Saturday, 12 October 2013
कंवल भारती तो पांच दिन में ही कांग्रेस के कमलापति त्रिपाठी बन गए !
आने के ही साथ जगत में कहलाया ' जानेवाला'
अरे यह क्या? कंवल भारती तो कांग्रेस में अपने पांच दिन की आयु में ही कमलापति त्रिपाठी बन गए। चिट्ठी लिखने लग गए। वह भी फ़ेसबुक पर। आप को याद ही होगा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष तो बना दिया था पर उन्हें पैदल करने के लिए उन्हों ने अर्जुन सिंह को उपाध्यक्ष बना कर सारे अधिकार उन्हें ही थमा दिए था। सो कमलापति त्रिपाठी ने कांग्रेस में बाकी जीवन राजीव गांधी को चिट्ठी लिखते हुए ही बिताया था। ज़िक्र ज़रुरी है कि कमलापति त्रिपाठी भी लेखक-पत्रकार और चिंतक थे। विद्वता के लिए जाने जाते थे। पत्रकारिता की लंबी पारी खेली थी उन्हों ने और राजनीति की भी। उन्हों ने कई स्मरणीय निबंध लिखे हैं। बरसों आज के संपादक रहे। सक्रिय और प्रतिष्ठित संपादक। लेखन और पत्रकारिता के साथ-साथ सत्ता का शहद भी उन्हों ने खूब चाटा और उपेक्षा का भी। स्वतंत्रता सेनानी थे। नेहरु के साथ राजनीति सीखी थी। इंदिरा गांधी के विश्वस्त थे। मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री की लंबी पारी खेली थी। कंवल भारती भी दलित चिंतक हैं और उन के कई लेख चर्चित हैं। कांशीराम के दो चेहरे किताब उन्हों ने तब लिखी थी और दलित होने के बावजूद लिखी थी जब कांशीराम का सूर्य भारतीय राजनीति में अंगड़ाई ले रहा था। वह आसान नहीं था। धारा से उलटी तैराकी थी यह कंवल भारती की। जो कोई साहसी लेखक ही कर सकता था।खैर आज उन्हों ने फ़ेसबुक पर राहुल गांधी को एक चिट्ठी लिखी है और कांग्रेस द्वारा दलितों को निरंतर धकियाने का रोना रोया है। ढेर सारे सवाल उठा दिए हैं। मायावती को भी लताड़ा है। अपनी लंबी चिट्ठी में कंवल भारती लिखते हैं, और कि ठीक ही लिखते हैं, 'यदि सामाजिक आन्दोलनों से निकली हुई कोई बहुजन-हित की पार्टी लाखों-हजारों की बात तो दूर, एक दर्जन दलित नेता भी पैदा नहीं कर सके, तो इसका यही कारण हो सकता है कि अब सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन उसके सरोकारों में नहीं रह गये हैं. यह दलित आन्दोलन के लिए अवश्य ही चिंताजनक स्थिति है. लेकिन मैं आपके समक्ष यहाँ यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि दलित आन्दोलन और दलित-समस्या को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कोई गम्भीर चिंता नहीं देखी जाती है. सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों से वह भी उतनी ही दूर है, जितना कि बहुजन समाज
पार्टी दूर है. कांग्रेस ने कहाँ लाखों दलित नेता पैदा किये? उसने कहाँ रेडिकल दलित नेतृत्व उभारा? अगर कांग्रेस ने ज़मीन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि ली होती, तो मायावती को ज़मीन कहाँ मिल पाती? तब क्या कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से उखड़ती? मान्यवर, नेतृत्व दो प्रकार का होता है— एक रेडिकल और दूसरा स्वतन्त्र, जो व्यक्तिवादी और अवसरवादी हो सकता है. इस दूसरे नेतृत्व से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन कांग्रेस ने इसी दूसरे दलित नेतृत्व से संबंध ज्यादा बनाये. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस में यह नेतृत्व स्वामिभक्ति के साथ हमेशा ‘यस मैन’ की भूमिका में रहा और दलित सवालों के प्रति अपनी आँखें मूंदे रहा. इसने अत्याचार, दमन और शोषण के मुद्दों पर न कांग्रेस के भीतर आवाज़ उठायी और न बाहर.'
