Sunday, 31 August 2025

शंभुनाथ की विभा

दयानंद पांडेय 

शंभुनाथ जी को अभी याद करते हुए दिनकर की एक काव्य पंक्ति याद आती है : मुझे क्या गर्व हो अपनी विभा का। सचमुच ज़रा भी गर्व , ज़रा भी अभिमान , ज़रा भी अहंकार उन में नहीं था। व्यूरेक्रेसी की ज़रा भी बू नहीं थी उन में। उन की विद्वता , विनम्रता , मृदुता , शालीनता उन में सुगंध और सुमन की तरह एकमेव थी। जैसे माखन और मिसरी। दिनकर और आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जैसे उन के पथ थे। दिनकर की उंगली थामे नौकरशाही के राजपथ पर चलते-चलते कब वह आचार्य विष्णुकांत शास्त्री के अमृत सरोवर में डूब गए , वह भी नहीं जान पाए। उन की कुल विभा यही थी। विभा यानि उन की प्रभा, कांति, चमक , किरण, रश्मि , शोभा, सुंदरता सब कुछ यही सरोवर था। विष्णुकांत शास्त्री का अमृत सरोवर। विद्वता और सरलता का सरोवर। इस सरोवर में वह सब को डुबकी लगवाते रहते थे। यह इस अमृत सरोवर का ही स्वाद है , संयोग और कि प्रारब्ध भी कि कल शाम एक किताब के विमोचन के अवसर पर वह मृत्यु की बात कर रहे थे। मृत्यु की कहानी सुना रहे थे। मृत्यु की बात करते-करते , मृत्यु की कथा सुनाते समय ही मृत्यु ने उन्हें अपने आलिंगन में ले लिया। काश कि ऐसी ही मृत्यु मुझे भी मिले। न कोई सेवा , न टहल , न अस्पताल। बहुत भाग्यशाली थे शंभुनाथ जी। ऐसी मृत्यु कहां और किस को मिलती है भला। अज्ञेय ने लिखा है :

होना ही है यह, तो प्रियतम! अपना निर्णय शीघ्र सुना दो-

नयन मूँद लूँ मैं तब तक तुम रस्सी काटो, नाव बहा दो!


पर यह तो अब की बात है। थोड़ा पहले के पृष्ठ पलटता हूं। 

वह मेरे संघर्ष के दिन थे। सफलता और निरंतर सत्ता के गलियारे का स्वाद चखने के बाद का संघर्ष , आदमी को तोड़ देता है। आदमी को नपुंसक बना देता है। यह बात मुझ से ज़्यादा भला कौन जानता होगा। फ़िलहाल तो वह नौकरी में लड़ाई और उथल-पुथल के मेरे दिन थे। बहुत जद्दोजहद थी ज़िंदगी में। बेटी बहुत छोटी थी। नर्सरी क्लास में थी। एक दिन शाम को घर आया तो वह भी अचानक पूछ बैठी , हाईकोर्ट में क्या हुआ ? मैं अवाक् और निःशब्द ! यह मासूम सी , अबोध सी बच्ची और हाईकोर्ट का ताप ? थोड़ी देर रुक कर उसे गोद में बिठाया और प्यार से पूछा , तुम को हाईकोर्ट का किस ने बताया। कैसे मालूम हुआ ? वह बोली , आप अकसर मम्मी से , फ़ोन पर हाईकोर्ट के बारे में ही तो बात करते हैं। मैं बिलकुल चुप हो गया। असल में हाईकोर्ट की लड़ाई ही उन दिनों मेरा ओढ़ना-बिछौना था। तुम देखी सीता मृगनैनी जैसा। न्याय की लड़ाई लड़ रहा था और टूट रहा था। निरंतर। लड़ाई से ज़्यादा वह मेरा स्वाभिमान था।  

ऐसे में एक दिन एनेक्सी सचिवालय के उन के कार्यालय में शंभुनाथ जी से भेंट हुई। वह ऐसे मिले , जैसे जाड़े में रजाई। तब वह उत्तर प्रदेश शासन में श्रम सचिव थे। सचिव पद बड़ा पद होता है। अपने नाम के अनुरूप उन्हों ने मेरा कल्याण करने की कोशिश की। बताता चलूं कि  शंभू शब्द संस्कृत से लिया गया है, जिसमें 'शं' का अर्थ 'कल्याण' और 'भू' का अर्थ 'उत्पत्ति' है। तो शंभुनाथ जी ने अपने  'शं' का परिचय दिया। रिपोर्टर रहा था तो इस कारण सत्ता के गलियारों से ख़ूब परिचित था। तमाम मंत्रियों , मुख्य मंत्रियों से नियमित मिलने का अभ्यास था। अनुभव था। तरह-तरह के अफसरों से भी वास्ता पड़ता रहता था। लेकिन उन दिनों सत्ता के गलियारों में मुझे कोई पहचानने वाला नहीं था। कोई देखता भी तो कतरा कर निकल जाता था। जो लोग मिलने के लिए बिछे रहते थे , खोजते रहते थे , पहचानने के लिए तैयार नहीं थे। क्यों कि मैं बेरोजगार हो गया था। बेरोजगार ही नहीं , तब के समय के ताक़तवर अख़बार पायनियर और स्वतंत्र भारत को प्रकाशित करने वाली कंपनी द पायनियर लिमिटेड से टकरा गया था। हाईकोर्ट में मुकदमा दायर कर स्टे ले चुका था। हाईकोर्ट का यह स्टे लेकिन झुनझुना बन कर रह गया था। लंबे समय तक यह झुनझुना बजाते रहने के लिए अभिशप्त हुआ। क्यों कि पायनियर इस स्टे को व्यावहारिक रूप से मानने को तैयार नहीं था। कंटेम्प्ट के जवाब में प्रबंधन ने शपथ पत्र पर लिख कर हाईकोर्ट को दिया था कि हम तो काम पर इन्हें लेना चाहते हैं। यही काम पर नहीं आते। 

