डॉ. मुकेश मिश्रा
संपूर्ण आंगन यानी घर का वह हिस्सा जिसमें विविध प्रवृत्तियों के लोग एक दूसरे की ज़रूरतों और सरोकारों को जीते हैं। ऐसा आंगन जो एक घर को जीवंत बनाता है। जहां हर सदस्य खुलेपन में स्वछंद सांस लेते हुए कर्तव्य बंधन से बंधा हुआ होता है। आंगन की धूप और छांव दोनों ही सब के लिए होते हैं। इंसान का मन भी एक तरह का आंगन ही है जिस में धूप भी है छांव भी। मन का बोध ही अच्छे बुरे का ज्ञान करा सकता है। मन को ही जो अच्छा लगे वह मनभावन है। जो मनभावन लगता है वह ताज़िंदगी जेहन में घर कर लेता है। मन को भाने वाली हर चीज़ अमिट हो जाती है। अमिट चीज़ें इंसान के साथ ही जाती हैं। यह भी निर्विवाद सत्य है कि यह खूबी प्रकृति ने इंसानों को ही नियामत की है। किसी जानवर में यह खूबी संभव नहीं। एक तोते को पाल कर एक इंसान उस के न रहने पर उस से जुड़ी हर याद को अमिट बना सकता है लेकिन उलट इस के उस तोते की तरफ से ऐसा सोचना भी पागलपन के सिवा कुछ नहीं। तो कितने इंसान हैं जो अपने मन रूपी आंगन में आने वाले मनभावन चीज़ों, लोगों को जीवंत रखते हैं सदा के लिए। या फिर उन स्मृतियों को अमिट बना देते हैं। ऐसा वाकई बहुत कम होता है। कुछ बड़ी हस्तियों के लिए होने वाले सरकारी गैर सरकारी औपचारिकताओं के सिवा यह स्थायित्व नहीं पा सका।
हमारे आस पास, कार्यक्षेत्र हो या घर, प्रायः हर इंसान के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा घटित होता है जो उस के स्मृति पटल पर सदा के लिए छाप छोड़ जाता है। सब के जीवन में कोई न कोई स्थान, कोई वस्तु अथवा व्यक्ति की उपस्थिति अंतरमन में होती है जो यादों के आंगन में ऊछल-कूद करता रहता है। बेशक उस का पहलू अच्छा-बुरा दोनों हो सकता है। जो अच्छे होते हैं वे मनभावन होते हैं जो बुरे होते हैं परम विरक्ति का कारण बन जाते हैं। ऐसी स्मृतियां महज व्यक्ति आधारित नहीं होतीं। वह कई बार अतीत और भविष्य का पुल होती हैं। जो भावी पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
ऐसे ही एक पुल का निर्माण करती, भविष्य का मार्ग बताती और एक सम्पूर्ण आंगन का चित्र प्रस्तुत करती कालजयी रचना है ‘यादों का मधुबन’। जो लेखक दयानंद पांडेय की स्मृतियों का गुलदस्ता है। जिसमें हर तरह के गुलफाम हैं। अच्छे लोग, उत्कृष्ट साहित्यकार, बेधड़क पत्रकार, अद्वितीय सम्पादक, लाचार गायक, युगद्रष्टा राजनेता, मौकापरस्त इंसान और अद्भुत स्थान सहित हर पक्ष इस में समाहित हैं। पुस्तक की शुरूआत लेखक के किशोर मन से होती है जब वह अतिउत्साह का शिकार होता है और अपनी कविताओं का प्रकाशन करने के जतन में भटकता है। उस की भटकन उसे तत्कालीन कालजयी साहित्यकार हजारी प्रसाद द्विवेदी के पास खींच ले जाती है। अक्खड़पन से लबरेज किशोर के मन पर द्विवेदी जी के निश्छल मन की छाप इतनी गहरी पड़ी कि उसने लेखन का असली मर्म ही समझ लिया। इस मंत्र के साथ कि ‘किताब अगर छाप कर बेचोगे तो कविता भूल जाओगे’ यानी कि लिखना भूल जाओगे। दयानंद पांडेय ने यहां हजारी प्रसाद द्विवेदी से भेंट, संवाद और उसके निष्कर्ष को जिस भाषा में पिरोया है वह पुस्तक को पूरा पढ़ने को विवश कर देता है। ‘चित्रलेखा’ वाले भगवती चरण वर्मा को स्मरण करते हुए पांडेय जी ने यह रेखांकित किया है कि कैसे चित्रलेखा लिख भर देने से देश-विदेश की चिट्ठियां भगवती बाबू तक पहुंच जाती थीं और आज उन के मुहल्ले में वही चित्रलेखा गुमनाम है। इसमें दो अध्याय अमृत लाल नागर को सन्दर्भित हैं। जिसमें महान उपन्यासकार नागर जी के नितांत निजी पक्ष को उकेरने का कोई प्रयास तो नहीं किया गया है लेकिन उन से लेखक की हुई भेंट का वर्णन एक बड़े लेखक के खालीपन और कसक को अनायास ही सामने ला देता है। ‘अग्निगर्भा’ के रचयिता नागर जी की टूटन का विवरण तमाम पीढ़ी दर पीढ़ी के साहित्यकारों के लिए सबक से कमतर नहीं है। साहित्य के पुरोधा जैनेंद्र जी से लेखक के मिलने की चर्चा के बीच ‘बेदिल’ दिल्ली में भी सरेराह एक साहित्यकार का पता बताने का उल्लेख समय की बेबसी का प्रमाण देने को काफी है। आज किसी साहित्यकार को अगर इंटरनेट पर न लाया जाय तो उस का पता तो ढूंढते रह जाएंगे। विष्णु प्रभाकर का एक युवा लेखक से कंधा मिलाना और लिखते रहने को प्रोत्साहित करने का ज़िक्र प्रभाकर जी के असली कद को जगजाहिर करता है।
दरअसल, लेखक दयानंद पांडेय मूलतः पेशे से पत्रकार हैं। उन की लेखनी व्यवसायिकता को छू भी नहीं सकी है। लिहाज़ा वे बड़ी साफगोई से अपने जीवन में मिलने वाले या साथ काम करने वालों के विषय में लिखने में सफल हुए हैं। ‘हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे’ नामक अध्याय में एक तरफ उन्हों ने हिंदी पत्रकारिता के पुरोधा प्रभाष जोशी के विषय में अपने मन की बात लिखी तो एक और अध्याय ‘सफलता का अब एक और नाम है मौकापरस्ती’ में पत्रकार से केंद्र में मंत्री बन चुके राजीव शुक्ला के बहाने आज के पत्रकार पीढ़ी के आदर्श छवियों की पोल खोली है। प्रभाष जोशी जैसे पत्रकार मनीषी की हिंदी सेवा, उन का संपादकीय कौशल और जनसत्ता को शिखर पर ले जाने वाले उनके अवदान को लेखक ने अनुकरणीय ढंग से लिखा है। लेकिन जोशी जी मठाधीशी की जम कर आलोचना भी की है। कई प्रसंग हैं जिन्हें पढ़ कर प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व के कई अनसुने पहलुओं का पता चलता है। फिर भी हिंदी की पृथ्वी में जोशी नामक सूर्य की चमक को बिखेरने में अद्भुत सफलता पाया है दयानंद पांडेय ने। पुस्तक में पत्रकारिता से संबंधित एक और अध्याय वीरेंद्र सिंह पर लिखा गया है। हर हाल में सच छापने का माद्दा रखने वाले संपादक वीरेंद्र सिंह के विषय में जानकर यह आभास होता है कि समाज में कृत्रिम चरित्रों के इर्द-गिर्द कोई सच्चा आदमी बन कर रह जाए तो उसे गुमनामी के सिवा कुछ नहीं मिलता।
पुस्तक में अन्य कई साहित्यकारों पर अध्याय हैं। यथा- कमलेश्वर, कन्हैया लाल नंदन, श्री लाल शुक्ल, रघुवीर सहाय, अदम गोंडवी, देवेंद्र कुमार बंगाली, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, परमानंद श्रीवास्तव, राजेश शर्मा, शिवमूर्ति जैसी साहित्यिक हस्तियों से जुड़े अध्याय हैं जिस में इन से संबंधित लेखक के मन की अमिट छापें प्रकाशित होती हैं। इस के अलावा पत्रकार आलोक तोमर, लोकगायक बालेश्वर, राजनेता अटल बिहारी बाजपेयी, नारायण दत्त तिवारी, वीर बहादुर सिंह पर भी काबिले तारीफ स्मृतियां हैं। बालेश्वर पर तीन और नारायण दत्त तिवारी पर दो अध्याय हैं। बहुचर्चित जैविक पिता कांड से संकट में आए तिवारी जी को ले कर पहला अध्याय उस महिला पर केंद्रित है जिस का बेटा तिवारी जी को अपना पिता होने का दावा करता है। दूसरा अध्याय उस तथाकथित बेटे पर है। इन में लेखक की स्मृतियां सराहनीय तो हैं ही वे कई अनछुए पहलुओं का विस्तार भी हैं।
दयानंद पांडेय घुमक्कड़, लिखक्कड़ और मिलक्कड़ प्रवृत्ति के बेहद संजीदा पत्रकार व लेखक हैं। उन की दृष्टि केवल व्यक्तियों तक सीमित नहीं है। वे हर चीज़ को अंर्तमन से महसूस करने में महारथी हैं। उन्हों ने प्रेमचंद के गांव ‘लमही’ की अपनी यात्रा पर दो अध्याय इस पुस्तक में लिखे हैं और उस महान साहित्कार को बेहद अलग अंदाज़ में याद किया है। राजपूतों के देश राजस्थान पर अतुलनीय लेख और बीते साल इलाहाबाद में संपन्न हुए महाकुंभ की यात्रा के बाद ‘त्रिवेणी के विलाप का यह विन्यास’ शीर्षक से एक अविस्मरणीय अध्याय से पुस्तक समाप्त होती है।
बेशक यह संस्मरण अपने उद्देश्य में सफल है। दयानंद पांडेय ने जितने भी लोगों के विषय में लिखा है उनकी स्मृतियों से मन का तादात्म्य स्थापित हो जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि अमुक व्यक्ति हमारे सामने उपस्थित है। क्यों कि दयानंद पांडेय कहीं भी पूर्वाग्रही नहीं हुए हैं। बिलकुल एक निष्पक्ष दृष्टि से जैसा जाना, समझा, वैसा ही लिखा है। यहां तक कि जिस प्रभाष जोशी का नाम लेने में वह गर्व महसूस करते हैं उन के भी नकारात्मक पक्षों को रखने में कोई कोताही नहीं बरती है। दरअसल, दयानंद पांडेय के स्मृति आंगन का हर चेहरा सर्वतोभद्र (हर तरफ से देखा जा सकने वाला) है। साधुवाद...!
समीक्ष्य पुस्तक- यादों का मधुबन
[संस्मरण]
लेखक- दयानंद पांडेय
पृष्ठ-248 मूल्य-450
प्रकाशक- सर्वोदय प्रकाशन 512-B, गली नं.2 विश्वास नगर दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष-2013
Friday, 25 October 2013
Sunday, 20 October 2013
कुछ मुलाकातें, कुछ बातें : सवाल रूपी मशाल जलाती बातें-मुलाकातें
डॉ. मुकेश मिश्रा
एक होनहार और विद्वान पत्रकार अपने पत्रकारिता काल में हर दिन कुछ न कुछ लिखता है। उस कुछ में से बहुत ‘कुछ’ वह ऐसा लिखता है जो लंबे समय तक न केवल चर्चित रहता है बल्कि प्रासंगिक भी बना रहता है। पत्रकार के तौर पर सदा के लिए प्रासंगिक लिखना बेहद मुश्किल काम है लेकिन ऐसा लेखन ही एक पत्रकार की विशिष्टता का द्योतक बनता है। उसे भीड़ से अलग करता है। न जाने कितनी रोजमर्रा की खबरें एक रिपोर्टर हर दिन लिखता है और रोज छपता भी है। लेकिन उस में से विरले ही कोई स्टोरी स्थाई रूप से प्रासंगिक बनी रह पाती है। आज तो पत्रकारिता के बड़े-बड़े और महंगे स्कूल चल रहे हैं। बीते कुछ सालों में ही पत्रकारिता की पौध तैयार करने वाली तथाकिथत नर्सरियों ने कमोvevवेश हर गली- शहर में अपने अड्डे खोले हैं। फिर भी बड़े दुख के साथ कहने में हिचक बिलकुल नहीं होती कि वे सभी शायद ही कोई कलमकार पैदा कर रहे हैं। या फिर व्यवस्था के खिलाफ सवाल खड़ा करने वालों का उत्पादन कर रहे हैं। जिस के कलम की गूंज, जिस के सवालों की हनक दूर तलक सुनाई देती हो।
दरअसल आज पत्रकारिता का स्कूली अड्डा चलाने वालों को कलमकार नहीं, कर्मकार चाहिए। लिहाजा वे पत्रकार नहीं मैनेजर बनाने की कोशिश में नई पीढ़ी की कलम तोड़ने में लगे हैं। मशालों को बुझाने में लगे हैं। हालांकि जो पुरानी पीढ़ी के पत्रकार हैं, कलम तो उन की भी तोड़ी जा रही है, उन से न लिखवा कर। यही वज़ह है कि वर्तमान दौर में किसी पत्रकार के कलम से मशाल जलाने को चिनगारी नहीं निकलती। हां भेड़िये सी गुर्राहट का शोर ज़रूर बढ़ गया है। आज अधिकांश पत्रकारों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों में मिमियाने की धुन पहले ही सुनाई दे देती है।
खुशनुमा यह है कि इस माहौल में भी कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो कलमकार भी हैं। जिन के लिखे हुए लेख, साक्षात्कार, खबरें और रिपोर्टें हर दौर में प्रासंगिक हैं। और न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल के योग्य भी हैं। साथ ही वे अंधेरे में रोशनी लाने में भी सक्षम हैं।
दयानंद पांडेय भी उन्हीं कलमकार पत्रकारों की परंपरा के समर्थ हस्ताक्षर हैं जिन के लिखे हुए अनगिनत लेख, खबरें और साक्षात्कार समाज में न केवल प्रासंगिक हैं अपितु नए आयाम गढ़ रहे हैं। एक अच्छा पत्रकार कुशल संकलनकर्ता भी होता है और यह खूबी दयानंद पांडेय में तो है ही। उन्हों ने अपने पत्रकारिता करियर में लिखे उन तमाम बौद्धिक संपदाओं को संकलित कर रखा है जो सदा के लिए उपयोगी हो सकते हैं। उन संकलनों में से वे अकसर आज के सर्वाधिक सशक्त मंच सोशल मीडिया पर साझा करते रहते हैं। उन के ब्लॉग ‘सरोकारनामा’ पर एक से एक पुराने और प्रासंगिक लेख व साक्षात्कार प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। इस क्रम में हाल ही में उन्हों ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान लिए गए उन साक्षात्कारों को एक जगह संकलित करके एक बड़ा श्रमसाध्य काम किया है, जो आज से कोई दस-बीस साल पहले संपन्न किए गए थे।
‘कुछ मुलाकातें, कुछ बातें’ नामक इस पुस्तक में दयानंद पांडेय ने फिल्म, संगीत, थिएटर और साहित्य जगत की कई हस्तियों के स्वयं द्वारा किए गए साक्षात्कारों का संकलन किया है। दरअसल, साक्षात्कारों का यह अर्द्ध शतक है। कुल 50 इंटरव्यू इस किताब में हैं जिन में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी से ले कर संगीत में फ़्यूजन को नया आयाम देने वाले शंकर महादेवन तक शामिल हैं। इस किताब में बातों के बहाने मुलाकातों का लंबा सिलसिला है। इस के पहले अध्याय से ही पाठक की भी मुलाकात शख्सियतों से होने लगती है। जिस की शुरुआत कालजयी संगीतकार हृदयनाथ मंगेशकर से होती है। फिर लता मंगेशकर, आशा भोंसले, हेमलता, ऊषा उत्थुप, कुमार शानू, इला अरुण, भोजपुरी लोक गायक बालेश्वर, शारदा सिनहा, ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, महानायक अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, श्रीदेवी, पीनाज मसानी, नाटककार ब.व. कारंत, बिरजू महाराज, साहित्यकार जैनेंद्र कुमार, अमृतलाल नागर, चित्रलेखा के महान लेखक भगवती चरण वर्मा, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, मारीशस के तत्कालीन उपराष्ट्रपति घरभरन जैसी हस्तियों से बातें-मुलाकातें होती हुई समाज सेवी नानाजी देशमुख पर जा कर रुकती है। बीच में कई हस्तियां हैं जिन के नाम लिखना इस समीक्षा में संभव नहीं है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि संदर्भित पुस्तक पत्रकारिता के दौरान लिए गए साक्षात्कारों का संकलन है। वर्तमान दौर के 50 सफल लोगों की अनकही कहानी इस की खासियत है। किस को पता है कि हृदयनाथ मंगेशकर संगीतकार थे लेकिन उन्हों ने इस के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। जो भी संघर्ष किया रोटी दाल के लिए किया। सुर साम्राज्ञी लता जी दुबारा जन्म नहीं लेना चाहतीं। आशा भोंसले मानती हैं कि उन के साथ घोर अन्याय हुआ है फिर भी वो अगले जन्म में आशा भोंसले ही बनना चाहती हैं। रवींद्र जैन ने हेमलता का कितना शोषण किया? मर्दानी आवाज़ वाली ऊषा उत्थुप को उन का नारी मनोविज्ञान मथता है। अनपढ़ बालेश्वर को मलाल था कि वे पढ़े लिखे होते तो उच्च कोटि के साहित्यकार होते। फाऱूख शेख ‘देवदास’ की भूमिका करना चाहते थे। दलेर मेंहदी अपनी बेटी को ‘पीर’ मानते हैं। फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली ‘मोरध्वज’ के वंशज हैं और उन्हें भगवान विष्णु में अगाध आस्था है। दिलीप कुमार को एक्टिंग नहीं आती। अमिताभ बच्चन अगले जन्म में पत्रकार बनना चाहते हैं क्यों कि उस के पास पूछने का अधिकार है। प्रसिद्ध निर्देशिका ऊषा गांगुली पुरुषों को गुड्डा मानती हैं। थिएटर नहीं होता तो अभिनेता मनोहर सिंह ‘जमादार’ होते। बिरजू महाराज को लखनऊ में एक कलाश्रम खोलने के लिए ज़मीन नहीं मिल सकी। अविवाहित नानाजी देशमुख मानते थे कि विवाह किया होता तो जीवन बेहतर होता।
