Friday 22 April 2022

कथा-गोरखपुर , खंड - 7

 

पेंटिंग : अवधेश मिश्र , कवर : प्रवीन कुमार 







पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

 पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल 

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 










63  -
पत्नी वही जो पति मन भावे 
[ जन्म : 19 जून , 1963 ]

अमित कुमार मल्ल    
   

रागनी दीदी  ,वाकई रानी थी खूबसूरती की , प्रसन्नता की और खिलखिलाने की ।हम लोग रागिनी दीदी के जबरजस्त प्रशंसक थे - उनके पहनावे के , उनके स्टाइल के , उनके बात चीत के तरीके के , उनके रहन सहन के ढंग के ,उनके औरा के । जिस कमरे में  हम लोग रह कर , पाइथागोरस का सिद्धांत , न्यूटन के नियम पढ़ रहे थे , उसी कमरे के सामने के बिल्डिंग के मालिक की इकलौती बेटी थी, रागिनी दीदी । उनका मकान तीन तल्ला था , जिसमे पहले तल्ले पर वह, अपने दो भाइयों व माँ पिता के साथ रहती थी। बाकी के तल्ले पर किराएदार रहते थे । हम लोगो  के कमरे व उनके  मकान के बीच  9 फ़ीट की खडंजा वाला रास्ता था , जिस पर सभी प्रकार के वाहन चलते थे। 

      हम तीन लोग एक गांव के थे । गांव के प्राइमरी पाठशाला से पांच तक और जूनियर हाइ स्कूल से आठ पढ़ने के बाद हाई स्कूल करने के लिए , गांव से 90 किलोमीटर दूर के इस शहर आये थे। रागिनी दीदी  के घर के सामने के एक कमरे को किराए पर लेकर हम रहते थे , और शहर के हिंदी मीडियम वाले  सबसे प्रतिष्ठित स्कूल में पड़ते थे। रात का खाना , हम तीनों लोग मिलकर बनाते  । सामान्यतः रोटी सब्जी और कभी कभार चावल दाल भी ।  सुबह, बारी बारी से एक लड़का  परांठा बनाता , जिसे खाकर हम स्कूल जाते। गांव से आटा  , चावल , दाल , आलू , प्याज आता था  ।  सब्जी ,मसाला आदि हम लोग यहाँ खरीद लेते।

पढ़ते पढ़ते  जब बहुत बोर हो जाते या थक जाते तो , बाहर बरामदे में खड़े हों जाते। अक्सर शाम को,  रागिनी दीदी ,अपने माता- पिता -भाइयो के साथ  अपनी बालकनी में खड़ी रहती । उनका एक बड़ा भाई था । एक छोटा भाई था , जो हम लोगो के क्लास में था ,लेकिन दूसरे स्कूल में पढ़ता  था।उसी के माध्यम से रागिनी दीदी के परिवार से बोलचाल शुरू हुई और तब पता चला रागिनी दीदी तो बी 0 ए 0 प्रथम वर्ष ,  में है।

रागिनी  दीदी  का परिवार  सुखी व समृद्ध दिखता था। उनका कपड़ा , रहन सहन अच्छा था ।वे लोग व्यवहार कुशल व सामाजिक भी थे। त्योहारों के अवसर  पर  ,हम लोगो को रागिनी दीदी के यहाँ लजीज त्योहार वाले पकवान  मिलते थे। विशेषत दीपावली , होली , दशहरा आदि के दिन । उस दिन ,रागिनी दीदी ,उनके भाई , माता पिता - बहुत आत्मीयता से मिलते , हाल चाल पूछते , परेशानी पूछते और खाना  खिलाते । खाना खिलाने के दौरान जैसे ही उनके पिताजी , इधर उधर होते , किसी न किसी बात पर रागिनी  दीदी की खिलखलाती हँसी ,सुनने व देखने को मिलती।

      वहाँ से लौटने के बाद ,  पकवान और रागिनी दीदी की खिलखिलाहट वाली हँसी याद रहती। पकवान की याद तो, कुछ की दिन में  रोटी - सब्जी -  पराठे के टेस्ट में भूल जाती , लेकिन रागिनी दीदी की हँसी तो भूलती ही नही । हर चार छ दिन में , रागिनी दीदी दिख ही जाती या खिलखिलाहट वाली हंसी सुनाई पड़ ही जाती ।

हम तीन लोग , एक  कमरे में रहते थे। कमरे के ताले की 2 ही  चाभियाँ  थी । अमूनन हम तीनों लोग एक साथ ही जाते , स्कूल या सब्जी लाने या छोटा मोटा समान लाने। अगर तीनो अलग जाते , तो पहला वाला एक चाभी ले जाता , दूसरा बिना चाभी के बाहर जाता , तीसरा जब जाता तो चाभी रागिनी के घर दे जाता , ताकि दूसरा या तीसरा जब लौटे तो उसे  चाभी मिलने में परेशानी न हो । चाबी लेने जाने पर यदि रागिनी दीदी की माँ मिलती तो वह जरूर कुछ खिलाती और खूब पढ़ने का आशीर्वाद देती। यदि रागिनी दीदी मिलती तो वह पढ़ाई के बारे में पूरा पूछती और कुछ खिलाती  जरूर।

छमाही परीक्षा में फस्ट क्लास नंबर आने पर हम तीनों ने , हनुमान जी को पाव भर लड्डू चढ़ाया । प्रसाद देने के उद्देश्य से प्रसाद लेकर रागिनी दीदी  के घर पहुंचे ।उस समय घर पर रानी दीदी व उनकी माताजी थी । उन दोनों को प्रसाद दिया। रागिनी जी की माँ ने आशीर्वाद दिया और रागिनी दीदी ने बधाई देते हुए कहा,

- मुझे तो मालूम था , तुम लोग फस्ट क्लास पास होंगे।...पढ़ाई के साथ साथ थोड़ा बहुत खेला भी करो। अभी ,तुम लोगो की खेलने की  उम्र है।

- जी ।

तीनो एक साथ बोले।

- तुम लोग घुमा  टहला भी करो । दोस्तो के साथ भी जाया करो । यह कोई बात हुई .....,कमरे से स्कूल ,स्कूल से कमरा। 

कहते हुए रागिनी दीदी  हँसी -खिलखिलाहट वाली हँसी।

- कभी कभार टी वी देखने का मन हो तो यहाँ आ जाया करो। रागिनी दीदी बोली । फिर माँ की तरफ देखते हुए बोली .....

- माँ , इतने अच्छे नंबर लाये , इनको मिठाई खिलाइये।

और हम लोग पुनः मंत्र मुग्ध होकर , मिठाई खा कर अपने  कमरे में आ गये।

रागिनी दीदी ने कहा था - खेला करो , दोस्तो से मिला जुला करो। इसलिये हमने पड़ोस के मैदान में जाकर खेलना शुरू किया। मोहल्ले के लड़कों ने बहुत मान  मनोव्वल के बाद खिलाना शुरू किया।दो - तीन दिन  बाद , खेलने के बाद , बात होने लगी । बात चीत से हमे लगा, मोहल्ले के लड़के ,हम लोगो से चिढ़ते है क्योंकि उन्हें लगता है कि हम लोग रागिनी दीदी के परिवार में आते जाते हैं, उनसे बात चीत करते हैं ।एक दिन रागिनी दीदी  के परिवार के बारे में , बात शुरू हुई ,

हम लोगों ने एक साथ बोला,

-वे लोग  बहुत अच्छे लोग हैं।

उस दिन बात खत्म हो गयी।

अगले हफ्ते फिर , रागिनी दीदी के बारे में , बात शुरू हुई ,

- रागिनी दीदी अच्छी नहीं  है।

- वह बहुत फैशन करती है।

- वह बहुत स्टाइल मारती है ।

- वह कई लड़कों से मिलती है।

-वह कई लड़कों के साथ घूमती है।

-उनका एक लड़के से चक्कर चल रहा।

- वह उस लड़के के साथ फलाने सिनेमाहाल में दिखाई पड़ी थी।

यह बातें, लड़कों ने अलग अलग कहा , लेकिन हम तीनों ने एक साथ बोला,

- रागिनी दीदी बहुत अच्छी लड़की है। बात करती हैं , लेकिन सलीके से। उनके बात व्यवहार में, एक स्टाइल जरूर रहता है , लेकिन उनका आचरण हरदम मर्यादित रहता है।

- तुम लोगो का ऑब्जरवेशन गलत है।

लड़के बोले।

- तुम लोगो की सोच गलत है।

हम लोग बोले।

उस दिन तो बात खत्म हो गई लेकिन कुछ दिनों बाद उन लड़को  ने  हमे ,गेम खिलाना  बंद कर दिया। हम लोग की फाइनल परीक्षा की डेट घोषित हो गयी थी , अतः हम लोग , सब कुछ भूल , पढ़ाई में लग गए।

उस दिन , शायद मई का ही कोई दिन था। सुबह के 5 बज रहे होंगे और हम लोग फिजिक्स के के फार्मूलों से जूझ  रहे थे। तभी आवाज आई ,

- मार डाला !      मार डाला !!

हम लोगों ने दरवाजा खोला,तो फिर यही आवाज आई

- मार डाला !!

आवाज की अस्पष्ट पहचान हुई कि यह रागिनी दीदी के माताजी जी की आवाज है । हमे लगा कि बदमाशों ने रागिनी दीदी के परिवार पर हमला कर दिया है , पहले तो  हम लोग थोड़ा डरे , फिर रागिनी दीदी की हँसी ने हिम्मत दी और हम लोग उनके घर पर जाने के लिये सीढ़ियों पर चढ़ने लगे ।हम लोग ऊपर चार पांच सीढ़ी ही चढ़े होंगे कि मार पीट व किसी लड़की की रोने की आवाज सुनाई पड़ी । लगा , बदमाश रानी दीदी को पीट रहे हैं। हम लोगो ने अपनी गति बढ़ाई ही थी कि देखा , हमारे पीछे पीछे ,मोहल्ले के कई पुरुष महिलायें आ रही हैं।

ऊपर बरामदे में पहुचते ही हम लोग हतप्रभ हो गए। रागिनी दीदी को उनके दोनों भाई मार रहे थे और उनके पिता धिक्कार रहे थे।उनकी माँ, रागिनी दीदी को बचा रही थी ,लेकिन दोनों भाई पीटने से बाज नही आ रहे थे।रागिनी दीदी केवल रो रही थी ।जब चोट ज्यादे लगता तो रुलाई ज्यादे बढ़ जाती । रानी दीदी के सुंदर गोरे मुख पर मार पीट के  काले निशान दूर से दिखाई दे रहे थे।उनका चेहरा मुरझाया था । उनके कपड़े मैले दिख रहे थे । उनके बालो को पकड़ कर छोटा भाई खिंच रहा था, मैंने उसे पकड़कर, वहाँ से पीछे खिंचा। मोहल्ले वालों ने बड़े भाई को हटाया। अब रागिनी दीदी केवल सुबक रही थी

- क्या हुआ?

-क्यों दोनों भाई मार रहे हैं?

