Friday, 1 June 2012

हिंदी की अस्मिता का पहाड़ा अधूरा छूट गया

दयानंद पांडेय 

पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी आज सुबह उर्दू की शर शय्या पर से उतर गए। सुबह 8.25 पर। पिछले साल जब उर्दू राजभाषा बनाई गई तभी वह उर्दू की शर शय्या पर चढ़ गए थे। लखटकिया पुरस्कार लतियाने पर भी इस शरशय्या से वह नहीं उतर पाए। उतरे तब जब आज प्राण पखेरू उड़ गए। जनता भारत भारती पुरस्कार भी उन्हें भरोसा न दिला सका और वह सोए ही रहे। और आज सो ही गए।

दरअसल वह मर तो तभी गए थे, जब पिछले साल हिंदी दिवस की पूर्व संध्या पर उर्दू को राजभाषा का दर्जा देने का उत्तर प्रदेश सरकार ने ऐलान कर दिया था। तब भी वह अस्वस्थ थे। पर विरोध उन्हों ने किया और पुरज़ोर विरोध। हिंदी संस्थान का लखटकिया पुरस्कार जो उन्हें काफी हीलहुज़्ज़त के बाद दिया गया था और पर्याप्त देर से मिला था। उन्हों ने बिना देर किए उसे लात मार दी थी। पुरस्कार को लात मारी और 96 बरस की उम्र की परवाह नहीं की। विरोध जुलूस निकाल दिया। वह पैदल ठीक से चल नहीं सकते थे। इतना कि लखनऊ में हिंदी संस्थान से जीपीओ तक भी [एक किलोमीटर से भी कम] पैदल नहीं चल सकते थे। पर यथा-संभव वह पैदल भी चले और बाकी कार में। इस चक्कर में उन के कुछ अनुगामियों की बड़ी बुरी दशा मैं ने देखी। जब वह पैदल चलने लगते और जब वह कार में बैठते तो सभी कार में उन के अगल-बगल बैठने की ललक में धकियाने-मुकियाने पर उतर जाते थे और ऐसा एकाधिक बार हुआ। पंडित जी अस्वस्थ थे और बुरी तरह यह उन के अनुगामी भी जानते थे। पर बार-बार धकियाने मुकियाने से बाज़ नहीं आए। कई बार उस गंभीर जुलूस में भी इस कारण हास्य की रचना होती रही। और तब यह समझना कठिन था कि धकियाने-मुकियाने वाले सचमुच चतुर्वेदी जी से इतना प्यार करते हैं और मिठाई पर मक्खी की तरह खिंचे जा रहे हैं या कि वह उन के साथ फ़ोटो खिंचवाने की ललक में उन तक खिंच जा रहे हैं। समझना बड़ा कठिन था, इस लिए भी कि यह चतुर्वेदी जी के साथ भैया जी-भैया जी कह कर जब तक चिपटने वाले अतिरिक्त उत्साही नौजवान नहीं बुर्जुगवार लोग ही थे।

तो यह था पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का व्यक्तित्व। दरअसल वह कृतित्व के लिए कम और व्यक्तित्व के लिए ज़्यादा जाने गए। उन की छिटपुट रचनाओं खास-कर हिंदी प्रसंग की कुछ कविताओं और लेखों को छोड़ दें तो उन का व्यक्तित्व उन के कृतित्व पर हमेशा भारी रहा है। वह हमेशा हिंदी के प्रचारक ही बने रहे। साहित्य सेवा से ज़्यादा उन्हों ने हिंदी सेवा की और कई बार हदें लांघ कर, हदें तोड़ कर वह जय हिंदी करते रहे। पंडित विद्यानिवास मिश्र कहते हैं कि ‘हम उन के हैं’ यह भाव हमें हिंदी के भाव से भरता है। पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी खुद भी कहते थे ‘हम पल्लव हैं। किंतु न हम हीन हैं, न दीन और दयनीय। बिना हमारे वंदनवार असंभव है...।’ तो यह सिर्फ़ वह अपने लिए ही नहीं, हिंदी की अस्मिता के लिए भी कहते थे। पुरुषोत्तम दास टंडन के वह इलाहाबाद में सिर्फ़ पड़ोसी ही नहीं थे। उन के सहयात्री भी थे। जीवन भर वह हिंदी का परचम ही फहराते रहे। 

हिंदी पर वह इतना ज़्यादा मुखर थे कि वह कट्टर हिंदू भी कहे जाते थे और बाद में तो वह बकायदा जनसंघी बता दिए गए। पर उन्हों ने कभी इस के प्रतिवाद की सोची भी नहीं। अलग बात है वह नंद किशोर अवस्थी को कुरान शरीफ के अनुवाद में मदद भी करते रहे। क्यों कि वह चाहते थे कि ‘हिंदी के गुलदस्ते में हर प्रकार के हरेक आकार के और हरेक गंध के फूल होने चाहिए।’ 

तो यह उन का अंतर्विरोध नहीं था कि एक तरफ तो कुरान शरीफ के हिंदी अनुवाद में मदद करें, दूसरी ओर उर्दू के राजभाषा बनाए जाने का विरोध करें। दरअसल इस के पीछे एक सोच थी, एक अंतर्दृष्टि थी। वह कहते भी थे कि मैं उर्दू का विरोधी नहीं हूं, क्यों कि उर्दू भी हिंदी की ही एक शैली है, तो उस का विरोध कैसे कर सकता हूं? 