उपरोक्त खुलासे तभी हो सकते हैं जब मुलाकातें हों, कुछ बातें हों, निःसंकोच सवालों के साथ। सार्थक मुलाकातें और बातें ही अनकहे, अनजाने पट खोल सकती हैं। जिन 50 लोगों की मुलाकात और बातचीत को लेखक ने कलमबंद किया है उन के साक्षात्कार और भी बहुत माध्यमों में लिए गए होंगे। लेकिन यहां तो एक पत्रकार के सवालों की उन लोगों से पूरी मुठभेड़ है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। कोई भी सवाल कृत्रिम नहीं। हां, इस में मिले जवाबों का पता नहीं कि वे कितने सही और गलत हैं क्यों कि इस की तस्दीक तो उत्तर देने वाला ही कर सकता है। लेकिन लेखक के सवाल ही इस किताब में संकलित साक्षात्कारों की जान हैं। इस में प्रायः असहज कर देने वाले सवालों से मुज़फ़्फ़र अली, हेमा मालिनी, नागर जी, अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार सहित हर शख्स को गुज़रना पड़ा है। सवालों में कहीं कोई मिमियाहट की झलक तक नहीं। यही कारण है कि बहुत सी अनकही बातें हमारे सामने हैं। बेशक ऐसी हिम्मत एक कलमकार पत्रकार कर सकता है। शुरू में ही किताब के बारे में यह लिख कर लेखक ने यह साफ भी कर दिया है कि वह मशाल का लंबरदार है। लिहाज़ा सवालों के मशाल की रोशनी से सच का दस्तावेज निकल कर पूरी प्रासंगिकता के साथ पुस्तक में उपस्थित होता है। और वह भी उस आईने के साथ जिस में मौजूदा सवालकार (पत्रकार) अपनी हैसियत देख सकते हैं। खास बात यह भी है कि जितने भी इंटरव्यू इस पुस्तक में छपे हैं उस की शैली दिलचस्प है जो शुरू से अंत तक बांधे रहती है। यह पुस्तक नई पीढ़ी के पत्रकारों और इस क्षेत्र के अध्येताओं के लिए सवालों की सीख देती है। आशा है दयानंद पांडेय का यह प्रयास सच का मशाल जलाने वालों के लिए नए वातायन खोलेगा।
समीक्ष्य पुस्तक कुछ मुलाकातें, कुछ बातें
मूल्य- 450 रुपए पृष्ठ संख्या-240
प्रकाशक-जनवाणी प्रकाशन प्रा.लि. 30/35-36, गली नं. 9, विश्वास नगर दिल्ली-110032
एक होनहार और विद्वान पत्रकार अपने पत्रकारिता काल में हर दिन कुछ न कुछ लिखता है। उस कुछ में से बहुत ‘कुछ’ वह ऐसा लिखता है जो लंबे समय तक न केवल चर्चित रहता है बल्कि प्रासंगिक भी बना रहता है। पत्रकार के तौर पर सदा के लिए प्रासंगिक लिखना बेहद मुश्किल काम है लेकिन ऐसा लेखन ही एक पत्रकार की विशिष्टता का द्योतक बनता है। उसे भीड़ से अलग करता है। न जाने कितनी रोजमर्रा की खबरें एक रिपोर्टर हर दिन लिखता है और रोज छपता भी है। लेकिन उस में से विरले ही कोई स्टोरी स्थाई रूप से प्रासंगिक बनी रह पाती है। आज तो पत्रकारिता के बड़े-बड़े और महंगे स्कूल चल रहे हैं। बीते कुछ सालों में ही पत्रकारिता की पौध तैयार करने वाली तथाकिथत नर्सरियों ने कमोvevवेश हर गली- शहर में अपने अड्डे खोले हैं। फिर भी बड़े दुख के साथ कहने में हिचक बिलकुल नहीं होती कि वे सभी शायद ही कोई कलमकार पैदा कर रहे हैं। या फिर व्यवस्था के खिलाफ सवाल खड़ा करने वालों का उत्पादन कर रहे हैं। जिस के कलम की गूंज, जिस के सवालों की हनक दूर तलक सुनाई देती हो।
दरअसल आज पत्रकारिता का स्कूली अड्डा चलाने वालों को कलमकार नहीं, कर्मकार चाहिए। लिहाजा वे पत्रकार नहीं मैनेजर बनाने की कोशिश में नई पीढ़ी की कलम तोड़ने में लगे हैं। मशालों को बुझाने में लगे हैं। हालांकि जो पुरानी पीढ़ी के पत्रकार हैं, कलम तो उन की भी तोड़ी जा रही है, उन से न लिखवा कर। यही वज़ह है कि वर्तमान दौर में किसी पत्रकार के कलम से मशाल जलाने को चिनगारी नहीं निकलती। हां भेड़िये सी गुर्राहट का शोर ज़रूर बढ़ गया है। आज अधिकांश पत्रकारों द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्नों में मिमियाने की धुन पहले ही सुनाई दे देती है।
खुशनुमा यह है कि इस माहौल में भी कुछ ऐसे पत्रकार हैं जो कलमकार भी हैं। जिन के लिखे हुए लेख, साक्षात्कार, खबरें और रिपोर्टें हर दौर में प्रासंगिक हैं। और न केवल प्रासंगिक हैं बल्कि संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल के योग्य भी हैं। साथ ही वे अंधेरे में रोशनी लाने में भी सक्षम हैं।
दयानंद पांडेय भी उन्हीं कलमकार पत्रकारों की परंपरा के समर्थ हस्ताक्षर हैं जिन के लिखे हुए अनगिनत लेख, खबरें और साक्षात्कार समाज में न केवल प्रासंगिक हैं अपितु नए आयाम गढ़ रहे हैं। एक अच्छा पत्रकार कुशल संकलनकर्ता भी होता है और यह खूबी दयानंद पांडेय में तो है ही। उन्हों ने अपने पत्रकारिता करियर में लिखे उन तमाम बौद्धिक संपदाओं को संकलित कर रखा है जो सदा के लिए उपयोगी हो सकते हैं। उन संकलनों में से वे अकसर आज के सर्वाधिक सशक्त मंच सोशल मीडिया पर साझा करते रहते हैं। उन के ब्लॉग ‘सरोकारनामा’ पर एक से एक पुराने और प्रासंगिक लेख व साक्षात्कार प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। इस क्रम में हाल ही में उन्हों ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान लिए गए उन साक्षात्कारों को एक जगह संकलित करके एक बड़ा श्रमसाध्य काम किया है, जो आज से कोई दस-बीस साल पहले संपन्न किए गए थे।
‘कुछ मुलाकातें, कुछ बातें’ नामक इस पुस्तक में दयानंद पांडेय ने फिल्म, संगीत, थिएटर और साहित्य जगत की कई हस्तियों के स्वयं द्वारा किए गए साक्षात्कारों का संकलन किया है। दरअसल, साक्षात्कारों का यह अर्द्ध शतक है। कुल 50 इंटरव्यू इस किताब में हैं जिन में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन, ड्रीम गर्ल हेमा मालिनी से ले कर संगीत में फ़्यूजन को नया आयाम देने वाले शंकर महादेवन तक शामिल हैं। इस किताब में बातों के बहाने मुलाकातों का लंबा सिलसिला है। इस के पहले अध्याय से ही पाठक की भी मुलाकात शख्सियतों से होने लगती है। जिस की शुरुआत कालजयी संगीतकार हृदयनाथ मंगेशकर से होती है। फिर लता मंगेशकर, आशा भोंसले, हेमलता, ऊषा उत्थुप, कुमार शानू, इला अरुण, भोजपुरी लोक गायक बालेश्वर, शारदा सिनहा, ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार, महानायक अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, श्रीदेवी, पीनाज मसानी, नाटककार ब.व. कारंत, बिरजू महाराज, साहित्यकार जैनेंद्र कुमार, अमृतलाल नागर, चित्रलेखा के महान लेखक भगवती चरण वर्मा, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह, मारीशस के तत्कालीन उपराष्ट्रपति घरभरन जैसी हस्तियों से बातें-मुलाकातें होती हुई समाज सेवी नानाजी देशमुख पर जा कर रुकती है। बीच में कई हस्तियां हैं जिन के नाम लिखना इस समीक्षा में संभव नहीं है।
यह पहले ही कहा जा चुका है कि संदर्भित पुस्तक पत्रकारिता के दौरान लिए गए साक्षात्कारों का संकलन है। वर्तमान दौर के 50 सफल लोगों की अनकही कहानी इस की खासियत है। किस को पता है कि हृदयनाथ मंगेशकर संगीतकार थे लेकिन उन्हों ने इस के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। जो भी संघर्ष किया रोटी दाल के लिए किया। सुर साम्राज्ञी लता जी दुबारा जन्म नहीं लेना चाहतीं। आशा भोंसले मानती हैं कि उन के साथ घोर अन्याय हुआ है फिर भी वो अगले जन्म में आशा भोंसले ही बनना चाहती हैं। रवींद्र जैन ने हेमलता का कितना शोषण किया? मर्दानी आवाज़ वाली ऊषा उत्थुप को उन का नारी मनोविज्ञान मथता है। अनपढ़ बालेश्वर को मलाल था कि वे पढ़े लिखे होते तो उच्च कोटि के साहित्यकार होते। फाऱूख शेख ‘देवदास’ की भूमिका करना चाहते थे। दलेर मेंहदी अपनी बेटी को ‘पीर’ मानते हैं। फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली ‘मोरध्वज’ के वंशज हैं और उन्हें भगवान विष्णु में अगाध आस्था है। दिलीप कुमार को एक्टिंग नहीं आती। अमिताभ बच्चन अगले जन्म में पत्रकार बनना चाहते हैं क्यों कि उस के पास पूछने का अधिकार है। प्रसिद्ध निर्देशिका ऊषा गांगुली पुरुषों को गुड्डा मानती हैं। थिएटर नहीं होता तो अभिनेता मनोहर सिंह ‘जमादार’ होते। बिरजू महाराज को लखनऊ में एक कलाश्रम खोलने के लिए ज़मीन नहीं मिल सकी। अविवाहित नानाजी देशमुख मानते थे कि विवाह किया होता तो जीवन बेहतर होता।
उपरोक्त खुलासे तभी हो सकते हैं जब मुलाकातें हों, कुछ बातें हों, निःसंकोच सवालों के साथ। सार्थक मुलाकातें और बातें ही अनकहे, अनजाने पट खोल सकती हैं। जिन 50 लोगों की मुलाकात और बातचीत को लेखक ने कलमबंद किया है उन के साक्षात्कार और भी बहुत माध्यमों में लिए गए होंगे। लेकिन यहां तो एक पत्रकार के सवालों की उन लोगों से पूरी मुठभेड़ है। कहीं कोई बनावटीपन नहीं। कोई भी सवाल कृत्रिम नहीं। हां, इस में मिले जवाबों का पता नहीं कि वे कितने सही और गलत हैं क्यों कि इस की तस्दीक तो उत्तर देने वाला ही कर सकता है। लेकिन लेखक के सवाल ही इस किताब में संकलित साक्षात्कारों की जान हैं। इस में प्रायः असहज कर देने वाले सवालों से मुज़फ़्फ़र अली, हेमा मालिनी, नागर जी, अमिताभ बच्चन और दिलीप कुमार सहित हर शख्स को गुज़रना पड़ा है। सवालों में कहीं कोई मिमियाहट की झलक तक नहीं। यही कारण है कि बहुत सी अनकही बातें हमारे सामने हैं। बेशक ऐसी हिम्मत एक कलमकार पत्रकार कर सकता है। शुरू में ही किताब के बारे में यह लिख कर लेखक ने यह साफ भी कर दिया है कि वह मशाल का लंबरदार है। लिहाज़ा सवालों के मशाल की रोशनी से सच का दस्तावेज निकल कर पूरी प्रासंगिकता के साथ पुस्तक में उपस्थित होता है। और वह भी उस आईने के साथ जिस में मौजूदा सवालकार (पत्रकार) अपनी हैसियत देख सकते हैं। खास बात यह भी है कि जितने भी इंटरव्यू इस पुस्तक में छपे हैं उस की शैली दिलचस्प है जो शुरू से अंत तक बांधे रहती है। यह पुस्तक नई पीढ़ी के पत्रकारों और इस क्षेत्र के अध्येताओं के लिए सवालों की सीख देती है। आशा है दयानंद पांडेय का यह प्रयास सच का मशाल जलाने वालों के लिए नए वातायन खोलेगा।
समीक्ष्य पुस्तक कुछ मुलाकातें, कुछ बातें
मूल्य- 450 रुपए पृष्ठ संख्या-240
प्रकाशक-जनवाणी प्रकाशन प्रा.लि. 30/35-36, गली नं. 9, विश्वास नगर दिल्ली-110032
Thursday, 17 October 2013
कामरेड और कुछ फ़ेसबुकिया नोट्स
लाभ (सम्मान) जब थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है।
-परसाई
तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब !
रुढ़ियां तोड़ने का दावा ठोंकने वाले लोग खुद क्यों इतने रुढ़िग्रस्त होते हैं? कि कोई उन की दुखती रग पर हाथ भी रख दे तो उसे डस बैठते हैं। फ़ासिज़्म का विरोध करते-करते फ़ासिस्टों का मठ बना लेते हैं? यह मठ धीरे-धीरे उन की दुकान में बदल जाते हैं। बाज़ार का विरोध करते-करते खुद एक बाज़ार में कैद हो जाते हैं। बाज़ार के एजेंट बन जाते हैं। सत्ता को गाली देते-देते सत्ता के रिश्तेदार बन जाते हैं। दामाद बन जाते हैं। यहां उन के विरोध की कीमत उफ़ान पर होती है, मूल्य और आदर्श दफ़न हो्ते मि्लते है। हां, मुलम्मा लेकिन वही क्रांतिकारी का होता है। पर इन की दुकान और मठ बड़े से और बड़े होते जाते हैं। एक सामंत इन के भीतर गश्त करता मिलता है। एक दुर्ग में तब्दील होता जाता है। मुक्तिबोध शायद इसी लिए कह गए हैं कि तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब !
'वे' अब सारा साहित्य मांगेंगे !
आफ़्टरआल अब 'वे' लोग जाग गए हैं। सो आप को क्या हक है कि आप भी जगे रहें? सो जाइए। आंख मूंद कर चुपचाप। नहीं आप को 'वे' लोग लाठी मार-मार कर सुला देंगे। फ़ैज़ को सुना ही होगा, पढ़ा ही होगा। अच्छा नहीं? तो उसी मिसरे पर जावेद अख्तर का लिखा मज़दूर फ़िल्म का वह गाना तो सुना ही होगा। कि, 'मेहनतकश इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे/ एक बाग नहीं, एक खेत नहीं/ हम सारी दुनिया मांगेंगे !' तो अब इसी तर्ज़ पर 'वे' लोग एक कविता नहीं, एक कहानी, एक उपन्यास, एक आलोचना नहीं, अब सारा साहित्य मांगेंगे। ज़रा भी ना नुकुर आप करेंगे तो वह आप को जातियों की लाठी से मारेंगे। 'वे' लोग लाठियों में तेल मल रहे हैं लगातार। सो, सो जाइए, सो जाइए ! कहां हैं आदरणीय कबीर दास ! कि आप भी डर गए हैं? हम तो भाई सचमुच अब डर से गए हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल को शत-शत प्रणाम !
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान ने आज एक निमंत्रण-पत्र भेजा है। इस में बताया गया है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती के अवसर पर ९ अक्टूबर, २०१३ को सूर्य प्रसाद दीक्षित के साथ चौथीराम यादव भी हिंदी समीक्षा और आचार्य रामचंद्र शुक्ल विषय पर बोलेंगे। उदय प्रताप सिंह अध्यक्षता करेंगे इस कार्यक्रम की। मित्र लोग इस सूचना को भी मात्र सूचना के ही अर्थ में पढ़ें, किसी और या अन्यथा अर्थ में नहीं। हां, यह देखना और सुनना ज़रुर दिलचस्प हो सकता है कि लोहिया विशिष्ट सम्मान से सम्मानित चौथीराम यादव जी अपने तमाम 'शुभचिंतकों' की तरह आचार्य रामचंद्र शुक्ल को द्विज समझ कर उन की बखिया उधेड़ते हैं कि सर्वश्रेष्ठ आलोचक समझ कर उन की यश-गाथा का गान गाते हैं। अब आप मित्रों को क्या करना है, यह आप जानें। पर मैं तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल को शत-शत प्रणाम कर रहा हूं।
राष्ट्रभाषा तो है नहीं, राष्ट्र कवि की फ़रियाद !
एक हैं मोहम्मद अनस। आजकल फ़ेसबुक पर राष्ट्र कवि कौन हो की एक नकली बहस के बहाने अपने को सुखी करने में डटे पड़े हैं। हिंदी-उर्दू का खांचा भी खींच बैठे हैं। मैथिली शरण गुप्त, दिनकर और सोहन लाल द्विवेदी को लानत भेजते हुए अपना दुख भी जता रहे हैं कि हाय फ़िराक को क्यों नहीं राष्ट्र कवि बनाया गया? हमारे मित्र हैं शंभूनाथ शुक्ल। वह भी मोहम्मद अनस के सुर में सुर मिला गए हैं पर वह शहरयार को राष्ट्र कवि बनाने की पैरवी कर रहे हैं। अभी यह लोग हिंदी को छोड़ कर उर्दू के कवियों को राष्ट्र कवि बना कर अपनी धर्मनिरपेक्षता कहिए या भावना कहिए व्यक्त कर रहे हैं। हो सकता है कि कल को किसी और भाषा के लोग भी सामने आएं। पर दिक्कत यह है कि एक राष्ट्र गान है जन गण मन जिसे बांगला के रवींद्रनाथ टैगोर ने लिखा है। इस को ले कर तो कई सारे विवाद हैं ही, एक राष्ट्रीय गीत भी है वंदे मातरम ! इस को भी बांगला के बंकिम बाबू ने लिखा है। और इस को ले कर भी मुस्लिम वर्ग के लोगों में ऐतराज है। पर हमारे मित्र लोग इन बातों से भी कतरा कर फ़िराक, शहरयार की कुर्सी दौड़ में उलझ गए हैं। इन मित्रों को कोई जीवित कवि भी नहीं मिल रहा जिसे यह लोग राष्ट्र कवि के सिंहासन पर बिठा सकें। इन मित्रों को इस बात की कतई परवाह नहीं है कि अपने देश में हर चीज़ राष्ट्रीय है। फूल से ले कर झंडा तक। पर देश में आज़ादी के इतने बरस बाद भी जो एक चीज़ राष्ट्रीय नहीं है अपने देश के पास वह है राष्ट्रीय भाषा। और मित्र लोग हैं कि राष्ट्र कवि के झमेले में जूझ रहे हैं। शायद इसी को कहते हैं कि सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठमलट्ठ ! मित्रों बौद्धिक ही सही, फ़रियाद ही जो करनी है, बहस ही जो करनी है तो पहले एक राष्ट्रभाषा के लिए कीजिए। फिर राष्ट्र कवि का एजेंडा लाइएगा। लेकिन यह उर्दू और हिंदी का झमेला बंद कीजिए। फ़िलहाल तो मुनव्वर राना का एक शेर सुनिए और खुश हो जाइए :
लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुसकुराती है
मैं उर्दू में गज़ल कहता हूं हिंदी मुसकुराती है।
मैं उर्दू में गज़ल कहता हूं हिंदी मुसकुराती है।
अब रचना नहीं जाति देख कर पुरस्कार !
कभी लिखा था धर्मवीर भारती ने अंधा युग। अब हिंदी में जातिवादी लेखकों का अंधा युग शुरु हुआ है जो अब रचना देख कर नहीं जाति देख कर पुरस्कार देंगे। सारे विमर्श का केंद्र अब रचना नहीं जाति होगी। यह फ़तवा कुछ लेखकों ने जारी कर दिया है। न सिर्फ़ जारी कर दिया है बल्कि धक्का-मुक्की भी शुरु कर दी है। जय हो ! इस अंधा युग की जय हो !