सब लोग पूछ रहे थे।

- आंटी , दीदी को भीतर ले जाइए।

मैं बोला।

बड़ा भाई फिर पीटने को आगे बढ़ा, लेकिन लोगो ने पकड़ लिया। आंटी , रागिनी दीदी को लेकर भीतर गई ।तब तीनो चुप हुए। रागिनी दीदी के पिता सिर  नीचे कर बैठे रहे। दोनों भाई भी , चुप चाप नीचे देखते रहे।

लोग बार बार पूछते रहे लेकिन कोई नहीं बोला। थक हार कर जब लोग नीचे उतरने लगे तब पड़ोसी महिलाओं के बात चीत से यह बात निकली कि बीते दिन ,रागिनी दीदी किसी लड़के के साथ  किसी दूसरे शहर भाग गई थी ।उनके घर वालो को उनकी लोकेशन मिल गयी। दोनों भाई वहाँ जा कर ,रागिनी दीदी को पकड़ कर अभी अभी लाये थे  ,  वे गुस्से में रागिनी दीदी को पीट रहे थे।

इस घटना के बाद ,फिर रागिनी दीदी न तो बालकोनी में दिखाई देती थी , न बरामदे में।  रागिनी दीदी का परिवार ही बदल गया।हम लोग चाभी लेने कभी उनके घर जाते तो देखते कि रागिनी  दीदी खामोश रहने लगी ,उनकी हँसी खो गयी । आंटी जी भी कम बोलने लगी ।

दो माह बाद ,पता चला कि रागिनी दीदी की हिमाचल प्रदेश  में , कही शादी हो गयी । उनके पति अच्छे पद पर तैनात है ,  पति सुंदर है , स्मार्ट है , पैसे वाले हैं, आदि ।

11वीं क्लास के पीसीएम ग्रुप की कठोर पढ़ाई  में धीरे धीरे रागिनी दीदी विस्मृत हो गई।  अब तो अलजेब्रा , त्रिगनोमिट्री  को जीतने में समय व दिमाग लग रहा था। यदा कदा  ,उनके दोनों भाइयों से मुलाकात होती थी ।उनका व रागिनी दीदी के परिवार का व्यवहार अब नार्मल हो गया था । पास पड़ोस के लोग , रागिनी दीदी के परिवार के बारे में कानाफूसी तो  करते किन्तु  हम लोग से लोग कुछ नही कहते , क्योकि उन्हें लगता कि हम लोग रागिनी दीदी के परिवार से जुड़े हैं।

इस बार दीपावली पर छुट्टियां कुछ अधिक थी , अतः हम लोग , दीपावली के पहले अपने  गांव चले गए। दीपावली के तीसरे दिन अर्थात रविवार की सुबह 10 बजे  रूम पर पहुचे ही थे कि रागिनी का छोटा भाई आया कि उनकी माताजी ने हम लोगो को दीपावली के अवसर पर , लंच पर बुलाया है। हमने अपने भाग्य को सराहा कि दीपावली के दिन न रहने पर भी , दीपावली का पकवान छूटा नहीं । आज मिल रहा है।

लगभग 1 बजे हम तीनों रागिनी दीदी के घर पहुंचे। डाइनिंग टेबल पर , हम लोग के बैठने के  बाद , एक नया स्मार्ट व हैंडसम  बंदा आया । परिचय होने पर पता चला कि यह रागिनी दीदी के पति हैं।टेबल पर उनके दोनों भाई , पति व हम तीनों बैठे। उनके पति ने हम लोग की पढ़ाई के बारे में पूछा ,

- किस क्लास में हो?

- 11वी में

- कौन ग्रुप है

- पीसीएम

- इंजीनियर  बनना है ? 

तब तक रागिनी दीदी मुस्कराती हुई डाइनिंग टेबल तक पहुंचीं ।हम लोगों ने नमस्कार किया। अभिवादन का उत्तर देते हुए रागिनी दीदी ने , हम लोगों का हाल चाल पूछा ,पढ़ाई के बारे में पूछा ।

-  बहुत अच्छे लड़के हैं । सिन्सियर स्टूडेंट हैं ।

रागिनी दीदी ,अपने पति से बोली ।

- अपने काम से काम रखते हैं। सामने के मकान में एक कमरा किराए पर लेकर रहते हैं। बहुत कठिन स्थितियों में पढ़ रहे हैं , अपना खाना  खुद बनाते हैं । कमरे से स्कूल व स्कूल से कमरा - यही इनकी दुनिया है।

रागिनी दीदी ने हम लोगों के बारे में अपने पति को  जानकारी दी।

- अभी इन लोगों से ...( सालो से ) बात चीत हो रही थी । अगली छुट्टी में तुम लोग भी  शिमला आओ।
उनके पति बोले।

- बिल्कुल , तुम लोग जरूर आओ। 

रागिनी दीदी बोली।

तब तक रागिनी दीदी के छोटे भाई ने खाना सर्व करना शुरू किया । आंटी जी भी मदद कर रही थीं । खुशनुमा माहौल में भोजन शुरू हुआ। रागिनी दीदी रोटी लेने के लिये किचन में गई। और इधर छोटे भाई ने रागिनी दीदी की तारीफ शुरू की।

- दीदी बहुत मेहनती है , बहुत अच्छी है ,पढ़ने में  बहुत मेहनती थी । बहुत समझदार है। बहुत व्यवहार कुशल है।

- जी , बिल्कुल।हम लोगो को पढ़ने के लिये , प्रोत्साहित करती रहती थी।

मैं बोला।

- पूरा घर सम्हाले थी ।

बड़े भैया बोले।

-अब आंटी के ऊपर सब बोझ आ गया।

मैं बोला।

आंटी जी मुस्कराते हुए हम लोग की बातें सुन रही थीं।

- तुम लोगो का कहना सही है, लेकिन तुम लोगों की रागिनी दीदी में  ...एक कमी है , जो आप लोगों के द्वारा दी गयी  है , मम्मी  जी बुरा मत मानियेगा.....।.रागिनी  दीदी के पति बोले।

- बताइए।

आंटी बोली।

-आप लोगो ने इसे इतना दबा कर रखा , दूसरों पर आश्रित रखा कि इसका आत्म बल ही खत्म हो गया । यह अकेले  बाहर निकलने में बहुत संकोच करती है। लोगो से , भीड़ से  बचती है।  जिसके कारण बैंक , दुकानों पर का कोई काम यह नही कर पाती ...

उनके पति बोले।

तब तक रागिनी दीदी टेबल तक पहुची।बोली

- क्या बात है?

आंटी बोली ।

-  हम  लोगो की कमी बताई जा रही है , यह कह कर आंटी जी ने पूरी बात बताई।

- मैं भी सुनूं  , अपनी कमी।

रागिनी दीदी इठलाते हुए बोली।

- इसको अकेले बाहर निकलने , जाने , घूमने , शॉपिंग करने की ट्रेनिंग आप लोगो ने नहीं दी, ... इसको भीड़ से , आदमियों से डर लगता है ।  जिससे इसमें बाहर जाने का आत्म विश्वास ही नही है। बहुत कठिनाई होती है। न तो यह बाहर का कोई काम करती है और न अकेले शॉपिंग करती है , न घूमती है। न लोगों से मिल पाती है। बहुत ही शर्मीली है । हर समय , इसके साथ कोई न कोई चाहिये।

उनके पति बोले।

यह सुनते ही हम सभी लोग  ,एक दूसरे को देख कर ,   खाने पर नज़र गड़ा कर खाने लगे  और तभी ,रागिनी दीदी की पुरानी खिलखिलाहट वाली हँसी सुनाई पड़ी।
                                                          

64   -

बटन-रोज़ 

[ जन्म : 9 सितंबर , 1964 ]

मीनू खरे 

सूर्य क्षितिज से तीस डिग्री ऊँचाई पर था. वर्मा जी की छत पर गुनगुनी धूप बिखर चुकी थी. यह छत वर्मा जी के नवनिर्मित घर “मंगलम”  का सबसे ख़ूबसूरत हिस्सा थी. श्रीमती वर्मा सूर्य को अर्घ्य देकर किचेन में चाय बनाने पहुँच चुकी थीं. रोज़ का यह समय, वर्मा जी के धूप में बैठ कर चाय पीने और अखबार पढ़ने का था. जब तक चाय आती, वर्मा जी गमलों में लगे पौधों का निरीक्षण करने लगे. सजावटी गमलों में ढेरों फूल खिले हुए थे. वर्मा जी को अपने पुश्तैनी मकान की बगिया याद आ गयी. कचनार, कपास, नीम, नींबू आँखों में घूम गये. मन उसी बगिया में पहुँच गया, जिसमें वर्मा जी की जान बसती  थी पर अब घर का बँटवारा हो चुका था और बगिया भाई के हिस्से में थी. “मंगलम” की छत पर दो सौ से भी अधिक सजावटी गमलों में भाँति- भाँति के पौधे शायद इसी प्रत्याशा में रोपे गये थे कि यह छत एक बगिया का रूप लेकर, पुश्तैनी बगिया खो देने की, वर्मा जी के अन्तस की टीस को कम कर देगी. तभी वर्मा जी के मोबाइल पर भाई की मिस्ड काल आयी. वे काल बैक कर ही रहे थे कि श्रीमती  वर्मा चाय लेकर आ गयीं.

“किसे फोन मिला रहे हैं?”

“श्याम को फ़ोन मिला रहा था. उसका मिस्ड-काल था.” वर्मा जी बोले.

“बँटवारे के बाद भी उन लोगों को चैन नहीं. इससे तो अच्छा आप पुराने ही घर में रहते, बेकार ही यह घर बनवाया !” कप में चाय डालते हुए श्रीमती वर्मा बोलीं.

“बँटवारा घर का होता है रिश्तों का नहीं.” चाय का प्याला होठों से लगाते हुए वर्मा जी ने कहा.

“आप पूरी जिंदगी सबके लिए खटते रहे पर बदले में क्या मिला?”

“मैंने अपनी जिम्मेदारियाँ निभायीं. भाई-बहन अच्छे से सेटल हो गए...और क्या चाहिए!”  

“जब सेटल हो गए तो तुरंत बँटवारा करवा लिया घर का,,,इतने तो अच्छे हैं तुम्हारे भाई लोग!”

“बँटवारा हुआ तभी तो तुम पॉश कालोनी के इस नये घर में आ पायी वरना उसी तंग गली में रहती जीवन भर! वर्मा जी ने समझाते हुए कहा.

“यह तो है! दुर्गे माँ की कृपा से यह घर नसीब हुआ है. अब लगता है कि मैं भी सीनियर एकाउंट्स ऑफिसर की पत्नी हूँ वरना पूरी जिंदगी कामवाली बाई की तरह रखा तुमने मुझे.” मखमली हँसी में तीखा व्यंग्य चुभा श्रीमती वर्मा ने चाय के ख़ाली कप ट्रे में रखे और किचेन में चली गयीं. वर्मा जी सदा की भाँति पत्नी के व्यंग्य को अनसुना कर अखबार में डूब चले.

      चार भाइयों में सबसे बड़े सज्जन लाल वर्मा (वर्मा जी) सम्वेदनशील व्यक्तित्व के स्वामी थे. माता-पिता की मृत्यु के बाद चार छोटे भाइयों की ज़िम्मेदारी उठाने में आम तौर पर जो त्याग करने पड़ते हैं, वो सब करके उन्होंने अपने भाइयों को अच्छे से सेटल किया पर इसके चलते पत्नी और बच्चों को जो सुख-सुविधाएँ देनी चाहिए थी उसका आधा भी न दे पाए थे वर्मा जी. हाँ, बच्चों की शिक्षा में कोई कमी न छोड़ी थी उन्होंने जिसके कारण बेटी निमिषा एस्ट्रोनोमी से एम.टेक कर रही थी. बेटे अकुल और नकुल भी ग्रेजुएशन कर अच्छा कमाने लगे थे. 

