कथाकार और उपन्यासकार शिवमूर्ति के बिना अब हिंदी कहानी की बात हो नहीं पाती। प्रेमचंद और रेणु की परंपरा की नदी सच कहिए तो शिवमूर्ति की कथा में ही साफ बहती है। बिना किसी प्रदूषण से प्रभावित। शायद इसी लिए वह कम लिख कर भी ज़्यादा चर्चित हैं। इस अर्थ में आप उन में गुलेरी को भी ढूंढ सकते हैं। 11 मार्च 1950 में जन्मे शिवमूर्ति का विवाह 1957 में ही हो गया। मतलब सात साल की उम्र में ही विवाह। उन का विवाह पहले हुआ और स्कूल वे बाद में जाना शुरू किए। वह अब जब कभी बडे फख्र से कहते हैं कि मेरी पत्नी पेड़ पर भी चढ लेती हैं और कार भी चला लेती हैं तो लोग उन्हें टुकुर-टुकुर देखने लगते हैं। सुल्तानपुर जिले के कुरंग गाँव में जन्में शिवमूर्ति की 6 बेटियाँ और एक बेटा है। पहले उन्होंने सुल्तानपुर में ही 1972 से 73 तक आसलदेव मा॰ विद्यालय पीपरपुर में अध्यापन किया फिर दो वर्ष रेलवे की नौकरी की। 1977 में बिक्रीकर अधिकारी नियुक्त हुए। अब वह ज्वाइंट कमिश्नर पद से रिटायर हो चुके हैं। बचपन में फुफेरी बहन से सुने किस्सों से उन के मन में किस्सागोई के बीज पडे़ तो वह किस्से कहानियों की दुनिया के हो कर रह गए। वह अब सभाओं में भी गलत बात कहने या गगन विहारी स्थापना देने वालों को भी ठेंठ गंवई अंदाज़ में पोंकिया लेते हैं। अब तो वह यूरोप वगैरह भी घूम आए हैं। पर एक समय वह नौकरी के चक्कर में इस शहर से लगायत उस शहर तक घूमते रहे हैं। बलिया से गाज़ियाबाद तक नौकरी की है उन्हों ने। पंजाब में भी। नौकरी के पहले दर्जीगिरी की उन्हों ने, मजमा लगाया। संघर्ष और सहजता उन के जीवन में हवा और पानी की तरह ही रहा है। अब तो वह लखनऊ में ही घर बना कर रहने लगे हैं। लेकिन एक बार वह लखनऊ आए थे अपने तबादले के चक्कर में। कहने लगे ट्रांसफर के भाड में भुज रहा हूं। एक होटल की डारमेट्री में तब उन से मुलाकात हुई थी। अठारह साल तब उन को लिखते हुए हुआ था। और उस अठारह साल में भी उन के पास कुल जमा छ कहानियां थीं। यह १९९१ की बात है। तभी नवभारत टाइम्स के लिए दयानंद पांडेय ने उन से लंबी बात की थी। बात भले पुरानी है पर उन की बात और बात की धार आज भी नई नवेली है। अब तो उन के पास उपन्यास भी हैं और भरा-पुरा अप्रतिम रचना-संसार भी, खूब प्रसिद्धि और बहुत सारे पुरस्कार भी। अभी-अभी उन्हें प्रतिष्ठित लमही पुरस्कार देने की भी घोषणा हुई है। लेकिन तब छ कहनियों वाले लेखक थे वह पर बातचीत में आज ही सी सरलता और परिपक्वता तब भी थी। और एक बडे लेखक में जो खास ठहराव होता है, वह भी था। इसी लिए यह इंटरव्यू आज भी प्रासंगिक है और ताज़ा भी। लेखक की भूमिका योगी और भोगी की एक साथ मानने वाले शिवमूर्ति से यह बहस-तलब बात चीत पेश हैः-
क्या आप नहीं मानते कि आज के दौर में कहानी लिखना काफी कठिन हो गया है?