हक़ीक़त यह थी कि दफ्तर जाने पर गेट पर मेरी एंट्री पर रोक लगी थी। सिक्योरिटी गार्ड रोक देता था। तो तमाम रास्तों में एक रास्ता श्रम विभाग का था। उन दिनों लखनऊ में डिप्टी लेबर कमिश्नर था , एस पी सिंह। पी सी एस अफ़सर था। हेकड़ी में धुत्त। वह सिवाय आश्वासन के कुछ करना नहीं चाहता था। पायनियर प्रबंधन के हाथों बिका हुआ था। आजिज आ कर एक दिन श्रम सचिव शंभुनाथ से मिला। शंभुनाथ जी ने न सिर्फ़ पहचाना बल्कि पूरे सम्मान से मिले। हमारी तकलीफ़ से अपने को जोड़ा। उन्हें  सारी बात बताई। सारे कागज़ात दिखाए। उन्हों ने डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह को तलब किया। दूसरे ही दिन। हम दोनों को साथ बिठाया। पूछा डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह से कि , 'इन का काम करने में दिक़्क़त क्या है ? ' वह मिनमिनाने लगा। शंभुनाथ जी ने स्पष्ट कहा कि , ' या तो इन को अपने साथ ले जा कर तुरंत ज्वाइन करवाइए , माननीय हाईकोर्ट के आदेश के मद्देनज़र या फिर इन का बकाया वेतन दिलवाइए। प्रबंधन न माने तो रिकवरी नोटिस जारी कीजिए। '

 ' राइट सर  ! यस सर ! ' करता रहा , डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह। शंभुनाथ जी ने अपनी वरिष्ठता और प्रोटोकाल भूल कर डिप्टी कमिश्नर एस पी सिंह से लगभग मनुहार करते हुए कहा कि देखिए , ' इन को चार-पांच लाख रुपए मिल जाएंगे तो इन का कुछ भला हो जाएगा। थापर का इस से क्या बिगड़ जाएगा ? चार-पांच लाख रुपए थापर के लिए मैल बराबर भी नहीं है। ' यह नब्बे के दशक का पूर्वाद्ध था। थापर ग्रुप पायनियर का नया मालिक था। जयपुरिया ग्रुप ने अख़बार बेच दिया था। 

' यस सर , राइट सर ! ' करते हुए एस पी सिंह चला गया। मैं भी चलने को हुआ तो शंभुनाथ जी ने मुझे रोक लिया। काफी मंगवाई। काफी पीते हुए , मैं ने उन से पूछा ,  'आप को क्या लगता है कि हमारा काम हो जाएगा ? ' वह बोले , '  उम्मीद तो पूरी है ! ' चलने लगा तो वह बोले , ' अगर ज़्यादा दिक़्क़त हो तो कुछ पैसे ले लीजिए ! ' कहते हुए उन्हों ने अपना पर्स निकाल लिया। मैं ने पूरी सख़्ती और पूरी विनम्रता से हाथ जोड़ कर , सिर हिला कर मना कर दिया। उस पूरी बेरोजगारी में कभी किसी के आग हाथ नहीं पसारा। न कभी किसी से कुछ लिया। न घर में , न बाहर। सारी तकलीफ़ चुपचाप पीता गया। 

हालां कि मेरे मित्र एक दूसरे पी सी एस ने चर्चा चलने पर साफ़ बता दिया कि एस पी सिंह आप का काम नहीं करेगा। पी एल पुनिया का आदमी है। शंभुनाथ को वह सेटता ही नहीं। सामने की बात और है। तो भी चार दिन बाद डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह से मैं ने मिल कर बात की। वह बिलकुल वीर रस में था। बोला , ' लट्ठ से लट्ठ बजा दूंगा , पायनियर की। थोड़ा समय दीजिए। ' पायनियर प्रबंधन को नोटिसनुमा चिट्ठी लिखी भी। पायनियर प्रबंधन कुछ जवाब देता इस नोटिस का कि मेरा दुर्भाग्य जैसे मेरे सिर पर सवार हो गया। शंभुनाथ जी का ट्रांसफर हो गया , श्रम सचिव पद से। शंभुनाथ जी का ट्रांसफर क्या हुआ , मेरा मामला फिर खटाई में पड़ गया। पायनियर प्रबंधन की लट्ठ से लट्ठ बजाने की शेखी बघारने वाला डिप्टी लेबर कमिश्नर एस पी सिंह अब मुझ से कतराने लगा। न फ़ोन पार बात करता , न मिलता। डिप्टी लेबर कमिश्नर बहुत छोटा पद होता है और कि महत्वहीन भी। लेकिन प्रबंधन से किसी लड़ते हुए आदमी के लिए बहुत बड़ा अफ़सर। लगभग भगवान। ज़्यादातर कारखानों में काम करने वाले मज़दूर इस का शिकार होते हैं। नरक भोगते हैं। पत्रकार आदि इक्का - दुक्का। ह्वाइट कॉलर वालों के लिए लेबर आफिस नहीं था। अब तो किसी के लिए नहीं है। अधिकतम डिप्टी लेबर कमिश्नर का हफ़्ता , महीना टाइप बंधा रहता है। सो मज़दूरों के हक़ में फैसला लगभग नहीं ही आता है। लेबर ट्रिब्यूनल का भी यही हाल है। वहां कोई रिटायर्ड जज होता है। सरकारों ने मज़दूरों का गुस्सा आदि कुंद करने के लिए ही श्रम विभाग खोल रखा है। ठीक वैसे ही जैसे मद्य निषेध विभाग है , शराब रोकने के लिए और आबकारी विभाग है , शराब बेचने के लिए। मद्य निषेध की नौटंकी चलती रहती है , शराब बिकती रहती है। राजस्व बढ़ता रहता है। सरकार कोई हो। बाद में यही एस पी सिंह प्रमोटी आई ए एस बन कर आज़म खान का ख़ास बन गया। सचिव बन गया। पहले पी एल पुनिया का ख़ास था। फिर आज़म ख़ान का। आज़म खान ने रिटायर होने के बाद एक्सटेंशन दिलवा दिया इसे। पर आज़म खान की जब सत्ता डोली , गर्दिश में दिन आए , लपेटे में आने के डर से इस एस पी सिंह ने भाजपा ज्वाइन कर ली। आज़म ख़ान सहित उस के कई गुर्गे जेल में हैं पर इस एस पी सिंह पर कोई आंच नहीं आई। 