वर्मा जी अखबार पढ़ ही रहे थे कि निमिषा का फ़ोन आ गया जो एस्ट्रोनोमी के राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने बेंगलुरु गयी हुई थी.

“ हेलो पापा”

“ खुश रहो! कैसी हो निमि बेटा?”

“ ठीक हूँ पापा आज मेरा पेपर प्रेजेंटेशन है, वो करके शाम की फ्लाइट से मैं वापस आ रही हूँ.”

“ओके निमी बेटा आल द बेस्ट फॉर योर पेपर प्रेसेंटेशन! अकुल एयरपोर्ट पहुँच जाएगा तुम्हे लेने.”

“ठीक है पापा! रखती हूँ बाय!” 

वर्मा जी ने फोन रख दिया. सोचने लगे; “निमिषा जैसी बेटी ईश्वर सबको दे.” निमिषा का व्यक्तित्व अपने पिता जैसा ही था. पढ़ने में तो वह अव्वल थी ही, साहित्य, संगीत और ललित कलाओं के आलावा बागवानी में भी रूचि रखती थी और अक्सर पिता के साथ उन पर गहन चर्चा भी किया करती थी. 

      वर्मा जी के बेटे अकुल और नकुल इससे बिलकुल उलट थे. उन्हें मार-धाड़ वाली फ़िल्में पसन्द थीं और ट्रेडिंग बिज़नेस से वे अच्छा पैसा पीट रहे थे. रात को देर से आना और सुबह देर तक सोना उनकी दिनचर्या में शामिल था. अब लगभग दस बज रहे थे दोनों बेटों की सुबह अभी भी नहीं हुई थी. वर्मा जी उनके कमरे में बिगड़ते हुए पहुँचे. 

“अभी तक सो रहे हैं दोनों सपूत ! कब सोकर उठेंगे ये चार सौ बीस?” 

यह सुनते ही श्रीमती वर्मा तुनक कर बोलीं; “क्या चार सौ बीसी की है मेरे बेटों ने? तुम बाप होकर ऐसा कहोगे तो दुनिया क्या समझेगी? अच्छे घरों के रिश्ते भी नहीं आएँगे मेरे बेटों के लिए.”

पत्नी की घुड़की सुन कर वर्मा जी चुप हो गए पर अकुल-नकुल दोनों उठ चुके थे.

“क्या हुआ पापा?”

“हुआ क्या? वही रोज़ की कहानी ! दोपहर को सो कर उठते हो, आठ बजे रात को जिम जाते हो, दो बजे रात को खाना खाते हो. यह क्या अंधेरगर्दी है!”

“सॉरी पापा” कहते हुए दोनों बेटों ने बिस्तर छोड़ा. 

“अकुल आज निमिषा वापस आ रही है. जल्दी से तैयार हो जाओ. उसकी फ्लाइट शाम छह बजे लैंड कर जाएगी.” वर्मा जी ने ताकीद की.

“ठीक है पापा, मैं पहुँच जाऊँगा पर अभी तो केवल साढ़े दस बजे हैं.” अकुल हंसते हुए बोला.

“इनकी बहुत गन्दी आदत है बिना मतलब मेरे बेटों के पीछे पड़ने की.” श्रीमती  वर्मा ने उलाहना दिया तो सब लोग हँस पड़े. अकुल और नकुल दोनों पिता के झूठे क्रोध से ख़ूब परिचित थे और उसमे आसानी से प्यार खोज लेते थे. उन्हें अपने पिता की विद्वता का पूरा अहसास था और वे उनका बहुत सम्मान करते थे पर मूलभूत अंतरों का क्या किया जा सकता है! जो समय पैसा कमाने के काम आ सकता है उसे पेड़-पौधे लगाने में, संगीत सुनने में और साहित्यिक चर्चाओं में लगाने का औचित्य न कभी अकुल समझ पाया न ही नकुल! 

दोपहर होने पर सबने खाना साथ खाया और अपने-अपने कामों में लग गये.   

शाम को साढ़े सात बज रहे थे. वर्मा साहब टीवी पर गर्मागर्म बहस का प्रोग्राम देखने में मशगूल थे. हॉर्न की आवाज़ सुनते ही श्रीमती वर्मा चहकीं; “निमि आ गयी.” 

“पापा! माँ!” कह कर निमिषा दोनों से लिपट गयी. बेटी से सात दिन का वियोग कितना बेचैन कर देने वाला होता है! दोनों ने बारी-बारी बिटिया को गले लगाया. वर्मा जी ने पूछा; “पेपर-प्रेजेंटेशन कैसा रहा?”

“ख़ूब अच्छा रहा पापा! काफ़ी तारीफ़ मिली. हो सकता है कि जल्द ही जर्मनी से कॉल आये एक सेमिनार के लिए.” निमिषा ने चहक कर बताया.

“ठीक है बेटा! ख़ूब आगे बढ़ ! ख़ूब नाम रौशन करना खानदान का!” वर्मा जी हमेशा की तरह बोलते गए.

“आसमान जितनी ऊँची उठ! स्काई इज़ द लिमिट!” यह निमिषा ने हँसते हुए जोड़ा. वर्मा जी भी हँस पड़े.आँखें हल्की सी नम हो गयीं. बेटी हर वो काम करती है जो जाने-अनजाने पिता की अभिलाषा रही हो.

“पापा मैं बेंगलुरू से इतने सुंदर प्लांट्स लायी हूँ कि आप दंग रह जाएंगे. वहाँ पर ऐसी-ऐसी नर्सरीज़ हैं कि मन कर रहा था पूरा का पूरा बेंगलुरू साथ ले चलूँ.” निमिषा उल्लास में डूब कर बोल रही थी.

तभी अकुल गाड़ी से ढेरों कैरी-बैग्स का एक बड़ा सा थैला लेकर आया और हँसते हुए बोला; “दीदी तुम्हारा यह मिट्टी-कूड़े का थैला कहाँ रखना है? 

निमिषा ने तुरंत प्रतिक्रिया देते हुए डाँटा; “ख़बरदार अकुल जो मेरे प्लांट्स को कूड़ा कहने की हिम्मत की!कुछ तमीज़ सीख, काम आएगी.” 

अकुल हँस कर बोला; “अरे भई लोग कहीं जाते हैं तो वहां से अच्छे कपड़े, ज्वेलरी, कैमरा या कुछ ऐसा जो वहाँ का ख़ास हो, ले आते हैं पर  मेरी दीदी सिर्फ पौधों के कैरीबैग्स लायी इतनी दूर से! मैं तो किसी अच्छे आइटम की उम्मीद लगाए बैठा था दीदी.”

इस पर श्रीमती  वर्मा बोली; “क्यों झगड़ा करता है बहन से रे! छत वाली बगिया को और सुंदर बनाने को दीदी लायी है ये ढेर सारे पौधे. क्या तुझे नही मालूम कि तेरे पापा पुराने घर की बगिया को कितना मिस करते हैं!”

“अरे माँ उसे बोलने दो! मै उन दोनों के लिए बेहतरीन टीशर्ट्स लायी हूँ.” निमिषा ने माँ को समझाया फिर पापा की तरफ मुखातिब होकर बोली; “पापा यह देखिये, ये हैं क्रीसेंथेमम की ढेर सारी वेरायटीज़.. एकदम अलग हट के... ये है ब्लैक-आर्किड, ये है एलोकेसिया वेयरीगेटेड टाइप और ये है बटन-रोज़ ! बस बटन के बराबर के गुलाब के फूल के गुच्छे इस पौधे में ऐसे निकलते हैं कि देखने वाला देखता ही रह जाये....एक गुच्छे में 70-80 गुलाब और ऐसे कई-कई गुच्छे एक-एक शाख़ पर...इधर तो ऐसे गुलाब मिलते ही नहीं ...देखिएगा जब यह ब्लूम करेगा तो तहलका मच जाएगा कालोनी में...ऐसे सुंदर प्लांटस किसी के भी पास नहीं होंगे पापा!”

“ऐसा सुंदर घर भी तो नहीं है किसी का कालोनी में... क्यों मालकिन जी!” वर्मा जी ने गर्व से मुस्कुराते हुए पूछा तो श्रीमती  वर्मा भी मुस्कुरा उठीं और नकुल से बोली; “जा बेटा यह पॉलीबैग्स छत पर रख दे. सुबह इन्हें गमलों में लगाया जाएगा.

“माँ खाना क्या बना है? बहुत भूख लगी है.” निमिषा ने दुलार से कहा.

“मीठी मटर का निमोना, साग वाली दाल और गर्म चावल...साथ में बाजरे की रोटियाँ और टमाटर की चटनी है बेटा. गुड़ वाली खीर भी बनाई है तेरे लिए.” श्रीमती वर्मा ने प्यार से बताया.

यह सुनते ही न केवल निमिषा बल्कि अकुल और नकुल भी ख़ुशी से उछल पड़े. वर्मा दम्पति को लाड़ आ गया बच्चों पर... इतने बड़े होकर भी बचपना नहीं गया अभी इनका! सबने ख़ूब स्वाद से एक साथ खाना खाया. ठण्ड काफ़ी थी. प्रेम की उष्णता में लिपट पूरा परिवार सोया. अगले दिन सुबह होते ही वर्मा जी और निमिषा कैरीबैग्स से पौधे निकाल कर गमलों में ट्रांसफर कर चुके थे. 

     ठण्ड बढ़ती जा रही थी. सूरज का निकलना, वर्मा जी का सुबह-सवेरे छत पर अख़बार पढ़ना, घंटो अपने पेड़ों की सुन्दरता पर मुग्ध होना, उसी तरह जारी था. क्रोटन, लिली, नस्ट्रेशियम, गुलाब आदि की दसियों क़िस्मों से सजी अपनी इस मिनी बगिया में बैठ, वर्मा जी फूले नहीं समाते थे। वो चाहते थे कि बेंगलुरु से आए पौधे भी जल्द फूलों से लद जाएँ। बच्चों की तरह निमिषा से वो हर रोज़ पूछते कि आख़िर ये फूल कब खिलेंगे? निमिषा कहती; “जल्दी ही” पर हर पौधे का अपना टाइम-टेबल होता है। बटन-रोज़ के पौधे ने कलियों के गुच्छे के रूप में सबसे पहले ख़ुशख़बरी दी। वर्मा जी झूम उठे! 

“पापा बटन-रोज़ में कलियाँ आ गयीं हैं. कितनी छोटी-छोटी हैं पर कितनी प्यारी!” निमिषा ने खुश होकर कहा.

“ बिल्कुल तेरी तरह छोटी और प्यारी हैं बटन-रोज़ की कलियाँ.” पापा जी का जवाब था.

“ओ पापा ! मैं तो कितनी बड़ी हूँ ...आय एम ट्वेंटी सेवेन ईयर ओल्ड!” निमिषा ने हँस कर कहा.

“नहीं तुम तीनो भाई-बहन अभी बच्चे हो, बिलकुल इममेच्योर...पर बहुत प्यारे...तुम लोग ऐसे ही बने रहना...जब तक बाप है तब तक बच्चों को बड़ा होने की क्या जरूरत !” वर्मा जी भावुक हो गये.