-मानता हूँ। कहानी लिखना पहले भी कठिन था। अब कई कारणों से ज़्यादा कठिन हो गया है। एक तो मंच नहीं रह गए हैं। पत्रिकाएं दिनों-दिन घटती जा रही हैं। दूसरे जो नई पीढ़ी आ रही है, उन का प्रोत्साहन अन्य कारणों से भी नहीं हो रहा है। पारिश्रमिक आदि की स्थितियाँ नहीं रह गई हैं। नए लेखकों का अनुभव संसार सीमित होता जा रहा है। आज के ज़्यादातर कहानीकार चार पाँच कहानियाँ लिखते-लिखते चुक जा रहे हैं। जैसे शुरूआती पैदाइश के बच्चे पाँच पौंड के होते हैं और चौथे पाँचवे नंबर के बच्चे अंडरवेट हो जाते हैं। माँ एनीमिक हो जाती है। वही हाल कहानी और कहानीकारों का भी हो रहा है।
इसका मुख्य कारण क्या दिखता है?
-पहली चीज़ तो फैशन है कि हम गाँव पर ही लिखेंगे या शोषित पीड़ित की ही कहानी लिखेंगे। प्रेम पर नहीं लिखेंगे। लिखेंगे तो कलावादी मान लिए जाएंगे। हम साम्यवादी कहानी ही लिखेंगे।
आप को नहीं लगता कि पहले रोटी दाल की समस्याएँ बहुत कम थीं। ज़रूरतें बहुत कम थीं। अब बढ़ गई हैं। पहले कहानी कविता लिख कर जीवन यापन करना संभव था। अब सोच भी नहीं सकते।
-पहले संयुक्त परिवार भी तो था। आप देखें कि ज़्यादातर लेखक गांव से आए थे। तीन भाई हैं। एक खेती करने लगा। एक मास्टर हो गया। एक कवि या लेखक हो गया। तो उस के भी बाल बच्चे पल जाते थे। दोनों भाई यही सोच कर गर्व करते थे कि मेरा भाई बौद्धिक है। नाम कर रहा है। यही क्या कम है?
आप कहते हैं कि ज़्यादातर साहित्यकार गांव से आए थे। लेकिन ऐसा नहीं है। हिंदी के तीन चर्चित कहानीकार गांव से नहीं आए थे। न राजेंद्र यादव न कमलेश्वर न मोहन राकेश।
-हाँ, ये लोग नहीं थे।
आप निर्मल वर्मा को भी जोड़ लीजिए।
-हाँ, निर्मल वर्मा भी। मन्नू भंडारी भी।
ऐसा क्यों हुआ? कहीं किसी गहरी साजिश के शिकार तो नहीं हो गए गाँव के लेखक?
हाँ, यह भी है। एक ज़माने में गाँव पर लिखने वालों को लतियाने का व्यापक कार्यक्रम चला था। उस में ये तीनों कहानीकार आगे थे।
सारिका बंद हो गई। धर्मयुग बंदी के कगार पर है।[अब तो बंद हुए भी ज़माना हो गया।] इस बंदी का कारण क्या है?
-एक कारण तो आर्थिक होगा। नीतिगत होगा। दूसरा कारण पाठकों की रूचि का खत्म हो जाना है। पहले ये पत्रिकाएँ बडे़ रचनाकार बनने का माहौल बनाती थीं। अब बोनसाई बनाने लगीं। बरगद को गमले में लगा कर आप अगली पीढ़ी को यह तो बता सकते हैं कि देखो ऐसी होती है बरगद की पत्ती। ऐसा रंग। इस रंग का तना। पर आप उस की विशालता तो गमले में नहीं पैदा कर सकते। ऑक्सीजन देने का जो काम बरगद करता था वह बोनसाई तो नहीं करेगा। पहले गुणग्राही और योग्य संपादक होते होते थे। वे नए लेखको की ग्रूमिंग करते थे। उन की प्रतिभा उन की संभावना पहचानते थे। अब संपादकों की वह प्रजाति नहीं है।
कमलेश्वर जब संपादक थे सारिका के तो आप को याद होगा, बंबइया कहानियों का चलन बढ़ गया था।
-हाँ, तब समांतर कहानी आंदोलन चला था। प्लांड वे में।
और एक टारगेट के तहत। आलमशाह खान की कहानी ‘कोख‘ को याद कीजिए। ‘मुहिम‘ भी।
-हाँ, हजारों मील में जो गांव फैले हैं हिन्दुस्तान में, उनकी कहानियाँ कम आयीं।
पत्रकार जो गाँव छोड़ कर शहर आया हुआ है, तो पत्रकारिता पर भी कोई अच्छी कहानी कहाँ आई?