खैर , उन दिनों जब बहुत हो गया तो एक बार फिर मैं मिला शंभुनाथ जी से। अपनी फ़रियाद दुहराई। वह लाचार दिखे। कहने लगे , ' अब तो मैं उस को फ़ोन पर भी कुछ नहीं कह सकता ! ' उन्हों ने जोड़ा , ' लगता है , मैनेजमेंट से मिल गया है वह। ' बाद में मैं ने एक उपन्यास ही लिखा इस पूरी लड़ाई पर। अपने-अपने युद्ध। सारे सिस्टम सहित , न्यायपालिका की धज्जियां उड़ा दी हैं। आज भी ख़ूब पढ़ा जाता है यह उपन्यास। फिर इसी उपन्यास अपने-अपने युद्ध पर कंटेम्प्ट ऑफ़ कोर्ट भी झेला। ख़ैर , तब दूसरी नौकरी भी मिल गई। सत्ता के गलियारों में फिर घूमने लगा। सब कुछ पहले जैसा तो नहीं रहा , पर सब कुछ लगभग सामान्य हो गया। ज़िंदगी पटरी पर आ गई। शंभुनाथ जी से गाहे-बगाहे कभी भेंट हो जाती थी। बहुत सी बातें और मुलाक़ातें हैं उन के साथ। पर उन का नया रूप देखने को तब मिला जब वह राज्यपाल के प्रमुख सचिव थे। दिनकर पर उन की पी एच डी थी , यह तो जानता था पर वह अभिन्न और अविरल अध्येता हैं , अदभुत वक्ता हैं , तब ही जाना। 

उन दिनों आचार्य विष्णुकांत शास्त्री उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की तब के समय की प्रधान संपादक डाक्टर मंजुलता तिवारी एक लेखिका संगठन में भी थीं। तुलसी जयंती पर एक कार्यक्रम आयोजित किया मंजुलता तिवारी ने। लखनऊ के राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता या कि मुख्य अतिथि के तौर पर आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी को बुलाया गया था। सब कुछ ठीकठाक चल रहा था। लोगबाग उन की प्रतीक्षा में थे। अचानक शंभुनाथ जी आए। आयोजकों से विनयवत वह मिले। हाथ जोड़ कर बोले कि , ' आचार्य जी अस्वस्थ हो गए हैं। बहुत तेज़ बुखार हो गया है। इस कार्यक्रम में नहीं आ पाएंगे। ' इस बाबत एक औपचारिक पत्र भी वह साथ में लाए थे। मंजुलता तिवारी आगे बढ़ कर बोलीं , ' तो आप ही उन की जगह आ जाइए ! ' शंभुनाथ जी ने हाथ जोड़ कर कहा , ' आचार्य जी की जगह मैं कैसे ले सकता हूं ? ' मंजुलता तिवारी निरुत्तर हो कर शर्मिंदा हुईं और बोलीं , ' मेरा मतलब है , इस आयोजन में उन की जगह बोलने के लिए। ' शंभुनाथ जी ने फिर हाथ जोड़े और कहा कि , ' इस के लिए भी मुझे आचार्य जी की अनुमति लेनी पड़ेगी। ' मंजुलता जी ने कहा , ' फोन कर लीजिए। ' तब मोबाईल का ज़माना नहीं था पर लैंड लाइन फ़ोन था राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में। शंभुनाथ जी ने कहा , ' फोन पर यह अनुमति नहीं मांग सकता। इस के लिए मुझे आचार्य जी के पास जाना पड़ेगा।' मंजुलता तिवारी और अन्य आयोजक मान गए। शंभुनाथ जी वापस राजभवन गए। एक घंटे में लौटे। कार्यक्रम में काफी विलंब हो गया। पर लोग रुके रहे। आते ही शंभुनाथ जी ने हंसते हुए , हाथ जोड़ कर बताया कि आचार्य जी ने अनुमति दे दी है। मंच पर लोग बैठ गए। औपचारिकताएं हुईं। आख़िर में बोलने के लिए शंभुनाथ जी माइक पर आए। पहला ही वाक्य बोले कि , ' इस तरह तुलसी जयंती मनाने की क्या ज़रूरत है ? पूरे हाल में खुसफुसाहट शुरू हो गई। विरोध के स्वर भी उठे। कहा गया कि , ऐसे आदमी को बुलाने की क्या ज़रूरत थी ? दलित है , यह तो ऐसे ही बोलेगा ! आदि-इत्यादि। कि तभी शंभुनाथ जी बोले , ' तुलसी जयंती तो पूरी दुनिया में हर रोज , हर क्षण मनाई जाती है। तुलसी जयंती कोई एक दिन की बात तो है नहीं ! ' वह बोले , ' दुनिया का ऐसा कौन सा हिस्सा है जहां तुलसी की रामायण नहीं है। रामायण तो हरदम , हर जगह पढ़ी जाती है। तुलसी जयंती इस तरह रोज मनाई जाती है। दुनिया भर में। जहां रामायण लोग पढ़ें , तुलसी जयंती मन जाती है। ' शंभुनाथ जी यहीं नहीं रुके। रामायण के एक से एक प्रसंग सुनाने लगे। राम सेतु पर उमाकांत मालवीय की कविता का संदर्भ लिया। सेतु प्रसंग के अनखुले पृष्ठ खोलने लगे। तुलसी के जीवन के कई आयाम आए उन के उदबोधन में। कोई एक घंटे से अधिक वह बोले। बोले क्या जैसे अमृत वर्षा कर रहे हों। उन का वह अमृत उदबोधन आज भी कान में अमृत रस घोलता रहता है। कार्यक्रम समाप्त हुआ। 

