अरे, राजनाथ सिंह सूर्य किस शुचिता की बात कर रहे हैं? मेरी समझ में नहीं आता। मेरी उन को खुली चुनौती है कि मेरे खिलाफ़ जो भी आरोप हों बताएं। मेरे चरित्र की चिंता करने के बजाय अपने चरित्र, अगर उस में कुछ बच-खुच गया हो तो उस की चिंता करें। और मेरे खिलाफ़ जो भी आरोप हो उस को सार्वजनिक करें। स्वागत है। और हां, मैं ने जो भी थोडे़ बहुत आरोप अभी उन पर लगाए हैं उन पर ज़रा रुक कर बात करें। और कि एक भी आरोप गलत साबित करें तो बहुत खुशी होगी। क्यों कि मेरा मानना है कि राजनाथ सिंह जैसों को ले कर, उन के कुकृत्यों को ले कर एक पूरी किताब लिखी जा सकती है। शायद मैं देर सवेर लिखूं भी। क्यों कि पत्रकारिता के नाम पर राजनाथ सिंह जैसे लोग दाग ही नहीं कोढ़ का काम कर गए हैं। लेकिन अपने ऊपर लगे आरोपों पर बात करने की बजाय मेरे निकाले जाने पर उन का ज़ोर कुछ ज़्यादा है।
सच्चाई यह है कि राजनाथ सिंह की हैसियत स्वतंत्र भारत में एक चपरासी की नौकरी लेने की भी नहीं थी। तो खैर मुझे क्या खा कर वह निकाल पाते भला? हां बिसात बिछाने या जोड़-तोड़ में शुरू से ही माहिर थे। सो मेरे खिलाफ़ बिसात ज़रुर उन्हों ने बिछाई, जिस में मैं अपनी अनुभवहीनता और अज्ञानता में फंस गया। वह जानते थे कि मैं स्वाभिमानी व्यक्ति हूं, झुकता नहीं हूं। सो जाल बिछाया और नया-नया थापर मैनेजमेंट आया था, मुझे उस से लड़ा दिया। मैं बहादुरों की तरह भिड़ गया। और जैसा कि होता आया है कि मैनेजमेंट से भिड़ने वाला व्यक्ति अंतत: मारा जाता है, कोई भी साथ नहीं आता। मैं भी मारा गया। और किसी ने साथ नहीं दिया। जिन लोगों को ले कर लड़ाई शुरू की थी, वह भी साथ छोड़ गए। यह ५ अगस्त, १९९१ का दिन था, जब मैं पायनियर से बर्खास्त हुआ था। और यह राजनाथ सिंह तो स्वतंत्र भारत से कब के निकाल दिए गए थे। तब थे भी नहीं। घनश्याम पंकज कब के आ चुके थे। तो मुझे कहां से निकाल देते भला? जी हां निकाल दिए गए थे। खुशी-खुशी इस्तीफ़ा नहीं दिया था राजनाथ सिंह ने। न ही पायनियर प्रबंधन ने तो मुझे भी इस्तीफ़ा देने की ही पेशकश की थी। लेकिन मैं ने इस्तीफ़ा देने से साफ इनकार कर दिया। और कहा कि आप बर्खास्त कर दीजिए। मैं लडूंगा। और मैं लड़ा भी।
५ अगस्त, १९९१ को मुझे बर्खास्त किया गया था और ५ सितंबर, १९९१ को ठीक एक महीने बाद ही हाइकोर्ट से मैं स्टे ले कर आ गया। प्रबंधन के लिए मैं नासूर बन गया था तब। ज्वाइन नहीं करवाया तो कंटेंप्ट आफ़ कोर्ट किया। और बताते हुए अच्छा लगता है कि उन दिनों मैं ने पायनियर यूनियन का चुनाव लड़ा था एक्जीक्यूटिव के लिए। और भारी मतों से जीता भी था। राजनाथ सिंह को यह सब नहीं मालूम? या भूल जाना चाहते हैं? राजनाथ सिंह को यह भी याद दिला दूं कि एसपी त्रिपाठी स्वतंत्र भारत में थे ज़रुर, पर पायनियर के कर्मचारी नहीं थे। फिर वह जांच किस हैसियत से करते? हालत तो यह थी कि एसपी त्रिपाठी तो राजनाथ सिंह को कुछ समझते भी नहीं थे। वह जनसत्ता होते हुए स्वतंत्र भारत, कानपुर आए थे। उन्हें प्रभाष जोशी की तर्ज़ पर फ़्रंट पेज एडीटोरियल लिखने की धुन सवार थी उन दिनों। सो लिखते रहते थे। लखनऊ से राजनाथ चिट्ठी पर चिट्ठी लिखते रहते थे कि संपादक मैं हूं, आप कैसे फ़्रंट पेज एडीटोरियल लिखते हैं। त्रिपाठी जी राजनाथ की चिट्ठी रद्दी के हवाले कर एक नया फ़्रंट पेज संपादकीय छाप देते। किस्से बहुत सारे हैं राजनाथ सिंह अभी आप के अपमान और पाप के मेरे पास। जिन को फिर कभी सुनिएगा। अभी तो बस इतना सुनिए कि जांच मेरे खिलाफ़ लखनऊ में ही पायनियर के लीगल एडवाइज़र ने की थी, जिस अनुशासनहीनता के आरोप की बिसात आप बिछा गए थे। कोई चारित्रिक आरोप नहीं थे आप की तरह। मुझे जांच रिपोर्ट की कापी भी नहीं दी गई थी। क्यों कि मेरे खिलाफ़ अनुशासनहीनता का कोई आरोप साबित भी नहीं हुआ था। तभी मैं लडा हाइकोर्ट में। हाइकोर्ट पायनियर प्रबंधन से वह जांच रिपोर्ट मांगता रहा, पर कभी पायनियर प्रबंधन दे नहीं पाया। लड़ाई हाइकोर्ट में ज़रा क्या बहुत लंबी चली, और मुझे अपने-अपने युद्ध जैसा उपन्यास भी लिखना पड़ा। इस लड़ाई को ले कर। पर राजनाथ सिंह आप को यह जान कर तकलीफ़ होगी कि अंतत: सत्य की विजय हुई।