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
भारतीय संविधान में आरक्षण का प्राविधान तो तमाम निर्बल लोगों को बल देने के लिए किया गया था। संविधान सभा और खुद अंबेडकर ने भी नहीं सोचा रहा होगा तब कि यह आरक्षण तमाम निर्बलों को लूट कर सिर्फ़ कुछ मुलायम, कुछ मायावती, कुछ जयललिता, कुछ ए. राजा या कुछ लालू-आलू टाइप लोगों को राज करने और देश को लूटने का लाइसेंस बन जाएगा। दलित, पिछड़े, धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द इन के हथियार बन जाएंगे। हरिचरना तो आज भी हरिचरन नहीं बन पाया। हां, भैया , दीदी लोग ज़रुर अरबपति-खरबपति बन गए। और इन की पसंद भी देखिए कि कभी अंबानी, तो कभी जयंत मल्होत्रा तो कभी राजा भैया टाइप लोग ही होते हैं। कोई निर्बल नहीं मिलता इन्हें राज्य सभा या मंत्रिमंडल आदि में भरने के लिए। दुष्यंत कुमार पता नहीं क्यों और किस के लिए लिख गए हैं :
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हर एक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए
न हो कमीज़ तो पाँओं से पेट ढँक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए
अब असल में दुष्यंत भी मुलायम, मायावती आदि जैसों की तरक्की देख नहीं पा रहे थे सो खुंदक में लिख गए होंगे। क्या करें दुष्यंत भी द्विज थे न ! सो कर गए नालायकी। सब गलत-सलत लिख गए। लोगों को भड़काने के लिए। ओह दुष्यंत !
कामरेड लोग कठुआ गए हैं
उत्तर प्रदेश की अखिलेश सरकार में राजा भैया की भागीदारी पर विरोध के मसले पर कामरेड लोग कठुआ गए हैं। तो यह मुलायम के हल्लाबोल के पुराने रिकार्ड का असर है कि राजा भैया की गुंडई का डर? या रामपुर में कंवल भारती का आज़म खान से डर कर कांग्रेस शरणं गच्छामि का दुष्प्रभाव है यह। कि कोई छींक भी नहीं रहा।
राजा भैया पर कामरेड की चुप्पी !
उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों और दलितों पर अत्याचार करने वाले, कहर बरपाने वाले, बस्तियां जलाने वाले, राजा भैया ने आज फिर मंत्री पद की शोभा बढ़ा दी है अखिलेश यादव मंत्रिमंडल की। लेकिन पता नहीं कामरेड लोग क्यों खामोश हैं? डेढ़ दशक पहले बिहार में रणवीर सेना द्वारा ५८ दलितों के कत्ले आम पर न्यायालय के फ़ैसले पर मातम मनाना तो ठीक है, निंदा और गुस्सा भी जायज है। रेड कारीडोर बना देने की धमकी ज़रुर थोड़ी ज़्यादा है। लेकिन गुस्से के तौर पर चलिए मंज़ूर कर लेते हैं यह शाब्दिक हिंसा एक बार फिर भी। लेकिन कामरेड यह कौन सी पालिटिक्स है कि राजा भैया के मामले पर आप सब के सब लोग सिरे से खामोश हैं? कामरेड कुछ तो सांस लीजिए और धिक्कारिए अखबारों में, फ़ेसबुक पर इसे भी। लेकिन इस पर लफ़्फ़ाज़ी पर विराम क्यों है? लफ़्फ़ाज़ी पर भी विराम कामरेड? कंवल भारती प्रसंग से ही सही कुछ सीख ले लीजिए।
जो कामरेड के साथ नहीं, वह उन का दुश्मन !
अमेरिकी सरकार का मनोविज्ञान यह है कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। यह बात राजकिशोर ने अपने एक लेख फेसबुक पर फेस को नहीं, बुक को प्राथमिकता मिलनी चाहिए में कही है। फ़ेसबुक पर उपस्थित स्त्रीयों के लिए कही है। काश कि राजकिशोर जी ठीक इसी तरह अपने कुछ कामरेड दोस्तों के लिए भी विचार करते। क्यों कि हमारे कामरेड दोस्तों ने भी अमेरिकी सरकार के उसी मनोविज्ञान को स्वीकार कर लिया है। कि जो हमारे साथ नहीं है, वह हमारा दुश्मन है। मतलब जो उन की हां में हां न मिलाए, कोर्निश न बजाए वह उन का दुश्मन। तिस पर जातिवाद का मुलम्मा भी कस कर चांप लिया है। सो अलग। खाने के अलग, दिखाने का अलग का चलन तो खैर पुरानी रवायत है। पर यह अमेरिकी मनोविज्ञान? वर्ग शत्रु वाली अवधारणा जाने कहां बिला गई। तिस पर इस अमेरिकी मनोविज्ञान ने उन्हें डस लिया सो अलग। तो चित्त भी कामरेड की और पट्ट भी कामरेड की। दुनिया जाए भाड़ में। राजकिशोर जी, आखिर इस कुतर्क के बरक्स कोई तर्क खोजेंगे क्या आप? आखिर फ़ासिज़्म की यह कौन सी धारा है?
कामरेड की जय हो !
हमारे एक मित्र थे क्या, हैं अभी भी। हां फ़ेसबुक पर अब नहीं हैं। यह उन की अपनी सुविधा और उन का अपना चयन है। लेकिन आज उन्हों ने साबित कर दिया कि वे फ़ासिस्ट थे, फ़ासिस्ट ही रहेंगे। लेकिन साथ ही यह भी बता दिया कि वह पलायनवादी भी हैं। सच से और तर्क से आंख छुपाने में भी खूब माहिर हैं। कामरेड की जय हो !
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Tuesday, 15 October 2013
वीरेंद्र यादव के विमर्श के वितान में आइस-पाइस यानी छुप्पम-छुपाई का खेल
दयानंद पांडेय
[ इस आलेख को पढ़ने के पूर्व कृपया नोट कर लें कि वामपंथी अवधारणा के तहत वीरेंद्र यादव की नज़र में राम मनोहर लोहिया फ़ासिस्ट हैं। न सिर्फ़ फ़ासिस्ट हैं, नाज़ी हैं, हिटलर के अनुयायी भी हैं लोहिया।]
दुनिया बदल रही है, वीरेंद्र यादव भी बदल रहे हैं। और उन के विमर्श का वितान भी। वह अब कट्टर वामपंथी नहीं रह गए हैं। यह खुलासा उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के हालिया पुरस्कार समारोह में हुआ । उस के पहले भी कुछ कार्यक्रमों में दिखी थी। जैसे टाइम्स आफ़ इंडिया द्वारा प्रायोजित एक कार्यक्रम में जो लखनऊ के गोल्फ़ क्लब में आयोजित किया गया था। कामरेड नूर ज़हीर के बुक रीडिंग में। उस कार्यक्रम में कुछ कामरेड लोगों की उपस्थिति तब भी कई लोगों को चौंका गई थी। वीरेंद्र यादव तो खैर उस कार्यक्रम की अध्यक्षता ही कर रहे थे। और पूरी लचक के साथ। हमारे जैसे उन के कुछ प्रशंसकों को यह अच्छा लगा था। बाद में उन की यह लचक और लोच हिंदी संस्थान के सरकारी कार्यक्रम में और निखरी। इस कार्यक्रम में हनुमान भक्त, रामायण मेला करवाने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव जो लोहिया के अनुयायी भी हैं, शिष्य भी अपने सुपुत्र और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के साथ मंच पर उपस्थित थे। वही मुलायम सिंह यादव जो पहली बार जब १९७७ में मंत्री बने थे तो जनसंघ धड़े के समर्थन से। कल्याण सिंह उन के साथ ही स्वास्थ्य मंत्री थे। जब मुख्यमंत्री भी बने पहली बार १९८९ में तो भाजपा के समर्थन से हीे अटल बिहारी वाजपेयी के चरण स्पर्श तो हम सब के सामने ही है। और अभी बहुत दिन नहीं बीते जब वह लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ़ आन रिकार्ड कर रहे थे। चौरासी कोसी परिक्रमा पर भी विहिप के साथ उन की गलबहियां गौर तलब थीं ही, मुज़फ़्फ़र नगर के दंगे और कंवल भारती की फ़ेसबुकिया टिप्पणी पर गिरफ़्तारी भी दरपेश थी। भारत-भारती से सम्मानित गोपालदास नीरज भी मंच पर विराजमान थे। नीरज आचार्य कहिए भगवान कहिए रजनीश के भक्तों में से हैं। नीरज के कई गीतों पर ओशो ने प्रवचन भी किए हैं। और बहुत सुंदर प्रवचन किए हैं। नीरज ने फ़िल्मी गीत भी खूब लिखे हैं और मंचीय कवि कहे ही जाते हैं। इतना ही नहीं उसी मंच पर कुछ और लोकप्रिय मंचीय कवि उपस्थित थे। हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष उदय प्रताप सिंह, गीतकार सोम ठाकुर, बुद्धिनाथ मिश्र, व्यंग्यकार अशोक चक्रधर आदि तो थे ही, दीनदयाल उपाध्याय पुरस्कार से पुरस्कृत बलदेव बंशी भी उसी मंच पर थे। और भी ऐसे तमाम लोग थे जिन को वीरेंद्र यादव जो अपने वामपंथी चश्मे से देखते तो वहां क्षण भर भी नहीं रुकते और चल देते। ऐसा करते वीरेंद्र यादव को एकाधिक बार मैं ने देखा है।
लखनऊ के गोमती नगर पत्रकारपुरम में प्रसिद्ध पत्रकार अखिलेश मिश्र के नाम एक पार्क के नामकरण समारोह का आयोजन था। अखिलेश जी की सुपुत्री वंदना मिश्र, दामाद रमेश दीक्षित ने आयोजित किया था। लखनऊ के मेयर दिनेश शर्मा जो भारतीय जनता पार्टी के हैं, को ही सब कुछ करना था। उन के आने में देरी थी। सो कार्यक्रम शुरु हो गया। वीरेंद्र यादव समेत तमाम वामपंथी मित्र उपस्थित थे। सब ने बढ़िया भाषण किया। अखिलेश मिश्र पर संस्मरण सुनाए, उन के लिखे पर बात की, व्यक्तित्व पर बात की। वीरेंद्र यादव ने भी। इस कार्यक्रम में सभी विचारधारा के लोग, समाजसेवी उपस्थित थे। कार्यक्रम चल ही रहा था कि मेयर दिनेश शर्मा की आमद हुई। कार्यक्रम थोड़ी देर के लिए स्थगित हो गया। ज़्यादातर लोग दिनेश शर्मा की अगुवानी में लग गए। इसी बीच वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ मंच छोड़ दिया बल्कि कुछ साथियों को आंख के इशारे से वहां से चल देने का इशारा किया। राकेश, शकील सिद्दीकी, रवींद्र वर्मा तुरंत उठ खड़े हुए और कार्यक्रम छोड़ कर चले गए। जब कि एक राजनीतिक वामपंथी अतुल अंजान जो राष्ट्रीय पोलित व्यूरो में भी हैं, मंच पर बैठे रहे। दिनेश शर्मा के साथ उन्हों ने न सिर्फ़ मंच साझा किया बल्कि अखिलेश मिश्र के सरोकार और उन की पत्रकारिता के कई दुर्लभ संस्मरण भी सुनाए। खुद मेयर दिनेश शर्मा ने अखिलेश जी पर बढ़िया भाषण दिया। और कहा कि अखिलेश जी की विचारधारा हमारी विचारधारा से मेल नहीं खाती और कि वह हमारी विचारधारा के खिलाफ़ लिखते थे पर हम उन की कलम की इज़्ज़त करते हैं इस लिए न सिर्फ़ इस पार्क को अखिलेश जी के नाम करने का जब प्रस्ताव आया तो मैं ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया और इस कार्यक्रम में आने की सहमति भी दी। लगे हाथ दिनेश शर्मा ने यह भी कहा कि मुझ से किसी ने मांग नहीं की है लेकिन मैं मेयर कोटे से इस पार्क में अखिलेश मिश्र की एक मूर्ति लगाने के लिए दो लाख रुपए की संस्तुति करता हूं। हालां कि अखिलेश जी की मूर्ति अभी तक लगी नहीं है। बहरहाल बाद में कार्यक्रम खत्म होने के बाद की गोष्ठी में सब लोग फिर से इकट्ठे हो गए खैर। ज़िक्र ज़रुरी है कि इसी लखनऊ में बीते साल फिर शेखर जोशी को जब श्रीलाल शुक्ल सम्मान दिया गया तो मंच पर समाजवादी पार्टी की सरकार में मंत्री शिवपाल सिंह यादव तो थे ही मेयर दिनेश शर्मा भी थे। शेखर जोशी और राजेंद्र यादव भी। राजेंद्र यादव या शेखर जोशी को भाजपाई मेयर दिनेश शर्मा के मंच पर बैठने से कोई परहेज नहीं हुआ। और हां, इसी मंच से वीरेंद्र यादव ने श्रीलाल शुक्ल पर भाषण भी किया। वीरेंद्र यादव के लिए यह सुविधा जाने-अनजाने ज़रुर हो गई कि उन के बोलने के समय मंच उजड़ गया था। बाद में आयोजकों को याद आया कि वीरेंद्र यादव को भी बुलवाना है।
लखनऊ में ही एक बार कथाक्रम का सालाना कार्यक्रम था। हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार में उसी मंच पर। समापन सत्र था। मुद्राराक्षस अध्यक्षता कर रहे थे, सुशील सिद्धार्थ संचालन। वीरेंद्र यादव भी मंच पर उपस्थित थे। राजेंद्र राव भी। एक वक्ता प्रसिद्ध पत्रकार के विक्रम राव भी थे। जाने किसी दबाव में या भूलवश सुशील सिद्धार्थ ने विक्रम राव को जल्दी बुलाया नहीं। बाद में संयोजक शैलेंद्र सागर के हस्तक्षेप पर सुशील सिद्धार्थ ने विक्रम राव को बुलाया। विक्रम राव का मंच पर आना था कि वीरेंद्र यादव भड़क गए। सभाध्यक्ष मुद्राराक्षस थे पर विक्रम राव के मसले पर वीरेंद्र यादव के नेतृत्व में मुद्राराक्षस भी भड़क गए। न सिर्फ़ भड़क गए बल्कि मंच का शिष्टाचार तज कर मंच छोड़ कर मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव चले गए। क्या तो विक्रम राव गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ से मिल कर आए थे और योगी आदित्यनाथ भाजपाई हैं आदि-आदि। गोया वह कथाक्रम का साहित्यिक मंच न हो लोकसभा या विधानसभा हो और बहिर्गमन कर गए। और कि क्या लोकसभा या विधानसभा में भी अगर अध्यक्ष या पीठ पर बैठा हुआ कोई भी इस लिए पीठ छोड़ कर चला जाएगा कि अगला भाजपाई है या भाजपाई से मिल कर आया है। सोचिए कि सोमनाथ चटर्जी तो यू पी ए की पहली सरकार में लोकसभा अध्यक्ष रहे थे और कि जब वाम दलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया तब भी उन्हों ने विरोध में वोटिग के लिए स्पीकर पद नहीं छोड़ा। भले पार्टी ने उन्हें निकाल दिया। आखिर लोकसभा अध्यक्ष पद की भी गरिमा होती है। और फिर लोकसभा या विधानसभा में क्या भाजपाई और वामपंथी एक साथ नहीं बैठते? कि यह वामपंथी यह कहते हुए निकल जाते हैं कि यहां तो भाजपाई बैठे हैं, हम जाते हैं ! खैर तब कथाक्रम के उस मंच से मुद्राराक्षस और वीरेंद्र यादव विक्रम राव के विरोध में बच्चों की तरह झल्लाते हुए बहिर्गमन कर गए। बहुतों को यह अच्छा नहीं लगा। खैर नीचे श्रोतागण बैठे रहे, मंच पर भी राजेंद्र राव बैठे रहे, विक्रम राव बोलते रहे।
अब संयोग देखिए कि ठीक वही मंच है उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के यशपाल सभागार का। लोहियावादियों, उन के अनुयायियों और कि वीरेंद्र यादव के शब्दों मे तमाम प्रतिक्रियावादियों से भी अटा पड़ा है। मुलायम सिंह यादव हैं, अखिलेश यादव हैं, मुलायम सिंह यादव के गुरु उदय प्रताप सिंह हैं, नीरज हैं। इतना ही नहीं श्रीनारायण चतुर्वेदी के नाम पर एक लखटकिया पुरस्कार की घोषणा मुख्यमंत्री ने तुरंत-तुरंत किया है वह श्रीनारायण चतुर्वेदी जो वीरेंद्र यादव की राय में एक हिंदुत्ववादी लेखक हैं। और तो और दीन दयाल उपाध्याय के नाम से यहां एक पुरस्कार भी दिया गया है बलदेव बंशी को। लोहिया विशिष्ट पुरस्कार भी चौथीराम यादव को दिया गया है। चौथीराम यादव भी प्रगतिशील कहलवाते हैं अपने को। और लोहिया इन सब की नज़र में फ़ासिस्ट हैं। और कि यह सब बरास्ता नामवर मौखिक ही मौलिक है, नहीं है। वीरेंद्र यादव द्वारा बाकायदा लिखित है। वामपंथियों और लोहिया में पुराना विवाद है। परंपरा सी है एक दूसरे को नापसंद करने की। सो, वीरेंद्र यादव ने कोई नया काम नहीं किया है लोहिया को फ़ासिस्ट कह कर। लोहिया भी वामपंथियों को नहीं पसंद करते थे। उसी कड़ी में मुद्राराक्षस ने आलोचना और पहल में एक लेख छपवाया। और लोहिया को फ़ासिस्ट बताने का पहाड़ा एक बार फिर दुहरा दिया। वह मुद्राराक्षस जो खुद एक समय लोहिया के प्रशंसकों में से रहे हैं। लोहिया की प्रशंसा में निरंतर लिखते रहे हैं। बल्कि मुद्राराक्षस ने तो यहां तक लिखा है कि लोहिया ने ही उन का विवाह तक करवाया है। लोहिया को ले कर उन्हों ने एकाधिक मीठे-मीठे संस्मरण भी लिखे हैं। खैर यह दूसरा प्रसंग है। फ़िलहाल तो मुद्रा ने आलोचना और पहल में लोहिया को फ़ासिस्ट बताते हुए ज़ोरदार लेख लिखा। यह वर्ष २००० की बात है। पत्रकार अरविंद मोहन ने जो तब हिंदुस्तान अखबार में काम कर रहे थे मुद्रा के इस लेख के प्रतिवाद में हिंदुस्तान में ही एक लेख लिखा। लोहिया और वैचारिक फ़ासीवाद। अब अरविंद मोहन के इस लेख के प्रतिवाद में वीरेंद्र यादव ने भी एक लेख लिखा फ़ासीवाद, लोहिया और वामपंथ। इस लेख में वीरेंद्र यादव ने न सिर्फ़ मुद्राराक्षस के लेख की ज़ोरदार पैरवी की बल्कि उत्तर प्रदेश सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित लक्ष्मीकात वर्मा द्वारा लिखी जीवनी के कुछ हवाले दिए। इंदुमति केलकर द्वारा लिखी लोहिया की जीवनी से भी कुछ हवाले दिए। और लोहिया के फ़ासिस्ट होने की ताकीद की। ओंकार शरद की जीवनी का भी हवाला दिया है वीरेंद्र यादव ने इस लेख में। और लिखा है कि, 'बाद के दौर में लोहिया का यह कम्युनिस्ट विरोध ही उन्हें आचार्य नरेंद्रदेव सरीखे समाजवादी चिंतकों से दूर ले गया और समाजवादी आंदोलन के बिखराव का कारण बना। विचारणीय यह तथ्य भी है कि समाजवादी चिंतन का जो 'बरगद' आचार्य नरेंद्रदेव को नास्तिकता तक ले गया और १९४८ के विधानसभा उपचुनाव में उन की हार का कारण बना, वही लोहिया के लिए 'रामायण मेला' के आयोजन की प्रेरणा कैसे बन गया?'