            बटन-रोज़ में कितनी कलियाँ हैं, कितनी पत्तियां है, इसे कितने पानी की ज़रूरत है, कितनी धूप इसके लिए काफ़ी होगी, इसका गुच्छा कब ब्लूम करेगा जैसे बिंदु निमिषा और वर्मा जी के बीच रोज़ चर्चा का विषय बनते थे. हर दिन कलियों का आकार आँखों से माप कर उनके खिलने की तिथि की घोषणा होने लगी। तय किया जाने लगा कि गुच्छा खिलने पर कितना बड़ा दिखेगा आदि-आदि ....।

 इस नये घर की परिधि में असीम पारिवारिक सुख और संतोष था. लगता था जैसे सब सपने पूरे हो गए हों! निमिषा की शादी इस घर की पहली धूम होगी! सारे मेहमान जुटेंगे...ऐसी बातें अब होने लगी थीं. एक दिन अचानक वर्मा जी को सीने में कुछ जलन महसूस हुई. उठकर पानी पीना चाहा तो चक्कर आ गया. वहीं पर गिर पड़े. सर दीवार से टकरा गया हालांकि खून वगैरह नहीं निकला. श्रीमती वर्मा ने तुरंत बिस्तर लगा दिया. निमिषा ने आराम करने की सलाह दी, नकुल ने डॉक्टर के यहाँ चलने की सलाह दी पर कहाँ माने थे वर्मा जी! बोले; “मुझे बस चुपचाप सोने दो.”

सारा दिन वो सोते रहे.शाम हो गयी थी पर वर्मा जी नहीं उठे. उनके पूरे शरीर में झनझनाहट थी, आँखे जैसे मुंदी जा रहीं थीं. अकुल-नकुल दोनों घर आ चुके थे. 

“पापा आप तुरंत डॉक्टर के यहाँ चलिए.” अकुल बोला.

“अरे ऐसा कुछ नहीं है. बस पता नहीं क्यों उठा नहीं जा रहा है.” वर्मा जी बोले.

“नहीं बस उठिए और डॉक्टर के यहाँ चलिए.”

कुछ ही देर में अकुल की कार डॉक्टर मिश्रा के क्लिनिक के सामने थी. सीटी स्कैन हुआ. हेड-इंजरी की वजह से दिमाग में ब्लड-क्लोटिंग पायी गयी. वर्मा जी का ब्लडप्रेशर गिरता जा रहा था. डॉक्टर नाराज़ हो रहे थे कि आखिर सारे दिन के बाद पेशेंट को क्लिनिक क्यों लाया गया ! 

             आधे घंटे बाद वर्मा जी इस दुनिया में नहीं थे. सब लोग स्तब्ध थे! निमिषा और अकुल-नकुल एकाएक बहुत बड़े हो गये थे. बहुत मेच्योर, किसी भी परिस्थिति से निपटने में सक्षम... नया घर मेहमानों से खचाखच भरा था. कोशिश की गयी थी कि वर्मा जी का काम उतने ही तौर तरीके से किया जाय जिस तरह की जीवन शैली उन्हें पसंद थी. इक्कीस ब्राह्मणों को भोज,अंगवस्त्र,गीता,रामायण,माला,खटिया,छाता,चप्पल,घड़ी, अंगौछा, चश्मा और अनाज के साथ सोने के आभूषण और बैल का दान भी किया गया. भिखारियों-भूखों की पूरी पंगत भोजन के लिए न्योती गयी. पांच सौ से भी ज्यादा मित्रों और रिश्तेदारों को तेरहवीं भोज में बुलाया गया था. सब कुछ था बस वर्मा जी नहीं थे. जड़ हो गयीं श्रीमती वर्मा की आँखें बार-बार आये हुए मेहमानों की भीड़ में वर्मा जी को ढूँढने का करूण प्रयास कर रही थीं. ठण्ड बहुत ज्यादा थी. ऊपर छत पर अच्छी धूप थी. तेरहवीं की पूजा छत पर ही होनी तय हुई थी. पूजा का सारा सामान छत पर पहुंचा दिया गया. पिंड निर्माण के बाद जलार्पण किया गया. उसके बाद पंडित जी ने फूल की पुड़िया मांगी. नीरू पूजा के सामानों में फूल की पुड़िया ढूँढ रही थी. शायद नकुल फूल लाना भूल गया था.

“पंडित जी फूल तो नही आ पाये है.थोडा रुकिए बस अभी मँगवा देती हूँ.” निमिषा ने कहा.

“अरे नहीं बिटिया, कितने सुंदर फूल तो तेरे घर में ही हैं. पास के गमले में बटन-रोज़ का गुच्छा पूरा का पूरा खिला हुआ था. सम्पूर्ण गुच्छे की सारी पंखुड़ियां एक झटके में पंडित जी के हाथ में आ चुकी थी. पूरा पिंड बटन-रोज़ की पंखुड़ियों से ढक गया. तेरहवीं की पूजा ठीक उसी जगह हो रही थी जहां बैठ कर वर्मा जी अखबार पढ़ा करते थे. छत पर रखे ढेरों गमलों में फूल अब भी खिले थे.   


65   -

शुभ-घड़ी

[ जन्म : 22 जून , 1965 ]

आसिफ़ सईद  

               

दयाल बाबू, साहब को मुबारकबाद देकर उनके कमरे से निकले तो उनका चेहरा सुता हुआ था, आँखें नम थीं और होंठ कांप रहे थे। मैने बढ़ कर उनके कन्धे पर हाथ रखा। दयाल बाबू अपने आप को संभालिए हमें ये बात किसी पर ज़ाहिर नहीं होने देना है। उन्होंने मेरी तरफ बड़ी हसरत से देखा और बढ़ कर अपनी कुर्सी पर बैठ गये, चन्द मिनट ख़ामोषी से बैठे रहे और फिर फ़ाइल खोल कर अपने काम में लग गये। मैं भी अपनी मेज़ पर आ गया। स्टाफ़ के बाक़ी लोग भी अपने अपने काम पर लग गये थे।

दयाल बाबू और मैं एक ही दफ़तर में काम करते थे। इत्तेफ़ाक़ से हमारे घर भी पास पास थे। बीसों साल का साथ था। रोज़ दफ़तर साथ आते जाते,शाम की चाय साथ पीते, सुबह को सैर करने साथ जाते। इतने लम्बे अर्से में मज़हब का फ़र्क़ कभी हमारी दोस्ती के बीच दीवार नहीं बना। ज़माने ने बहुत से धूप छावं, सर्द व गर्म दिखाये लेकिन मौसमों के बदलते मिज़ाज को हमने वक़ती तमाषे के सिवा कभी कोई अहमियत नहीं दिया। दयाल बाबू एक बहुत अच्छे इन्सान हैं। उनका एख़लाक़, मिलनसारी,शराफ़त और ख़ास कर ईमानदारी की आफ़िस में ही नहीं बल्कि उनके महल्ले में, उनके मिलने जुलने वालों में भी कसमें खाई जाती थीं। हर छोटा बड़ा दयाल बाबू की बहुत इज़्ज़त करता था। सब के दुख सुख में खड़े रहने वाले, हर एक से मीठा बोलने वाले दयाल बाबू बहुत कट्टर मज़हबी ख़्यालात के हामिल न होने के बावजूद न जाने क्यों वक़्त के अच्छा और बुरा होने पर बहुत षिद्दत से यक़ीन करते थे। हर छोटे बड़े काम को शुरू करने से पहले शुभ घड़ी ज़रूर पूछ लेते थे। मैं कभी कभी अज़राहे मज़ाक़ कह भी देता था, दयाल बाबू शुभ घड़ी हो तो आज एक फ़िल्म देख ली जाये। और वह हंस्ते हुए कहते जब चाहो चलो रज़ा भाई  इस काम के लिए हर घड़ी शुभ है।

सागर भी हमारे ही आफ़िस में काम करता था। अभी चन्द माह पहले दिल्ली से ट्रान्सफ़र होकर हमारे आफ़िस में सेकेन्ड ग्रेड आफ़िसर की पोस्ट पर आया है। बहुत अच्छा लड़का है। यूं तो हमारे आफ़िस में उसके रैंक के और भी आफ़िसर थे मगर सब प्रोमोट होकर उस मक़ाम पर पहुंचे थे मगर सागर इस कम उमरी में अपनी क़ाबलियत और काम के तयीं ईमानदारी के सबब सीधे इस ओहदे पर फ़ायज़ हुआ था। उसमें दो ख़ास बातें थी वह जितना अपने काम के सिलसिले में सनजीदह, मेहनती और ईमानदार था उतना ही शक्ल व सूरत में भी शानदार था। लम्बा क़द, गोरा रंग, ज़हानत से भरी पुरकषिष आंखें। जो भी लेबास ज़ेबतन करता लगता उसी के लिए बनाया गया है। मिलनसार भी बहुत था। सबसे एख़लाक़ से मिलता। हर बात का जवाब चेहरे पर मुस्कराहट सजा कर देता। किसी मातहत की ग़लती पर उसे अगर कभी सख़्त, सुस्त भी कहता तो लहजे में हमेषा तन्बीह रही तज़हीक कभी नहीं। दयाल बाबू की तो बहुत इज़्ज़त करता। चन्द ही दिनों में उनकी ईमानदारी और काम के तयीं उनकी ज़िम्मेदारी और लगन ने उसे दयाल बाबू का गरवीदह बना दिया था। गोकि वह उनसे ऊंचे ओहदे पर फ़ायज़ था फिर भी उम्र का लेहाज़ करते हुए हमेषा उनसे नर्म लहजे में बात करता। वैसे भी इस मादिदयत के दौर में जहाँ दौलत इंसान का ईमान बन चुकी है जहाँ दफ़तरों में अपने जायज़ मुतालबात की फ़ाईल भी अफ़सर की मेज़ तक पहुंचाने के लिए चपरासी से कलर्क तक को ख़ुष करना पड़ता है, दयाल बाबू इस लानत से पाक रहे। उन्होंने रिष्वत को हमेषा ग़लाज़त की तरह बराया। दयाल बाबू ने अपनी तनख़्वाह के इलावा ऊपर की हर कमाई को हमेषा हराम समझा। उस के बावजूद इस सलीक़े से आमदनी और ख़र्च का तनासुब रखा कि बच्चों को कम में भी किसी महरूमी का एहसास नहीं होने दिया। घर हमेषा साफ़ सुथरा और ज़रूरी साज़ व सामान से आरास्ता रहा। कभी किसी के आगे दस्त तलब नहीं फैलाया। कुछ लोग उनके रख रखाव से ग़लत फ़हमी का षिकार होकर कहते भी थे कि दयाल बाबू छुपे रूस्तम हैं जो लेते हैं दफ़तर के बाहर लेते हैं। दयाल बाबू सुनते तो अपनी सुलझी तबीयत से मजबूर होकर कहते कि अरे भाई! कहने दो, मेरा ज़मीर मुतमईन है और लोग तो कुछ न कुछ कहते ही रहते हैं।


