ बरस बाद फिर दिल्ली आया हूं। तुम्हारे सपनों का सिनेमा फिर जाग गया है। तुम नहीं हो, तुम्हारी याद है। चंडीगढ़ और आगरा में बिताए दिन याद आते हैं। तुम्हारे साथ खेली अंत्याक्षरी और गाने याद आते हैं। तुम्हारे साथ देखे गए सिनेमा याद आते हैं। एक-एक पल याद आते हैं। मुद्रिका वाली बस की याद आती है। लोहे वाला पुल याद आता है। गांधी नगर की गलियां और वह कुत्ते याद आते हैं। कुतुबमीनार याद आता है। पालिका बाज़ार की घास और बरसात याद आती है। जाने कितने आवेग और संभोग याद आते हैं। अब तो दिल्ली में मेट्रो फर्राटे भरती है। सोचता हूं कि काश तुम एक बार फिर कहीं भूले से ही सही मिल जाओ तो तुम्हारे साथ दिन भर मेट्रो में घूमूं। तुम्हारा हाथ-हाथ में लिए। वैशाली से द्वारिका और फिर द्वारिका से वैशाली। बेवज़ह घूमता रहूं। तुम्हारे साथ। तुम्हारे भीतर अपने को खोजता हुआ। जैसे सपनों का सिनेमा मेरे भीतर रील दर रील चलता जा रहा है। पर तुम हो कि मिलती ही नहीं। मैं अकेले ही घूम रहा हूं। मेट्रो में। वैशाली से द्वारिका, द्वारिका से वैशाली। यह कौन सा सिनेमा है हमारे भीतर? जो ख़त्म ही नहीं होता। सारे स्टेशन एक जैसे हैं। आते-जाते, चढ़ते-उतरते लोग भी एक जैसे। सब अपने-अपने सपनों के सिनेमा में। लेकिन इस भीड़ में तुम मिलती क्यों नहीं। क्या तुम्हारे सपनों का सिनेमा ख़त्म हो गया है? हमारे पल-छिन प्रेम का सिनेमा। काश कि तुम कहीं मिल जाओ ! अभी बहुत सी कहानियां, कहानियों के टुकड़े जोड़ने हैं। यह सपने भी टूट-टूट कर क्यों आते हैं? अब सपना नहीं, मैं टूट रहा हूं। काश कि तुम मिल जाओ ! और जो मिलती नहीं हो तो सपनों में झांकती क्यों हो? बंद करो सपनों और यादों में यह पुरवा हवा की तरह बहना। और झांकना। बूढ़ा हो रहा हूं। सो दर्द बहुत होता है।

[  कल के लिए में प्रकाशित ] 


2 comments:

  1. मैं आपके बलोग को बहुत पसंद करता है इसमें बहुत सारी जानकारियां है। मेरा भी कार्य कुछ इसी तरह का है और मैं Social work करता हूं। आप मेरी साईट को पढ़ने के लिए यहां पर Click करें-
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  2. आप बहुत ही बढ़िया लिखते है
    बहुत पारदर्शिता होती है आपकी कहानी और कविता मे !मुझे बेहद पसंद आती है आपका हर एक लेख ! इतनी सुन्दर सुन्दर और भावपूर्ण लेखन है आपका
    मुझे बहुत अच्छा लगता है बहुत प्रतिभावान है आप

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