Saturday, 21 January 2012

आत्म-कथ्य

पीड़ित की पैरवी

दयानंद पांडेय 

कहानी या उपन्यास लिखना मेरे लिए सिर्फ़ लिखना नहीं, एक प्रतिबद्धता है। प्रतिबद्धता है पीड़ा को स्वर देने की। चाहे वह खुद की पीड़ा हो, किसी अन्य की पीड़ा हो या समूचे समाज की पीड़ा। यह पीड़ा कई बार हदें लांघती है तो मेरे लिखने में भी इसकी झलक, झलका (छाला) बन कर फूटती है। और इस झलके के फूटने की चीख़ चीत्कार में टूटती है। और मैं लिखता रहता हूं। इस लिए भी कि इस के सिवाय मैं कुछ और कर नहीं सकता। हां, यह जरूर हो सकता है कि यह लिखना ठीक वैसे ही हो जैसे कोई न्यायमूर्ति कोई छोटा या बड़ा फैसला लिखे और उस फैसले को मानना तो दूर उसकी कोई नोटिस भी न ले। और जो किसी तरह नोटिस ले भी ले तो उसे सिर्फ कभी कभार ‘कोट’ करने के लिए। तो कई बार मैं खुद से भी पूछता हूं कि जैसे न्यायपालिका के आदेश हमारे समाज, हमारी सत्ता में लगभग अप्रासंगिक होते हुए हाशिए से भी बाहर होते जा रहे हैं। ठीक वैसे ही इस हाहाकारी उपभोक्ता बाजार के समय में लिखना और उससे भी ज्यादा पढ़ना भी कहीं अप्रासंगिक हो कर कब का हाशिए से बाहर हो चुका है तो भाई साहब आप फिर भी लिख क्यों रहे हैं ? लिख क्यों रहे हैं क्यों क्या लिखते ही जा रहे हैं ! क्यों भई क्यों ? तो एक बेतुका सा जवाब भी खुद ही तलाशता हूं। कि जैसे न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं। और जवाब पाता हूं कि शायद ! गरज यह कि लिख कर मैं पीड़ा को एक अर्थ में स्वर देता ही हूं दूसरे अर्थ में जमानत भी देता हूं। भले ही हिंदी जगत का वर्तमान परिदृश्य बतर्ज मृणाल पांडेय, ‘खुद ही लिख्या था, खुदै छपाये, खुदै उसी पर बोल्ये थे।’ पर टिक गया है। दरअसल सारे विमर्श यहीं पर आ कर फंस जाते हैं। फिर भी पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। क्यों कि यही मेरी प्रतिबद्धता है।किसी भी रचना की प्रतिबद्धता हमेशा शोषितों के साथ होती है। मेरी रचना की भी होती है। तो मैं अपनी रचनाओं में पीड़ितों की पैरवी करता हूं। हालांकि मैं मानता हूं कि लेखक की कोई रचना फैसला नहीं होती और न ही कोई अदालती फैसला रचना। फिर भी लेखक की रचना किसी भी अदालती फैसले से बहुत बड़ी है और उसकी गूंज, उसकी सार्थकता सदियों में भी पुरानी नहीं पड़ती। यह सचाई है। सचाई यह भी है कि पीड़ा को जो स्वर नहीं दूंगा तो मर जाऊंगा। नहीं मर पाऊंगा तो आत्महत्या कर लूंगा। तो इस अचानक मरने या आत्महत्या से बचने के लिए पीड़ा को स्वर देना बहुत जरूरी है। यह स्वर देने के लिए लिखना आप चाहें तो इसे सेफ्टी वाल्ब भी कह सकते हैं मेरा, मेरे समाज का ! बावजूद इस सेफ्टी वाल्ब के झलके के फूटने की चीख़ की चीत्कार को मैं रोक नहीं पाता क्यों कि यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को।

इस लिंक को भी पढ़ें :


1. समय से न लिखने पर रचनाएं भी रिसिया जाती हैं


19 comments:

  1. इस प्रतिबद्धता को नमन!