सागर साहब एक इन्तेहाई ईमादार अफ़सर थे। वर्ना उससे पहले के साहब लोग या आज भी उनके  साथ के अफ़सरान धड़ल्ले से बन्द लिफ़ाफ़ा अपनी जेबों में सरका लेते थे। यही बात थी कि दयाल बाबु सागर से हद दर्जा मोतअस्सिर थे। और हमेषा उनकी तारीफ़ करते थे कि इस नौजवानी के आलम में जब आँखों मे अमीर बनने के ख़्वाब होते हैं, दिल में ऐष व इषरत की ज़िन्दगी जीने की तमन्ना होती है, ज़ाहरी चमक दमक इंसान का मेयारे हुस्न होता है, चांद को पा लेने की ख़्वाहिष दिल में पनपती है और तड़पती है। आज की ज़िन्दगी में जब हर चीज़ की कसौटी पैसा है और गाड़ी, बंगला, बैंक बैलेन्स ही इंसान की कामयाबी की दलील है। एक इंसान तमाम तर मवाक़े की फ़राहमी के बावजूद उस से किनारा कष है और जो कुछ ईमानदारी से मिल रहा है उसमें सब्र व शुक्र के साथ जी रहा है। फिर उसका एख़लाक़, ख़ास कर दयाल बाबू के साथ उसका रवैया, तमाम बातों ने मिल कर दयाल बाबू के दिल में सागर के लिए बहुत इज़्ज़त व एहतराम पैदा कर दिया था। जब भी मुझसे मिलते सागर साहब की तारीफ़ों के पुल बांधते। उनकी तारीफ़ करते वक़्त दयाल बाबू की आँखों में एक चमक, एक आरज़ू, एक ख़्वाहिष तड़पती हुयी नज़र आती। जिसे मैं कोई नाम तो न दे सका लेकिन मुझे कुछ कुछ शक ज़रूर होता।

एक दिन दयाल बाबू ने आफ़िस से लौटते हुए मुझसे कहा ‘यार रज़ा! तुम से एक बात करनी है।’ दयाल बाबू काफ़ी सन्जीदा नज़र आरहे थे।

क्या बात है सब ख़ैरियत तो है?मुझे उनकी पुरअसरार संजीदगी से कुछ ख़दषा सा हुआ।

हाँ भाई सब ख़ैरियत है, ऐसी कोई बात नहीं है जो तुम घबरा गये। दयाल बाबू ने मुस्कराते हुए मेरे कन्धे पर हाथ रखा।

फिर क्या बात है? कहिए!

चलो तुम्हारे घर चलते हैं वहीं बैठ कर बात करेंगे। दयाल बाबू ने घर के क़रीब पहुंचते हुए कहा।

घर पहुंच कर हम लोगों ने हाथ मुंह धोया। चाय भी बन कर आ गयी।

हाँ दयाल बाबू! चाय पीजिए और बताईये क्या बात है। मैंने इतमेनान से बैठते हुए बात शुरू की।

दयाल बाबू कुछ देर ख़ामोष रहे जैसे बात शुरू करने के लिए जुम्ले का इन्तेख़ाब कर रहे हों।

क्या सोचने लगे? मैंने चाय की चुस्की लेते हुए उनका ध्यान अपनी तरफ़ किया।

यार सागर साहब के बारे में तुम्हारा क्या ख़्याल है। मेरा मतलब है तुम्हें कैसे लगते हैं। दयाल बाबू ने बात शुरू की।

कैसे लगते हैं से आप का क्या मतलब है?अरे भाई! वह हमारे साहब हैं बहुत अच्छे हैं कम से कम आज कल के साहबों से तो बिल्कुल ही मुख़्तलिफ़ हैं। लेकिन आज ये सागर साहब के बारे में इतनी ख़ुसुसी गुफ़तुगु क्यों? मेरा तजस्सुस काफ़ी हद तक ख़्तम हो गया था लेकिन मैं दयाल बाबू के मुंह से सुनना चाहता था कि उनके दिल में क्या है।

नहीं कोई ख़ास बात नहीं। मैं सोच रहा था अपनी कुसुम के लिए............दयाल बाबू ने अपना जुम्ला अधूरा छोड़ कर मेरी तरफ़ देखा शायद वह मेरे चेहरे पर अपनी बात का असर देखना चाहते थे।

मेरा शुब्हा यक़ीन में बदल गया। पहले ही दिन जब दयाल बाबू ने सागर साहब की तारीफ़ों का लम्बा चौड़ा क़सीदा पढ़ना शुरू किया तभी मैं समझ गया था कि वह अपनी छोटी बेटी कुसुम के लिए सागर साहब पर नज़रे इन्तेख़ाब डाल चुके हैं।

दयाल बाबू की दो बेटियाँ थी। एक की शादी वह कर चुके थे। लड़का सरकारी मुलाज़िम था। दोनों बहुत ख़ुष थे। अब दयाल बाबू अपनी मुलाज़मत के दौरान ही अपनी छोटी बेटी की भी शादी करना चाहते थे और उसके लिए रिष्ता तलाष कर रहे थे। सो उनकी नज़र सागर साहब पर पड़ी। क्योंकि बहुत सी बातों में  सागर साहब उनके हम मिज़ाज थे। इसलिए दयाल बाबू की ख़्वाहिष ने और भी षिद्दत अख़तियार कर लिया था।  अब मसअला था कि बात शुरू कैसे की जाय, तो मैंने अपनी खि़दमात पेष कीं कि मैं कल ही किसी बहाने से सागर साहब का अन्दिया ले लुंगा। मगर दयाल बाबू ने मुझे रोक दिया कि अभी इतनी जल्दी भी क्या है? शादी बियाह तो सन्जोग की बात है कोई अच्छा सा दिन देख कर बात शुरू करेंगे।

हाँ भाई! पंडित से महूरत निकलवा कर किसी शुभ घड़ी में बात करने से बात बन जायेगी। मैंने भी उनके मिज़ाज से वाक़फ़ियत की बिना पर उनकी हाँ में हाँ मिलाई। दयाल बाबू बहुत खुष हुए।

हाँ हाँ! तुम ठीक कहते हो। मैं अबकी इतवार को ही पंडित से दिन और वक़्त पूछ लूंगा।

मगर इतवार को कुछ ऐसी मसरूफ़ियत रही कि दयाल बाबू पंडित से नहीं मिल सके।

मैंने कहा अरे भाई बात तो शुरू करने दीजिए फिर कुछ मामला बनता दिखाई देगा तो पंडित से मषवरा कर लीजिएगा।

नहीं! नहीं! शुभ काम को शुभ घड़ी में ही करना चाहिए वर्ना बात बिगड़ जाती है। मैं जल्दी ही पंडित से मिल लूंगा। दयाल बाबू किसी तरह भी तैयार नहीं हुए।

मगर आफ़िस के काम के दिनों में छुट्टी ही नहीं मिल सकी और दयाल बाबू अपनी फ़ितरत से मजबूर बहाना बना कर आफ़िस छोड़ नहीं सकते थे। इस तरह एक हफ़्ता और गुज़र गया और दयाल बाबू पंडित से नहीं मिल सके और सनीचर आ गया।

अब कल कोई दूसरा काम मत निकाल लीजिएगा। कल सुबह ही पंडित के घर जाकर मषवरा कर लीजिएगा। मैंने लंच टाईम में दयाल बाबू को याद दहानी कराया।

नहीं भाई! बिल्कुल नहीं! कल सबसे पहले पंडित से ही मिलना है फिर कोई दूसरा काम करना है। तुम भी सुबह तैयार हो जाना दोनों ही चलेंगे। फिर हम लोग लंच ख़्त्म करके अपने काम में लग गये।

दूसरे दिन सुबह हम लोग पंडित के घर गये। तमाम पोथी पतरी देखने के बाद उसने बुध को 11 बजे का महूरत निकाला। हम लोग पंडित को ख़ुष करके ख़ुद भी ख़ुष ख़ुष घर लौट आये। कुसुम चाय बना कर ले आयी, आज वह कुछ चुप-चुप और शरमाई हुयी लगी। मुझे लगा कि शायद उसे मामले की कुछ सुन गुन लग गयी है या फिर दयाल बाबू ने ज़माने का लेहाज़ करते हुए उसे बता ही दिया हो।

सोमवार को हम लोग आफ़िस पहुंचे तो मालूम हुआ कि सागर साहब दो दिन की छुट्टी पर घर गये हैं। बुध को आफ़िस ज्वाईन करेंगे।

चलो अच्छा हुआ कि साहब बुध को आ जायेंगे वर्ना फिर से बात करने की शुभ घड़ी निकलवानी पड़ती। दयाल बाबू ने कुछ इतमेनान और कुछ फ़िक्र मन्दी के मिले जुले लहजे में मुझसे कहा।

मैंने हंसते हुए उन की बात की ताईद की।

दो दिन दयाल बाबू ने दफ़तर में कैसे बिताये न पूछिए। या तो नज़रें घड़ी पर होतीं या फिर कलन्डर पर। कभी कभी तो मुझसे पूछ भी लेते यार रज़ा! आज कौन सा दिन है। मैं कहता अरे दयाल बाबू अगर सुबह को मंगल था तो दोपहर और शाम को भी मंगल ही होगा। और वह घबरा कर नज़रे नीची कर लेते।

यूं तो हम शायद ही कभी दफ़तर देर से पहुंचे हों। मगर उस दिन मारे ख़ुषी के 20 मिनट पहले ही पहुंच गये।

चपरासी रामदीन ने हमें हैरत से देखते हुए कहा। अरे आज तो बहुत जल्दी आ गये। क्या बात है दयाल बाबू घड़ी कुछ तेज़ चल रही है क्या।

हम भी हंसते हुए अपनी टेबल पर आ गये। अभी और कोई स्टाफ़ मिम्बर नहीं आया था। बैठते ही दयाल बाबू ने कहा यार रज़ा कैसे बात करोगे।

आप घबराईये नहीं दयाल बाबू!  मैंने सब सोच लिया है कि क्या बात करनी है और कैसे करनी है। इन्षाअल्लाह सब ठीक होगा। मैंने उनको तसल्ली दी।

आफ़िस का सारा स्टाफ़ आ चुका था थोड़ी देर में सागर साहब भी आ गये। बहुत हष्षाष बष्षाष। उनके पीछे ही चपरासी मिठाई के डिब्बे उठाये अन्दर दाखि़ल हुआ।

रामदीन सबको मिठाई खिलाओ और चाय भी पिलाना। सागर साहब ने अपने कमरे के दरवरज़े पर रूक कर कहा और मुस्कराते हुए अन्दर दाखि़ल हो गये।

रामदीन सबको मिठाई बांटने लगा।

अरे भाई रामदीन ये तो बताओ यह मिठाई है किस ख़ुषी में। स्टाफ़ के एक मिम्बर ने डिब्बे से मिठाई उठाते हुए पूछा।

आप को मालूम ही नहीं। मालूम भी कैसे होता दो दिन पहल तक तो साहब को भी मालूम नहीं था।

क्या नहीं मालूम था? मैंने भी मिठाई लेते हुए रामदीन से पूछा।

अरे रज़ा साहब जाइये साहब को बधाई दीजिए। साहब की मंगनी हुयी है। रामदीन ने बहुत ख़ुष होकर बताया।

मंगनी हुयी है। कब ? मैंने रामदीन से पूछा।

इसी इतवार को, साहब कह रहे थे सब बहुत जल्दी जल्दी में हुआ। सनीचर को उनकी माता जी का फ़ोन आया कि फ़ौरन आ जाओ तुम्हारे लिए लड़की फ़ाईनल कर लिया है और पंडित ने मंगनी के लिए इसी इतवार का महूरत निकाला है। वर्ना फिर कई महीने तक कोई शुभ घड़ी नहीं है।

सब लोग एक एक करके साहब के कमरे में बधाई देने गये। मैं भी गया। दयाल बाबू भी अपनी जगह पर खड़े हुए। चेहरा धुआँ धुआँ हो रहा था। पावँ मन मन भर के हो रहे थे। मैंने उनके कन्धे पर हाथ रखा अपने आप को सम्भालिए दयाल बाबू।

रज़ा क्या शुभ घड़ी देखना बुरी बात है ?