वीरेंद्र यादव इसी लेख में आगे लिखते हैं, ' सच यह भी है कि लोहिया इस देश के पहले ऐसे समाजवादी नेता थे जिन्हों ने १९६३ के संसदीय उपचुनाव में जौनपुर से जनसंघ के उम्मीदवार डा. दीनदयाल उपाध्याय के पक्ष में खुला प्रचार कर के जनसंघ को राजनीतिक रुप से अछूत होने के शाप से मुक्त किया था।' फिर उन्हों ने जार्ज, शरद यादव आदि को भी लपेटे में लिया है। विद्यानिवास मिश्र, अशोक वाजपेयी,निर्मल वर्मा आदि तक वीरेंद्र इस आंच को ले जाते हैं। और कहते हैं कि यह लोग सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की हिंदुत्ववादी शक्तियों से नाभिनालबद्ध हैं जैसे डब्लू बी. यीट्स, टी.एस. इलियट, एजरा बाऊंड वाइंढम लेविस व डी.एच.लारेंस आदि यूरोपीय फ़ासीवाद के साथ थे। थर्टीज एंड आफ़्टर के हवाले से वह यह बात कहते हैं। लोहिया को फ़ासिस्ट घोषित करने के लिए वह तमाम उद्धरणों की शरण लेते, हवाले देते,निष्कर्ष देते हुए आखिर में वह इति सिद्धम पर आ जाते हैं। और लिखते हैं कि, 'लोहिया व्यक्ति पूजा के विरोधी थे, क्या लोहिया भक्त व्यक्ति पूजा से मुक्त हो कर लोहिया के बारे में विचार कर सकने की क्षमता खो चुके हैं? यदि हां तो क्या वे हज़रत इकबाल की इस चेतावनी को अनसुनी नहीं कर रहे हैं:
'वतन की फ़िक्र कर नादां
मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मशविरे हैं आसमानों में
तुम्हारी दास्तान भी न होगी दास्तानों में।'
मुसीबत आने वाली है
तेरी बरबादियों के मशविरे हैं आसमानों में
तुम्हारी दास्तान भी न होगी दास्तानों में।'
अरविंद मोहन ने वीरेंद्र यादव के इस लेख की फिर बखिया उधेड़ दी एक दूसरा लेख लिख कर तेरी बरबादियों के मशविरे.... लिख कर। अरविंद मोहन ने लिखा, 'और उम्मीद कुछ थी भी यही कि लोहिया से फ़ासीवाद की शुरुआत गिनाने वाले मुद्राराक्षस या पहल और आलोचना के संपादकों की तरफ़ से कुछ खंडन या पुष्टि आएगी। चूंकि वीरेंद्र यादव ने पूरी मार्क्सवादी धारा के प्रवक्ता वाले अंदाज़ में जवाब दिया है, इस लिए उन के तर्कों और तथ्यों पर राय देनी ज़रुरी है। और इसी बहाने एक बार फिर से हिंदी साहित्य और मार्क्सवादियों की नई पालिटिक्स की चर्चा भी।' अरविंद मोहन ने इसी लेख में लिखा है कि, 'पर वीरेंद्र यादव ने उदाहरण देने में भी अपनी बेइमानी दिखा दी है। नाजी पार्टी की सभा में लड़ाई कर के डा. लोहिया के जाने वाले प्रकरण के ठीक अगला पैरा इसी तरह लड़ झगड़ कर कम्युनिस्ट पार्टी की सभा में जाने का है।पर उस बात को वीरेंद्र जी ने बहुत सुविधा से छुपा कर लक्ष्मीकांत जी को अपने हक में 'इस्तेमाल' कर लिया है।'
यह और ऐसी तमाम बातें जो वीरेंद्र यादव अपने लेख में अपनी 'सुविधा' से रख गए हैं को अरविंद मोहन ने उधेड़ कर रख दिया है। विक्रम राव ने भी अलग लेख इस मुद्दे को ले कर उसी हिंदुस्तान में लिखा। मित्रों की सुविधा के लिए अरविंद मोहन का वह मूल लेख, वीरेंद्र यादव का प्रतिवाद और फिर उस पर अरविंद मोहन का प्रतिवाद, तीनों ही की कटिंग पढ़ने के लिए साथ में यहां प्रस्तुत हैं। मित्र लोग खुद जान समझ लें कि कौन कितने पानी में है।
हां, यह ज़िक्र ज़रुर ज़रुरी है कि बाद के दिनों में मुद्राराक्षस ने तो अखबारों में लेख लिख-लिख कर वामपंथियों को तानाशाह बताना शुरु कर दिया। और वीरेंद्र यादव चुप रहे। बहुत बाद में जब मुद्राराक्षस ने प्रेमचंद को दलित विरोधी होने का फ़तवा देने का अतिरेक कर दिया तो वीरेंद्र यादव ने ज़रुर एक लेख लिख कर मुद्रा की कुतर्क में डूबी कई बातों का कड़ा प्रतिवाद किया। उस लेख को लोगों ने मुद्राराक्षस के व्यक्तित्व को धूमिल करने वाला भी करार दिया। जो कि था नहीं। जो भी हो अब तो मुद्राराक्षस दलित चिंतक के रुप में स्थापित हो कर अपनी ही तमाम पुरानी स्थापनाओं को विस्थापित करने के लिए जाने जाते हैं। लोहिया को उन के द्वारा फ़ासिस्ट कहना भी उसी में से एक है। जिन अमृतलाल नागर से वह कभी डिक्टेशन लेते-लेते लेखक बन गए उन को भी अब वह तृतीय श्रेणी का लेखक बता ही रहे हैं। यह और ऐसी तमाम उलट्बासियों के लिए अब मुद्राराक्षस लोगों में मशहूर हैं।
तो देखिए न कि अपने वीरेंद्र यादव भी कितना बदल गए हैं। हिंदी संस्थान के पुरस्कार समारोह के बाद एक अखबार को दिए गए बयान में अशोक चक्रधर ने कहा भी था कि उम्र के साथ-साथ विचारधारा भी बदल जाती है। तो जिन लोहिया को वीरेंद्र यादव कभी फ़ासिस्ट कहते नहीं थकते थे, अब उन्हीं लोहियावादियों के हाथों हिंदी संस्थान का दो लाख रुपए का साहित्य भूषण पुरस्कार न सिर्फ़ मुसकुरा कर ग्रहण कर लेते हैं बल्कि उन तमाम लोगों के साथ मंच भी शेयर कर लेते हैं। उन के साथ खड़े हो कर सामूहिक फ़ोटो भी खिंचवाते हैं। मुख्यमंत्र्री के घर सब के साथ डिनर भी लेते हैं इसी उपलक्ष्य में। कितना तो बदल गए हैं हमारे अग्रज वीरेंद्र यादव। शायद अब वह वाले कट्टर वामपंथी नहीं रहे। अरविंद मोहन जहां भी कहीं हों इसे फ़ौरन से पेश्तर दर्ज कर लें। कि यह भी एक दर्द है। मीठा-मीठा। वैसे इस मिले-जुले समय में वीरेंद्र यादव से यह पूछना किसी के लिए सुविधाजनक रहेगा कि क्या कि लोहिया उन की राय में अब भी फ़ासिस्ट हैं? मुझ से तो वह इन दिनों जाने क्यों खफ़ा हैं, नमस्कार करता हूं तो या तो आकाश देखने लगते हैं या फिर मुंह मोड़ लेते हैं। चेहरे पर जो भाव आता है उन के उस से लगता है उन्हों ने मुझे नहीं किसी कीड़े-मकोड़े को देख लिया हो। बड़े भाई हैं, यह हक है उन को।
वैसे तो अरविंद मोहन भी मेरे बहुत पुराने मित्र हैं, जनसत्ता के दिनों के साथी हैं हम, जे.एन.यू. के पढ़े-लिखे हैं,वीरेंद्र यादव की तरह खूब पढाकू भी हैं, उन से ही कह रहा हूं कि वह ही इस बारे में तफ़सील से पूछ लें वीरेंद्र यादव से कि क्या लोहिया अब भी फ़ासिस्ट हैं? हिटलर के अनुयायी और नाजी हैं कि नहीं? पता चल जाए तो बता दीजिएगा हमें भी अरविंद जी। क्या पता?
वीरेंद्र यादव की राय सचमुच बदल गई हो। या कि हम बचपन में एक खेल खेलते थे आइस-पाइस। बहुतेरे लोग खेले होंगे। यह खेल ही ऐसा है जो छुप कर खेला जाता है। इसी लिए कई लोग इसे छुप्पम-छुपाई कहते हैं। हो सकता है वीरेंद्र जी ने बचपन में इस खेल को न खेला हो, अब शौक जाग गया हो। आइस-पाइस खेल है ही ऐसा। छुप कर खेलने का क्या मज़ा होता है, छुप कर ही पीछे से किसी के सर पर टिप मार कर डबलिंग कहने का मज़ा ही कुछ और है, यह हमें आज तक याद है। बतर्ज़ चुपके-चुपके रात-दिन आंसू बहाना याद है। हाय रे वो आइस-पाइस और वो ज़माना। ऐसे ही याद आना था भला? यह हम भी कहां जानते थे?
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Saturday, 12 October 2013
कंवल भारती तो पांच दिन में ही कांग्रेस के कमलापति त्रिपाठी बन गए !
आने के ही साथ जगत में कहलाया ' जानेवाला'
अरे यह क्या? कंवल भारती तो कांग्रेस में अपने पांच दिन की आयु में ही कमलापति त्रिपाठी बन गए। चिट्ठी लिखने लग गए। वह भी फ़ेसबुक पर। आप को याद ही होगा कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तब कमलापति त्रिपाठी को कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष तो बना दिया था पर उन्हें पैदल करने के लिए उन्हों ने अर्जुन सिंह को उपाध्यक्ष बना कर सारे अधिकार उन्हें ही थमा दिए था। सो कमलापति त्रिपाठी ने कांग्रेस में बाकी जीवन राजीव गांधी को चिट्ठी लिखते हुए ही बिताया था। ज़िक्र ज़रुरी है कि कमलापति त्रिपाठी भी लेखक-पत्रकार और चिंतक थे। विद्वता के लिए जाने जाते थे। पत्रकारिता की लंबी पारी खेली थी उन्हों ने और राजनीति की भी। उन्हों ने कई स्मरणीय निबंध लिखे हैं। बरसों आज के संपादक रहे। सक्रिय और प्रतिष्ठित संपादक। लेखन और पत्रकारिता के साथ-साथ सत्ता का शहद भी उन्हों ने खूब चाटा और उपेक्षा का भी। स्वतंत्रता सेनानी थे। नेहरु के साथ राजनीति सीखी थी। इंदिरा गांधी के विश्वस्त थे। मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री की लंबी पारी खेली थी। कंवल भारती भी दलित चिंतक हैं और उन के कई लेख चर्चित हैं। कांशीराम के दो चेहरे किताब उन्हों ने तब लिखी थी और दलित होने के बावजूद लिखी थी जब कांशीराम का सूर्य भारतीय राजनीति में अंगड़ाई ले रहा था। वह आसान नहीं था। धारा से उलटी तैराकी थी यह कंवल भारती की। जो कोई साहसी लेखक ही कर सकता था।खैर आज उन्हों ने फ़ेसबुक पर राहुल गांधी को एक चिट्ठी लिखी है और कांग्रेस द्वारा दलितों को निरंतर धकियाने का रोना रोया है। ढेर सारे सवाल उठा दिए हैं। मायावती को भी लताड़ा है। अपनी लंबी चिट्ठी में कंवल भारती लिखते हैं, और कि ठीक ही लिखते हैं, 'यदि सामाजिक आन्दोलनों से निकली हुई कोई बहुजन-हित की पार्टी लाखों-हजारों की बात तो दूर, एक दर्जन दलित नेता भी पैदा नहीं कर सके, तो इसका यही कारण हो सकता है कि अब सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन उसके सरोकारों में नहीं रह गये हैं. यह दलित आन्दोलन के लिए अवश्य ही चिंताजनक स्थिति है. लेकिन मैं आपके समक्ष यहाँ यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि दलित आन्दोलन और दलित-समस्या को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कोई गम्भीर चिंता नहीं देखी जाती है. सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों से वह भी उतनी ही दूर है, जितना कि बहुजन समाज
पार्टी दूर है. कांग्रेस ने कहाँ लाखों दलित नेता पैदा किये? उसने कहाँ रेडिकल दलित नेतृत्व उभारा? अगर कांग्रेस ने ज़मीन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि ली होती, तो मायावती को ज़मीन कहाँ मिल पाती? तब क्या कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से उखड़ती? मान्यवर, नेतृत्व दो प्रकार का होता है— एक रेडिकल और दूसरा स्वतन्त्र, जो व्यक्तिवादी और अवसरवादी हो सकता है. इस दूसरे नेतृत्व से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन कांग्रेस ने इसी दूसरे दलित नेतृत्व से संबंध ज्यादा बनाये. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस में यह नेतृत्व स्वामिभक्ति के साथ हमेशा ‘यस मैन’ की भूमिका में रहा और दलित सवालों के प्रति अपनी आँखें मूंदे रहा. इसने अत्याचार, दमन और शोषण के मुद्दों पर न कांग्रेस के भीतर आवाज़ उठायी और न बाहर.'
इतना ही नहीं वह तो लिख रहे हैं कि, 'हालाँकि कांग्रेस में मेरी विधिवत ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पर यह हो भी सकती है और नहीं भी, यह इस गारन्टी पर निर्भर करता है कि दलित नेतृत्व पर कांग्रेस का वर्तमान रुख अपने इतिहास को दोहरायेगा या उसे ख़ारिज करेगा?'
गरज यह कि मुझे तो बच्चन जी की मधुशाला की एक रुबाई याद आ गई है :
छोटे- से जीवन में कितना प्यार करूँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया ' जानेवाला'।
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन- मधुशाला।
अब कंवल भारती की इस चिट्ठी की गंध, इस की इबारत यह बताती मिलती है कि कंवल भारती विधिवत कांग्रेस में गए नहीं और उन की घुटन उफान पर आ गई है। विदा लेने की तैयारी हो गई है। तो क्या इसे समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच बढ़ती समझ का भी उपज नहीं मान लिया जाना चाहिए? या कि इस चिट्ठी को कंवल भारती की हड़बड़ाहट के रुप में दर्ज कर मान लिया जाना चाहिए कि वह लेखकीय राजनीति और उखाड़-पछाड़ में चाहे जितने पारंगत हों, दलित चेतना के नाम पर जो भी लिख-पढ़ लें पर यहां राजनीति के चक्रव्यूह में वह अभिमन्यु की गति को प्राप्त हो गए हैं। विश्वनाथ प्रताप सिंह की एक कविता याद आ गई है जो उन्हों ने जनमोर्चा के दिनों में लिखी थी। शीर्षक था लिफ़ाफ़ा। आप भी गौर करें और दर्ज करें कि क्या कंवल भारती भी कहीं लिफ़ाफ़ा तो नहीं बन गए? आज़म और कांग्रेस के बीच के?
पैगाम उन का
पता तुम्हारा
बीच में फाड़ा मैं ही जाऊंगा।
इस लिए भी कि राजनीति में एक शब्द होता है समझौता, जो शायद सब के वश का होता नहीं। भारत भूषण के एक गीत में जो कहें कि, 'भीतर-भीतर घुटना/ बाहर खिल-खिल करना।' यह कला राजनीति का अनिवार्य तत्व है। यह भी कि राजनीति क्रांति नहीं, समाज सेवा नहीं, मिशन नहीं, अब एक व्यवसाय है। कंवल भारती को यही समझना अभी शेष है। अब से भी जो वह समझ लेंगे तो चल जाएंगे, बच जाएंगे। नहीं कमलापति मार्ग पर तो वह आ ही गए हैं। दूसरे एक तल्ख सच भी उन्हें जान लेना चाहिए, वह जानते ही होंगे कि समूची भारतीय राजनीति आज की तारीख में कारपोरेट सेक्टर की रखैल है। सारी की सारी पार्टियां। सिर्फ़ वामपंथी पार्टिया ही एक हद तक इस से बची हुई हैं। पूरी तरह अब वह भी नहीं। तो कंवल भारती को यह भी जान ही लेना चाहिए कि वह जिस भी किसी राजनीतिक पार्टी में रहेंगे कारपोरेट की रखैल या बांदी बन कर ही रहेंगे। क्रांतिवीर बन कर तो कतई नहीं।
बहरहाल यह अंतहीन बहस है। और निर्मम सच। कोई स्वीकार कर लेता है, कोई आंख मूंद लेता है। पर कालीन के नीचे का सच तो यही है। मुकेश अंबानी हवा में तो कहते नहीं कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही हमारी दुकानें हैं। और मुलायम वगैरह तो अंबानियों की ज़ेब में रुमाल की तरह रहते हैं जिन से वह जब-तब नाक आदि पोंछ लेते हैं। कुछ और काम भी ले लेते हैं। फ़ेेहरिस्त राजनीति और कारपोरेट की अनंत है।
अभी तो तुरंत और तुरंत राजीव गांधी को संबोधित कंवल भारती की पूरी चिट्ठी पर गौर कीजिए । और गाना गाइए कि, 'तसवीर बनाता हूं, तदवीर नहीं बनती !'
राहुल गांधी के नाम एक खुला पत्र
सम्माननीय राहुल जी,
सादर नमस्कार, जय भीम
निवेदन करना है कि मेरा नाम कँवल भारती है और मैं एक आंबेडकरवादी और समाजवादी विमर्श का लेखक हूँ. मुझे हिंदी दैनिक अख़बार “अमर उजाला” के 10 अक्टूबर के अंक के जरिये पता चला कि आपने अपने एक कार्यक्रम में संभवत: अलीगढ में कहा था कि ‘यदि आप दलित आन्दोलन को आगे ले जाना चाहते हैं, तो इसके लिए एक या दो दलित नेता काफी नहीं हैं, (बल्कि) लाखों दलित नेताओं की जरूरत पड़ेगी. मायावती ने दलित आन्दोलन पर कब्जा कर लिया है और उन्होंने अपने अलावा किसी अन्य दलित नेता को उभरने नहीं दिया है.’
निश्चित रूप से आपका बयान स्वागतयोग्य है. इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि मायावती ने देश में क्या, उत्तर प्रदेश में भी किसी दलित नेता को उभरने नहीं दिया, जो अपनी क्षमता और योग्यता से उभरे भी, तो उन्होंने उनको भी पार्टी से निकाल कर खत्म कर दिया. यह एक ऐसी पार्टी की वास्तविकता है, जिसका जन्म कांशीराम के सामाजिक आन्दोलनों से हुआ है. यदि सामाजिक आन्दोलनों से निकली हुई कोई बहुजन-हित की पार्टी लाखों-हजारों की बात तो दूर, एक दर्जन दलित नेता भी पैदा नहीं कर सके, तो इसका यही कारण हो सकता है कि अब सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलन उसके सरोकारों में नहीं रह गये हैं. यह दलित आन्दोलन के लिए अवश्य ही चिंताजनक स्थिति है.