मंच से जब वह उतरे तो मैं ने उन का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा , ' आज तो आप का यह अलौकिक रूप देख कर मुग्ध हो गया हूं। यह कैसे संभव हो गया ? ' वह विनयवत बोले , ' सब आचार्य जी की संगत का असर है। उन का ही आशीर्वाद है। ' आचार्य जी मतलब आचार्य विष्णुकांत शास्त्री। विष्णुकांत शास्त्री थे ही ऐसे। सब को अपना बना लेने वाले। अपने रंग में रंग देने वाले। अपनी विद्वता और विनम्रता के आगोश में लपेट लेने वाले। शंभुनाथ जी ही नहीं , अपने स्टाफ के कई आई ए एस , पी सी एस अफसरों को विष्णुकांत शास्त्री जी ने अपने इसी रंग में रंग लिया था। शंभुनाथ जी अपने आचार्य जी की इस रंगोली  के सब से चटक रंग थे। शंभूनाथ जी कभी विष्णुकांत शास्त्री का नाम भी नहीं लेते थे। महामहिम राज्यपाल भी नहीं , आचार्य जी से संबोधित करते थे। पतिव्रता स्त्रियों की तरह वह नाम लेने से बचते थे। ठीक वैसे ही जैसे नामवर सिंह , हजारी प्रसाद द्विवेदी को नाम से नहीं , सर्वदा गुरुदेव कह कर संबोधित करते थे। कम लोग जानते हैं कि विष्णुकांत शास्त्री और नामवर सिंह बहुत गहरे मित्र थे। अटल बिहारी वाजपेयी और नामवर सिंह के बीच सेतु थे विष्णुकांत शास्त्री। बहुतेरी बातें हैं। पर अभी बात शंभुनाथ जी की। 

शंभुनाथ जी रांची के रहने वाले थे पर जब उत्तर प्रदेश कैडर मिला उन्हें 1970 में और लखनऊ आए तो तो वह कहते हैं न कि लखनऊ हम पर फिदा है, हम फिदा-ए-लखनऊ वाली बात हो गई। उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में वह कलक्टर भी रहे पर उन की ज़िंदगी में लखनऊ पहले आप पर आ कर ठहर गया। उन्हों ने लखनऊ में अपने आप का विलय कर दिया। इसी लिए वह हम से , सब से ही , पहले आप की भावना में भीग कर ही मिलते थे। अपने हम को , दूसरों में घुला देते थे। नौकरी में वह मुख्य सचिव की कुर्सी तक पहुंचे। प्रदेश की सब से ताक़तवर कुर्सी। पर कोई एक विवाद उन्हें छू तक नहीं गया। हिंदी संस्थान के कार्यकारी अध्यक्ष भी बने। यहां भी कोई विवाद नहीं। बाद के समय में वह साहित्यिक सभाओं के वक्ता बन कर परिचित हुए। किसी भी विषय पर वह बोलते , किसी भी किताब पर बोलते तो पूरी तैयारी से बोलते। संदर्भ और अर्थ के साथ ऐसे बोलते जैसे कोई कारीगर चूल से चूल मिला रहा हो। न पेंच ज़्यादा कसते , न पेच ढीला छोड़ते। विषय तय करने वाला या कोई पुस्तक लिखने वाला भी उतना नहीं सोचता , जितना अर्थ , जितना संदर्भ वह खोल कर रख देते। वह कहते हैं न , अनावरण। तो वह कोई विषय हो , कोई किताब हो , उसी तरह अनावरण करते जैसे किसी चित्र का। किसी शिलालेख , किसी शिलापट्ट का। किसी विषय पर उन का स्पर्श ऐसा था कि किसी भी शिला को , अहिल्या बना देता। इतना कि अहिल्या भी औचक हो कर उन्हें देखने लगे। बातों में उन के इतना सौंदर्य था , इतना औदार्य था कि पूरी सभा रूपवती हो जाती थी। उन के व्याख्यान कोई कैसे भूल सकता है। और वह भी उस लखनऊ सहित पूरे देश में जहां कई सारे ऐसे उदभट विद्वान हैं जिन्हें आप विषय कोई भी दीजिए , किताब कोई भी दीजिए , बोलना उन को वही है , जो वह बोलते आए हैं। बोलते रहेंगे। कभी सूत भर भी इधर-उधर नहीं होते यह उदभट विद्वान लोग। उन की चुनी हुई चुप्पियां , उन के चुने हुए विरोध उन्हें मशरूम बना चुके हैं , यह लोग यह बात कभी जान ही नहीं पाए। कभी जान भी पाएंगे , मुझे शक़ है। ऐसे ख़तरनाक़ समय में शंभुनाथ जी का विदा लेना शूल का बोध करवाता है। शंभुनाथ जी की बहुत सी बातें हैं , बहुत सी यादें हैं जो फिर कभी। अभी तो : ' जैसी हो भवतव्यता वैसी मिले सहाय, ताहि न जाए तहां पर ताहि तहां ले जाए। ' यही उन के बोले अंतिम वाक्य थे और यही उन की अंतिम फ़ोटो है। शंभुनाथ जी , आप की विभा को , आप के आचार्यत्व को हम कभी भूल नहीं पाएंगे। यह दुर्योग ही है कि नोएडा प्रवास के कारण आप का अंतिम दर्शन करने से वंचित रह गया हूं।

 विनम्र श्रद्धांजलि ! 