नहीं! बिल्कुल नहीं! वैसे आप ही ने तो कहा था कि शादी ब्याह संजोग की बात है। मैंने उनको ढ़ारस बंधाया।

और दयाल बाबू ने चेहरे पर मसनूई मुस्कराहट सजाई और सागर साहब के कमरे में दाखि़ल हो गये।



66   -
डाक्टर बाबू 
[ जन्म : 30 नवंबर , 1965 ]
 रेणु फ्रांसिस 


आज चार साल बाद राहुल अपने बाबूजी से मिलने जा रहा था । साथ में उसके साथ उसका बेटा चिन्टू भी था । रास्ते भर वह अपने अतीत के पन्नों को पढ़ता जा रहा था उसके जहन में सारे दृश्य बारी - बारी से आते जा रहे थे ।

          राहुल को याद आ रहा था जब वह पहली बार गंज बासौदा से अपने बाबूजी के साथ भोपाल के मेडिकल कालेज में एडमिशन लेने आ रहा था रास्ते भर वह डरता ही रहा कभी रैंगिग को लेकर कभी होस्टल को लेकर तभी बाबूजी ने उसे हिम्मत बंधाते हुये कहा - बेटा नकारात्मक सोचोगें तो सारी बातें नकारात्मक ही होगीं सकारात्मक सोचो  कुछ गलत नही होगा दो लोग खराब मिलेंगे तो चार अच्छे लोग भी मिलेंगे । तुम अच्छे लोगों से दोस्ती करना बुरो का साथ मत देना फिर डाँ शर्मा सर है वह तुम्हारा ध्यान रखेंगे वह मेरे मित्र है और अपने ही गांव के है तुम बस पढा़ई मन लगाकर करना इतना कहकर बाबूजी बस की खिड़की से बाहर झांक ने लगे । राहुल सोचने लगा बाबूजी की बातें कितनी सच थी । एडमिशन करा कर बाबूजी गांव लौट गये राहुल होस्टल में तीन दोस्तों के साथ रहने लगा ।वह पढा़ई में होशियार था स्वभाव भी हंसमुख था जल्दी ही वह सारी कक्षा का लोकप्रिय विद्यार्थी बन गया ।

          जब भी कालेज की छुट्टियां होती राहुल गांव आ जाता और वापिस जाते हुये अपनी कक्षा के दोस्तों के लिये खाने के स्वादिष्ट व्यंजन बनवा कर ले जाता । धीरे धीरे समय बीतने लगा ।

       राहुल आज डाँक्टर बनकर अपने गांव लौट रहा था । स्टेशन पर गांव के लोगों ने राहुल का फूलों से स्वागत किया । वह बहुत खुश था ।गांव वाले भी खुश थे क्योंकि उन्हें भी अब इलाज के लिये शहर नही जाना पडेगा अब उनके गांव में भी एक क्लीनिक बन जायेगा । 

           घर पहुंच कर माँ ने आरती उतारी और कहां बेटा अब शहर मत जाना यही मेरे पास ही रहना राहुल ने भी हां में गर्दन हिला दी । थोड़े दिन तो उसे वहां अच्छा लगा लेकिन फिर उसका मन भोपाल आने के  लिये व्याकुल होने लगा ।भोपाल में शिखा जो थी वह भी राहुल के साथ ही पढ़ती थी और राहुल को प्यार भी बहुत करती थी ।शुरु - शुरु में तो राहुल को पता ही नही चला बाद में धीरे -धीरे उसे ये एहसास होने लगा कि शिखा उसे चाहती है फिर वह भी शिखा को चाहने लगा । जल्दी ही पूरे कालेज में दोनों की लव स्टोरी की बातें फैल गई । लेकिन राहुल और शिखा ने सभी से कहा - बेशक हम प्यार करते है लेकिन शादी डाँ बनने के बाद ही करेंगे । राहुल ने अपने माँ बाबूजी को शिखा के बारे में कुछ नही बताया था । वह सोच रहा था किस तरह बाबूजी को शिखा के बारे में बताये क्योकि बाबूजी चाहते थें राहुल गांव में ही क्लीनिक खोले और यहीं रहे । इधर शिखा राहुल को बार -बार फोन करके  याद दिलाती रहतीं थीं कि वह जल्दी ही बाबूजी से अपनी शादी की बात करे , क्योंकि उसके घर वाले भी उसके लिये लड़का देख रहे है । आखिर राहुल ने आज अपनी माँ को शिखा की तस्वीर दिखाई और कहां माँ ये शिखा है मेरे साथ ही पढ़ती थी हम दोनों शादी करना चाहते है राहुल की मां को शिखा बहुत पसंद आई उन्होने राहुल के बाबूजी से शिखा और राहुल की शादी के बारे में बात की तब बाबूजी ने कहा बेटा मुझे कोई एतराज नहींहै बस तुम और शिखा गांव में ही रहना क्योंकि इस गांव के लोगों को और मुझे तुम से यही आस है की तुम यहाँ के लोगों का इलाज करो । तब राहुल ने कहा हम दोनों ही गांव के लोगों का इलाज करेंगे आप चिन्ता न करो ।

     कुछ दिनों बाद राहुल और शिखा की शादी सादगी पूर्वक हो गई । अब गांव को एक नही दो डाँ मिल गये थे । कुछ दिन तो सब ठीक रहा लेकिन शिखा को गांव में रहना पसंद नही आ रहा था उसे अपने शहर के टाँकिज ,बाजार अपनी आजादी सब याद आने लगी थी उसका मन नही लग रहा था वह राहुल से भी ज्यादा बात नही करती और आये दिन किसी न किसी बहाने से भोपाल आ जाती ।उधर राहुल भी शिखा की बेरुखी को देखकर परेशां होने लगा शिखा जब भी भोपाल आती दो - तीन दिन बाद ही गांव आती आखिर राहुल ने शिखा से पूछ ही लिया आखिर वह क्या चाहती है क्योंकि शिखा का बार बार भोपाल जाने से उसका काम भी बढ़ जाता था और बाबूजी को वह क्या जबाव दे कि शिखा बार बार भोपाल क्यों  जातीहै क्योंकि बाबूजी ने शादी के समय ही शिखा को कहा था बेटा इस गांव के लोगों की और मेरी उम्मीदों पर कभी पानी मत फेरना  तब शिखा ही थी जिसने कहा था आपको मै कभी शिकायत का मौका नहीं दूंगी। राहुल के पूछने पर शिखा ने आखिर अपने दिल की बात कह दी ,उसने कहा मैं यहां नही रह सकती हूँ मेरा यहाँ दम घुटता है तब राहुल ने कहा तुम्हारा ही फैसला था हम गांव में रहकर लोगों की सेवा करेंगे अब तुम्हें ऐसा क्या हो गया जिससे तुम्हें यहाँ रहने में परेशानी हो रहीहै ।शिखा ने कहा परेशानी नहींहै बस मैं यहाँ रहना नही चाहती हूँ  तुम चाहो तो मेरे साथ भोपाल चलो या यहाँ रहो , मैं यहाँ नही रहूँगी इन दोनों की बात सुनकर राहुल के मां बाबूजी भी आ गये और राहुल को कहने लगे बेटा तुम भोपाल चले जाओ मैं नही चाहता हूँ  कि मेरा सपना पूरा करने की खातिर तुम्हें अपना जीवन बरबाद करना पड़े ।

      राहुल समझ नही पा रहा था कि शिखा ऐसा क्यों कर रही है लेकिन बाबूजी ने राहुल को गांव छोड़ने का हुक्म दे दिया  । बाबूजी नही चाहते थे कि किसी की बेटी यू परेशान होये आज राहुल भोपाल जा रहा था शिखा के साथ । राहुल  बाबूजी के पैर छूने के लिये थोड़ा झुका ही था कि बाबूजी ने राहुल से कहा - बेटा अब तुम गांव मत आना तुम्हारे यहाँ आने से मुझे और गांव वालों को बहुत तकलीफ होगीं । राहुल चुपचाप वहाँ से चला गया  आज पांच साल बाद वह गांव में वापिस आ रहा था क्योंकि उसने बाबूजी की तबियत बहुत खराब थी वह उनसे ही मिलने आ रहा था ।जैसे ही वह गांव के अन्दर आया लोगों ने उसकी तरफ देखा भी नही पूरे गांव के लोग बहुत नाराज थे जैसे ही उसने अपने घर के अंदर कदम रखा देखा वहाँ कोई नहींहै फिर वहां ऊपर वाले कमरे में जाने लगा वह भूल गया कि चिन्टू भी साथ आया है वह जल्दी से ऊपर चला गया और बाबूजी के पास पहुंच कर वह उनके पैरों में गिरकर माफी मांगने लगा यहाँ से जाने के बाद बाबूजी ने उससे बात करना छोड़ दिया था और उसका क्लीनिक को तोड़कर अपने लिये एक छोटा था प्राइमरी स्कूल खोल लिया था जहाँ वह फ्री में गांव के बच्चों को पढा़या करते थे राहुल को यूँ रोता देख मां भी रोने लगी और उन्होंने राहुल को गले लगा लिया   इतने में नीचे से चिन्टू के रोने की आवाज़ आई राहुल को याद आया कि वह चिन्टू को तो नीचे ही छोड़ आया है वह दौड़कर नीचे जाने लगा तो देखा राहुल खून से लथपथ नीचे कमरे में पडा़ हुआ है शायद वह बेहोश हो गया था राहुल चिन्टू की हालत देखकर घबरा गया वह अब क्या करे गांव में तो कोई क्लीनिक भी नहींहै वह परेशान हो गया जैसे तैसे उसने चिन्टू का इलाज शुरु किया लेकिन चिन्टू को होश नही आ रहा था उसने शिखा को खबर कर दी कहा कोई दिमाग के विशेषज्ञ डाँ को लेकर जल्दी आ जाये ।राहुल पूरी कोशिश कर रहा था लेकिन सफलता नही मिल रही थी ।इधर बाबूजी कुछ कह तो नही रहे थे पर परेशान वह भी थे चिन्टू को कुछ हो गया तो शिखा को क्या जबाव देगें हालाँकि उन्होंने राहुल को नहीं बुलाया था उन्होंने तो पांच साल में  राहुल से कभी बात भी नही की थी । राहुल ही गांव के दोस्तों से मां बाबूजी के हाल पूछ लेता था ।बाबूजी की तबियत की खबर भी उसके दोस्त ने दी थी ।