लेकिन मैं आपके समक्ष यहाँ यह प्रश्न रखना चाहता हूँ कि दलित आन्दोलन और दलित-समस्या को लेकर कांग्रेस के भीतर भी कोई गम्भीर चिंता नहीं देखी जाती है. सामाजिक और लोकतान्त्रिक आन्दोलनों से वह भी उतनी ही दूर है, जितना कि बहुजन समाज पार्टी दूर है. कांग्रेस ने कहाँ लाखों दलित नेता पैदा किये? उसने कहाँ रेडिकल दलित नेतृत्व उभारा? अगर कांग्रेस ने ज़मीन से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ जुड़कर दलित आन्दोलन को आगे बढ़ाने में रूचि ली होती, तो मायावती को ज़मीन कहाँ मिल पाती? तब क्या कांग्रेस उत्तरप्रदेश में सत्ता से उखड़ती?
मान्यवर, नेतृत्व दो प्रकार का होता है— एक रेडिकल और दूसरा स्वतन्त्र, जो व्यक्तिवादी और अवसरवादी हो सकता है. इस दूसरे नेतृत्व से बहुत ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती. लेकिन कांग्रेस ने इसी दूसरे दलित नेतृत्व से संबंध ज्यादा बनाये. अपने स्वार्थ के लिए कांग्रेस में यह नेतृत्व स्वामिभक्ति के साथ हमेशा ‘यस मैन’ की भूमिका में रहा और दलित सवालों के प्रति अपनी आँखें मूंदे रहा.इसने अत्याचार, दमन और शोषण के मुद्दों पर न कांग्रेस के भीतर आवाज़ उठायी और न बाहर.
किन्तु, रेडिकल नेतृत्व समाज में परिवर्तन के लिए काम करता है. उसकी ज़मीन सामाजिक आन्दोलनों की ज़मीन होती है. वह अत्याचार, दमन और शोषण के खिलाफ आवाज उठाता है और जनपक्षधरता की राजनीति करता है. मान्यवर, मुझे कहने दीजिये कि ऐसे रेडिकल दलित नेतृत्व को कांग्रेस ने कभी महत्व नहीं दिया. पूंजीवादी राजनैतिक सत्ताएं ऐसी रेडिकल शक्तियों से भयभीत रहती हैं, और कांग्रेस भी. आंबेडकरवादी आन्दोलनों के ऐसे बहुत से रेडिकल दलित नेताओं को कांग्रेस ने अपने भीतर शामिल किया. लेकिन अफ़सोस ! उसने उनका विकास नहीं किया, न उनके नेतृत्व का लाभ उसने उठाया, वरन उस नेतृत्व को खत्म करने की रणनीति को अंजाम दिया. बीपी मौर्य जैसे कितने ही दलित नेता कांग्रेस की इस रणनीति का शिकार होकर खत्म हो गये, रिपब्लिकन पार्टी (RPI) का सारा रेडिकल नेतृत्व कांग्रेस ने ही खत्म किया, जिसके ताज़ा शिकार रामदास अठावले हुए, जिन्हें अंततः अपने वजूद को बचने के लिए शिव सेना की शरण में जाना पड़ा. क्यों? क्या इस प्रश्न पर आप विचार करना चाहेंगे?
मान्यवर, यह प्रश्न मैं आपके समक्ष इसलिए रख रहा हूँ कि कांग्रेस में आप एक स्वतन्त्र विमर्शकार के रूप में जाने जाते हैं. अनेक मुद्दों पर आपने अपनी पार्टी के विरुद्ध जाकर अपनी राय व्यक्त की है. और अभी हाल में दागी मंत्रियों को बचाने के लिए कांग्रेस द्वारा लाया गया अध्यादेश आपके ही जोरदार हस्तक्षेप से कानून नहीं बन सका. मान्यवर, दलितों में लाखों दलित नेता मौजूद हैं, जो समाज में परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं. वे भारत की राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप करना चाहते हैं. पर कांग्रेस में दलित नेतृत्व के दमन के पुराने इतिहास को देखते हुए वे कांग्रेस को अपने शत्रु के रूप में देखते हैं. क्या आप इस स्थिति को बदलने की कोशिश करेंगे? क्या कांग्रेस से जुड़ने वाले रेडिकल दलित नेतृत्व को आप यह भरोसा दिला सकते हैं कि वह अपनी सामाजिक और लोकतान्त्रिक ज़मीन के साथ आपकी पार्टी में अन्त तक चल सकेगा?
मान्यवर, मैं यह कहने का साहस इसलिए कर रहा हूँ कि जिस दिन आप रामपुर आये थे, उससे एक दिन पहले अर्थात 8 अक्टूबर को केन्द्रीय मानव संसाधन राज्यमंत्री माननीय जितेन्द्र प्रसाद जी ने रामपुर में मुझे कांग्रेस से जोड़ा था, या कहिये मुझे कांग्रेस में शामिल किया था. हालाँकि कांग्रेस में मेरी विधिवत ज्वाइनिंग नहीं हुई है, पर यह हो भी सकती है और नहीं भी, यह इस गारन्टी पर निर्भर करता है कि दलित नेतृत्व पर कांग्रेस का वर्तमान रुख अपने इतिहास को दोहरायेगा या उसे ख़ारिज करेगा?
आपके प्रति ससम्मान.
आपका
कँवल भारती
12-10-2013
ढाई नहीं, तीन आखर की कविताएं
अबोधता और निश्छलता की मिसरी घोलती अग्निवेश झा की चार कविताएं
जैसे कोई चिंगारी सी है अग्निवेश झा की कविताओं में। एक बरसती आग सी है अग्निवेश की कविताओं में। अभी उम्र जैसे ज़्यादा नहीं है अग्निवेश की, पचीस साल के हैं वह, वैसे ही उन के पास कविताएं भी ज़्यादा नहीं हैं। लेकिन ललक और जोश बहुत ज़्यादा है। जैसे उन्हों ने अपना बालपन और कैशोर्य अभी पार किया है ठीक वैसे ही उन की कविताओं में भी अभी यह उछाह शेष है। उम्र की यह उछाल भी उन की कविताओं में दर्ज है। अनकही। वह जब अपनी कविताएं पढ़ते हैं तो लगता है जैसे कोई चूल्हा धधक रहा हो। लकड़ी वाला चूल्हा। और मन जैसे किसी बटुली में रखे अदहन सा खौल रहा हो।
सीतामढ़ी, बिहार के रहने वाले अग्निवेश के पिता चिकित्सक हैं । लेकिन अग्निवेश इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद इन दिनों दिल्ली में रह रहे हैं। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के मद्देनज़र। वह अकसर मेरा ब्लाग सरोकारनामा पढ़ते रहते हैं। और फिर मुझे फ़ोन भी करते रहते हैं। अकसर कहते रहते थे कि कभी दिल्ली आइए तो बताइएगा, मिलूंगा। बीते महीने मैं दिल्ली के रास्ते में था तो उन्हों ने फिर फ़ोन किया। और पूछा, सर्वदा की तरह कि कब आ रहे हैं? मैं ने बताया उन्हें कि मैं दिल्ली के रास्ते में ही हूं। वह चहक पड़े। पूछने लगे कि कब मिलूं, कहां ठहरेंगे आदि-आदि। मैं ने उन्हें बताया कि दो दिन तक तो बिलकुल समय नहीं है। पर तीसरे दिन का उन्हों ने शाम का समय मांग लिया। वह द्वारिका में अपनी बड़ी बहन के साथ रहते हैं। मैं नोएडा में ठहरा था। वह तय समय के मुताबिक मेरे ठहरने की जगह आ गए। लेकिन उस समय मैं वहां था नहीं। अपने पत्रकार मित्र गिरीश मिश्रा जी के घर पर था। उन्हें देखने गया था। दुर्भाग्य से वह लकवा के शिकार हो गए हैं। अग्निवेश का फ़ोन आया। मैं ने उन्हें बताया कि तीन घंटे तो लगेंगे ही वापसी में। वह मारे उत्साह में बोले, कोई बात नहीं। मैं इंतज़ार करता हूं। खैर जब मैं तीन घंटे से भी ज़्यादा देरी से पहुंचा तो अग्निवेश मिले। बिलकुल अपनी कविताओं की तरह। टटकापन, उत्साह और जोश से भरे हुए। दूर ज़मीन से/ देखते दिवा-स्वप्न/ गूंथते-शब्द बीनते हार,/ मॉल,मार्ट-वाल में/ बाँचते-बेचते/ जिस्म की तरह/गड़ती ज़मीन में/ गट-गट निहारती कविता। बिलकुल अपनी इस कविता के ही अंदाज़ में वह मुझे गट-गट निहारते मिले। गोया वह मेरी प्रेमिका हों। गोया वह मेरी अम्मा हों। वह टुक-टुक ऐसे देख रहे थे गोया कोई अबोध शिशु हों। उन के देखने की जो भंगिमा थी वह निरंतर कई-कई शेड्स में थीं। वह भाऊकता में इतने डूबे हुए थे कि सब कुछ एक साथ जान लेना चाहते थे किसी एक्सरे मशीन की तरह, कि किसी स्कैनर की तरह, कि सिटी स्कैन की तरह समझना मुश्किल था। मैं ने उन से कहा कि कुछ बोलेंगे भी। वह सकुचाए और फिर कुरेदने पर बोलने लगे। अब वह सब कुछ मुझे बता देना चाहते थे। किसी हरहराती नदी की तरह वह बतियाते जा रहे थे। फिर अचानक चुप हो गए। मैं ने कहा कि अपनी कुछ कविताएं सुनाइए। वह अपने बैग से एक कापी निकाल कर अपनी कविताएं सुनाने लगे। इस तरह का काव्य-पाठ सुनना मेरे लिए नया था, बिलकुल नया। भाऊकता में कविताएं तो सनी ही थीं, उन के सुनाने में भी नदी का वेग था। वह ताबड़तोड़ कविता सुना रहे थे। अपने बिहारी उच्चरण में ओतप्रेत! अचानक लगा कि वह मुझे कविता नहीं सुना रहे हों, मुझ पर चढ़ाई कर रहे हों, अपना सारा गुस्सा मुझ पर न्योछावर कर देना चाह रहे हों, 'बेचैन रात भर/ लड़ता भिड़ता शब्दों से/ पहुँच जाता नंदीग्राम , अंधड़ में चीखता चिल्लाता जैसे शापित कोई दशरथ ।' वह जैसे जोड़ रहे हों, 'सन्नाटे को गूंजता/ कहीं दूर दांतेवा्ड़ा-बस्तर/ जैसे डाल दिया हो ,/ दोनों कान में ताज़ा/ पूरे बत्तीस रुपए का पिघला गर्म लोहा ।' अग्निवेश जैसे भीतर ही भीतर छटपटा रहे थे और कविता पढ़ रहे थे ऐसे जैसे किसी गुफा से कोई सोता फूटना चाह रहा हो। उसी अकुलाहट में, उसी छटपटाहट में वह जैसे अफना रहे थे, 'क्षुधा से आकुल-व्याकुल/ मैं भोर तक दौड़ता ,/ जैसे पटकते पालो ढले शाम लौटे/ हरवाही से बैल होरी का ।/ चिढ़ा जाता मुँह ,/ कई शब्दों का टक्कर ,/ जैसे सूखी नदी में/ देता मूत कोई दोगला अजित पवार ।' उन की आंखें जैसे फैल जाती हैं, मन ग्लानि से भर जाता है, 'शर्म की बात है ,मै लिखता हूं/ कविता जैसा कुछ/ हाँ जैसे खुदा / देता घुसेड़ आदिम के साथ/ पेट जैसा कुछ ।'
मैं हिल गया हूं यह सुन कर। अग्निवेश कविता पढ़ते जा रहे हैं, ऐसे जैसे झपट कर मुझ से कुछ छीन लेना चाहते हों। उन की कविताओं से ज़्यादा ताप उन के काव्य-पाठ में हैं। आप पढ़ेंगे जब अग्निवेश की कविताएं तो खुद यह बात जान पाएंगे। अग्निवेश की कविताएं असल में एक शिशु की कविताएं हैं। उन की कविताओं में शास्त्रीयता या बिेंब या प्रतीक आदि ढूंढना नादानी ही है। लेकिन कविता का स्वाद और नदी का बहाव उस के ताप के साथ अगर किसी को किसी कविता में ढूंढनी हो तो अग्निवेश की कविता में हेर सकता है। उन की इन कविताओं में अबोधता और निश्छलता की मिसरी भी है। जब रात हो गई तो मैं ने घड़ी देखी और उन से कहा कि, 'आप को द्वारिका जाना है, दूर है, अब आप चलिए। वह बोले, 'थोड़ी देर बाद। अभी आप के साथ और बैठना चाहता हूं।' फिर वह अपने घर परिवार के बारे में भी बताने लगे। बताने लगे कि कैसे परीक्षाओं की तैयारी के साथ वह पढ़ने और लिखने यानी साहित्य में भी हाथ-पांव मारते रहते हैं। मैं ने उन्हें समझाया कि, 'अभी वह अपनी तैयारी में ही सारा समय लगाएं। यह सब तो बाद में भी संभव हो सकता है। नौकरी ठीक रहेगी तो यह सब भी ठीक रहेगा। नहीं जो समय आ गया है उस में बिना अच्छी नौकरी के कुछ नहीं संभव है।' वह बड़ी लापरवाही से बोले, 'यह तो हो ही जाएगा, पर इस के बिना मैं नहीं रह सकता।' मैं भी जब युवा था तो ऐसे ही कुछ सोचता था। लेकिन तब की गलती अब समझ में आती है। सो मैं ने जब उन्हें और समझाने की कोशिश की तो वह बोले, 'मैं ने पढ़ा है आप का हजारी प्रसाद द्विवेदी वाला संस्मरण भी। जैसे आप उन से मिलने गए थे, उसी भाव में मैं भी आप से मिलने आया हूं और कि जैसे उन्हों ने आप को समझाया था, आप भी वैसे ही समझा रहे हैं, मुझे तो बहुत अच्छा लग रहा है।' मैं ने कहा भी कि, 'आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से मेरी तुलना नहीं कीजिए। वह बहुत बड़े आदमी थे, मैं बहुत साधारण आदमी हूं। वह आचार्य थे, मैं कुछ भी नहीं।' वह ज़रा चुप रहे फिर मेरी बात मान गए। फिर वह बताने लगे कि मैं ने नेट पर जितना भी कुछ आप का है, सब का सब, एक-एक लाइन पढ़ा है। आदि-आदि। और भाऊकता की नदी में बहते-बहाते रहे। फिर जब मैं ने घड़ी दुबारा देखी तो वह बोले, 'ठीक है, आप परेशान मत होइए मैं चल रहा हूं।' मैं ने उन्हें कहा कि घर पहुंच कर मुझे फ़ोन कर के बताएं ज़रुर कि वह घर पहुंच गए हैं।' घर पहुंच कर उन्हों ने वैसा किया भी। लेकिन जब चलने लगे तो मेरे पैर छूने लगे। जैसे आने पर भी छुआ था। फिर मेरे गले लग गए। ऐसे जैसे बेटा पिता के सीने से लिपट रहा हो। फिर वह चले भी तो अपनी कविता ही की तरह : 'याद है भादो / बांस-खेत/ उफनते पोखर / पांव और कादो/ बांचते पोथी-पन्ना / पात-फूल नोचते/लौटती बेटियाँ गॉव की ।' पात-फूल नोचते जाते हुए उन्हें मैं देखता ही रह गया। उस रात सोते समय भी अग्निवेश की कविताएं मेरे भीतर गूंज रही थीं : 'मै फिर मिलूंगा/ तुम्हारे बिछड़ने के अलावा/ मेरी शर्तों पे/ बैठेंगे पूरे भर हाथ दूर/प्रेयसी,अबकी सीधा तीन आखऱ पढ़ आऊंगा मैं/ एक बार फिर मिलूंगा मैं !' पढ़िए आप भी सीधा तीन आखर में डूबी अग्निवेश झा की कविताएं। इस लिए भी कि अग्निवेश की कविताएं भले अभी शिशु प्रयास लगें, पर संभावनाएं उन में असीम हैं, अनंत हैं। उन को कविता का अनंत आकाश और पृथ्वी की सारी दिशाएं गुंजायमान करनी ही हैं। यहां बहुत स्नेह के साथ आप के लिए अग्निवेश की कुछ कविताएं पढ़वा रहा हूं, जिन्हें मैं ने बड़े इसरार के साथ उन से मांगी हैं। क्यों कि उन की कविताओं की चिंगारी में फैलने की बड़ी क्षमता है, उन की कविताओं में भाऊकता भरी आग भी खूब दहकती है, जिस में मन का अदहन भी खूब खौलता मिलता है। आप हैरान हो रहे होंगे कि ढाई आखर तो ठीक है, यह तीन आखर क्या बला है भला? मैं ने भी हैरान हो कर तो नहीं पर एक उत्सुकता में पूछा था अग्निवेश से कि, ' ढाई आखर तो जानता हूं पर यह तीन आखर क्या बला है?' वह जैसे संकोच में पड़ गए। सकुचा कर ही बोले, ' प्रेम तो ढाई आखर है, पर उस के बाद का जो विक्षोभ है ना, वही तीन आखर है !' अब इस के बाद मैं क्या कहता? चुप ही रहा। पर अग्निवेश की कविताएं चुप नहीं हैं, बोलती हुई सी हैं। आंच देती हुई।
तुम शब्द शिल्पी
तुम शब्द शिल्पी
टाँकते
वृत्ताकार शब्द
बैठ शीशमहल में
चकोरमुख से
देखते पार शहर के
ग्राम कृषक-मेघ
अमर-बेल
तुम शब्द शिल्पी,
ठोंकते कील
स्वप्न लोक में
बनाते छंद
आया करते
सदियों से
कागद कारे
तुम शब्द शिल्पी,
हो सकते नहीं
दूर ज़मीन से
देखते दिवा-स्वप्न
गूंथते-शब्द, बीनते हार,
मॉल, मार्ट-वाल में
बाँचते-बेचते
जिस्म की तरह
गड़ती ज़मीन में
गट-गट निहारती कविता
नीर से दूर
नयन शुष्क
जैसे
प्रज्वलित "अग्नि"
तुम शब्द शिल्पी •••••••!
पेट जैसा कुछ !
बेचैन रात भर
लड़ता भिड़ता शब्दों से
पहुँच जाता नंदीग्राम , अंधड़ में
चीखता चिल्लाता जैसे शापित कोई दशरथ |
सन्नाटे को गूंजता
कहीं दूर दांतेवा्ड़ा-बस्तर
जैसे डाल दिया हो ,
दोनों कान में ताजा
पूरे बत्तीस रुपए का
पिघला गर्म लोहा |
क्षुधा से आकुल-व्याकुल
मैं भोर तक दौड़ता ,
जैसे पटकते पालो ढले शाम लौटे
हरवाही से बैल होरी का |
चिढा जाता मुँह ,
कई शब्दो का टक्कर ,
जैसे सूखी नदी में
देता मूत कोई दोगला अजित पवार ।
शर्म की बात है ,मै लिखता हूं
कविता जैसा कुछ
हाँ जैसे खुदा / देता घुसेड़ आदिम के साथ
पेट जैसा कुछ |
मै फिर मिलूंगा
मै फिर मिलूंगा
सूरज के उस पार
समीप हिमगिरी के
तापित न देह होगी,
न होगी देह गंध |
हाँ बादलों की ओट में
दफना दूंगा तब तलक
कोंपले तमाम
जो अनफुटी होगी ,
रख आऊंगा पिछली यादों को
घर के ताख पर ,
गांठ आना तुम भी
जमा कुल झूठ-सच
किसी पुरानी साड़ी के कोर से |
मै फिर मिलूंगा
बाद दोपहर के
जब खत्म हो चुकेगी
मेरी तुम्हारी तमाम देह' अग्नि
मैं फिर मिलूंगा
तुम्हारे बिछड़ने के अलावा
मेरी शर्तों पे
बैठेंगे पूरे भर हाथ दूर
प्रेयसी,अबकी सीधा तीन आखऱ पढ़ आऊंगा मैं
एक बार फिर मिलूंगा मै !