-आप ठीक कहते हैं। पत्रकारिता करने वाले क्या कम संघर्ष कर रहे हैं। ठीक से उन का संघर्ष ‘‘प्रोजेक्ट‘‘ किया जाए तो बेहतर कहानियाँ और उपन्यास आ सकते हैं।
यह जो कहानी के मंच खत्म होते जा रहे हैं, टी.वी. भी क्या उस का एक कारण है?
-टी.वी. कारण है लेकिंन यह बहुत बड़ा कारण नहीं है।
आखिर ऐसा क्यों है कि ज़्यादातर पत्रिकाओं में अनूदित या रिप्रोड्यूस कहानियाँ ही आ रही है? जैसे सारिका ने तो अनूदित कहानियों का बीड़ा उठा लिया था।
-देखिए, अच्छी रचना रोज-रोज नहीं लिखी जाती। अच्छी रचना पाने के लिए संपादक भी प्रयास करता है। नज़र रखता है। और अच्छी रचना मिलने पर, यह संपादक से अपेक्षा होती है कि वह उस कहानी को प्रोजेक्ट करेगा। उस पर लोगों की नज़र पड़े ऐसा उपाय करेगा। इसी में संपादक और लेखक दोनों का हित है। ऐसा अब कम हो रहा है।
मुदगल जी ऐसा नहीं कर पाए?
-मुदगल जी ने सेल बढ़ाने के लिए प्रयास किया। देह कथा, विदेह कथा अंक निकाले लेकिन लेखकों से अच्छी कहानियाँ नहीं लिखवा पाए।
क्या आप को लगता है कि सर्जनात्मक कहानी लिखने और भाषण का भाषाजाल लिखने में फ़र्क है?
-बिल्कुल फ़र्क है। जब आप कहानी में भाषण लिखने लगेंगे तो संवेदना छूट जाएगी। भाषण या पत्रकारिता की रिपोर्ट से पता चलता है कि आप कितना जानते हैं। कहानी से पता चलता है कि आप को कितना अनुभव है।
आप को गाँव छोडे़ कितने दिन हो गए?
-यही सत्रह अठारह साल।
क्या इसी लिए आप की सभी कहानियों में संवेदनाएँ और अनुभव वही होते हैं, सिर्फ कैनवस बदल जाता है।
-मेरे विचार से तो ऐसा नहीं है। आप मेरी ऐसी दो कहानियों का नाम लीजिए तो मैं कुछ स्पष्ट करूँ।
एक तो भरतनाट्यम?
-भरतनाट्यम की संवेदना तो दुबारा किसी कहानी में नहीं आई।
सिरी अपमा जोग में आई।
-नहीं। भरतनाट्यम बेरोजगार युवक की कहानी है जब कि सिरी उपमा जोग पति द्वारा ग्रामीण पत्नी व बच्चों को त्यागने की कहानी है। ज़िम्मेदारी से पलायन की कहानी है।
आप को अपनी सब से अच्छी कहानी कौन सी लगती है।
-सिरी उपमा जोग। छोटी और करूणामय। दुख की बदली।
आप का कहना है कि गाँव छोडे़ अठारह साल हो गए। फिर गाँव पर किस तरह लिखते हैं? जाहिर है कि पीछे के अनुभव लिखेंगे। बाद का जीवन छूट जायेगा।
-गांव छोड़ने का यह मतलब नहीं है कि बिलकुल छोड़ दिया है। वहाँ रहते नहीं लेकिन आना जाना तो लगा ही हुआ है।
आपको पता होगा कि गाँव इधर बड़ी तेज़ी से बदल रहे हैं।
-हाँ बदल रहे हैं।
तब आप की कहानियों में यह बदलाव क्यों नहीं आ रहा है?