       वह भगवान से प्रार्थना कर रहे थे चिन्टू की सलामती के लिये इतने में शिखा डाँ राजीव को लेकर आ गई ,राजीव अपनी एम्बुलैंस लेकर आया था उन्होंने तुरंत ही चिन्टू का इलाज शुरु कर दिया ।उचित इलाज मिलने से चिन्टू की हालत खतरे से बाहर हो गई राहुल ने राजीव का शुक्रिया अदा करते हुये कहा सर  अगर आप नही होते तो मै आज चिन्टू को हमेशा के लिये खो देता आप मेरे लिये भगवान बनकर आये हो तब राजीव ने कहा तुम दोनों को खुद डाँ हो जानते हो जब कोई बच्चा बीमार पड़ता है तब उस बच्चे के माता पिता डाँ को ही भगवान मानते है और प्रार्थना करते है मेरे बच्चे को बचा लो आप हमारे लिये भगवान हो ,सुनकर खुशी होती है कि भगवान ने हमें इस लायक बनाया है कि हम किसी की जान बचा सकते है और हम पूरी कोशिश करके जान बचा लेते है उस समय हमें बहुत खुशी मिलती है जब हमें दुआऐं मिलती है । आज अगर मैं नही आता या तुम डाँ नही होते क्योंकि मेरे आने से पहले तुम ने चिन्टू का काफी सही इलाज शुरु कर दिया था इसलिए मुझे ज्यादा परेशानी नही हुई मेरे थोड़े से प्रयास से चिन्टू बच गया  लेकिन चिन्टू की जगह कोई और होता तो वह नही बच पाता क्योंकि यहाँ कोई डाँ नहींहै और शहर ले जाने से काफी समय लग जाता और ज्यादा खून बहने से उसकी मृत्यु हो जाती ।इन दोनों की बात शिखा भी सुन रही थी उसे अपनी गलती का एहसास हुआ और तुरन्त ही उसने राहुल और राजीव के सामने राहुल के मां बाबूजी से माफी मांगते हुये कहां मुझे माफ कर दीजिए हम डाँ तो जान बचाने के लिये बनते है हम लोगों की जान कैसे ले सकते है ।बाबूजी अब मै यही रहकर अपना क्लीनिक चलाऊँगी पता नही अब तक यहाँ कोई डाँ के न होने से कितने चिन्टू अपनी जिंदगी से हार गये होगें । लेकिन आज के बाद कोई चिन्टू अपनी जिंदगी से नही हारेगा ।तब राहुल ने कहा शिखा सोच लो जिंदगी बहुत लम्बी होतीहै फिर तुम कुछ दिन बादफिर शहर जाने की जिद करोगी इसलिए मै यहाँ नही रहना चाहता मैं बार बार बाबूजी और गांव वालों का भरोसा नही तोड़ना चाहता हूँ ,तब शिखा ने कहा मुझे एक मौका दो मैं बाबूजी माँ और गांव वालों का विश्वास जीतना चाहती हूँ और मुझे इस काम में तुम्हारा साथ चाहिये तब राहुल ने कहां मैं हर समय तुम्हारे साथ हूँ अब हम दोनों मिलकर गांव में  छोटा सा क्लीनिक खोलेगे तब राजीव ने कहा इस नेक काम में मै  भी तुम्हारे साथ हूँ  । मैं हर रविवार गांव में आकर लोगों का मुफ्त में इलाज करुंगा सब की बातें सुनकर चिन्टू जिसे होश आ गया था ताली बजाकर कहने लगा मै भी अब बडे़ होकर डाँ ही बनुगा लेकिन अभी तो मुझे बहुत भूख लग रहीहै  जल्दी से खाना दे दो नही तो मै वापिस बेहोश हो जाऊंगा ।चिन्टू की बात सुनकर सभी हंसने लगे तब  बाबूजी ने कहा अन्त भला तो सब भलाबाबूजी की बात सुनकर  लीला ताई कहने लगी आज हमें हमारे डाँ बाबू मिल गये हमेशा के लिये ......


67 -
पांच का सिक्का
[ जन्म : 18 जुलाई , 1968 ]
अरुण कुमार असफल 


               पेट भी उसका कुछ अजीब ही है, आगे को निकला हुआ- मशक की तरह। वह आगे चलने को ज्यों ही कदम बढ़ाता है तो पेट आगे हो लेता है। कहीं से अचानक प्रकट होता है तो लोगों की नज़रें पहले उसके पेट पर ही पड़ती है। पेट के कारण ही उसे सबसे अधिक उलाहना मिलती है और पेट के कारण ही उसका सबसे अधिक मज़ाक उड़ता है।
               
‘अरे रे ....परे हट! कहाँ सटाऐ जा रहा है अपना पेट ... शो केस से!’

‘हमें एक सीसी तेल अउर बाकी  सउदा दे दा तो हम चलें।’

निनकू बुदबुदाया। लेकिन उसकी बुदुदाहट अन्य ग्राहकों के चिल्लपों में दब गई। उसने चिढ़ कर अपना टिमकी जैसा पेट फिर से दुकान के शो केस पर सटा दिया। पंसारी पुनः भृकृटियाँ टेढ़ी कर उसे घूरने लगाा। लेकिन उसके कुछ बोलने से पहले वह बोल पड़ा-

‘ हमें सउदा दे दा तो हम लें।’

‘हम चलें..हम चलें !’ पंसारी आँखे तरेर कर बोला ‘ एक शीशी तेल वाले को ढेर ज़ल्दी है और एक बोतल तेल वालों के पास फ़ालतू का टैम है।’

सारे बोतल वाले एक शीशी वाले को अपनी अपनी टेढ़ी निगाहांे से देखने लगे। वह झंड हो गया। उसकी माई होती तो इस पंसारी को बताती और इन बोतल वालो की भी खूब आरती उतारती। माई ने ही तो बताया था कि यह पंसारी शीशी शीशी तेल बेच कर मालामाल हुआ है। यह मुआ पंसारी पाँच रुपिया में एक खाँसी की दवाई की शीशी भर तेल देता है। इस हिसाब से पूरी बोतल अस्सी रुपये में भरती है। जबकि एक बोतल तेल नफ़े सहित पचास रुपये में उन्हे बेचता है जो अभी उसे अपनी अकड़ दिखा रहे थें। इनकी अकड़ को ठेंगाा दिखाने की गरज से ही उसने कहीं से पानी की एक खाली बोतल का जुगाड़ कर माई बाऊ को सुपुर्द कर दिया था। पर उसकी क्या गत हुई? आज पूरा घर उस बोतल को लेकर दिशा मैदान को जाता है।
उसने पंसारी को बीस रुपये का लाल नोट थमाया । पन्द्रह रुपये काट कर उसने निनकू को पाँच का सिक्का थमाया। निनकू एक हाथ की मुठ्ठी में पाँच का सिक्का तथा दूसरे हाथ में सौदा लेकर वहाँ से चल पड़ा। वह आगे बढ़ा तो पेट फिर आगे को हो लिया । पेट की ऊभार का दबाव पड़ने से उसकी ढोंढी के सामने पड़ने वाली बटन की कॉज चौड़ी हो जाती थी। जिससे बटन बार बार खुल जाती थी और उसकी ढोंढी अक्सर उघड़ जाती थी। उसक लिये यह करेले पर नीम चढ़ने जैसी बात होती। नदी के उस पार के संगी साथियों से उसे कोई गिला शिकवा नहीं थी। लेकिन नदी इस पार के बच्चे अपने हाथ आए किसी मौके को गँवाना नहीं चाहते थे । वे उसकी ढोंढी को कोंचते और कहते -

‘ हेडलाइट का बल्ब फ्यूज क्यो है बे ?’

वह झेंपता हुआ कमीज से पेट को ढकने का उसी तरह यत्न करता जिस प्रकार कोई जवान लड़की दुपट्टे से अपनी छाती को ढकने का यत्न करती है।

मसाले की तीखी गन्ध से उसकी चेतना कौंध गई। लालडिग्गी पार्क के चहरदीवारी से सटकर ठेला लगाने वाले शामलाल ने चाऊमीन की पहली छौंक लगाई थी। क्या चीज है भई ? हर बार जब वह इस ठेले के पास से गुजरता है तो उसकी ज़ुबान गीली हो जाती है। आज सेठ का लड़का भी कैसे चटखारे लेकर खा रहा था। हरबर्ट बन्धा (बान्ध) के पास उसका कदम लड़खडाया तो वह इस नशीली गन्ध से उबरा। तेल की शीशी बायें हाथ में थी। उसनेे सावधानी वश उसे और भी जकड़ लिया जिससे दाहिने हाथ की पकड़ अपने आप ही ढीली हो गई और पाँच का सिक्का यँू लुढ़का जैसे पिंजरा खुला पाकर चिड़िया फुर्र उड़ जाती है। निनकू को गुदगुदी हुई। अच्छा सगुन है।पाँच रुपये में ही तो आता है- एक प्लेट चाऊमीन ! पर इस हिसाब से भी परे जो अहम् बात थी वह यह कि बन्धा के ढलान पर नाला था जो बन्धा के किनारे किनारे चलता हुआ राप्ती नदी में मिल जाता था और पाँच का सिक्का नाले की ओर यँू लुढ़का जा रहा था गोया कि राप्ती नदी में जाने को इससे बेहतर रास्ता और कोई न हो । निनकू को जब लगा कि अब खेल बिगड़ने वाला है तो उसने सारा सामान एक किनारे रख कर दौड़ लगा दी। निनकू के इस करतब का कोई चश्मदीद गवाह न था अन्यथा उसने जिस फुर्ती से उछलते हुए सिक्के को वापस अपनी मुठ्ठी में लिया था, उस पर वह ताली पीटे बगैर नहीं रहता। और कोई नहीं तो कम से कम उसकी माई उसे गोद में भर लेती चाहे भले ही और दिन ताने मारती रहे।

वह सोच रहा था कि ख़ुदा न ख़ास्ता अगर यह सिक्का नाले में गिर जाता, तो ? तो उसको लेकर माई के सामने दो ही रास्ते बचते, या तो उसकी करती जमकर कुटाई या डोमिनगढ़ के साइकिल पुल से ऐसा धक्का देती कि वह सीधे गिरता राप्ती नदी में। यह ख्याल आते ही उसने पाँच के सिक्के को भी उतनी मजबूती से पकड़ा जितनी मजबूती से तेल की शीशी । दूर से ही उसे वह जगह दिखी, जहाँ उसका घर था।  जिस जगह पर वह खड़ा था वहाँ से अपना घर क्या दिखता जबकि नकछेदी और बनारसी के घर ही गुत्थमगुत्था हुये जा रहे थे । कुछ दूर और चला तब जाकर दोनो घर अलग अलग से दिखे और उन दोनो घरों के बीच एक डब्बानुमा चौकोर चीज़ अड़ी दिखी । यही डब्बा उसका घर था। कुछ देर आगे चलने पर यही डब्बा उसके एक कोठरी के घर में तब्दील होगाा। अभी कुछ ही समय पहले की बात है पहले न तो यह डब्बा था और न ही उसका घर । यहाँ तो पहले बनारसी के गदहे रहा करते थे। निनकू को सिर्फ़ एक गदहे की याद है जो एक टाँग से लँगड़ाता हुआ इधर उधर भटकता फिरता था। वह मर गया या बनारसी ने बेच दिया या कहाँ गया निनकू को नहीं मालूम। काफ़ी दिनों से टीन के इस छानी को देख कर उसके बाऊ ने बनारसी से इसे किराये पर ले लिया था।

उसका घर साफ साफ दिखने लगा तो उसे घर के पास पहँुचने का सुकून मिला। घर के मूकों से धुआँ निकल कर बाहर फैल रहा था। उसे राहत मिली कि चलो बड़े मौके से पहँुच रहा है। चाय को ज्यादा जोहना नहीं पड़ेगा टीन का किवाड़ ठेल कर वह अन्दर घुसा तो धंुयें से नाक भर गई।

‘काहे दरवाजा बन्द की हो माई ?’

उसकी माई का चेहरा फुँकनी से चूल्हा फूँकते फूँकते बुझ गया था। धुयें से उसकी आँखों से पानी बह रहा था तो वह ज़वाब क्या देती । इसलिये उसने खुद फ़ैसला लेते हुये किवाड़ को पूरा खोलकर उसकी कुडीं में फँसी सुतली को दीवार में लगी कील से बांध दिया। उसने साथ लाये सौदे को ईंट के पायों पर रखी लकड़ी के फट्टे पर रख दिया। उसकी माई ने उस पर एक झलक मारा और फिर लकड़ी चीरने बैठ गई। उसने अपने आप से ही फुँकनी उठा ली और चूल्हे में फँूक मारने लगा।

‘ लकड़िया झुराईल नइखे। ’ उसने अपनी आँखे पोंछते हुये कहा।

‘ ओ उठ रे!’ 