पुरानी स्मृतियां !
पुरानी स्मृतियों से
लौटा हूं / खड़ी होगी
बिछाए अंखियाँ
पगडंडियाँ / क्या ! चुप रहो
जो कोई कविता नहीं
कि खींच दूं / आड़ी-तिरछी पक्तियाँ फिर न पूछना / भूलते क्यों नहीं
पेड़ बेर के / महुईया-खजूर
बौराई मंजरी / दादा की छड़ी
पुरानी पगडंडी |
याद है भादो / बांस-खेत
उफनते पोखर / पांव और कादो
बांचते पोथी-पन्ना / पात-फूल नोचते
लौटती बेटियाँ गॉव की |
उधार की साँसों पे / अभिशप्त आज
पगडंडी
अब छोड भी दी / हमेशा की तरह
इस बार भी तुम्हें / पार गॉव तक
पगडंडी
हाँ वहीं पुरानी पगडंडी |
[ आप को अगर अग्निवेश की कविताएं सचमुच अच्छी लगती हैं तो आप उन्हें चिट्ठी इस पते पर लिख सकते हैं agnivesh.mechanical@gmail.com या फिर उन्हें इस नंबर पर 08010454302 फ़ोन भी कर सकते हैं।]
Thursday, 10 October 2013
कस्बाई परिवेश का प्रभावी उपन्यास
जितेन ठाकुर
सुप्रसिद्घ उपन्यासकार दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ कस्बाई परिवेश में एक मध्यवर्गीय परिवार का जीवंत पोट्रेट है। यह एक परिवार की खुशियों, हताशाओं और बंदिशों का प्रामाणिक दस्तावेज है। संयुक्त परिवार प्रथा की अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रण करता हुआ यह उपन्यास परिवारों के विघटन के कारणों पर बारीक नज़र रखता है। रिश्तों की पल-पल बदलती अहमियत जीवन के राग-रंग और भविष्य के गर्भ में छुपे नियति के निर्णय कैसे किसी व्यक्ति और परिवार को अस्थिर या स्थिर करने में सक्षम हैं - इसकी बानगी इस उपन्यास में देखी जा सकती है।
दरअसल, किस्सागोई के अंदाज में लिखा गया परंपरागत भारतीय परिवेश का यह एक रोचक उपन्यास है। इंनी फितरत की बानगी हो, रीतिरिवाज़ों और परंपराओं की उघड़ती हुई सीवन हो या फिर रिश्तों की दरकती हुई दीवारें- इस उपन्यास में सब इतने सबल और चित्रात्मक रूप से अभिव्यक्ति हुए हैं कि पाठक स्वयं को उसी परिवेश का अंग समझने लगता है। कथानक पर लेखक की गहरी पकड़ का ही परिणाम है कि उपन्यास की कथा-धारा अविरल बहती हुई सी लगती है- बिना किसी व्यवधान के। लगभग आधा उपन्यास निकलने के बाद आरंभ होती है मुनमुन के बांस गांव की मुनमुन बनने की कथा। इससे पहले की कथा और अंतरकथाएं समय और समाज की उस अंर्तधारा से परिचय करवाती हैं जो मुनमुन को इस हालात में ले आती है कि वह कहती है, ‘सोचो अम्मा, जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं, बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’यह एक ऐसे परिवार की कहानी है जहां इक्कीसवीं सदी की रौशनी सिर्फ और सिर्फ परिवार के पुरुष सदस्यों के कब्जे में है। पर तौल कर उड़े हुए परिवार के अधिकारी बेटे-बहन की शादी के नाम पर सिर्फ पैसा खर्च करना ही अपना दायित्व समझते हैं और बहन जिबह हो जाती है। घर में निवाला जुटाने वाली लड़की के परों पर भी कंटीले तारों की लपेट है। जब जिबह कर दी गई मुनमुन अपने टुकड़े समेट कर खड़ी होती है और कहती है ‘टटपूंजिया ही सही है तो मेरी नौकरी़।.......... ऐसे पति के लिए मैं यह नौकरी नहीं छोड़ूंगी। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं- हरगिज नहीं।...... आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाना भी नहीं ला सहूं। माफ कीजिए भइया ऐसा मैं नहीं कर पाऊंगी, जान दे दूंगी पर नौकरी नहीं छोड़ूंगी। यही तो अब मेरा स्वाभिमान है।’ होे सकता है इस संवाद में घर-गांव या समाज के लिए परंराएं टूट जाने का खतरा बन आया हो, या किसी मुंहजोर बिगड़ैल लड़की का अक्स उभर कर रीति-निति की दहलीज लांघने का दुस्साहस करता दिखलाई दे रहा हो, परंतु अपने पैरों पर खड़े होने का अनथक प्रयास कर रही एक स्त्री को रोकना ‘आॅनर किलिंग’ से किसी भी रूप में कम नहीं आंका जा सकता। तभी तो तस्वीर के दूसरे पहलू में जग की रीत
समझाते हुए मां जाया भाई कहता है, ‘देखों मुनमुन, जो औरत अपने पति के आगे नहीं झुकती उसे अंतत: सारी दुनिया के ‘आगे झुकना पड़ता है और बार-बार झुकना पड़ता है।’ पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का इस से, बेहतर उदाहरण और हो भी क्या सकता है? वास्तव में यह हमारे हिप्पोक्रेट समाज की एक ऐसी तदबीर है जिससे आज भी एक बड़ा वर्ग सहमत है। ‘माथा फोड़ लेने भर से तो ललाट चौड़ा नहीं हो जाता’ या फिर ‘अब क्या करें मुनक्का राय अगर लड़के वाले लड़की नहीं मांगते हैं, मैच मांगते हैं, जैसे साड़ी पर ब्लाउज या सूट पर टाई’ जैसे कसे हुए चुटीले वाक्य इस उपन्यास को और भी अधिक रोचक औरेर पठनीय बनाते हैं।
राम किशोर की कथा में जमीन जायदाद के लिए भाइयों में आंखों के सूखते पानी को देखा जा सकता है। कुटिल और संकीर्ण मानवीय सोच का लबादा ओढ़ कर बदलती दुनिया से आज भी मुंह मोड़ कर लोग कैसे जीते हें, यह मुनक्का राय के ससुराल की गाथा में बेहद तीखेपन से उभर कर सामने आया है। टूट चुके या फिर टूटन की दहलीज पर खड़े संयुक्त परिवारों की गाथा का यह उपन्यास एक महाकाव्य है। लोक में प्रचलित संयुक्त परिवारों की आदर्श अवधारणा की कलई खोलने वाला यह उपन्यास इतना सजग, सजीव और समर्थ है कि अनायास ही पाठक को अपने प्रवाह में बहा कर ले जाता है। परिवार का ही एक असफल, ईर्ष्यालू और कुंठित सदस्य कैसे पूरे संयुक्त परिवार के लिए नासूर बन जाता है- गिरधारी राय इसका एक सबल उदाहरण है। अत्यंत तटस्थता के साथ लिखा गया यह उपन्यास, आज लिखे जा रहे उपन्यासों से अपनी एक अलग पहचान रखता है इस के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।
समीक्ष्य पुस्तक:
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए
प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
सुप्रसिद्घ उपन्यासकार दयानंद पांडेय का उपन्यास ‘बांसगांव की मुनमुन’ कस्बाई परिवेश में एक मध्यवर्गीय परिवार का जीवंत पोट्रेट है। यह एक परिवार की खुशियों, हताशाओं और बंदिशों का प्रामाणिक दस्तावेज है। संयुक्त परिवार प्रथा की अच्छाइयों और बुराइयों का चित्रण करता हुआ यह उपन्यास परिवारों के विघटन के कारणों पर बारीक नज़र रखता है। रिश्तों की पल-पल बदलती अहमियत जीवन के राग-रंग और भविष्य के गर्भ में छुपे नियति के निर्णय कैसे किसी व्यक्ति और परिवार को अस्थिर या स्थिर करने में सक्षम हैं - इसकी बानगी इस उपन्यास में देखी जा सकती है।
दरअसल, किस्सागोई के अंदाज में लिखा गया परंपरागत भारतीय परिवेश का यह एक रोचक उपन्यास है। इंनी फितरत की बानगी हो, रीतिरिवाज़ों और परंपराओं की उघड़ती हुई सीवन हो या फिर रिश्तों की दरकती हुई दीवारें- इस उपन्यास में सब इतने सबल और चित्रात्मक रूप से अभिव्यक्ति हुए हैं कि पाठक स्वयं को उसी परिवेश का अंग समझने लगता है। कथानक पर लेखक की गहरी पकड़ का ही परिणाम है कि उपन्यास की कथा-धारा अविरल बहती हुई सी लगती है- बिना किसी व्यवधान के। लगभग आधा उपन्यास निकलने के बाद आरंभ होती है मुनमुन के बांस गांव की मुनमुन बनने की कथा। इससे पहले की कथा और अंतरकथाएं समय और समाज की उस अंर्तधारा से परिचय करवाती हैं जो मुनमुन को इस हालात में ले आती है कि वह कहती है, ‘सोचो अम्मा, जो मैं भइया लोगों की बहन नहीं, बेटी होती तो क्या तब भी ऐसे ही मेरी शादी ये लोग किए होते? ऐसे ही लापरवाही से पेश आए होते?’यह एक ऐसे परिवार की कहानी है जहां इक्कीसवीं सदी की रौशनी सिर्फ और सिर्फ परिवार के पुरुष सदस्यों के कब्जे में है। पर तौल कर उड़े हुए परिवार के अधिकारी बेटे-बहन की शादी के नाम पर सिर्फ पैसा खर्च करना ही अपना दायित्व समझते हैं और बहन जिबह हो जाती है। घर में निवाला जुटाने वाली लड़की के परों पर भी कंटीले तारों की लपेट है। जब जिबह कर दी गई मुनमुन अपने टुकड़े समेट कर खड़ी होती है और कहती है ‘टटपूंजिया ही सही है तो मेरी नौकरी़।.......... ऐसे पति के लिए मैं यह नौकरी नहीं छोड़ूंगी। पति छोड़ दूंगी पर नौकरी नहीं- हरगिज नहीं।...... आप लोग चाहते हैं कि मैं जियूं और अपने पंख काट लूं ताकि अपने खाने के लिए उड़ कर दाना भी नहीं ला सहूं। माफ कीजिए भइया ऐसा मैं नहीं कर पाऊंगी, जान दे दूंगी पर नौकरी नहीं छोड़ूंगी। यही तो अब मेरा स्वाभिमान है।’ होे सकता है इस संवाद में घर-गांव या समाज के लिए परंराएं टूट जाने का खतरा बन आया हो, या किसी मुंहजोर बिगड़ैल लड़की का अक्स उभर कर रीति-निति की दहलीज लांघने का दुस्साहस करता दिखलाई दे रहा हो, परंतु अपने पैरों पर खड़े होने का अनथक प्रयास कर रही एक स्त्री को रोकना ‘आॅनर किलिंग’ से किसी भी रूप में कम नहीं आंका जा सकता। तभी तो तस्वीर के दूसरे पहलू में जग की रीत
समझाते हुए मां जाया भाई कहता है, ‘देखों मुनमुन, जो औरत अपने पति के आगे नहीं झुकती उसे अंतत: सारी दुनिया के ‘आगे झुकना पड़ता है और बार-बार झुकना पड़ता है।’ पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता का इस से, बेहतर उदाहरण और हो भी क्या सकता है? वास्तव में यह हमारे हिप्पोक्रेट समाज की एक ऐसी तदबीर है जिससे आज भी एक बड़ा वर्ग सहमत है। ‘माथा फोड़ लेने भर से तो ललाट चौड़ा नहीं हो जाता’ या फिर ‘अब क्या करें मुनक्का राय अगर लड़के वाले लड़की नहीं मांगते हैं, मैच मांगते हैं, जैसे साड़ी पर ब्लाउज या सूट पर टाई’ जैसे कसे हुए चुटीले वाक्य इस उपन्यास को और भी अधिक रोचक औरेर पठनीय बनाते हैं।
राम किशोर की कथा में जमीन जायदाद के लिए भाइयों में आंखों के सूखते पानी को देखा जा सकता है। कुटिल और संकीर्ण मानवीय सोच का लबादा ओढ़ कर बदलती दुनिया से आज भी मुंह मोड़ कर लोग कैसे जीते हें, यह मुनक्का राय के ससुराल की गाथा में बेहद तीखेपन से उभर कर सामने आया है। टूट चुके या फिर टूटन की दहलीज पर खड़े संयुक्त परिवारों की गाथा का यह उपन्यास एक महाकाव्य है। लोक में प्रचलित संयुक्त परिवारों की आदर्श अवधारणा की कलई खोलने वाला यह उपन्यास इतना सजग, सजीव और समर्थ है कि अनायास ही पाठक को अपने प्रवाह में बहा कर ले जाता है। परिवार का ही एक असफल, ईर्ष्यालू और कुंठित सदस्य कैसे पूरे संयुक्त परिवार के लिए नासूर बन जाता है- गिरधारी राय इसका एक सबल उदाहरण है। अत्यंत तटस्थता के साथ लिखा गया यह उपन्यास, आज लिखे जा रहे उपन्यासों से अपनी एक अलग पहचान रखता है इस के लिए लेखक बधाई के पात्र हैं।
समीक्ष्य पुस्तक:
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए
प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
Wednesday, 9 October 2013
कंवल भारती, कांग्रेस, रामपुर का तानाशाह आज़म खान, कायर और लफ़्फ़ाज़ दोस्तों का दलदल
एक वह दिन थे कि कारंत के लिए अशोक वाजपेयी सारी अफ़सरी भूल कर रात भर थाने में बैठे रहे थे
मतलब कंवल भारती न हों, वामपंथी मित्रों की जागीर हों। गुलाम हों। कि वह जो भी कुछ करें इन से पूछ कर करें। नहीं यह उन्हें पानी भी नहीं देंगे। दिन-रात कोसेंगे मुफ़्त में। अदभुत है यह तो। गरज यह कि कंवल भारती पहले दलित थे, फिर वामपंथी हुए, अब कांग्रेसी हो गए हैं। गनीमत है कि वह भाजपाई नहीं हुए। कई वामपंथी बल्कि चरम वामपंथी तो मौका मिलते ही भाजपाई तक हो गए हैं। वैसे वामपंथी दोस्त उन के कांग्रेसी होने पर ऐसा स्यापा कर रहे हैं गोया वे सपाई या बसपाई हुए होते तो बेहतर होता। वह शायद इस तथ्य को भूल रहे हैं कि दो दशक पहले ही वह कांशीराम के दो चेहरे किताब लिख चुके हैं। तो बसपा में जा नहीं सकते थे। समाजवादी पार्टी की आग में वह जल ही रहे हैं। वामपंथियों की कोई हैसियत नहीं है रामपुर या उत्तर प्रदेश में। और फिर जो वह कांग्रेसी हो ही गए हैं तो खुशी-खुशी नहीं हुए होंगे।
रामपुर में सपा राज के जंगलराज से आज़िज़ हो कर हुए होंगे। ऐसा मुझे लगता है। नहीं वह तो अपने दलित चिंतन में ही खुश थे। लेकिन रामपुर अब ऐसी जगह है जहां कोई सरकारी कर्मचारी भी नहीं रहना चाहता। डाक्टरों तक ने सामूहिक स्थानांतरण मांग लिया है। और वामपंथी मित्रों की हकीकत यह है कि वह ड्राइंगरुमों मे, सेमिनारों में निंदा बयान की आग तो बरसा सकते हैं, एन.जी.ओ. बना कर आइस-पाइस तो खेल सकते हैं पर मौके पर जान देने और विरोध करने की तो छोड़िए, शव यात्रा में भी जाने से कतरा जाते हैं। बीते दिनों अदम गोंडवी की शव को फूल माला तो नसीब हो गई पर लाख कहने पर भी कोई उन के शव के साथ गोंडा नहीं गया। सिर्फ़ एक समाज सेविका गईं थीं। यकीन न हो तो अदम के बेटे या भतीजे से बात कर के देख लीजिए। सब बता देंगे। और फिर कंवल भारती के लिए भी रामपुर कौन गया ? कंवल भारती के लिए सिर्फ़ बयानबाज़ी भर हुई। सरकार को एक ज्ञापन तक देने कोई नहीं गया। सारे सरोकार अखबारी बयान और फ़ेस-बुक पर लफ़्फ़ाज़ी तक ही सीमित रहे। दिल्ली, लखनऊ या किसी राजधानी में रह कर बड़ी-बड़ी बातें कर लेना आसान है। रामपुर जैसी छोटी जगह में किसी जानवर या राक्षस के जबड़े में रहने जैसा हो जाता है अगर किसी सत्ताधारी से, किसी गुंडे से, माफ़िया से पंगा हो जाए। आज़म खां बहुत ईमानदार नेता हैं, इस में कोई शक नहीं लेकिन वह वामपंथियों से भी बड़े तानाशाह हैं। अपने आगे वह सब को चोर समझते हैं। बीमारी की हद तक। मुलायम और अखिलेश जैसों को झुका लेते हैं अपने आगे तो कंवल भारती क्या चीज़ हैं? वह तो आज़म से वैसे ही लड़ रहे हैं जैसे बाघ से कोई बिल्ली लड़ जाए। तो बचाव के लिए कहिए, ढाल कहिए वह कांग्रेस की झाड़ की आड़ में चले गए हैं। ऐसा मुझे लगता है। कंवल भारती से मेरी कोई मित्रता नहीं है, कोई परिचय नहीं है। कभी बातचीत नहीं है। तो भी जो परिदृष्य दिख रहा है, उस के मुताबिक मेरा अनुमान ही भर है यह। और लग रहा है कि कंवल भारती के आगे , पीछे दोनों तरफ़ खाई और कुएं का माहौल था। अब वह खाई में गए हैं कि कुंएं में यह तो वक्त बताएगा। पर यह तो तय हो गया है कि किसी भी एक स्वतंत्रचेता व्यक्ति का सीना तान कर अब जीना मुहाल है। उसे समझौता करना लाजमी हो गया है। कम से कम जीने के लिए।
यहां एक न्यायमूर्ति एस सी श्रीवास्तव की एक बात याद आ गई है। जिन्हें लोग बड़े आदर से एस.सी.एस. कहते थे किसी समय। तीन दशक पुरानी बात है। वह रिटायर हो चुके थे। लखनऊ के इंदिरा नगर में रहते थे। एक सेमिनार में उन से किसी ने पूछा था कि इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित ढंग से कैसे रहा जाए? तो वह बिना लाग-लपेट के बोले थे। और कहा था कि भाई आप की बात तो नहीं जानता पर अपनी बात आप को बता सकता हूं। घर की बाऊंड्री ऊंची बनवाई है। बिजली के विकल्प के लिए जेनरेटर लगवा रखा है, पानी के लिए बोरिंग करवा कर मोटर लगा रखा है। इलाके के गुंडों से फ़ोन कर के रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि रिटायर्ड जस्टिस हूं, हो सके तो मेरा खयाल रखना। जब कोई नया एस.एस.पी या थाने पर नया थानेदार. आता है तो उसे भी फ़ोन कर रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि भाई रिटायर्ड जस्टिस हूं ज़रा हमारा खयाल रखना। मैं तो भाई इसी तरह इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित रहता हूं। सोचिए कि यह तीन दशक पुरानी बात लखनऊ की है।और यह बात भी एस.सी.एस. कह रहे थे जो कानून की सख्ती के लिए अपने समय में मशहूर थे। एक बार तो उन्हों ने एक आदेश न मानने पर उन्नाव के चीफ़ ज़्यूडिशियल मजिस्ट्रेट तक को हथकड़ी लगवा कर हाईकोर्ट में बुलवाया था। और कहा था कि जब आप न्यायाीश हो कर कानून नहीं मानेंगे तो भला और कोई क्यों मानेगा? और वह जस्टिस रिटायर होने के बाद लखनऊ जैसे शहर में कैसे तो अपना रहना बता रहा था।
तो कंवल भारती भी रिटायर हो चुके हैं। रामपुर जैसे शहर में आज़म खां जैसे तानशाह से मोर्चा खोल कर रह रहे हैं। रामपुर के नवाब परिवार से तो ज़्यादा ताकतवर नहीं हैं कंवल भारती। मुलायम और अखिलेश से ज़्यादा ताकतवर तो नहीं हैं कंवल भारती। रामपुर के नवाब परिवार समेत मुलायम अखि्लेश, मुलायम तक जिस आज़म खां के आगे शरणागत हों, हां जयाप्रदा तक। वहां आप एक गरीब लेखक से उम्मीद करें कि वह सीना तन कर मर जाए, अपने बाल-बच्चों को आप की खोखली बयानबाज़ी के बूते। कंवल भारती, आज़म खां की तानाशा्ही से बचने के लिए अगर कांग्रेस की शरण चले ही गए हैं तो कोई अपराध नहीं कर दिया है। उन की यातना को समझें, अपने आप को कोसें और सोचें कि क्या प्रतिरोध ऐसे ही होता है? कि एक लेखक वैचारिक सरणी छोड कर राजनीति के जंगल में छुपने का विकल्प आखिर क्यों चुनता है?
