Tuesday 24 October 2023

विपश्यना में प्रेम : मुश्किल है मन के घोड़े पर लगाम लगाना

डॉ. लवलेश दत्त

पुरुषार्थ साधना का आख्यान

शास्त्रों में मनुष्य के लिए चारों पुरुषार्थों को साधना ही जीवन का लक्ष्य बताया गया है। हालां कि चारों पुरुषार्थों—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की व्याख्या नाना प्रकार से विद्वानों ने की है और किस को कितना महत्त्व जीवन में देना है इस पर भी अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। सब ने अपने-अपने अनुभवों के आधार पर इन को परिभाषित और व्याख्यायित किया है। किसी ने धर्म को महत्त्वपूर्ण बताया किसी ने मोक्ष को तो किसी ने अर्थ और काम को जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण बताया है। अगर सब की बातों का निचोड़ लिया जाए तो बहुत सरल शब्दों में कहा जा सकता है कि धर्मानुसार अर्थोपार्जन और कामतुष्टि करते हुए जीवन जीना ही मोक्ष है। कहा भी गया है—‘धर्मादर्थश्च कामश्च स धर्मः किन्न सेव्यते।’ बहरहाल यहां पुरुषार्थों की चर्चा न कर के हम एक ऐसे उपन्यास की चर्चा करेंगे जिस में इन पुरुषार्थों को साधने का मार्ग सुझाया गया है। वह उपन्यास है— 'विपश्यना में प्रेम’। प्रख्यात् साहित्यकार और प्रखर पत्रकार दयानंद पांडेय का यह सद्यः प्रकाशित उपन्यास खूब चर्चित हो रहा है क्यों कि यह एक ऐसे विषय पर केंद्रित है जो कालजयी है। उपन्यास को अलग-अलग कोणों से पढ़ने पर इस में अनेक सूत्र दिखाई पड़ते हैं लेकिन जैसा मैं ने पाया, उस से यही पता चलता है कि धर्म से मोक्ष तक के मार्ग पर बढ़ने की सीढ़ी ‘काम’ भी हो सकता है। अगर ऐसा नहीं होता तो ऋषि वात्स्यायन ‘कामसूत्र’ लिख कर अमर न हुए होते। खजुराहो के मंदिरों पर मिथुन मूर्तियां न बनी होतीं और न ही हमारी संस्कृति में काम को देवता के रूप में पूजने की परंपरा होती। वैसे पाश्चात्य देशों में भी काम की स्वीकार्यता है। रोमन में तो कामदेव को ‘क्यूपिड’ कहा जाता है, जो प्रेम और काम का देवता माना जाता है। काम के महत्त्व को आचार्य रजनीश ने भी पहचान लिया था इसीलिए ‘संभोग से समाधि की ओर’ जैसे चर्चित ग्रंथ की रचना कर के पूरे विश्व में विवाद और चर्चा का विषय बन गए।

उपन्यास के आरंभ में नायक विनय जीवन की विभिन्न समस्याओं से त्रस्त और पस्त हो कर मानसिक शांति के लिए विपश्यना करने हेतु ध्यान शिविर में आता है। शिविर में सब से पहले मौन को साधने का अभ्यास करने को कहा जाता है। मौन यानी सारे शोर को अपने भीतर जाने से रोकना। शोर केवल बाहरी नहीं भीतरी भी होता है। यहां  तक कि मौन को साधते-साधते सांसों का शोर भी सुनाई पड़ने लगता है। फिर उस शोर को लय में ले कर आना जिस से शोर, नाद में बदल सके और सांसों के आने-जाने पर दृष्टि रखना यानी कि सांसों की चाल को साधना। इतने का अभ्यास होने के बाद मनुष्य धीरे-धीरे ध्यान में उतरना आरंभ करता है। जैसे कोई अंधेरे बेसमेंट की सीढ़ियां  उतर रहा हो। ध्यान अर्थात् अपने भीतर की खोज, स्वयं की खोज और जिस दिन यह खोज पूरी होती है, व्यक्ति को जीते-जी मोक्ष मिल जाता है। उपन्यास की पूरी कहानी इसी प्रकार आगे बढ़ती है किंतु जीवन के शोर में रमे व्यक्ति के लिए मौन साधना कठिन है। सांसों की चाल देखना मुश्किल है और मुश्किल है मन के घोड़े पर लगाम लगाना। जिस का अनुभव विनय भी करता है और यह साधना उस के लिए कठिन लगने लगती है। 