Wednesday, 27 August 2025

यादों की देहरी की कैफ़ियत

डॉ. सुरभि सिंह

हिंदी साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में दयानंद पांडेय जी का नाम किसी परिचय की सीमा में नहीं बंधा है। उनके द्वारा लिखी गई समृद्ध रचनाएं उनका परिचय स्वयं दे देती हैं। उन्होंने लगभग सभी विधाओं में लिखा है। उनका लेखन सामाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है। स्त्री विमर्श और स्त्री मनोविज्ञान से संबंधित उनकी रचनाएं मील का पत्थर बन गई हैं जैसे "बांसगांव की मुनमुन।"

कमोवेश उनकी सभी रचनाओं में नारी विमर्श प्रमुखता के साथ दिखाई देता है। प्रस्तुत संस्मरण पुस्तक "यादों की देहरी" किसी दरिया की तरह कल-कल बहती हुई, किसी पहाड़ी नदी की तरह उछलती हुई है। देहरी शब्द का अर्थ है "दहलीज"। दहलीज वह स्थान होता है जो घर के अंदर और बाहर दोनों की सीमाओं को जोड़ने का कार्य करता है। इसलिए यदि प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए तो "यादों की देहरी" लेखक के अंतर्मन के साथ अतीत और वर्तमान को जोड़ने का कार्य कर रही है।

यादों की देहरी नाम से संस्मरण की यह उनकी चौथी किताब है। जिसमें उन्होंने कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के साथ साझा किए हुए पलों और अहसासों को सधे और कलात्मक शब्दों में लिखा है। लेखक की भाषा की विशेषता उसके लालित्य में है। जब आप उनकी रचनाएं पढ़ेंगे तो देखेंगे कि उसमें जनजीवन के प्रचलित शब्दों को भी कलात्मकता प्रदान कर दी गई है।

उनके सभी शब्द लोक जीवन से जुड़े हुए जान पड़ते हैं। मानो ढोलक की थाप सुनाई दे रही हो। लेखन के शिल्प के साथ-साथ उसमें भावनात्मकता भी है लेकिन यह भावनात्मकता कहीं भी नाटकीयता का रूप नहीं लेती है। उन्होंने अपनेइन संस्मरणों में व्यावहारिकता पर भावनात्मक पक्ष को हावी नहीं होने दिया है। हालांकि कहीं-कहीं इन्हें पढ़कर स्वतः आंखें भर आती हैं।

प्रत्येक संस्मरण अपने आरंभ से अंत तक पूर्ण है फिर उसके बाद कुछ भी जानने की इच्छा नहीं रह जाती है, जब तक कि अगला संस्मरण पढ़ना न आरंभकिया जाए। संस्मरणों का शीर्षक भी अपने आप में एक अलग तरह का माधुर्य लिए हुए है। सामान्यतः शीर्षक संक्षिप्त होते हैं और पाठकों में एक उत्सुकता उत्पन्न कर के बंद हो जाते हैं, लेकिन इस यादों की देहरी के सभी संस्मरणों के शीर्षक भी उन्हीं की तरह खुले हुए हैं मानो कोई वाक्य कह दिया हो, किसी ने किसी से कुछ बात कह दी हो, उदाहरण के लिए :

"हैंडशेक क्या लेगशेक भी करने को तैयार थे वह, इसी लिए तुरंत इंडिया भेजे गए"

इन संस्मरणों के विषय सीमित नहीं हैं। राजनीति, कला, फिल्म, संगीत और काव्य जगत से जुड़ी हुई अनेक विभूतियों को उन्होंने अपनी यादों में स्थान दिया है। लेखन जब तक "स्वांतः सुखाय" से विकसित होता हुआ सर्वजन तक नहीं पहुंचता है तब तक वह अपने उद्देश्य में पूर्ण नहीं होता है। यानी हम अपनी संतुष्टि के लिए लिखें लेकिन उसकी परिणति लोगों की भलाई या लोगों तक उत्पादक विचारों को पहुंचाने में हो। इस दृष्टि से यह सभी संस्मरण पूरी तरह सफल रहे हैं।

"बेटी की कामयाबी के लिए इतना दीवाना पिता मैंने कहीं नहीं देखा" शीर्षक संस्मरण में उन्होंने एक पिता के संघर्ष और उस के प्रतिफल का वर्णन किया है। यह पिता मालिनी अवस्थी के पिता हैं प्रमथ नाथ अवस्थी। यह संस्मरण एक बेटी के लिए पिता का त्याग, उसका संघर्ष और उसकी लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनवरत तपस्या का वर्णन करता है। इसे पढ़ने के उपरांत यह समझ में आता है कि सपना पहले मां-बाप देखते हैं तब बच्चे उसे पूरा करते हैं। निस्संदेह यह एक सार्थक सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करता है।

इसी प्रकार कैफ़ी आज़मी जी के जीवन से जुड़े संस्मरण में अपने गांव को विकसित करने की ललक मन में एक संतोष उत्पन्न करती है कि शायद आने वाली पीढ़ियों में अपने माता-पिता की जड़ों के प्रति लगाव बना रहे। ऐसा नहीं है कि इन संस्मरणों में सिर्फ सुंदर और सकारात्मक पक्षों की ही बात की गई है बल्कि विद्रूपताओं को भी उभरा गया है। क्योंकि जब तक हम कुरूपता और विद्रूपता की बात नहीं करेंगे तब तक उन्हें दूर करने के प्रयास सामने नहीं आएंगे और उन्हें दूर करने के बाद ही हम सुंदरता का प्रारंभ कर सकते हैं। अनेक संस्मरण हृदय की गहराइयों तक पहुंच जाते हैं इन में उनकी भावनात्मकता अपने चरम पर है।