पर चूंकि उर्दू को राजभाषा बनाना राजनीतिज्ञों की अल्पसंख्यकों का वोट बटोरने का औजार माना गया है, इस लिए विरोध हुआ और भैया जी ने इस की कमान संभाल ली। तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी बड़ी शालीनता से श्रीनारायण चतुर्वेदी से उर्दू राजभाषा विरोध का ज्ञापन लेने के लिए इंतज़ार करते रहे। चतुर्वेदी जी पहुंचे तो उन्हों ने उन की इज़्ज़त आफज़ाई की। खड़े हो कर उन से ज्ञापन लिया। उन की बात भी बड़ी विनम्रता से सुनी। पर मानी नहीं। तो यह राजनीतिज्ञों के ही वश की बात थी कि आप बात सुन लें, सही भी बताएं, पर मानें नहीं और मजबूरी बता जाएं। 

वहीं पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी की जन्मभूमि इटावा है और आज के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी न सिर्फ़ इटावा के हैं, हेलीकॉप्टर ले ले वह बार-बार इटावा जाते ही रहते हैं। पर पिछले साल भर से बीमार पक्षाघात से पीड़ित पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी का देखने क्या, पूछने की भी कभी सुधि नहीं ली उन्हों ने। तो क्या सिर्फ़ इस लिए कि वह उर्दू के राजभाषा बनाए जाने का विरोध करते रहे थे और मुलायम उन का हालचाल लेते तो अल्पसंख्यक उन से कुपित हो जाते? इस लिए तो क्या आज वह अल्पसंख्यक नाराज नहीं होंगे। जब मुलायम औपचारिकतावश ही सही चतुर्वेदी जी के निधन पर शोक व्यक्त करेंगे। 

यह त्रासदी ही है कि मुलायम सरकार के फ़ैसलों में सिर्फ़ एक ही फ़ैसला एकमत से सिर आंखों पर लिया गया और उन की वाहवाही हुई। वह था हिंदी में राजकाज का फ़ैसला और उन के हिंदी अध्यादेश का। पर हिंदी की तूती बजवाने वाले मुलायम हिंदी के प्रखर प्रचारक का हाल सिर्फ़ इस लिए नहीं ले पाए कि अल्पसंख्यक नाराज हो जाएंगे। 

शायद इस लिए भी उन का व्यक्तित्व उन के कृतित्व पर भारी पड़ा कि उन्हों ने सालों साल नौकरियां की। पर चाहे कान्यकुब्ज कालेज की प्रिंसपली हो, विलायती पढ़ाई, शिक्षा विभाग या आकाशवाणी की अफसरी उन के हिंदी प्रचारकों के सामने सभी बौने ही नहीं बने बिला भी गए। यह कृतित्व और व्यक्तित्व ही की लड़ाई थी कि उन की लखनऊ की त्रिवेणी से कभी नहीं पटी। त्रिवेणी मतलब यशपाल, भगवतीचरण वर्मा और अमृतलाल नागर। नागर जी तो चतुर्वेदी जी का नाम सुनते ही भड़क जाते थे। पर उन्हें संबोधित करते थे ‘पूज्य’ ही कह कर। और नागर जी ही क्यों भगवती बाबू और यशपाल जी भी उन का बड़ा आदर करते थे। यशपाल जी तो कहते ही थे कि घर में माता-पिता के अलावा अगर मैं किसी का पांव छूता हूं तो भैया जी का ही। 

हिंदी की हेठी उन्हें अंत तक तावे पर बैठाए रही और जब उन्हें लगा कि मौत करीब आ ही गई है तो उन्हों ने परिजनों से कह दिया कि उन की मौत के बाद तमाशा न किया जाए। तमाशा मतलब उन का पार्थिव शरीर हिंदी संस्थान या हिंदी साहित्य सम्मेलन वगैरह जगहों पर ‘प्रदर्शन’, ‘प्रदर्शनी’ के लिए न ले जाया जाए। इलाहाबाद ही में चिता जलाई जाए। उन के घनिष्ठ लक्ष्मीनारायण गुप्त कहते हैं, ऐसा ही होगा भी। तमाशा नहीं होगा। 

संयोग दुखद है पर है कि कल नागर जी का 75 वां जन्मदिन था और आज ही भैया जी का निधन हो गया। हम कल अभी रोए ही थे आज फिर रो गए। 27 सितंबर को भैया जी भी 97 पूरा करने वाले थे। पर लगता है वह हिंदी की हेठी के विरोध में गिनती पूरा किए बिना ही कूच कर गए। हिंदी की अस्मिता का पहाड़ा पूरा पढ़ाए बिना ही वह हम से बिला गए।


[18 अगस्त, 1990 को पंडित श्री नारायण चतुर्वेदी के निधन के बाद 19 अगस्त,1990 को स्वतंत्र भारत में छपी श्रद्धांजलि]


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