इतना ही नहीं वह तो लिख रहे हैं कि, 'हालाँकि कांग्रेस में मेरी विधिवत ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पर यह हो भी सकती है और नहीं भी, यह इस गारन्टी पर निर्भर करता है कि दलित नेतृत्व पर कांग्रेस का वर्तमान रुख अपने इतिहास को दोहरायेगा या उसे ख़ारिज करेगा?'
गरज यह कि मुझे तो बच्चन जी की मधुशाला की एक रुबाई याद आ गई है :
छोटे- से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया ' जानेवाला'।
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन- मधुशाला।
अब कंवल भारती की इस चिट्ठी की गंध, इस की इबारत यह बताती मिलती है कि कंवल भारती विधिवत कांग्रेस में गए नहीं और उन की घुटन उफान पर आ गई है। विदा लेने की तैयारी हो गई है। तो क्या इसे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच बढ़ती समझ का भी उपज नहीं मान लिया जाना चाहिए? या कि इस चिट्ठी को कंवल भारती की हड़बड़ाहट के रुप में दर्ज कर मान लिया जाना चाहिए कि वह लेखकीय राजनीति और उखाड़-पछाड़ में चाहे जितने पारंगत हों, दलित चेतना के नाम पर जो भी लिख-पढ़ लें पर यहां राजनीति के चक्रव्यूह में वह अभिमन्यु की गति को प्राप्त हो गए हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता याद आ गई है जो उन्हों ने जनमोर्चा के दिनों में लिखी थी। शीर्षक था लिफ़ाफ़ा। आप भी गौर करें और दर्ज करें कि क्या कंवल भारती भी कहीं लिफ़ाफ़ा तो नहीं बन गए? आज़म और कांग्रेस के बीच के?
पैगाम उन का
पता तुम्हारा
बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।
इस लिए भी कि राजनीति में एक शब्द होता है समझौता, जो शायद सब के वश का होता नहीं। भारत भूषण के एक गीत में जो कहें कि, 'भीतर-भीतर घुटना/ बाहर खिल-खिल करना।' यह कला राजनीति का अनिवार्य तत्व है। यह भी कि राजनीति क्रांति नहीं, समाज सेवा नहीं, मिशन नहीं, अब एक व्यवसाय है। कंवल भारती को यही समझना अभी शेष है। अब से भी जो वह समझ लेंगे तो चल जाएंगे, बच जाएंगे। नहीं कमलापति मार्ग पर तो वह आ ही गए हैं। दूसरे एक तल्ख सच भी उन्हें जान लेना चाहिए, वह जानते ही होंगे कि समूची भारतीय राजनीति आज की तारीख में कारपोरेट सेक्टर की रखैल है। सारी की सारी पार्टियां। सिर्फ़ वामपंथी पार्टिया ही एक हद तक इस से बची हुई हैं। पूरी तरह अब वह भी नहीं। तो कंवल भारती को यह भी जान ही लेना चाहिए कि वह जिस भी किसी राजनीतिक पार्टी में रहेंगे कारपोरेट की रखैल या बांदी बन कर ही रहेंगे। क्रांतिवीर बन कर तो कतई नहीं।
बहरहाल यह अंतहीन बहस है। और निर्मम सच। कोई स्वीकार कर लेता है, कोई आंख मूंद लेता है। पर कालीन के नीचे का सच तो यही है। मुकेश अंबानी हवा में तो कहते नहीं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही हमारी दुकानें हैं। और मुलायम वगैरह तो अंबानियों की ज़ेब में रुमाल की तरह रहते हैं जिन से वह जब-तब नाक आदि पोंछ लेते हैं। कुछ और काम भी ले लेते हैं। फ़ेेहरिस्त राजनीति और कारपोरेट की अनंत है।
अभी तो तुरंत और तुरंत राजीव गांधी को संबोधित कंवल भारती की पूरी चिट्ठी पर गौर कीजिए । और गाना गाइए कि, 'तसवीर बनाता हूं, तदवीर नहीं बनती !'