योगेश प्रवीन जी से जुड़ा संस्मरण, नरेंद्र कोहली जी पर लिखा गया संस्मरण, कृष्ण बिहारी जी पर लिखा गया संस्मरण और संजय त्रिपाठी जी के जीवन संघर्षों पर लिखा गया संस्मरण, आंखों में नमी ला देता है। इनमें मार्मिक भाव व्यक्त हुए हैं। कुछ हल्के-फुल्के संस्मरण भी हैं जो संतुलन बनाए रखते हैं। कोई चाहे तो इन संस्मरणों पर पूरी एक कथा या उपन्यास भी लिख सकता है लेकिन उनकी मौलिकता को बनाए रखते हुए लेखक ने उन्हें इस रूप में रहने दिया है।

ऐसा लगता है मानो कोई पत्तियों पर पड़ी हुई ओस को सहेज कर बस निहारता रहे। तपती धरती पर पड़ने वाली बारिश की बूंदें एक महक और सोंधापन लिए होती हैं। यही अहसास इन संस्मरणों को पढ़ने के बाद होता है। लगता है बारिश में देर तक भीग चुके हों या किसी अमराई से निकल रहे हों, आगे पीछे कोई नहीं। एक ऐसी यात्रा जो आरंभ से लेकर अंत तक बिना किसी बाधा के पूर्ण होती जाए और हम उस की पूर्णता को अनुभव करते चल रहे हों वैसे भी लेखन स्वयं में एक यात्रा ही है, एक आंतरिक संतुष्टि, एक आंतरिक तलाश जिसमें लेखक दयानंद पांडेय जी भी निकल पड़े हैं।

किसी भी लेखक के लेखन में पैनापन और धार तभी सामने आती है जब उसमें निर्भीकता हो। निर्भीकता का तात्पर्य है जब लेखक स्वयं आलोचकों से अपनी समीक्षा करने के लिए कहता है और ललकारता है "जो चाहो, वो लिखो" तब इसका सीधा-सा स्पष्ट अर्थ यही होता है कि उसे स्वयं पर पूर्ण विश्वास है। यह विश्वास दयानंद पांडेय जी की सभी साहित्यिक कृतियों में दिखाई देता है और यही शिवम का सृजन करता है। साहित्य में सत्यम शिवम सुंदरम तीनों का होना

अनिवार्य है और यह अनिवार्यता उनकी सभी रचनाओं में मिलती है।

हिंदी साहित्य में संस्मरण लेखन की परंपरा नई नहीं है इसके पहले भी अनेक लेखकों ने संस्मरण संबंधी पुस्तकें लिखी हैं जिसमें उन्होंने मार्मिक भावभीव्यंजना  के साथ अपने अनुभव और भावों को व्यक्त किया है। लेखक दयानंद पांडेय जी ने इससे पहले संस्मरण संबंधी अनेक पुस्तकें लिखी हैं जिनमें यादों का मधुबन, हम पत्ता, तुम ओस, और नीलकंठ विषपायी अम्मा प्रमुख हैं। संस्मरणों की उनकी और भी किताबें आने वाली हैं।

संस्मरणों की सबसे बड़ी सार्थकता यह होती है कि कम समय में अधिक लोगों से जुड़ने का अवसर प्राप्त हो जाता है। क्योंकि साहित्यकार हमें जोड़ने का कार्य करता है जैसा कि लेखक ने अपनी रचना का शीर्षक भी दिया है। यहां देहरी के रूप में भी वह स्वयं है। वह अपने पाठकों को अपने जीवन में आने वाले उन लोगों के साथ परिचित कराता है जिन्होंने कहीं-न-कहीं उसपर अपना प्रभाव छोड़ा है।

मैं यहां पर संस्मरणों के विषय में अधिक नहीं बताऊंगी क्योंकि इससे रचनाधर्मिता और उसकी उत्सुकता प्रभावित होती है। रचना का औत्सुक्य बना रहना चाहिए। इसलिए आप स्वयं सभी संस्मरणों को पढ़ें और उनके विषय में जानें। एक बार जब पुस्तक उठा ली जाती है तो फिर उसे रखने का मन नहीं होता निरंतर आगे बढ़ते जाने का मन होता है कि अगली प्रस्तुति में क्या है?

जैसे सौंदर्य क्षण-क्षण परिवर्तित होता रहता है वैसे ही इस रचना में हर संस्मरण एक परिवर्तित भाव भूमि लेकर हमारे सामने आता रहता है। रचना में उत्सुकता बने रहना बहुत अनिवार्य है, वह भी ऐसे समय में जब लोगों ने पढ़ना बहुत कम कर दिया है और पूरी तरह से डिजिटल या सोशल मीडिया पर आधारित हो गए हैं। किंतु यह दौर बहुत अधिक समय का नहीं है। आज के लेखक आशावाद से भरे हुए हैं। क्योंकि सभी को पता है कि पाठक समाज पुनः पुस्तकों की ओर लौटेगा।

पुस्तकों की ओर लौटना बहुत अनिवार्य है। इसके लिए आज साहित्यकारों का सबसे बड़ा उत्तरदायित्व है कि सार्थक साहित्य का सृजन करें। बस मात्र लिखने के लिए न लिखें। छान कर, निथार कर, सोच-समझ कर लिखें वह लिखें जो न केवल लोगों को आनंदित करे बल्कि समाज को दिशा देने का भी कार्य करे।

इस दिशा में प्रस्तुत रचना, श्रृंखला की कड़ी बनकर सामने आती है। यादों की देहरी अपने भीतर एक लंबी जीवन यात्रा समेटे हुए है। पुस्तक आपके हाथों में है और आप भी इस जीवन यात्रा से होकर निकलें तो ढेर सारे विचार बिंदु आपके साथ हों इसी कामना के साथ।