-आ रहा है। हमारे जिस उपन्यास की घोषणा हंस में हुई है उस में आ रहा है। अन्य रचनाओं में भी आ रहा है। प्रकाशित होने पर आप देखेंगे।
इस उपन्यास की विषय वस्तु क्या है?
-जातिवाद, भ्रष्टाचार और नैतिक मूल्यों का पतन। ये तीनों मिल कर गाँव की गरीबी में कोढ़ में खाज का काम कर रहे हैं। यही इस उपन्यास की विषयवस्तु है।
अमूमन एक कहानी पर आप कितने दिन लगाते हैं?
-एक कहानी में मुझे तीन-चार महीने लग जाते हैं। कभी-कभी ज़्यादा समय भी लग जाता है। दरअसल एक बार में ही पूरी कहानी नहीं लिख पता। कभी तीन पेज तो कभी पाँच पेज।
आप को नहीं लगता कि बार-बार की सिटिंग से कहानी का तारतम्य टूटता है?
-नहीं। जब कहानी लिखना शुरू करते हैं तो उस से निरंतर पूरी तरह जुडे़ रहते हैं।
एक कहानी कितनी बार लिखते हैं?
-तीन बार तो ज़रूर।
ऐसा नहीं लगता कि जितनी देर में आप तीन चार ड्राफ़्टिंग करते हैं। उतनी देर में तीन चार कहानियाँ तैयार हो सकती हैं?
-ऐसा नहीं है। कहानी को संवेदनात्मक और भाषायी दृष्टि से जितना घनीभूत करना होता है वह एक बार लिखने से नहीं हो पाता। एक ही ड्राफ़्ट में सारी बात नहीं आ पाती। मुझे चिट्ठी भी लिखनी हो और कायदे से लिखनी हो तो दो बार लिखता हूँ।
पर बहुत सारे लोग तो दुबारा पढ़ते भी नहीं और छपने के लिए भेज देते हैं।
-वे महान हैं। मुझे यह सिद्धि नहीं मिली है।
आप बार-बार लिखेंगे तो चीज़ हर बार बदलेगी ही।
-नहीं। चीज़ नहीं बदलती। कहने का तरीका, विन्यास बंदल जाता है। वाक्य बदल जाते हैं। तारतम्यता बदल जाती है। देखिए, मेरे लिए लिखना, कबाड़ खाने से साइकिल कसने की तरह है। जैसे मिस्त्री, अपने कबाड़ से पुराना फ्रेम, रिम, गियर, टायर, ट्यूब, हैंडिल वगैरह ढूँढ कर उस से साइकिल तैयार करता है उसी तरह। मेरे पास पूर्व निर्धारित ढाँचा या अंत नहीं रहता। जैसे पैकिंग से नए पुर्जे निकाल कर घंटे भर में नई साइकिल कस कर तैयार हो जाती है वैसा मेरे साथ नहीं होता। जिस विषय पर लिखते हैं उसमे थोड़ा डूबना पड़ता है। तटस्थ होना पड़ता है। आपा-धापी की ज़िंदगी के चलते इस में भी कुछ ज़्यादा समय लगता है।
यानी पहले से कोई तैयार फ्रेम नहीं होता आप के दिमाग में?
-नहीं। पहले केवल धुँधली सी तस्वीर उभरती है। इसके मूल में कोई संवाद या कोई दृश्य, हो सकता है। उदाहरण के लिए बताता हूँ कि मैने केशर कस्तूरी कहानी कैसे लिखी? मेरे एक साढ़ू भाई हैं। उन की बेटी है केशर। मेरी बेटियों की तरह मेरे घर में रही काफी समय तक। फिर अपनी ससुराल गई। उस का पति उन दिनों बेरोजगार था। एक बार मैं उस से मिलने गया और वापसी में रस्म के अनुसार उस के हाथ पर सौ रूपए रखने लगा तो उस ने सिर नीचा किए हुए, पैर के अँगूठे से ज़मीन कुरेदते हुए कहा- पैसा ले कर क्या करेंगे पापा। हमारे आदमी को भी कहीं दो रोटी का इंतज़ाम करा दीजिए। इस से भी कम शब्दों में, पाँच छः शब्दों में उस ने अपनी इच्छा जताई थी। बस यही एक वाक्य इस कहानी को लिखने का आधार बना। इसी तरह बेरोजगारी झेलते हुए जो विचार आए वे भरतनाट्यम लिखने का आधार बने।
आप को नहीं लगता कि भरतनाट्यम का अंत थोड़ा भहरा गया है?