इसी शिविर में वह एक सुंदर रशियन स्त्री, जिसे वह कल्पना में मल्लिका नाम देता है, के प्रति आसक्त हो उठता है, जो कि मन का स्वभाव है। परिणामस्वरूप ध्यान का अभ्यास करते हुए, उसे मन-मस्तिष्क में मल्लिका की छवि ही दिखाई पड़ती है और वह उस का स्पर्श पाने के लिए लालायित हो उठता है। उस की यह इच्छा तब पूरी होती है जब वह रात में बगीचे में टहलते हुए मल्लिका से मिलता है और बिजली जाने पर उसे चूम लेता है, लेकिन उस का चूमना जैसे मल्लिका को आमंत्रित कर देता है तथा मल्लिका उसे लिली के झुरमुट के पीछे एक अंधेरे स्थान पर ले जाती है जिसे दोनों प्रेम के प्रकाश से आलोकित करने लगते हैं। पहले संसर्ग का परिणाम यह होता है कि अगले दिन विनय का मन ध्यान में लगने लगता है और वह अपने अंदर खोना आरंभ कर देता है। अब तो यह प्रति रात का कार्य हो जाता है—रात के समय प्रेम की साधना और दिन में विपश्यना यानी ध्यान की साधना। परिणामस्वरूप विनय दोनों में ही उतरने लगता है। विचित्र बात यह है कि विनय और मल्लिका दोनों ही मौन में रहते हुए प्रेम करते हैं जिस में प्रकृति उन से संवाद करती है। दरअसल प्रेम प्राकृतिक और स्वाभाविक क्रिया है इसी लिए पांडेय जी ने प्रेम को किसी बंद अंधेरे कमरे के बजाय प्रकृति के मध्य घटते हुए दिखाया है। वास्तविकता भी यही है कि प्रेम और रति के लिए परिस्थितियां ही उत्तरदायी होती हैं। जब तक अनुकूल परिस्थितियां नहीं होतीं, प्रेम नहीं घट सकता फिर भले ही वह बंद कमरों में हो या फिर खुले वातावरण में प्रकृति के साहचर्य में।  

विपश्यना, बौद्ध दर्शन में मौन और ध्यान की क्रिया को कहते हैं। जैसा कि आरंभ में लिखा गया है कि उपन्यास पुरुषार्थ की साधना का आख्यान है, यदि हम गौर से देखें तो उपन्यास में धर्म के मार्ग पर चल कर ही विनय विपश्यना करने के लिए आता है। स्वाभाविक है इस प्रकार के शिविर में सम्मिलित होने के लिए कुछ-न-कुछ आर्थिक सहयोग, अंशदान, अनुदान, दान आदि भी दिया होगा यानी कि धर्म के बाद दूसरे पुरुषार्थ अर्थ की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है जो प्रत्यक्ष तो नहीं लेकिन सरस्वती की धारा की भांति विलुप्त रूप में उपन्यास में चल रही है।  इस के बाद तो पूरा उपन्यास तीसरे पुरुषार्थ काम पर केंद्रित है लेकिन कहीं भी काम को अश्लीलता का आवरण नहीं पहनाया गया है। हर बार उस का चित्रण प्राकृतिक उपादानों के माध्यम किया गया है, यही पांडेय जी के लेखन की विशेषता है कि वे इतनी स्वाभाविकता के साथ उपन्यास के प्रसंगों को अभिव्यक्त करते हैं कि सब कुछ सहज और स्वाभाविक लगने लगता है। शिविर के अंतिम दिन एक-एक कर के सारे रहस्यों से पर्दा उठता है कि इंग्लैंड का  युवक जो टूरिस्ट गाइड है, अपने पर्यटकों को उस ध्यान शिविर में इस लिए ले कर आना चाहता है कि उस की टूरिज्म एजेंसी को इस से अच्छा आर्थिक लाभ हो और कम खर्च में पर्यटकों के लिए अच्छा ऑफर या पैकेज उपलब्ध करवा दिया जाए। विनय यह जान कर आश्चर्य में पड़ जाता है कि यहाँ भी पैसे का खेल है। बहरहाल उसे पता चलता है कि जिसे वह मल्लिका का काल्पनिक नाम दिए हुए था , उस का असली नाम दारिया है जो अपने पति के साथ शिविर में आई थी। सब एक-एक कर के विदा हो जाते हैं और फिर लंबे समय तक कोई किसी से संपर्क में नहीं करता। कई महीनों बाद एक दिन अचानक दारिया का फोन विनय के पास आता है तो वह बताती है कि वह एक बेटे की मां बन चुकी है। वस्तुतः यह बेटा दारिया और विनय का ही है। विनय और दारिया के प्रकृतिस्थ ध्यान का सुपरिणाम है, मानो दारिया को मोक्ष मिल गया—बेटे के रूप में। विनय हल्का-सा घबराता है किंतु  दारिया यह कह कर उसकी घबराहट को दूर करती है कि वह अपने अस्वस्थ पति से मां नहीं बन सकती थी और वह विपश्यना के ध्यान शिविर में एक प्रकार से पति का उपचार कराने आई थी। साथ ही वह जानती थी कि इस से भी पति का उपचार होना असंभव है लेकिन वह किसी भी मूल्य पर मातृत्व सुख चाहती थी। अपने पति को पितृ सुख देना चाहती थी। शिविर में उसने अपने प्रति विनय का आकर्षण भाप लिया था और विनय के माध्यम से उस ने अपने पति को संतान सुख देने की योजना बना डाली। इसी योजना में वह विनय से प्रति रात मिलती थी। अन्ततः उस की योजना सफल हुई यानी कि एक प्रकार से उसे मोक्ष प्राप्त हुआ, जो उस की गोद में खेल रहा था। दारिया ने विनय को धन्यवाद दिया और एक बार भारत आ कर विनय से उस के बेटे की भेंट कराने की बात कह कर फोन रख दिया। साथ ही विनय से यह भी कहा कि उस का पति स्वयं को ही बेटे का पिता समझता है और इस से ज्यादा उसे कुछ पता नहीं। विनय की घबराहट शांत हो जाती है, मानों विपश्यना के मार्ग से चल कर उसे भी मोक्ष मिल गया हो।