राहुल गांधी के नाम एक खुला पत्र
सम्माननीय राहुल जी,
सादर नमस्कार, जय भीम
निवेदन करना है कि मेरा नाम कँवल भारती है और मैं एक आंबेडकरवादी और समाजवादी विमर्श का लेखक हूँ. मुझे हिंदी दैनिक अख़बार “अमर उजाला” के 10 अक्टूबर के अंक के जरिये पता चला कि आपने अपने एक कार्यक्रम में संभवत: अलीगढ में कहा था कि ‘यदि आप दलित आन्दोलन को आगे ले जाना चाहते हैं, तो इसके लिए एक या दो दलित नेता काफी नहीं हैं, (बल्कि) लाखों दलित नेताओं की जरूरत पड़ेगी. मायावती ने दलित आन्दोलन पर कब्जा कर लिया है और उन्होंने अपने अलावा किसी अन्य दलित नेता को उभरने नहीं दिया है.’
निश्चित रूप से आपका बयान स्वागतयोग्य है. इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि मायावती ने देश में क्या, उत्तर प्रदेश में भी किसी दलित नेता को उभरने नहीं दिया, जो अपनी क्षमता और योग्यता से उभरे भी, तो उन्होंने उनको भी पार्टी से निकाल कर खत्म कर दिया. यह एक ऐसी पार्टी की वास्तविकता है, जिसका जन्म कांशीराम के सामाजिक आन्दोलनों से हुआ है. यदि सामाजिक आन्दोलनों से निकली हुई कोई बहुजन-हित की पार्टी लाखों-हजारों की बात तो दूर, एक दर्जन दलित नेता भी पैदा नहीं कर सके, तो इसका यही कारण हो सकता है कि अब सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन उसके सरोकारों में नहीं रह गये हैं. यह दलित आन्दोलन के लिए अवश्य ही चिंताजनक स्थिति है.
लेकिन मैं आपके समक्ष यहाँ यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि दलित आन्दोलन और दलित-समस्या को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कोई गम्भीर चिंता नहीं देखी जाती है. सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों से वह भी उतनी ही दूर है, जितना कि बहुजन समाज पार्टी दूर है. कांग्रेस ने कहाँ लाखों दलित नेता पैदा किये? उसने कहाँ रेडिकल दलित नेतृत्व उभारा? अगर कांग्रेस ने ज़मीन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि ली होती, तो मायावती को ज़मीन कहाँ मिल पाती? तब क्या कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से उखड़ती?
मान्यवर, नेतृत्व दो प्रकार का होता है— एक रेडिकल और दूसरा स्वतन्त्र, जो व्यक्तिवादी और अवसरवादी हो सकता है. इस दूसरे नेतृत्व से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन कांग्रेस ने इसी दूसरे दलित नेतृत्व से संबंध ज्यादा बनाये. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस में यह नेतृत्व स्वामिभक्ति के साथ हमेशा ‘यस मैन’ की भूमिका में रहा और दलित सवालों के प्रति अपनी आँखें मूंदे रहा.इसने अत्याचार, दमन और शोषण के मुद्दों पर न कांग्रेस के भीतर आवाज़ उठायी और न बाहर.
किन्तु, रेडिकल नेतृत्व समाज में परिवर्तन के लिए काम करता है. उसकी ज़मीन सामाजिक आन्दोलनों की ज़मीन होती है. वह अत्याचार, दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है और जनपक्षधरता की राजनीति करता है. मान्यवर, मुझे कहने दीजिये कि ऐसे रेडिकल दलित नेतृत्व को कांग्रेस ने कभी महत्व नहीं दिया. पूंजीवादी राजनैतिक सत्ताएं ऐसी रेडिकल शक्तियों से भयभीत रहती हैं, और कांग्रेस भी. आंबेडकरवादी आन्दोलनों के ऐसे बहुत से रेडिकल दलित नेताओं को कांग्रेस ने अपने भीतर शामिल किया. लेकिन अफ़सोस ! उसने उनका विकास नहीं किया, न उनके नेतृत्व का लाभ उसने उठाया, वरन उस नेतृत्व को खत्म करने की रणनीति को अंजाम दिया. बीपी मौर्य जैसे कितने ही दलित नेता कांग्रेस की इस रणनीति का शिकार होकर खत्म हो गये, रिपब्लिकन पार्टी (RPI) का सारा रेडिकल नेतृत्व कांग्रेस ने ही खत्म किया, जिसके ताज़ा शिकार रामदास अठावले हुए, जिन्हें अंततः अपने वजूद को बचने के लिए शिव सेना की शरण में जाना पड़ा. क्यों? क्या इस प्रश्न पर आप विचार करना चाहेंगे?