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2/394 सेक्टर एल एल डी ए कॉलोनी, कानपुर रोड लखनऊ - 226012 मोबाइल: 9919212800, 82998 71513


Tuesday, 19 August 2025

प्रेम का शोक गीत

 भवतोष पांडेय 

‘तुम्हारे बिना’ वरिष्ठ साहित्यकार श्री दयानंद पांडेय का एक भावनात्मक कहानी-संग्रह है, जिसमें प्रेम, वियोग, समाज, संवेदना और स्त्री-पुरुष के जटिल संबंधों की गहराई को मार्मिकता से प्रस्तुत किया गया है। यह संग्रह समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में प्रेम के बहाने एक गहन मानवीय खोज है, जिसमें विरह का सौंदर्य, स्मृति की पीड़ा, और स्त्री की आकांक्षाओं का स्वरूप एक नई संवेदना में ढलकर सामने आता है।

कहानी संग्रह : ‘तुम्हारे बिना’  की पहली कहानी 

तुम्हारे बिना शीर्षक से है । यह लेखक श्री दयानंद पांडेय की इस संग्रह की की प्रतिनिधि कहानी कही जा सकती है । 

बेहतर होगा कि विस्तार से इस प्रतिनिधि कहानी की चर्चा हो ।

कथा का स्वरूप और संरचना:

‘तुम्हारे बिना’ कोई पारंपरिक कथा नहीं, बल्कि यह एक लंबा आत्मालाप है — एक प्रेमी पुरुष की अंतरात्मा की चीख। इसमें नायक का वाचक (narrator) नायिका से संबोधित होकर एक भावनात्मक अंत:प्रवाह रचता है, जिसमें स्मृति, प्रेम, पीड़ा और वियोग एक साथ बहते हैं।

यह कहानी अपने रूप में मनोवैज्ञानिक प्रेम-मोनोलॉग है, जिसमें किसी बाहरी संवाद या घटनाक्रम की आवश्यकता नहीं, क्योंकि पाठक उस मन में घुस जाता है, जहां प्रेम ने अपने तमाम रंग छोड़े हैं — कभी मीठे, कभी तीखे, और कभी असह्य।

‘तुम्हारे बिना’ एक विरह-वेदना की कथा है, जिसमें नायक अपने जीवन से एक स्त्री — ‘तुम’ — के चले जाने के बाद की खाली ज़िंदगी को शब्द देता है। यह 'तुम' अब न तो लौट सकती है, न मिलती है, न संवाद करती है। लेकिन उसकी स्मृति, उसका प्रेम, उसका स्पर्श, उसकी हँसी, उसका कोप, उसके होठ, उसके बाल, उसकी देह — सब कुछ अब भी नायक के भीतर जीवित है। वह यादों की नदी में बार-बार गोता लगाता है, कभी तैरता है, कभी डूबता है।

वह कहता है:

"तुम्हारे बिना ज़िंदगी टूटे हुए दर्पण की तरह है — जिसमें अब मैं ख़ुद को नहीं देख पाता।"

यह कहानी प्रेम की ऊँचाइयों से गिरकर एक अंतहीन खालीपन में गिरने की प्रक्रिया को दर्शाती है। नायक के लिए प्रेम अब यादों की बारिश बन गया है, जो उसकी हर रचना में भीगती है। उसे नायिका की देह की गंध, नमी, आवाज़, आंसू — सब कुछ याद है, परंतु वो स्त्री अब नहीं है।

     स्त्री यहां कोई 'चरित्र' मात्र नहीं, बल्कि एक अनुभव है, प्रतीक है, रचना का केंद्रबिंदु है। वह नायक की ज़िंदगी में नदी की तरह आई — बहती रही — और फिर लहर बनकर छोड़कर चली गई। लेकिन वह लहर अपने पीछे नमी छोड़ गई, स्थायी स्मृति बन गई।

     लेखक ने प्रेम को केवल देह तक सीमित नहीं रखा — बल्कि देह के माध्यम से आत्मा तक पहुंचने की कोशिश की है। वह स्त्री के अंगों, उनकी गंध और रंगों का वर्णन करता है, लेकिन उसे केवल 'काया' नहीं मानता — बल्कि एक पूजा की मूर्ति, एक रस की नदी, एक चांदनी के रूप में देखता है।

      कहानी में संकेत मिलता है कि यह प्रेम सामाजिक मर्यादाओं के बाहर का प्रेम है। दोनों प्रेमी पूर्ण रूप से एक नहीं हो सकते — क्योंकि दुनिया की दीवारें हैं, रिश्तों की जंजीरें हैं। लेखक कई बार पूछता है:

"क्या यह मोहब्बत थी या ज़रूरत?"

कवित्वपूर्ण गद्य:

भाषा कहीं-कहीं इतनी काव्यात्मक हो जाती है कि कहानी कविता का रूप ले लेती है। उदाहरणस्वरूप:

“जब तुम मिलती थी तो बरखा बन कर, और मैं तुम्हारे भीतर जलतरंग बन कर उतर जाता था।”

नदी, बारिश, कोहरा, चांद, गुलमोहर, आम, झील — ये सभी प्राकृतिक बिंब कहानी को सौंदर्य और गहराई देते हैं।

चिरपरिचित उपमानों का नवप्रयोग भी इस कहानी की केंद्रीय विशेषता है ।

‘दशहरी आम’, ‘बांसुरी’, ‘मालकोश’, ‘नदी की लहर’, ‘कोहरे में ठंड’ — ये प्रतीक प्रेम को बहुत निजी और जीवन्त बना देते हैं।

‘वह’ एक संवेदनशील, भावुक, प्रेम में डूबा हुआ पुरुष है, जो प्रेम में बहुत कुछ हार चुका है — और अब यादों का जीवित शव बन गया है। वह अपने टूटे हुए प्रेम की राख को हर दिन समेटता है, और उसी में तप कर शब्दों का चिराग जलाता है।

 ‘तुम’

वह प्रत्यक्षतः अनुपस्थित है, लेकिन पूरी कहानी में उपस्थित है। वह प्रेम की नदी है, तो कभी कूल्हों की नमी, कभी मुस्कान की चांदनी। वह पूर्ण है, फिर भी छूटी हुई। वह एक अनुभूति है, प्रतीति है, और पीड़ा भी है।

लेखक अंत तक यह प्रश्न करता है:

* क्या यह प्रेम था या शारीरिक आवश्यकता?