    ReplyDelete
  2. हम आपके नियमित पाठक हैं।
    आप लिखते रहें, हम और हमारे जैसे अनगिनत आपको पढते हैं।

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  4. ''यह झलका तवे से जल कर नहीं जनमता, समयगत सचाइयों के जहर से पनपता है और जब तब फूटता ही रहता है। मैं क्या कोई भी नहीं रोक सकता इसे। इस लिखने को l''
    और रुकना भी नहीं चाहिये...आपकी लेखनी को नमन l

    ReplyDelete
  5. न्यायपालिका बेल पालिका में तब्दील हो कर हत्यारों, बलात्कारियों, डकैतों और रिश्वतखोरों को जमानत देने के लिए आज जानी जाती है, इस अर्थ में उसकी प्रासंगिकता क्या जैसे यही उसका महत्वपूर्ण काम बन कर रह गया है तो कहानी या उपन्यास लिख कर खुद की, व्यक्ति की, समाज की पीड़ा को स्वर देने के लिए लिखना कैसे नहीं जरूरी और प्रासंगिक है? है और बिलकुल है। सो लिखता ही रहूंगा। तो यह लिखना भी पीड़ा को सिर्फ जमानत भर देना तो नहीं है ? यह एक दूसरा सवाल मैं अपने आप से फिर पूछता हूं।

    ReplyDelete
  6. श्रीमान पाण्डेय जी आप का यह ब्लॉग पढ कर बहुत ही अच्छा लगा | आप से अनुरोध है की चुनावी मुद्दों पर आम आदमी में जागरूकता लाने के लिए कुछ जरुर लिखे | धन्यवाद |

    साथ ही एक अनुरोध आप से और है की कृपया अपना बहुमूल्य समय निकल कर मेरे ब्लॉग को देखें एवं अपने महत्वपूर्ण सुझावों से हमें अवगत कराएँ जिससे मई आम लोगो के बीच सही जानकारी उपलब्ध करा सकूँ | आपका बहोत बहोत धन्य्वात | मेरा ब्लॉग एड्रेस है - www.licworld.blogspot.in

    ReplyDelete
  7. श्रीमान पाण्डेय जी आप का यह ब्लॉग पढ कर बहुत ही अच्छा लगा | आप से अनुरोध है की चुनावी मुद्दों पर आम आदमी में जागरूकता लाने के लिए कुछ जरुर लिखे | धन्यवाद |
    THANKS

    ReplyDelete
  8. आपकी लेखनी ने सामान्य से हटकर रचना की है ,साधुवाद !

    ReplyDelete
  9. आप के उक्त कथन हेतु दिल के उदगार सादर-----

    हसरतों की चादर पे,
    प्यार की सिलवटें खूब भती है।
    जैसे जैसे पड़्ती हैं सिलवटें,
    चादर सिमटती जाती है।
    कब एक होजाती है,
    चादर और सिलवटें,
    बिस्तर को भी आहट नही होती।
    बस रह जाते है,कुछ निशान,
    सिलवटों के चादर पर,
    जिसे दुनिया सृजन की ,
    पहचान कहती है।-------अजय कुमार मिश्र "अजयश्री "/६/२/१५/

    ReplyDelete
  10. शानदार तो लिखते ही आप
    आपका पवन

    ReplyDelete
  11. बहुत सुंदर लिखते है आप ऐसे ही लिखते रहिए
    जय श्री राम 🙏🚩

    ReplyDelete
  12. सादर प्रणाम🙏🏻

    ReplyDelete
  13. शानदार जानदार लाजवाब तो लिखते ही हैं आप

    ReplyDelete
  14. हमेशा की तरह शानदार लेखन।

    ReplyDelete
  15. आपका लेखन सदैव प्रेरक रहता है
    प्रणाम सर

    ReplyDelete
  16. आपका और आपके लेखन का कोई जवाब नहीं प्रणाम।🙏🙏🙏🌹🌹

    ReplyDelete
  17. बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete
  18. प्रणाम बहुत बहुत बधाई

    ReplyDelete