मान्यवर, यह प्रश्न मैं आपके समक्ष इसलिए रख रहा हूँ कि कांग्रेस में आप एक स्वतन्त्र विमर्शकार के रूप में जाने जाते हैं. अनेक मुद्दों पर आपने अपनी पार्टी के विरुद्ध जाकर अपनी राय व्यक्त की है. और अभी हाल में दागी मंत्रियों को बचाने के लिए कांग्रेस द्वारा लाया गया अध्यादेश आपके ही जोरदार हस्तक्षेप से कानून नहीं बन सका. मान्यवर, दलितों में लाखों दलित नेता मौजूद हैं, जो समाज में परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं. वे भारत की राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप करना चाहते हैं. पर कांग्रेस में दलित नेतृत्व के दमन के पुराने इतिहास को देखते हुए वे कांग्रेस को अपने शत्रु के रूप में देखते हैं. क्या आप इस स्थिति को बदलने की कोशिश करेंगे? क्या कांग्रेस से जुड़ने वाले रेडिकल दलित नेतृत्व को आप यह भरोसा दिला सकते हैं कि वह अपनी सामाजिक और लोकतान्त्रिक ज़मीन के साथ आपकी पार्टी में अन्त तक चल सकेगा?
मान्यवर, मैं यह कहने का साहस इसलिए कर रहा हूँ कि जिस दिन आप रामपुर आये थे, उससे एक दिन पहले अर्थात 8 अक्टूबर को केन्द्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री माननीय जितेन्द्र प्रसाद जी ने रामपुर में मुझे कांग्रेस से जोड़ा था, या कहिये मुझे कांग्रेस में शामिल किया था. हालाँकि कांग्रेस में मेरी विधिवत ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पर यह हो भी सकती है और नहीं भी, यह इस गारन्टी पर निर्भर करता है कि दलित नेतृत्व पर कांग्रेस का वर्तमान रुख अपने इतिहास को दोहरायेगा या उसे ख़ारिज करेगा?
आपके प्रति ससम्मान.
आपका
कँवल भारती
12-10-2013
aapki jankari aur lekh ka tarif karne ke liye mere pas shabd nahi hai
ReplyDeleteआदरणीय कँवल भारती जी,
ReplyDeleteजैसाकि मुझे शुरू से आशंका थी वह अब सच लगने लगा है. आपने जो तीर चलाया वह एकदम ठिकाने पर लगा. मुझे अब उन लेखक संगठनों की मूढ़ता और मूर्खता पर हंसी आ रही है जो आँख बंद करके किसी के लिए भी सत्संग करना शुरू कर देते है , विशेषकर ऐसी चतुर-चालाक लोमड़ियों के पीछे , जो यह जानती हैं कि कब कौन-सा पैंतरा चलना है. वे जानती हैं कि अपनी दीनता का दोहन कैसे किया जाता है. मुझे आपत्ति इस बात पर नहीं है कि आप कांग्रेस ज्वाइन करते हैं या बीजेपी ...आरएसएस ज्वाइन करते हैं या शिवसेना . आपत्ति इस बात पर है की आपने एक लेखक के रूप में ऐसा शगूफा छेड़ा जिसके झांसे में हमारे सवर्णवादी , चालाक लेखक संगठन के घाघ कब्जेधारी भी आ गए. शायद हमारे वृद्ध आश्रम बन चुके लेखक संगठन अब पछता रहें होंगे कि उनसे एक चतुर लोमड़ी अपनी दीनता को दिखाकर , जो उसे मरते दम तक नहीं मिलता , इतनी आसानी से मिल गया. अब सवाल यह उठता है कि आपका रामपुर के बारे में दिया गया बयान कितना विशवसनीय है.
चलिए , मायावती को कोसने वाले को एक मंच तो मिला. कहीं मायावती को कोसने के पीछे यही सत्ता की भूख तो नहीं थी. अब देखना यह है कि लाल बत्तिवाली गाड़ी में दलितों का एक नया मसीहा यानि एक दलित चिन्तक (बावजूद इसके एक विचार तक में नाकाम ) कैसा लगता है .