हालां कि कभी इस का ऐलान नहीं किया मैं ने पर आज कर रहा हूं, कि पायनियर प्रबंधन ने अंतत: मुझ से समझौते की पेशकश की और मुझे मेरा सारा पैसा दे दिया। हाइकोर्ट में ही। क्यों कि पायनियर प्रबंधन अपने को हारा हुआ नहीं साबित करना चाहता था। करा था, आप और आप के अहंकार ने भरा मैं ने और पायनियर प्रबंधन ने। मेरी जवानी बेवज़ह की लड़ाई में बर्बाद हुई। और कि कैरियर भी। एक लिखने-पढ़ने वाला आदमी झगड़ालू और मुकदमेबाज़ की छवि ढोने पर मजबूर हुआ। नहीं आप ने तो आपने चम्मचों के जरिए तभी मुझे संदेश भिजवाया था कि माफ़ी मांग लूं झुक जाऊं, तो मेरे खिलाफ़ कुछ नहीं होगा। मैं ने स्वीकार नहीं किया था आप का प्रस्ताव। थोड़ी बुद्धि लगाई होती, थोड़ा डिप्लोमेटिक हुआ होता, थोड़ा झुक कर रहा होता तो मैं भी आप के संपादकत्व में राजा बेटा बन कर रहा होता। लेकिन फिर अगर यह सब किया होता तो अपना उपन्यास अपने-अपने युद्ध भला कैसे लिख पाता? इस के लिए तो आप का ही शुक्रगुज़ार हूं कि आप की वज़ह से अपने-अपने युद्ध लिख पाया। जो कि एक समय मेरी पहचान में शुमार हुआ। और खूब चर्चित भी। पत्रकारिता से ले कर न्यायपालिका और साहित्य में भी। देखिए कि इसी भड़ास ने भी उसे धारावाहिक छापा और लोगों ने खूब पढ़ा। उपन्यास के कई एडीशन छपे।
खैर, कभी समय मिले तो पढि़एगा अपने-अपने युद्ध। पढिएगा तो पाइएगा कि उस में कहीं भी आप को निशाना नहीं बनाया गया है। निशाना प्रबंधन ही है। इस लिए भी कि आप भी जो कुछ उस जयपुरिया रिज़िम में मेरे खिलाफ़ शकुनि चालें चल रहे थे, वह तब के जनरल मैनेजर जीके दारुका की शह पर कर रहे थे। इस लिए कि दारुका मुझ से नाराज थे। दारुका इस लिए नाराज़ थे कि तब के संपादक वीरेंद्र सिंह ने उन की कुछ हरकतों से ऊब कर इस्तीफ़ा दे दिया तो उस के बाद उन की कुछ व्यक्तिगत किताबें आफ़िस से एक चपरासी द्वारा उठवा कर मैं ने उन के घर भिजवा दिया था। दारुका के अहंकार को यह चोट दे गया। आप तो तब दारुका के टट्टू बन गए थे। इसी लिए आप के प्रस्ताव के बाद भी मैं ने आप से बात नहीं की थी। कि किसी ट्ट्टू से क्या बात करना। इस लिए भी कि मुझे तो आज अखबार का वह रिपोर्टर राजनाथ सिंह याद था, जिस के साथ मैं ने रिपोर्टिंग भी की थी। जिस ने रास्ते में कार में मदिरा कैसे पी जाती है, ताकि छलके नहीं, स्कूली बच्चों की बोतल में सींक लगा कर पीना बताया था, बतर्ज़ एक पत्रकार, जिन का यहां नाम लूंगा तो वह मैं कहां पीता हूं, कह कर नाराज हो जाएंगे। हां राजनाथ सिंह मैं रिपोर्टर था स्वतंत्र भारत में। उप संपादक नहीं। मेरे पास आज भी नियुक्ति पत्र है। वह तो आप ने दारुका की शह और अपनी सनक में डेस्क पर डाल दिया था। और कि स्पोर्ट और कामर्स जिस की एबीसीडी मैं आज भी नहीं जनता का भी इंडीपेंडेंट इंचार्ज़ इस लिए बनाया कि मैं कोई गलती करुं और आप मुझे निकाल कर दारुका का इगो मसाज़ कर सकें। यह नहीं कर पाए आप तो अनुशासनहीनता के आरोप की शकुनि बिसात बिछा दी। जो सालों चले मुकदमे में पायनियर प्रबंधन साबित नहीं कर पाया। अनुशासनहीनता का आरोप क्या होता है? आप जानते भी है? चार लोगों को आप किसी भी आफ़िस में खड़ा कर दीजिए किसी के खिलाफ़ और उसे अनुशासनहीन बना दीजिए। और आज तो आप मुझ पर चारित्रिक आरोप की हवाई बात कर बगलें झांक रहे हैं। वह भी शुचिता की दुहाई दे कर। शुचिता किस चिडि़या का नाम है, राजनाथ सिंह सूर्य आप जानते भी हैं भला?
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