-नहीं। मुझे तो लगता है कि इस से बेहतर अंत हम दे ही नहीं सकते थे।
नहीं, जैसे मचान पर पी कर नाचने वाली बात। आप फ्रस्ट्रेशन दिखाना चाहते हैं। लेकिन बात बनती नहीं। वह ध्वनि नही मिल पाती फ्रस्ट्रेशन को।
-हो सकता है। लेकिन मैं उस का अंत प्रभावपूर्ण मानता हूँ। और वह मचान पर पी कर नहीं नाचता जैसा आप कह रहे हैं। खरबूजे के खेत में नाचता है।
शीर्षक के चुनाव में भी गलती कर दी।
-क्या कह रहे हैं आप। यह शीर्षक दे कर मैने ‘भरतनाट्यम‘ को नया अर्थ दिया है। जैसे ‘तिरियाचरित्तर‘ शीर्षक से ‘तिरियाचरित्तर‘ शब्द को नया अर्थ मिला है।
‘तिरिया चरित्तर का अंत भी उसी तरह है। आप विमली को न्याय नहीं दिला पाते।
-कागज में न्याय दिलाने से कुछ नहीं होगा। ऐसा सुखद अंत फ़िल्मों के लिए ही सुरक्षित रहने दीजिए जिस मे एक नायक बीस लोगों को परास्त कर के न्याय दिलाता है। सृजनात्मक साहित्य का काम बेचैनी पैदा करना है। पाठक को कुछ सोचने के लिये उद्वेलित करना है। पाठक को अंदर से बदलने का है। तिरिया चरित्तर कहानी का अंत यही करता है।
मैं बिलकुल नए पाठक को ध्यान में रख कर यह बात कह रहा हूँ। या फिर वह पाठक जो गुलशन नंदा को पढ़ता है। वह ऐसा शीर्षक देख कर पन्ना पलट देगा।
-मैं गुलशन नंदा को पढ़ने वाले पाठक के मेच्योर होने का इंतज़ार करना ठीक समझूँगा न कि ऐसे इम्मेच्योर या नए पाठक की नासमझी को ध्यान में रख कर अपनी कहानियों का शीर्षक या अंत बदलना।
आप की प्रतिबद्धता नौकरी के प्रति ज़्यादा रही है, लेखन के प्रति कम।
-मन से तो हम लेखक ही बनना चाहते थे लेकिन परिस्थितियों ने नौकरी ढूँढ़ने और करने को मजबूर किया। नौकरी के बिना भी गुज़ारा नहीं हो सकता। कोशिश कर रहा हूँ कि दोनों को एक साथ साध सकूँ।
परिस्थितियाँ तो हर हिंदुस्तानी के साथ हैं बल्कि दुनिया के हर आदमी के साथ हैं। अकेले आप ही के साथ तो नहीं।
-यह मेरी कमी है कि मैं लेखन के लिए इन्हीं परिस्थितियों के बीच ज़्यादा समय नहीं निकाल पाता हूँ। अब जैसे देखिए। साल भर में ही मेरा ट्रांसफर हो गया। अब नई जगह पर जाने के बजाय मैं इसे रूकवाने के लिए दौड़ रहा हूँ। नई जगह पर काम कम है। लिखने का ज़्यादा समय मिल सकता है फिर भी जाने के बजाय रूकने के लिए दौड़ रहा हूँ।
क्यों नहीं दौड़ना चाहिए?
