Monday, 20 January 2014
जय हो टेलीविजन राजनीति की ! संविधान आदि की ऐसी-तैसी !
अभी तक हम संसदीय राजनीति, भ्रष्ट राजनीति के साक्षी थे। अब टेलीविजन राजनीति के साक्षी हैं। नतीज़ा है कि संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति भी आंदोलनकारी बन गया है। टेलीविजन के कैमरे न रहें तो सारा धरना, सारा प्रदर्शन बे-पानी, बे-नमक हो जाएगा। यह कैमरे इतने बड़े राक्षस हो कर उपस्थित होंगे और घर-घर में घुस जाएंगे, जनमत बनाने लग जाएंगे कौन जानता था? कि संविधान, अनुच्छेद, धाराएं सब झाड़ू के आगे असहाय हो गए हैं। संवैधानिक पद और उस की शपथ की ऐसी-तैसी करना किसी को सीखना हो तो वह दिल्ली जाए और टेलीविजन कैमरे का इंतजाम करे और जो चाहे सो करे। कोई उस का कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा। आप पुलिस को भी वर्दी उतार कर आंदोलनरत होने का आह्वान कर सकते हैं। व्यवस्था छिन्न-भिन्न होती है जनता की बला से ! आप तो आम आदमी हैं। और कि टेलीविजन कैमरा नाम का एक राक्षस आप के साथ है। यह टेलीविजन कैमरा ही है कि कभी राहुल देवता बन जाते हैं, तो कभी नरेंद्र मोदी तो कभी अन्ना हजारे, कभी रामदेव और कभी अरविंद केजरीवाल। कभी अमिताभ, कभी सचिन तेंदुलकर भगवान बन जाते हैं। या फिर कोई और। कोई भी चार सौ बीसी टाइप की फ़िल्म बना कर, इन चैनलों पर लफ़्फ़ाज़ी झोंक कर, कुछ क्लिपिंग दिखा कर करोड़ों-अरबों रुपए कमा सकता है, गरीब जनता की जेब से निकाल कर। उस की आंख में धूल झोंक कर। और महान फ़िल्मकार और अभिनेता बन सकता है दो कौड़ी की फ़िल्म बना कर। सिनेमा, क्रिकेट और टेलीविजन ने लगता है हमारे सारे सामाजिक जीवन और राजनीति का अपहरण कर लिया है। तिस पर यह फ़ेसबुक, यह ट्विटर ! गरज यह कि समाज और राजनीति के बाद अब पारिवारिक जीवन भी निशाने पर है ! जय हो आम आदमी की ! जय हो झाड़ू की ! जय हो टेलीविजन राजनीति की ! संविधान आदि की ऐसी-तैसी !
अरविंद केजरीवाल यह कौन सी संसदीय परंपरा है? मोदी का रथ रोकते-रोकते यह तो आप मोदी के लिए लाल कालीन बिछा बैठे हैं ! और अपने हाथ में उस्तरा। जो दिल्ली की जनता ने आप को थमा दिया है अति उत्साह और अति उम्मीद में। जो भी है यह सब गुड बात नहीं है। और जानिए कि राजनीति या समाज किसी की ज़िद से तो नहीं ही चलते। अच्छे लोग, ईमानदार लोग राजनीति में होने चाहिए, इस उम्मीद और इस धारणा को इस तरह मिट्टी में भी न मिलाइए हुजूर ! अब बस भी कीजिए !
कोई सहमत हो या असहमत लेकिन मेरा स्पष्ट मानना है कि अरविंद केजरीवाल ने रा्जनीति में आने में बहुत जल्दबाज़ी कर दी है। खैर जो हआ सो हुआ। अब उन्हें बिना तै्यारी के लोक सभा चुनाव में कूदने से बचना चाहिए। कम से कम इस चुनाव से तो बच ही लेना चाहिए। अभी उन्हें दिल्ली सरकार को सफलता से चला कर अपने और अपनी पार्टी को सिद्ध करना चाहिए। नहीं आ्धी छोड़ पूरी को धावे, पूरी पावे न आधी पावे को दुहराएंगे। अपने तो मुंह की खाएंगे ही, लोगों की उम्मीदों पर भी पानी फेरेंगे। और धोबी के कुत्ते की गति को प्राप्त होंगे। क्यों कि उन के पास सिर्फ़ विवाद ही हैं अभी। न कोई राष्ट्रीय नीति है उन की पार्टी के पास. न कोई मसौदा। न ही नियंत्रित कार्यकर्ता हैं, न कोई विचारधारा आदि।
अन्ना का वह कहा कि राजनीति कीचड़ है, जिसे अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्य मंत्री पद की शपथ लेने के बाद दिए गए भाषण में बताया था, अब शायद अन्ना के उस कहे की चुभन को भी वह महसूस करने लगे होंगे। और यह भी कि हर कीचड़ में कमल भी नहीं खिलता।
काफी दिनों के बाद आज ब्लॉगस पर नज़र डाला तो बेहद ख़ुशी हुई !
ReplyDelete१. सोच कि शमा जलाये रखिये !
२. हमारे पूर्वांचल के दर्द तो गुमनामी कि जिंदगी जी रहें है !
३.देश कि राजनीती अब करवट ले कर ही दम लेगी !
४.अगर कोई अच्छी नियत से आगे बढ़ रहा है तो उसे सपोर्ट करना हम सबकी जिंमेदारी है , भले वह कुछ ज्यादा न कर पाये मगर उसकी उपस्थिति ही महा चोरों कि नींद हराम कर रही है और युवको को अपार उत्साह मिल रहा है !
५.अगर आप लखनऊ में हैं तो होली तक जन संपर्क (संगम) पहले केवल चिंतको का , के बारे में सोचिये !
लेकिन ऐसी लेखकों कि भीड़ से बचना पड़ेगा जिनकी वरीयता के क्रम में देश ,समाज ,मानव मात्र सबसे अंत में आता है !
मवार्क के डेस्क से :
नीरेश शांडिल्यायन