देखिए कि यहीं भड़ास 4 मीडिया चलाने वाले यशवंत सिंह की याद आ गई। मीडिया घरानों की ईंट से ईंट बजाने के लिए वह जाने जाते हैं। पढ़े-लिखे पत्रकारों की लड़ाई अकेले दम पर लड़ते हैं। बिना किसी सुविधा के। कुछ बड़े मीडिया घरानों की साज़िश के चलते उन्हें, और उन के सहयोगी अनिल सिंह को इसी अखिलेश सरकार ने जेल भेज दिया। जिन सुविधाजीवी पत्रकारों की लड़ाई वह भड़ास के मार्फ़त लड़ते आ रहे हैं, सब के सब मूक दर्शक बन गए। यशवंत अपने दम पर और कुछ व्यक्तिगत मित्रों के भावनात्मक संबल पर लड़ कर लंबी जेल काट कर बाहर आए। और 68 दिन जेल में रह कर बाहर आए तो जानेमन जेल उपन्यास भी उन्हों ने लिखा। सारे घटनाक्रम को ले कर। पर तब इसी लखनऊ में मैं ने कई पत्रकारों से मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन देने के लिए चलने को कहा, धरना देने को कहा तो सब ने हाथ जोड़ लिए। क्या तो उन्हें नौकरी करनी थी। बाल-बच्चे पालने थे। जैसे यशवंत सिंह और अनिल सिंह के बाल बच्चे नहीं थे। तो कंवल भारती के भी तो बाल-बच्चे होंगे ही। भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता याद आ रही है:
देखे हैं मैंने बाढ़ों से पड़े पेड़
एक साथ बहते पेड़ों पर सहारा लिए सांप और आदमी
और तब एकाएक चमका है
यह सत्य है कि बेशक सांप और आदमी आफत में एक है
मौत की गोद में सब बच्चे हैं।
तो मित्रो, कंवल भारती की यातना की पड़ताल भी ज़रुरी है, बहुत ज़रुरी। हो सकता है वह निरे अवसरवादी हों, हो सकता है वह निरे कायर हों, हो सकता है यह उन का विचलन भी हो, हो सकता है उन की राजनीति में जाना महत्वाकांक्षा भी रही हो, कुछ भी हो सकता है। लेकिन एक बार उन की स्थितियों पर गौर कर लेने में हर्ज़ क्या है? हो सकता है वह कि वह लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कांग्रेस में रणनीति के तहत गए हों, हो सकता है वह चुनाव भी जीत जाएं। पर वह लड़ किस से रहे हैं, महत्वपूर्ण यह है। सत्ता केंद्र और किसी तानाशाह से लड़ कर किसी छोटे शहर में देख लीजिए, सारा वामपंथ और बौद्धिकता, सारी क्रांति और सारी लफ़्फ़ाज़ी हिंद महासागर में समा जाएगी। यह समय कंवल भारती को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का था, और है। जो हम नहीं दे पाए, नहीं दे पा रहे। सारा ज़ोर और क्षमता अटकलबाज़ी और सुरागरसी में खर्च किए जा रहे हैं। यह बंद होना चाहिए।
एक बहुत मशहूर रंगकर्मी थे ब.व. कारंत। बहुत भले और सरल आदमी। याद है उन की? तब के दिनों वह भारत भवन के रंगमंडल का काम देख रहे थे। लखनऊ की ही एक रंगकर्मी विभा मिश्रा से उन के भावनात्मक संबंध भी किसी से छुपे नहीं थे। किसी बात पर नाराज हो कर एक रात विभा ने अपने घर में खुद आग लगा ली। विभा को बचाने में कारंत खुद भी जल गए। पर पुलिस को उन्हों ने खुद सूचित भी किया। पुलिस ने विभा को अस्पताल भेजा और कारंत को थाने ले आई। यह खबर पाते ही अशोक वाजपेयी थाने आ गए। रात भर कारंत के साथ ही थाने में रहे यह सोच कर कि पुलिस कारंत के साथ कोई दुर्व्यवहार न कर बैठे। कारंत निर्दोष थे यह भी सब जानते थे। पर अशोक वाजपेयी की चिंता अपनी जगह थी। वह एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी का रुतबा भूल कर कारंत की सुरक्षा में रात भर थाने में बैठ सकते थे, क्यों कि वह कारंत के सच्चे दोस्त थे। दूसरे दिन मुंबई से गिरीश कर्नाड आदि दोस्त भी भोपाल पहुंचे। विभा मिश्रा ने जो खुद मौत से लड़ रही थी, आखिर तक कारंत के खिलाफ़ एक शब्द नहीं कहा न पुलिस से, न प्रेस से। जब कि कारंत जी का मीडिया ट्रायल चालू था। खैर कारंत जी के लिए तो अशोक वाजपेयी रात भर थाने में बैठ गए, अपनी अफ़सरी दांव पर लगा कर। गिरीश करनाड जैसे लोग मुंबई का ग्लैमर, बदनामी का खौफ़ भूल कर भोपाल पहुंचे। पर यहां मेरे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि कंवल भारती को उपदेश देने वाले या अन्य ही सही, कौन पहुंचा रामपुर कंवल भारती के लिए। यह ठीक है कि वह एक दिन में ही अदालत से छूट गए। तो भी वैचारिकी का, दोस्ती का कुछ तकाज़ा भी क्या नहीं बनता था?
बनता तो था।
लेकिन नहीं बना और कंवल भारती को कांग्रेस शरणं गच्छामि होना पड़ा। कि आज लोग कंवल भारती के कांग्रेस में जाने पर विधवा विलाप में लग गए गए हैं। कंवल भारती एक जालिम से, एक तानाशाह और ताकतवर से जो जालिम भी है, जो मुख्यमंत्री को भी मुर्गा बना देता है जब मन तब, उस से लड़ रहे हैं, अकेले दम पर लड़ रहे हैं और हम असहमतियों के सूत्र, सिद्धांतों के बीज खोज रहे हैं। कंवल भारती का मनोविज्ञान नापने लगे हैं थर्मामीटर ले कर कि वह कब क्या सोच रहे थे? क्या कर रहे थे, क्या कह रहे थे? भाई वाह ! लेकिन तब गाढ़े के दिनों में कोई रामपुर नहीं गया। कंवल भारती खुद ही लखनऊ-दिल्ली होते रहे। तो आखिर दिल्ली से, लखनऊ से या कहीं और से ही सही रामपुर क्या बहुत दूर था? कि दूरी दिलों में ही थी? वैचारिकी की ज़मीन , दोस्ती की ज़मीन क्या इतनी दलदल भरी हो गई है अब की तारीख में? नहीं, मैं ने पढ़े हैं हिटलर के यातना शिविरों के भी कई विवरण। बार-बार रोंगटे खड़े कर देने वाले। और जाना है कि वैचारिकी, दोस्ती और संबध लोग कैसे तो मौत पर खेल कर, यातना-दर-यातना सहते हुए भी बरसों निभाते रहे थे। निरंतर। जवानी से बुढापा आ गया लेकिन मुंह नहीं खोला। तो क्या आज आज़म खां की तानाशाही अब हिटलर को भी मात कर रही है कि हम सचमुच कायर समय में जी रहे हैं? लफ़्फ़ाज़ी का सर्कस देखते हुए। बशीर बद्र क्या ऐसे समय के लिए ही कहते हैं:
चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।
मतलब कंवल भारती न हों, वामपंथी मित्रों की जागीर हों। गुलाम हों। कि वह जो भी कुछ करें इन से पूछ कर करें। नहीं यह उन्हें पानी भी नहीं देंगे। दिन-रात कोसेंगे मुफ़्त में। अदभुत है यह तो। गरज यह कि कंवल भारती पहले दलित थे, फिर वामपंथी हुए, अब कांग्रेसी हो गए हैं। गनीमत है कि वह भाजपाई नहीं हुए। कई वामपंथी बल्कि चरम वामपंथी तो मौका मिलते ही भाजपाई तक हो गए हैं। वैसे वामपंथी दोस्त उन के कांग्रेसी होने पर ऐसा स्यापा कर रहे हैं गोया वे सपाई या बसपाई हुए होते तो बेहतर होता। वह शायद इस तथ्य को भूल रहे हैं कि दो दशक पहले ही वह कांशीराम के दो चेहरे किताब लिख चुके हैं। तो बसपा में जा नहीं सकते थे। समाजवादी पार्टी की आग में वह जल ही रहे हैं। वामपंथियों की कोई हैसियत नहीं है रामपुर या उत्तर प्रदेश में। और फिर जो वह कांग्रेसी हो ही गए हैं तो खुशी-खुशी नहीं हुए होंगे।
रामपुर में सपा राज के जंगलराज से आज़िज़ हो कर हुए होंगे। ऐसा मुझे लगता है। नहीं वह तो अपने दलित चिंतन में ही खुश थे। लेकिन रामपुर अब ऐसी जगह है जहां कोई सरकारी कर्मचारी भी नहीं रहना चाहता। डाक्टरों तक ने सामूहिक स्थानांतरण मांग लिया है। और वामपंथी मित्रों की हकीकत यह है कि वह ड्राइंगरुमों मे, सेमिनारों में निंदा बयान की आग तो बरसा सकते हैं, एन.जी.ओ. बना कर आइस-पाइस तो खेल सकते हैं पर मौके पर जान देने और विरोध करने की तो छोड़िए, शव यात्रा में भी जाने से कतरा जाते हैं। बीते दिनों अदम गोंडवी की शव को फूल माला तो नसीब हो गई पर लाख कहने पर भी कोई उन के शव के साथ गोंडा नहीं गया। सिर्फ़ एक समाज सेविका गईं थीं। यकीन न हो तो अदम के बेटे या भतीजे से बात कर के देख लीजिए। सब बता देंगे। और फिर कंवल भारती के लिए भी रामपुर कौन गया ? कंवल भारती के लिए सिर्फ़ बयानबाज़ी भर हुई। सरकार को एक ज्ञापन तक देने कोई नहीं गया। सारे सरोकार अखबारी बयान और फ़ेस-बुक पर लफ़्फ़ाज़ी तक ही सीमित रहे। दिल्ली, लखनऊ या किसी राजधानी में रह कर बड़ी-बड़ी बातें कर लेना आसान है। रामपुर जैसी छोटी जगह में किसी जानवर या राक्षस के जबड़े में रहने जैसा हो जाता है अगर किसी सत्ताधारी से, किसी गुंडे से, माफ़िया से पंगा हो जाए। आज़म खां बहुत ईमानदार नेता हैं, इस में कोई शक नहीं लेकिन वह वामपंथियों से भी बड़े तानाशाह हैं। अपने आगे वह सब को चोर समझते हैं। बीमारी की हद तक। मुलायम और अखिलेश जैसों को झुका लेते हैं अपने आगे तो कंवल भारती क्या चीज़ हैं? वह तो आज़म से वैसे ही लड़ रहे हैं जैसे बाघ से कोई बिल्ली लड़ जाए। तो बचाव के लिए कहिए, ढाल कहिए वह कांग्रेस की झाड़ की आड़ में चले गए हैं। ऐसा मुझे लगता है। कंवल भारती से मेरी कोई मित्रता नहीं है, कोई परिचय नहीं है। कभी बातचीत नहीं है। तो भी जो परिदृष्य दिख रहा है, उस के मुताबिक मेरा अनुमान ही भर है यह। और लग रहा है कि कंवल भारती के आगे , पीछे दोनों तरफ़ खाई और कुएं का माहौल था। अब वह खाई में गए हैं कि कुंएं में यह तो वक्त बताएगा। पर यह तो तय हो गया है कि किसी भी एक स्वतंत्रचेता व्यक्ति का सीना तान कर अब जीना मुहाल है। उसे समझौता करना लाजमी हो गया है। कम से कम जीने के लिए।
यहां एक न्यायमूर्ति एस सी श्रीवास्तव की एक बात याद आ गई है। जिन्हें लोग बड़े आदर से एस.सी.एस. कहते थे किसी समय। तीन दशक पुरानी बात है। वह रिटायर हो चुके थे। लखनऊ के इंदिरा नगर में रहते थे। एक सेमिनार में उन से किसी ने पूछा था कि इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित ढंग से कैसे रहा जाए? तो वह बिना लाग-लपेट के बोले थे। और कहा था कि भाई आप की बात तो नहीं जानता पर अपनी बात आप को बता सकता हूं। घर की बाऊंड्री ऊंची बनवाई है। बिजली के विकल्प के लिए जेनरेटर लगवा रखा है, पानी के लिए बोरिंग करवा कर मोटर लगा रखा है। इलाके के गुंडों से फ़ोन कर के रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि रिटायर्ड जस्टिस हूं, हो सके तो मेरा खयाल रखना। जब कोई नया एस.एस.पी या थाने पर नया थानेदार. आता है तो उसे भी फ़ोन कर रिक्वेस्ट कर लेता हूं कि भाई रिटायर्ड जस्टिस हूं ज़रा हमारा खयाल रखना। मैं तो भाई इसी तरह इज़्ज़त-पानी से सुरक्षित रहता हूं। सोचिए कि यह तीन दशक पुरानी बात लखनऊ की है।और यह बात भी एस.सी.एस. कह रहे थे जो कानून की सख्ती के लिए अपने समय में मशहूर थे। एक बार तो उन्हों ने एक आदेश न मानने पर उन्नाव के चीफ़ ज़्यूडिशियल मजिस्ट्रेट तक को हथकड़ी लगवा कर हाईकोर्ट में बुलवाया था। और कहा था कि जब आप न्यायाीश हो कर कानून नहीं मानेंगे तो भला और कोई क्यों मानेगा? और वह जस्टिस रिटायर होने के बाद लखनऊ जैसे शहर में कैसे तो अपना रहना बता रहा था।
तो कंवल भारती भी रिटायर हो चुके हैं। रामपुर जैसे शहर में आज़म खां जैसे तानशाह से मोर्चा खोल कर रह रहे हैं। रामपुर के नवाब परिवार से तो ज़्यादा ताकतवर नहीं हैं कंवल भारती। मुलायम और अखिलेश से ज़्यादा ताकतवर तो नहीं हैं कंवल भारती। रामपुर के नवाब परिवार समेत मुलायम अखि्लेश, मुलायम तक जिस आज़म खां के आगे शरणागत हों, हां जयाप्रदा तक। वहां आप एक गरीब लेखक से उम्मीद करें कि वह सीना तन कर मर जाए, अपने बाल-बच्चों को आप की खोखली बयानबाज़ी के बूते। कंवल भारती, आज़म खां की तानाशा्ही से बचने के लिए अगर कांग्रेस की शरण चले ही गए हैं तो कोई अपराध नहीं कर दिया है। उन की यातना को समझें, अपने आप को कोसें और सोचें कि क्या प्रतिरोध ऐसे ही होता है? कि एक लेखक वैचारिक सरणी छोड कर राजनीति के जंगल में छुपने का विकल्प आखिर क्यों चुनता है?
देखिए कि यहीं भड़ास 4 मीडिया चलाने वाले यशवंत सिंह की याद आ गई। मीडिया घरानों की ईंट से ईंट बजाने के लिए वह जाने जाते हैं। पढ़े-लिखे पत्रकारों की लड़ाई अकेले दम पर लड़ते हैं। बिना किसी सुविधा के। कुछ बड़े मीडिया घरानों की साज़िश के चलते उन्हें, और उन के सहयोगी अनिल सिंह को इसी अखिलेश सरकार ने जेल भेज दिया। जिन सुविधाजीवी पत्रकारों की लड़ाई वह भड़ास के मार्फ़त लड़ते आ रहे हैं, सब के सब मूक दर्शक बन गए। यशवंत अपने दम पर और कुछ व्यक्तिगत मित्रों के भावनात्मक संबल पर लड़ कर लंबी जेल काट कर बाहर आए। और 68 दिन जेल में रह कर बाहर आए तो जानेमन जेल उपन्यास भी उन्हों ने लिखा। सारे घटनाक्रम को ले कर। पर तब इसी लखनऊ में मैं ने कई पत्रकारों से मुख्यमंत्री को एक ज्ञापन देने के लिए चलने को कहा, धरना देने को कहा तो सब ने हाथ जोड़ लिए। क्या तो उन्हें नौकरी करनी थी। बाल-बच्चे पालने थे। जैसे यशवंत सिंह और अनिल सिंह के बाल बच्चे नहीं थे। तो कंवल भारती के भी तो बाल-बच्चे होंगे ही। भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता याद आ रही है:
देखे हैं मैंने बाढ़ों से पड़े पेड़
एक साथ बहते पेड़ों पर सहारा लिए सांप और आदमी
और तब एकाएक चमका है
यह सत्य है कि बेशक सांप और आदमी आफत में एक है
मौत की गोद में सब बच्चे हैं।
तो मित्रो, कंवल भारती की यातना की पड़ताल भी ज़रुरी है, बहुत ज़रुरी। हो सकता है वह निरे अवसरवादी हों, हो सकता है वह निरे कायर हों, हो सकता है यह उन का विचलन भी हो, हो सकता है उन की राजनीति में जाना महत्वाकांक्षा भी रही हो, कुछ भी हो सकता है। लेकिन एक बार उन की स्थितियों पर गौर कर लेने में हर्ज़ क्या है? हो सकता है वह कि वह लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए भी कांग्रेस में रणनीति के तहत गए हों, हो सकता है वह चुनाव भी जीत जाएं। पर वह लड़ किस से रहे हैं, महत्वपूर्ण यह है। सत्ता केंद्र और किसी तानाशाह से लड़ कर किसी छोटे शहर में देख लीजिए, सारा वामपंथ और बौद्धिकता, सारी क्रांति और सारी लफ़्फ़ाज़ी हिंद महासागर में समा जाएगी। यह समय कंवल भारती को नैतिक और भौतिक समर्थन देने का था, और है। जो हम नहीं दे पाए, नहीं दे पा रहे। सारा ज़ोर और क्षमता अटकलबाज़ी और सुरागरसी में खर्च किए जा रहे हैं। यह बंद होना चाहिए।
एक बहुत मशहूर रंगकर्मी थे ब.व. कारंत। बहुत भले और सरल आदमी। याद है उन की? तब के दिनों वह भारत भवन के रंगमंडल का काम देख रहे थे। लखनऊ की ही एक रंगकर्मी विभा मिश्रा से उन के भावनात्मक संबंध भी किसी से छुपे नहीं थे। किसी बात पर नाराज हो कर एक रात विभा ने अपने घर में खुद आग लगा ली। विभा को बचाने में कारंत खुद भी जल गए। पर पुलिस को उन्हों ने खुद सूचित भी किया। पुलिस ने विभा को अस्पताल भेजा और कारंत को थाने ले आई। यह खबर पाते ही अशोक वाजपेयी थाने आ गए। रात भर कारंत के साथ ही थाने में रहे यह सोच कर कि पुलिस कारंत के साथ कोई दुर्व्यवहार न कर बैठे। कारंत निर्दोष थे यह भी सब जानते थे। पर अशोक वाजपेयी की चिंता अपनी जगह थी। वह एक वरिष्ठ आई.ए.एस. अधिकारी का रुतबा भूल कर कारंत की सुरक्षा में रात भर थाने में बैठ सकते थे, क्यों कि वह कारंत के सच्चे दोस्त थे। दूसरे दिन मुंबई से गिरीश कर्नाड आदि दोस्त भी भोपाल पहुंचे। विभा मिश्रा ने जो खुद मौत से लड़ रही थी, आखिर तक कारंत के खिलाफ़ एक शब्द नहीं कहा न पुलिस से, न प्रेस से। जब कि कारंत जी का मीडिया ट्रायल चालू था। खैर कारंत जी के लिए तो अशोक वाजपेयी रात भर थाने में बैठ गए, अपनी अफ़सरी दांव पर लगा कर। गिरीश करनाड जैसे लोग मुंबई का ग्लैमर, बदनामी का खौफ़ भूल कर भोपाल पहुंचे। पर यहां मेरे लिए यह जानना भी दिलचस्प होगा कि कंवल भारती को उपदेश देने वाले या अन्य ही सही, कौन पहुंचा रामपुर कंवल भारती के लिए। यह ठीक है कि वह एक दिन में ही अदालत से छूट गए। तो भी वैचारिकी का, दोस्ती का कुछ तकाज़ा भी क्या नहीं बनता था?