-इस लिए कि यह समय की बर्बादी है। इस का उपयोग लिखने में करना चाहिए। मुझे पता है कि मैं निष्फल हो कर लौटूँगा, लेकिन तब भी दौड़ रहा हूँ। इस का कारण व्यक्तित्व की कमजोरी है। व्यक्तित्व दो फाँकों में बटा हआ है। उसी के चलते दौड़ रहे हैं। कहा गया है न कि जानामि योगम् न च में प्रवृत्तिः। जानामि भोगम् न च में प्रवृत्तिः। इसी भोगेच्छा के चलते दौड़ रहे हैं।
आप को नहीं लगता कि अगर पत्रिकाएं इसी तरह बंद होती रहीं तो धीरे-धीरे लिखना भी बंद हो जाएगा।
-बंद भले न हो जाए लेकिन मंद तो हो ही जाएगा। जब प्लेटफ़ार्म ही नहीं रह जाएंगे तो कहाँ छपेगा।
आप गिन कर अपनी पसंद के तीन समकालीन कहानीकारों का नाम लेना पसंद करेंगें।
-केवल तीन?
हाँ।
-संजीव, चन्द्रकिशोर जायसवाल और उदय प्रकाश।
आखिर क्या कारण है कि मात्र छः कहानियाँ लिख कर चर्चा का जो शिखर आप ने छुआ उस की आलोचकों ने कोई खास नोटिस नहीं ली?
-यह तो आलोचक ही जानें। बैसे जब आप कह रहे हैं कि मैं ने चर्चा का शिखर छुआ तो क्या यह अपने आप में संतुष्ट होने के लिए पर्याप्त नहीं है?
आप का कोई संग्रह भी अभी तक नहीं आया।
-संग्रह इसी महीने राधाकृष्ण से आ रहा है।
अच्छा आप के साथ कहीं बनियापन तो काम नहीं कर रहा है कि कम माल दे कर बाज़ार में अपना क्रेज बनाए रखें।
-नहीं ऐसा नहीं है। मैं ने लिखा तो ज़्यादा है। उस में से कुछ छप भी गया लेकिन उस का स्तर मुझे ठीक नहीं लगा तो उसे मन से उतार दिया। मेरी एक शुरूआती कहानी है- उड़ि जाओ पंछी। यह कहानी लखनऊ से प्रकाशित होने वाली कहानी पत्रिका ‘कात्यायनी‘ के मई 1970 अंक में प्रकाशित हुई थी। यह अंक पत्रिका का ग्राम कथा विशेषांक था। विवेकी राय जी ने इस कहानी पर अपने शोध-प्रबंध में विस्तार से लिखा है। उन्हों ने इसे समकालीन यथार्थ की उल्लेखनीय कहानी कहा है लेकिन मुझे लगा कि इस का वह स्तर नहीं बन पाया जैसा मैं अपनी कहानियों का चाहता हूँ। इस लिए इसे अपने संग्रह में शामिल नहीं किया। इसी तरह मैं ने 400 पेज का एक उपन्यास लिखा- माटी की महक। सन 70 में जब मै बी.ए. में पढ़ रहा था। इस में ऐसा कथ्य और घटना क्रम है जो सामयिक ग्रामीण उपन्यास की रचना के लिए बहुमूल्य है। लेकिन शुरूआती लेखन था। इसमें क्राफ्ट की दृष्टि से स्तरीयता की कमी है इस लिए इसे प्रकाशित नहीं कराया। रखा हुआ है। इसी से वक्त ज़रूरत कुछ कथानक ले कर एकाध कहानियाँ लिखी हैं। उसी के एक अंश से ‘तिरियाचरित्तर’ लिखी गई। इंटर करने के साथ-साथ तय किया था कि सिर्फ़ लेखक बनूँगा और आजीविका के लिए खेतीबारी सँभालूँगा। कोई नौकरी नहीं करूँगा। तब ज़िंदगी का कोई अनुभव नहीं था इस लिए ऐसा सोचा था। बाद में जैसे-जैसे बेटियाँ पैदा होती गईं, कमरी भीजती गई, खुरदरे यथार्थ से परिचय होता गया, जीवन दृष्टि बदलती गई।
यह बताइए कि आप को कभी फख्र नहीं होता कि 6 कहानियाँ लिख कर ही चर्चा के शिखर पर आ गए।
-जिसे शिखर पर आना आप कह रहे हैं वहाँ तो तीन कहानियों से ही आ गए थे।
कायदे से तो एक ही कहानी से आ गये थे। कसाईबाड़ा से ही।
-हाँ, लेकिन इसमें फख्र जैसी बात नहीं सोचनी चाहिए क्यों कि कई बार ऐसे संयोग घटित हो जाते हैं। असली बात है अपनी परवर्ती रचनाओं से शिखर पर बने रहना। इस संबंध में न आप आश्वस्त हो सकते हैं न कोई भविष्य वाणी कर सकते हैं।
आप ने कहा कि रेणु आपके आदर्श हैं। क्या प्रभावित करता है आपको रेणु का? जीवन दृष्टि, विचारधारा या शिल्प।
-मुझे रेणु का शिल्प सब से अधिक प्रभावित करता है। शब्दों का चुनाव और उन के उपयोग में मितव्ययिता। मैला आँचल के अधिकाँश अध्याय चार पाँच पेज के हैं। इसी स्पेस में वे अपनी कहानी को मनचाही दूरी तक पाठक को विलक्षण जिज्ञासा की डोर में बाँध कर ले जाते हैं।
रेणु के साथ अपने पात्रों को ले कर तमाम दिक्कतें आईं। मुकदमे और मारपीट तक। क्या आप के साथ भी ऐसी दिक्कतें आईं?