* क्या प्रेम वाकई अमर होता है?

* क्या एक स्त्री समाज के डर से प्रेम को छोड़ देती है?

* क्या ‘तुम’ कभी लौटोगी?

यह कहानी पाठक को अकेला छोड़ देती है — लेकिन यह अकेलापन कातर नहीं, आत्मीय है।

आज के शहरी, व्यस्त, वर्जनाओं से ग्रस्त समाज में 'तुम्हारे बिना' एक मनुष्य की अदृश्य पीड़ा की शिनाख्त है। यह उस प्रेम की कथा है, जो समाज की दीवारों में कैद रह जाता है, और कविताओं में सांस लेता है।

‘तुम्हारे बिना’ कोई प्रेमकहानी नहीं, प्रेम का शोकगीत है। यह उस गहरे, अदृश्य प्रेम का दस्तावेज़ है, जिसे न कोई मंज़िल मिली, न स्वीकृति — लेकिन जिसने जीवन भर जलाया, तपाया, और शब्दों के माध्यम से अमरता दी।

यह एक ‘कहानी’ नहीं, एक प्रेम-विरह उपनिषद है।�एक ऐसा दस्तावेज़ जो पाठक को अंत तक भीतर से गीला करता है।

1. संवेदनशीलता और भावभूमि:�मुख्य कहानी "तुम्हारे बिना" एक आत्म-स्वीकृति और प्रेम के विछोह से जन्मी भाव-सरिता है। इसमें प्रेम के साथ बिताए क्षणों की स्मृति, शरीर और मन की अतल पीड़ाएँ, और एक विरह की आग में जलते पुरुष की मौन पीड़ा को बहुत ही खूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है।

2. भाषा और शैली:�दयानंद पांडेय की भाषा अत्यंत कवित्वमयी, चित्रात्मक और अन्तर्मुखी है। वे प्रेम की भाषा को इंद्रियों के स्तर से उठाकर आध्यात्मिक गहराई तक ले जाते हैं। उदाहरण के तौर पर प्रेमिका को ‘दशहरी आम’ कहने वाले उपमान और जलतरंग, मादक गंध, कोहरा, नदी, झील जैसे प्रकृति-संकेतक उनके शिल्प की सौंदर्यता को दर्शाते हैं।

3. स्त्री-पुरुष संबंधों की पड़ताल:�इस संग्रह की कहानियाँ विशेष रूप से स्त्री की अस्मिता, प्रेम में स्त्री की बराबरी, और संवेदनशील पुरुष पात्रों के माध्यम से सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर विमर्श प्रस्तुत करती हैं। विशेष रूप से "तुम्हारे बिना" में स्त्री को केवल देह नहीं, अपितु आत्मा का प्रेम रूप माना गया है।

�'तुम्हारे बिना' महज़ एक कहानी नहीं, बल्कि मनोवैज्ञानिक एकालाप है। यह कहानी एक चिट्ठी के रूप में अपने प्रेम को पुकारती है, तलाशती है, प्रश्न करती है और अंतिम सत्य से टकरा कर मौन हो जाती है।

संग्रह की अन्य कहानियाँ:

संग्रह में 'लेकिन', 'शिकस्त', 'हत्यारा', 'सपनों का सिनेमा', 'स्ट्रीट चिल्ड्रेन', 'स्क्रिप्ट से बाहर' जैसी कहानियाँ भी सम्मिलित हैं, जो विभिन्न सामाजिक यथार्थों — जैसे धार्मिक रूढ़ियाँ, मिडिल क्लास की असुरक्षा, स्त्री की चुप पीड़ा, शहर की अकेली रातें, और यथार्थ की टकराहटों को उजागर करती हैं।

* लेखक प्रेम को मात्र कामनाओं का खेल नहीं बल्कि अंतर्मन की पूजा मानते हैं।

* ‘तुम्हारे बिना’ प्रेम का मनोगत भूगोल रचती है, जिसमें पात्र अपने प्रेम को संघर्ष, त्याग, और समर्पण के रूप में जीते हैं।

* भाषा की गहरी भावबद्धता पाठक को भीतर तक भिगो देती है।

* कई हिस्से अत्यंत वर्णनात्मक और आत्मालापी हैं, जो पाठक की संवेदना को लंबे समय तक पकड़ कर रखते हैं।

और अंत में ,

‘तुम्हारे बिना’ प्रेम, विरह, स्मृति और आत्मबोध की एक मनोवैज्ञानिक नदी है, जो पाठक को कभी जल की तरह बहाती है, कभी आग की तरह जलाती है। यह पुस्तक उन पाठकों के लिए है, जो आधुनिक जीवन में प्रेम की भूमिका, उसकी जटिलताएँ और अंतरंग क्षणों की सघनता को साहित्य के माध्यम से महसूस करना चाहते हैं।

प्रेम-कथाओं के गंभीर पाठक ,स्त्री-विमर्श में रुचि रखने वाले ,आधुनिक हिन्दी साहित्य के शोधार्थी और भावप्रवण गद्य-शैली के प्रेमी पाठक गण को यह कहानी संग्रह ज़रूर पढ़ना चाहिए ।






समीक्ष्य पुस्तक: तुम्हारे बिना 

प्रकाशक: अमन प्रकाशन, कानपुर

�मूल्य: ₹375

�लेखक: श्री दयानंद पांडेय