उपन्यास की भाषा सहज, स्वाभाविक और आम बोलचाल की है। पांडेय जी भाषा के मामले में बहुत सतर्क रहते हैं। एक-एक वाक्य इतना सटीक और सधा हुआ है कि पढ़ने में न केवल रोचक लगता है बल्कि अपना-सा लगता है। ऐसा लगता है कि हर एक घटना सामने घट रही है और संवाद पाठक के मन में चल रहे हैं। परिणामस्वरूप उपन्यास की पठनीयता बढ़ती जाती है और जब तक पूरा उपन्यास न पढ़ लिया जाए, पाठक उसे छोड़ नहीं पाता। उपन्यास में अनेक वाक्य ऐसे हैं जो सूक्ति की तरह प्रयोग किया जा सकते हैं। उदाहरणार्थ—

1. विराट दुनिया है स्त्री की देह। स्त्री का मन उस से भी विराट।

2. बाहर हल्की धूप है, मन में ढेर सारी ठंड।

3. कथा रस में पगी बातें सीधे मन को छूती हुई भीतर तक जाती हैं।

4. मौन, मन के शोर को क्यों नहीं शांत कर पाता।

5. इश्क सेक्स नहीं है।

वर्षों पहले यानी अपने छात्र जीवन में मैंने एक पुस्तक पढ़ी थी—'संभोग से समाधि की ओर’ जैसा कि स्वाभाविक है युवा मन की तरंग और संभोग शब्द के आकर्षण ने इस पुस्तक को पढ़ने का जोर मारा। पुस्तक खरीदी और परिजनों से लुकाते-छिपाते चोरी से पूरी पुस्तक पढ़ डाली। समझ में तो क्या आना था, हां इतना अवश्य हुआ कि आचार्य रजनीश की छवि एक ऐसे व्यक्ति या उपदेशक की बन गई जो सेक्स पर बेबाक राय रखता है। उस के बाद समय के साथ-साथ जैसे-जैसे अध्ययन बढ़ता गया। ओशो की कुछ अन्य किताबें भी पढ़ीं, प्रवचन की ऑडियो सुनी और धीरे-धीरे समझ आने लगा कि न जाने क्यों इतने बड़े दार्शनिक को केवल सेक्स पर बोलने के लिए ही जाना जाता है। जबकि जीवन का कोई ऐसा प्रसंग नहीं, कोई ऐसी घटना नहीं जिस पर आचार्य रजनीश ने न बोला हो। उन्हों ने एक प्रवचन में स्वयं कहा है कि ‘उन्होंने लगभग चार सौ किताबें लिखी हैं लेकिन लोगों का ध्यान केवल एक ही पुस्तक पर जाता है—संभोग से समाधि की ओर।’ इस पुस्तक पर ध्यान जाने का कारण है कि व्यक्ति के मन पर काम का प्रभाव सर्वाधिक रहता है क्योंकि व्यक्ति का होने के पीछे काम ही एक कारण है। बहरहाल आचार्य रजनीश की पुस्तक ‘संभोग से समाधि की ओर’ की यदि सही व्याख्या कोई कर पाया तो वे हैं दयानंद पांडेय  जिन्होंने अपने उपन्यास ‘विपश्यना में प्रेम’ में कमाल कर दिखाया है। उपन्यास का शीर्षक ‘विपश्यना में प्रेम’ अवश्य है लेकिन सारी कहानी ‘प्रेम में विपश्यना’ की है। वस्तुतः जब तक तन और मन की हर प्यास शांत नहीं हो जाती, ध्यान रूपी मोक्ष मिलना कठिन है। यह बात उपन्यास में पांडेय जी ने बहुत सरलता से समझा दी है। इस के साथ ही जिस प्रकार चारों पुरुषार्थों को इस उपन्यास में पांडेय जी ने साधा है उसके लिए पांडेय जी की लेखनी को नमन और साधुवाद। 

विपश्यना में प्रेम उपन्यास पढ़ने के लिए इस लिंक को क्लिक कीजिए 


विपश्यना में विलाप 


समीक्ष्य पुस्तक :



विपश्यना में प्रेम 

लेखक : दयानंद पांडेय 

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन 

4695 , 21 - ए , दरियागंज , नई दिल्ली - 110002 

आवरण पेंटिंग : अवधेश मिश्र 

हार्ड बाऊंड : 499 रुपए 

पेपरबैक : 299 रुपए 

पृष्ठ : 106 

अमेज़न (भारत)
हार्डकवर : https://amzn.eu/d/g20hNDl

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