-रेणु के साथ मुकदमें या मारपीट की मुझे कोई जानकारी नहीं है। मेरे साथ ऐसी कोई दिक्कत नहीं आई। मेरे यथार्थ का चेहरा कल्पना के साथ मिल कर इतना बदल जाता है कि वास्तविक ज़िंदगी के किसी पात्र को उस में अपना प्रतिबिंब हुबहू दिखाई ही नहीं पड़ सकता। पात्र की ग्रूमिंग में चीज़ें ज़्यादा पूर्ण और ज़्यादा प्रभावी हो कर निकलती हैं और ज़्यादा बड़े वर्ग या क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने लगती हैं।
तो काल्पनिक ची्ज़ें आप की कहानियों में ज़्यादा है?
-दोनों की ब्लेंडिंग। कल्पना और हकीकत की। ध्यान दीजिए, दोनों का मिश्रण नहीं। दोनों की ब्लेंडिग। मिश्रण और ब्लेंडिग की प्रक्रिया में अंतर होता है।
कहानी में ‘मैं‘ का शिल्प आसान होता है या ‘वह‘ का।
-दोनों का अपना महत्व है। कहीं मैं ज़्यादा कम्यूनिकेटिव हो सकता है कहीं ‘वह‘। पाठक को मैं ज़्यादा अथेंटिक लगता है। जहाँ निजी अनुभव की शक्ल दे कर आप चीज़ों को प्रस्तुत करना चाहते हैं वहाँ ‘मैं‘ शैली सुगम व प्रभावी हो जाती है। दूरी और तटस्थता से देखना चाहते हैं तो ‘वह‘ शैली का आती है।
आप की कहानियों में ‘मैं‘ ज़्यादा है।
-नहीं, केवल दो कहानियों- ‘भरतनाट्यम‘ और ‘केशरकस्तूरी‘ में।
आगे क्या क्या लिखने की योजना है।
-योजनाएँ तो कई उपन्यासों और कहानियों की है। तीन उन्यास तो अधूरे हैं। ‘पगडंडिया‘ लाठीतंत्र और एक आत्मकथा परख। ‘पगडंडियाँ‘ के एक दो अंश तो वर्तमान साहित्य और एकाध अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं। पर मुझे अपने आप पर विश्वास नहीं कि इनमें से कितना लिख पाऊँगा। आलस्य मेरा स्थायी और प्रबल शत्रु है।
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अच्छा लगा शिवमूर्ति जी का साक्षात्कार पढ़ना ! आपके ब्लाग का कलेवर भी खूबसूरत हो गया है।
ReplyDeleteपाण्डेयजी, आप पुराने लिक्खाड़ हैं। पत्रकार तो आप शानदार हैं ही, यह आपकी तारीफ नहीं सच्चाई है। साक्षात्कार मेंढेर सारी जानकारीयाँ हैं, वैसे भी शिवमूर्तिजी मेरे प्रिय कथाकार हैं.
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