बनता तो था।
लेकिन नहीं बना और कंवल भारती को कांग्रेस शरणं गच्छामि होना पड़ा। कि आज लोग कंवल भारती के कांग्रेस में जाने पर विधवा विलाप में लग गए गए हैं। कंवल भारती एक जालिम से, एक तानाशाह और ताकतवर से जो जालिम भी है, जो मुख्यमंत्री को भी मुर्गा बना देता है जब मन तब, उस से लड़ रहे हैं, अकेले दम पर लड़ रहे हैं और हम असहमतियों के सूत्र, सिद्धांतों के बीज खोज रहे हैं। कंवल भारती का मनोविज्ञान नापने लगे हैं थर्मामीटर ले कर कि वह कब क्या सोच रहे थे? क्या कर रहे थे, क्या कह रहे थे? भाई वाह ! लेकिन तब गाढ़े के दिनों में कोई रामपुर नहीं गया। कंवल भारती खुद ही लखनऊ-दिल्ली होते रहे। तो आखिर दिल्ली से, लखनऊ से या कहीं और से ही सही रामपुर क्या बहुत दूर था? कि दूरी दिलों में ही थी? वैचारिकी की ज़मीन , दोस्ती की ज़मीन क्या इतनी दलदल भरी हो गई है अब की तारीख में? नहीं, मैं ने पढ़े हैं हिटलर के यातना शिविरों के भी कई विवरण। बार-बार रोंगटे खड़े कर देने वाले। और जाना है कि वैचारिकी, दोस्ती और संबध लोग कैसे तो मौत पर खेल कर, यातना-दर-यातना सहते हुए भी बरसों निभाते रहे थे। निरंतर। जवानी से बुढापा आ गया लेकिन मुंह नहीं खोला। तो क्या आज आज़म खां की तानाशाही अब हिटलर को भी मात कर रही है कि हम सचमुच कायर समय में जी रहे हैं? लफ़्फ़ाज़ी का सर्कस देखते हुए। बशीर बद्र क्या ऐसे समय के लिए ही कहते हैं:
चाबुक देखते ही झुक कर सलाम करते हैं
शेर हम भी हैं सर्कस में काम करते हैं।
Thursday, 3 October 2013
आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है, सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है
दयानंद पांडेय
यह सब देख कर मन तो करता है कि एक नया दर्पण फिर से पेश कर दूं?
ज़िस्म की बात नहीं थी उन के, दिल तक जाना था
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।
गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या दूरी
लाख करे कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।
हमने इलाजे ज़ख्म दिल तो ढूंढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख्मों को भरने में वक्त तो लगता है।
अब देखिए कि अकबर-वीरबल का एक प्रसंग भी यहां याद आ गया है। ज़रा गौर कीजिए।
बचपन से सुनता और पढ़ता आया हूं कि कींचड़ में पत्थर फेंकने से बचना चाहिए, क्यों कि कीचड़ के छींटे अपने कपड़ों पर भी आते हैं। आज पुस्तक मेले में एक मित्र यही बात मुझ से कहने लगे। तो मैं ने उन से पूछ ही लिया कि, 'आखिर आप यह बात मुझे क्यों याद दिला रहे हैं? मैं ने कीचड़ में कोई पत्थर फेंक दिया है क्या?' वह बोले, 'लगता तो यही है।' मैं ने उन्हें दुष्यंत कुमार का शेर सुना दिया :
कौन कहता है आकाश में सुराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ।
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो ।
लेकिन मैं ने हंसते हुए उन्हें तुरंत बता दिया कि आकाश में, कीचड़ में या कहीं भी पत्थर फेंकने का मैं आदी नहीं हूं। क्रांतिकारी भी नहीं हूं। मैं तो शांत प्रकृति का आदमी हूं। दाल रोटी के संघर्ष में दिन रात जीने वाला एक साधारण आदमी हूं। हां एक कमज़ोरी ज़रुर है मुझ में। अपने साथ एक आईना रखता हूं। खुद का चेहरा देखने के लिए। और जो कोई बहुत समझदार दिखने की या समझदार के साथ खड़े होने का स्वांग करता है तो वह आईना बड़ी शालीनता से उस के सामने भी रख देता हूं। अब जो आईना देख कर कोई खुश होता है तो मुझे भी खुशी होती है, कोई दुखी होता है तो उसे कंधा भी दे देता हूं। सुस्ताने के लिए। और फिर उसे एक बिन मांगी सलाह भी दे देता हूं अंजुम रहबर का एक शेर पढ़ कर :
आईने पर इल्ज़ाम लगाना फ़िज़ूल है
सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है।
सच मान लीजिए, चेहरे पर धूल है।
जो दोस्त सचमुच शरीफ़ और समझदार होते हैं चेहरा साफ कर, हाथ मिला कर, गले मिल कर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन ऐसे दोस्तों की संख्या जंगल के शेरों के अनुपात में भी बहुत कम है। ज़्यादातर मित्र आईने को ही फोड़ने और कुतर्क रचने में लग जाते हैं। उन से भी ज़्यादा उन के चेले-चपाटे हल्ला बोल और फ़र्जी हवा बनाने में लग जाते हैं। अब इन मित्रों को भी फिर बिन मांगी सलाह दे देता हूं कि दोस्त, कितने दर्पण तोड़ोगे? खुद टूट जाओगे, दर्पण नहीं खत्म होंगे। बेहतर है कि अपनी और अपने आका की शकल दुरुस्त कर लो। लेकिन बेकल उत्साही का वो एक शेर है ना कि :
हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं।
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं।
गो कि मैं दर्पण के बरक्स हूं, कीचड़ के नहीं। और कि मित्रो, दर्पण को तोड़ कर देखिए या दर्पण को सोने के फ़्रेम में कैद कर के देखिए यह तो आप के विवेक पर है। लेकिन एक बात तो तय है कि दर्पण झूठ तो हर्गिज़ न बोलेगा। जब भी बोलेगा तो सच ही बोलेगा। वह चाहे टूटा हुआ हो या सोने के फ़्रेम में। हां, अगर आदत बिगड़ी हुई है तो इस बात को, इस सच को तस्लीम करने में वक्त तो लगता ही है। अपने जगजीत सिंह गा भी गए हैं:
प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।
ज़िस्म की बात नहीं थी उन के, दिल तक जाना था
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।
गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हों या दूरी
लाख करे कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।
हमने इलाजे ज़ख्म दिल तो ढूंढ लिया लेकिन
गहरे ज़ख्मों को भरने में वक्त तो लगता है।
और खास कर जो ज़ख्म दर्पण देखने से लगा हो उस में तो और भी मुश्किल होती है। कोई ऐंटी-बायोटिक भी बेअसर होती जाती है। चेले-चपाटों-चमचों का हल्ला-बोल थोड़ा सुकून तो देता है तात्कालिक रुप से। लेकिन अंतत: ज़ख्म और गहरा कर जाता है यह हल्ला-बोल भी। क्यों कि एक बार कैंसर और एड्स का भी इलाज है लेकिन दो चीज़ों का इलाज तो हकीम लुकमान के भी पास नहीं है। एक कुर्सी काटे का, दूजे दर्पण में अपना सच देख कर घायल हो जाने का। और मेरे पास तो मित्रों की इनायत इतनी है कि उन के पत्थरों से घायल टूटे हुए दर्पण भी सच बोलते बैठे रहते हैं। अब दर्पण तो दर्पण ठहरा। करे बिचारा तो क्या करे। शायद दर्पण की यह तासीर देख कर ही यह मुहावरा गढ़ा गया कि साहित्य समाज का दर्पण है। बावजूद इस के दर्पण का सच स्वीकार करने की जगह पत्थरबाज़ी पर उतर आना नादानी तो है ही इस के खतरे बहुत है मित्रों। यकीन न हो तो एक लोक कथा सुनाता हूं, जो बचपन में सुनी थी कभी। भोजपुरी में। यहां उस लोक कथा को हिंदी में सुनाता हूं। आप भी गौर कीजिए :
एक राजा था। [अब किस जाति का था यह मत पूछिए। क्यों कि राजा की कोई जाति नहीं होती। वह तो किसी भी जाति का हो, राजा बनते ही निरंकुश हो जाता है। फ़ासिस्ट हो जाता है। हर सच बात उसे अप्रिय लगने लगती है।] तो उस राजा को भी सच न सुनने की असाध्य बीमारी थी। अप्रिय लगता था हर सच उसे। सो उस ने राज्य के सारे दर्पण भी तुड़वा दिए। मारे डर के प्रजा राजा के खिलाफ़ कुछ कहने से कतरा जाती थी। बल्कि राजा का खौफ़ इतना था कि लोग सच के बारे में सोचते भी नहीं थे। और फिर चेले-चपाटों-चाटुकारों का कहना ही क्या था। अगर राजा कह देता था कि रात है तो मंत्री भी कह देता था कि रात है। फिर सभी एक सुर से कहने लग जाते क्या राजा, क्या मंत्री, क्या प्रजा, कि रात है, रात है ! रात है का कोलाहल पूरे राज्य में फैल जाता। भले ही यह सुबह-सुबह की बात हो ! लेकिन जब सब के सब सुबह-सुबह भी रात-रात करते होते तो एक गौरैया सारा गड़बड़ कर देती और कहने लगती कि सुबह है, सुबह है ! राजा बहुत नाराज होता। ऐसे ही राजा की किसी भी गलत या झूठ बात पर गौरैया निरंतर प्रतिवाद करती, फुदकती फिरती। राजा को बहुत गुस्सा आता। अंतत: राजा ने अपने मंत्री को निर्देश दे कर कुछ बहेलियों को लगवाया कि इस गौरैया को गिरफ़्तार कर मेरे सामने पेश किया जाए। बहेलियों ने गौरैया के लिए जाल बिछाया और पकड़ लिया। अब राजा ने गौरैया को पिंजड़े में कैद करवा दिया। भूखों रखा उसे। अपने चमचों को लगाया कि इस गौरैया का ब्रेन वाश करो। ताकि यह मेरे पक्ष में बोले, मेरी आलोचना न करे। मुझे झूठा न साबित करे। भले सुबह हो लेकिन अगर मैं रात कह रहा हूं तो स्वीकार कर ले कि रात है। चमचों ने अनथक परिश्रम किया। एक चमचे को कबीर बना कर खड़ा किया और सुनवाया कि घट-घट में पंक्षी बोलता ! और कहा कि ठीक इसी तरह तुम भी गाओ कि घट-घट में राजा बोलता ! और जो बोलता, सच ही बोलता ! कुछ अंड-बंड भी कहा। लेकिन गौरैया नकली कबीर के धौंस में नहीं आई, झांसे में भी नहीं आई। नकली कबीर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही डंडी, खुद ही तराजू, खुद ही बैठा तोलता! नकली कबीर फिर कहता, घट-घट में राजा बोलता ! गौरैया कहती, खुद ही माली, खुद ही बगिया, खुद ही कलियां तोड़ता ! नकली कबीर अपनी दाल न गलती देख फिर लंठई पर उतर आया। पर उस की लंठई भी काम न आई। क्यों कि गौरैया जानती थी कबीर तो सच, निर्दोष और मासूम होते हैं। फ़ासिस्ट नहीं, न फ़ासिस्टों की चमचई में अतिरेक करते हैं। वह असली कबीर को जानती थी। आखिर गौरैया थी, घूमती फिरती थी, जग , जहान जानती थी। सो गौरैया नहीं मानी, सच बोलती रही। निरंतर सच बोलती रही। राजा तबाह हो गया इस गौरैया के फेर में और गौरैया के सच से। और अंतत: जब कोई तरकीब काम नहीं आई तो राजा ने गौरैया की हत्या का हुक्म दे दिया। तय दिन-मुकाम के मुताबिक राजा के फ़रमान के मुताबिक गौरैया की हत्या कर दी गई। लेकिन यह देखिए कि गौरैया तो अब भी शांत नहीं हुई। वह फिर भी बोलती रही। राजा ने कहा कि अब गौरैया का मांस पका दो, फिर देखता हूं कैसे बोलती है। गौरैया का मांस पकाया गया। वह फिर भी बोलती रही। राजा का दुख और अफ़सोस बढ़ता जा रहा था। राजा ने कहा कि अब मैं इसे खा जाता हूं। फिर देखता हूं कि कैसे बोलती है। और राजा ने गौरैया का पका मांस खा लिया। लेकिन अब और आफ़त ! गौरैया तो अब राजा के पेट में बैठी-बैठी बोल रही थी। राजा का गुस्सा अब सातवें आसमान पर। चमचों, चेलों-चपाटों को उस ने डपटा और कहा कि तुम लोगों ने गौरैया की ठीक से हत्या नहीं की, ठीक से मारा नहीं। इसी लिए वह लगातार चू-चपड़ कर रही है। अब इस को मैं अपनी तलवार से सबक सिखाता हूं, तब देखना ! अब सुबह हुई। राजा नित्य क्रिया में भी तलवार ले कर बैठा। बल्कि तलवार साध कर बैठा। और ज्यों गौरैया बाहर निकली उस ने तलवार से भरपूर वार किया। गैरैया तो निकल कर फुर्र हो गई। लेकिन राजा की तलवार का भरपूर वार उस की खुद की पिछाड़ी काट गया था। अब गौरैया उड़ती हुई बोली, 'अपने चलत राजा गंड़ियो कटवलैं लोय-लाय !'
तो मित्रो, कहने का कुल मतलब यह है कि सुबह को रात कहने का अभ्यास बंद होना चाहिए। किसी निरंकुश और फ़ासिस्ट राजा की हां में हां मिलाने का अभ्यास खुद के लिए तो खतरनाक है ही, राजा के हित में भी नहीं है। बल्कि राजा के लिए ज़्यादा तकलीफ़देह और नुकसानदेह है। और जो राजा समझदार न हो तो उस के मंत्रियों का कर्तव्य बनता है कि अपने राजा को सही सलाह दें ताकि सही विमर्श हो सके। और कि उस की पिछाड़ी भी सही सलामत रहे।
एक बार बीरबल ने अकबर को महाभारत पढ़ने के लिए दिया। अकबर ने पढ़ा और बहुत खुश हुए। दरबार लगाया और बताया कि, 'बीरबल ने मुझे महाभारत पढ़ने के लिए दिया था। मैं ने पढ़ा और मुझे बहुत पसंद आई है महाभारत। अब मैं चाहता हूं कि मुझे केंद्र में रख कर अब मेरे लिए भी एक महाभारत लिखी जाए।' अब दरबार का आलम था। सो सारे दरबारी, 'वाह, वाह ! बहुत सुंदर, बहुत बढ़िया !' में डूब गए। लेकिन इस सारे शोरो-गुल में बीरबल खामोश थे। अकबर हैरान हुआ। उस ने बीरबल से कहा कि, 'बीरबल तुम ने ही मुझे महाभारत दी पढ़ने के लिए और तुम ही खामोश हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम भी कुछ कहो !' बीरबल ने कहा कि, 'बादशाह हुजूर, कुछ कहने के पहले मैं रानी से एक सवाल पूछने की इज़ाज़त चाहता हूं।'
'इज़ाज़त है !' अकबर ने कहा।
'क्या आप अपने पांच पति पसंद करेंगी रानी साहिबा !' बीरबल ने पूछा तो रानी बिगड़ गईं। बोलीं,'यह क्या बेहूदा सवाल है?' अकबर भी बिगड़े, ' बीरबल यह क्या बदतमीजी है ?'
'हुजूर, इसी लिए इज़ाज़त ले कर पूछा था। गुस्ताखी माफ़ हो !' बीरबल ने कहा और चुप हो गए। अकबर होशियार आदमी था। सब समझ गया। समझ गया कि महाभारत की तो बुनियाद ही है द्रौपदी और उस के पांच पति। सो अकबर ने ऐलान कर दिया कि हमारे लिए कभी कोई महाभारत नहीं लिखी जाएगी।
पर दुर्भाग्य है कि हमारे समय के अकबरों में न इतनी सलाहियत है न बीरबलों में इतना नैतिक साहस ! होता तो दर्पण देख कर उसे पत्थर फेंक कर तोड़ने में नहीं लगते। साहिर लुधियानवी का लिखा, रवि के संगीत में आशा भोसले का गाया वह गाना गाते, 'तोरा मन दर्पण कहलाए !' और उस में जोड़ते चलते, 'भले-बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाए !'
पर क्या कीजिएगा मित्र लोग सारी एकजुटता दर्पण तोड़ने में खर्च किए जा रहे हैं। बिचारे ! सवालों से टकराने के बजाय कतरा रहे हैं, तर्कों से बात करने के बजाय दर्पण से टकरा रहे हैं। बात करनी है आम की तो बबूल में फंसने-फंसाने पर उतारु हैं। फ़ेसबुक की भाषा में हा-हा करुं तो कैसा रहे ?
यह सब देख कर मन तो करता है कि एक नया दर्पण फिर से पेश कर दूं?