माई के अचानक चिल्लाने से वह सहम गया।

‘उहाँ तुलसी का पत्ता बा रे! बइठ गइले का ?’

उधर चूल्हे में आग चटकी, इधर वह बुझ गया। माई की कितनी भी सेवा करो कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला। फँुकनी लुढ़का कर वह खिसक कर बैठ गया।
‘ इ पइसा रख ला।’ उसने पाँच के सिक्के को माई के सामने सरका दिया। उसकी माई आँखे फाड़े उस जगह को देखने लगी जहाँ पर निनकू ने इशारा किया था।

‘अउर कहाँ बा रे!’ माई की निगाहें धुयें की परतों से ढकी सिक्के को टटोल रही थी।

‘ इ अठन्नी नाहीं है’

‘अरे चुप कर!’ उसने झिड़का ‘ आन्हर (अन्धी)  हइ हम का!’ हमें मालूम है कि इ पाँच का सिक्का है। अउर कहाँ गया ? ’

‘ सउदा नहीं लाया का! ’  उसने झुँझलाते हुये फट्टे पर ला कर रखे सामान की ओर इशारा किया। माई ने एक एक कर के सामान को अपने पास उतार लिया।

‘तेल कित्ते का है ?’

‘ पाँच रुपये का।’

‘ चीनी ?’

‘ पाँच रुपये का, अउर मसाला भी पाँच रुपये का।’ लगे हाथ उसने मसाले का भी रेट बता दिया।
 उसकी माई सोच में पड़ गई।

‘ कुल बीसे तो हुआ! पाँच रुपया अउर कहाँ बा रे ? गिरा देहले का कहीं नहरी वहरी में ?‘

लो! गिरा दिया ! उल्टे, गिर रहा था तो उसने बला की फुर्ती दिखाते हुए इसे लपक लिया था। यही तो निनकू बताना चाह रहा था। पर माई को तो उसकी सुनने को जरा भी वक़्त नहीं है। उल्टे सवाल पर सवाल दागे जा रही है।

‘ सेठ कितना पइसा दिया था ? ’

‘ बीस रुपिया।’

‘ बीस रुपिया! माई की आँखे धुँये के बावजू़द फैेल गई ‘ मरवड़िया ने बीसे रुपिया दिया! पाँच रुपिया मार गवा! साला हरामिया, सेठ सूठ की जात! जहाँ देखस मौका वहीं दिहस धोका।’

माई के साथ पानी भी खदबदाने लगा। वह खदबदाते हुए पानी में  तुलसी की पत्तियाँ, अदरक काली मिर्च और न जाने क्या क्या डाल कर हिलाने लगी। वह पहले ही निचुड़ा हुआ था। काढ़ा बनते देख और भी निचुड़ गया। पहले उसे लगा था कि झाड़ खाते खाते गरम गरम चाय भी नसीब हो जाएगी। चाय तो अब काढ़ा बन गई लेकिन झाड़ खाना बदस्तूर जारी था।

‘कितना गेहँू बीना रे?’

‘दु कनस्तर ......भर के।’

‘मतलब तीस किलो । धोया भी?’

‘ हाँ ।’ निनकू ने गर्दन हिलाई ‘ धोया भी अउर धोकर पसारा भी ’

‘भला देखो तो गुण्डई! बिना धोया बीना गेहँू का आटा बारह रुपिया किलो जबकि धो बीन कर सोलह रुपिया के हिसाब से! अउर मेहनताना एक रुपिया किलो देने में भी करेजा फटता है। हमसे बोला था कि दु कनस्तर का पच्चीस रुपिया देगा, लेकिन दिया बीसे।’

उसे दम साधा देख कर घुड़की

‘कुल कितने जने थे?’

‘तीन गो लड़के अउर थे। सब दु कनस्तर गेहँू धोये बीने।’

‘उन्हे कितना मिला?’

‘हमें न मालूम। सबको अलग अलग बुला कर मजूरी दिया।’

‘सयाना है न। इसीलिए।’ वह दाँत किचकिचाते हुये बोली ‘ जा जा के पाँच रुपिया अउर ले आ। बोलिहे कि माई से पच्चीस में बात हुआ था बीस काहे दिया। सेठ से बोलिहे सेठाइन से नाही। उ तो अउरो कट्टाइन है।‘

उस पर तो जैसे घड़ो पानी उड़ेल दिया हो। अभी तो थकाहारा आया है। पसीना भी नहीं सूखा और फिर उसी ठौर जाने का फ़रमान! बीस रुपिया हो या पच्चीस रुपिया। उसके पल्ले एक ढेला नहीं पड़ने वाला। सारी कमाई माई के ही हाथ रखनी है, जो इस वक़्त काढ़ा सुड़ुक रही है। ऐन चाय के वक्त काढ़ा लेकर बैठ गई।

‘ तू जइबू न, उनके घर बरतन माँजे। तब माँग लिहे।’

‘ देख नहीं रहा है काढ़ा पियत हइ हम। हमारा कपार पिरा रहा है अउर तू हमे बरतन माँजे भेज रहा है कपूत।’

वह अपना सिर ठोंकने लगी । जैसे कि अगर नहीं ठोकेगी तो निनकू को विश्वास नहीं होगा।

‘ लग रहा है कि ज्वार भी है। जा, जा के इ भी बोल दिहे कि माई नइखे आई।’


‘ तो सुबह चल जइहे ।’ वह न तो तन से और न ही मन से जाने को तैयार था ‘ हमें दे कि न दे।’

‘ सुबह ? बाऊ आज रात भर नहीं आएगा। पता है न, जब लिनटर पड़ता है तब  रात भर का काम होता है। अब कल साँझ ले मजूरी ले कर आयेगा। पता है न। ’

उसकी माई हाथ चमका चमका कर उलाहने दे रही थी तब  ही उसने समझ लिया था कि  जाये बिना काम नहीं चलने वाला।

‘ चार पइसा घर में रहेगा तो हारी बीमारी में काम ही आयेगा। भूल गया छोटकू की बीमारी।’

‘ अच्छा हम जा रहे हैं’ उठते उठते फिर बैठ गया। उठने जैसा होकर उसने अपनी रजामन्दी जाहिर कर दी थी बस अब उसकी दिली ख्वाईश भी तो पूरी हो जाये -

‘ हे माई तनिक चाह तो पिला दे।’

उसकी मासूमियत भरी चिरौरी से माई का दिल पसीज गया। लेकिन लकड़ी के ढेर को देख कर चेहरा बिगड़ गया।

‘ जा, जा के पइसवा ले आ न बेटा। फिर हम दुनों चाह पीयेगें अदरक वाला।’

निनकू बूझ गया कि अलग अलग चाय बनाने का मतलब है अलग अलग लकड़ी खर्च करना। इसलिये उसने इसी बात पर सन्तोष कर लिया कि चाय न सही प्यार के दो शब्द तो मिल ही गये। वह मन मार कर बाहर निकल आया। सौ कदम का खड़जें का टुकड़ा पार कर वह बन्धा पर बने पक्की सड़क पर चढ़ आया। बन्धा पर खड़े होकर उसने बाई ओर देखा। बाई ओर चलते चलते पहले साइकिल पुल आयेगा। उसे पार करके वह सीधे डोमिनगढ़ पहुँच जायेगां जिसे उसके माई बाऊ ने छः माह पहले ही छोड़ दिया था और अब न जाने की कंठी बान्ध ली है। जबकि दाई ओर को था मारवाड़ी सेठ का घर। एक कोस भी नहीं। जहाँ वह जाना नहीं चाहता था और अब झक मार कर जा रहा था। वह जान रहा था कि जाने से कोई लाभ नहीं है। मजूरी तो उसके बाऊ को पूरी नहीं मिलती । रोज शाम को भुनभुन करता रहता है कि कुछ ठेकेदार ने मार ली कुछ मिस्त्री ने अद्धे पउवे के नाम पर ऐंठ ली। तब माई उस पर तो नहीं बिगड़ती। उल्टे बोलती है कि मिस्त्री बाऊ को मिस्त्री की बिद्या दे रहा है । अब उसका बाऊ बेलदार नहीं रहेगा। और खुद माई! उसको क्या सब जगह ठीक पैसे मिलतें है ? बनारसी के इस डब्बे में रहने के एवज में उसके घर मुफ्त में बर्तन माँजने नहीं जाती है क्या ? वरना, औकात है क्या बनारस की महरी रखने की ? तो फिर माई ने उसी की मजूरी के लिये हाय तौबा क्यो मचा दिया ? खुद जाना नहीं  पड़ रहा है न! अब एक चक्कर लगवा दिया न फालतू में!  वह नहीं जान रही है क्या कि सेठ की दाँत में फँसा होगा रुपया।

हो हल्ले से उसका ध्यान टूटा। उसने सामने निगाह डाली। लो! अब एक और मुसीबत से निबटो! वह विचला गया। उसे इस बात का होश ही नही रहा कि अग्रेंजी स्कूल छूटने का समय हो गया है। अन्यथा कुछ ठहर कर जाता। अब झेलो उनका ताना। अगर जो एक ने चिढ़ाना शुरु कर दिया तो होड़ लग जायेगी -


         मोटू सेठ सड़क पर लेट
         गाड़ी आई फुट गई पेट
         गाड़ी का नम्बर टोंटीं एट
         गाड़ी गई इंडिया गेट

एक दो तो अंग्रेजी में बड़बड़ायेगें फैट वैट और न जाने क्या क्या। कोई मतलब निकले या न निकले लेकिन जतलाना है न कि अंग्रेजी में पढ़ते हैं। सबसे पहले तो उसने बुशशर्ट को देखा। ढोंढी के सामने वाला बटन खुल गया था। उसे माई पर खींस आ गई। माई का तो वह एक एक कहना मानता है। जब थक जाता है तो भले थोड़ा न नुकूर करता है। लेकिन माई उसका जरा भी ख्याल नहीं रखती। कितने दिन से कह रहा था कि कॉज छोटा कर दो या छोटकू के निकर का ही कोई बटन लगा दो। निकर का बटन बुशशर्ट के बटन से तो थोड़ा बड़ा होगा ही। लेकिन माई न जाने किस दुनिया में रहती है। कपड़े लत्ते मरम्मत करने की सुध नहीं और नया खरीदने का तो कोई मतलब नहीं। छोटकू उससे बड़ा होता तो उसके कपड़े कम से कम आज उसक काम आ रहे होते। या अगर छोटकू के बजाए वही मर गया होता तो उसके कपड़े छोटकू के काम आ रहे होते। उसने जैसे तैसे बटन कॉज में फँसा कर दो तीन बार ऐंठ दिया। कम से कम कुछ देर तो अटका रहेगा। बच्चो के झुण्ड का फासला कम होता जा रहा था। हाँलाकि बच्चे इधर उधर बिखरते भी जा रहे थे और झुण्ड पास आते आते छोटा होता जा रहा था फिर भी वह बिला वजह साँसत में नहीं पड़ना चाहता था। इसलिये वह चुपचाप सड़क के बाईं तरफ बन्धा से नीचे उतर गया। आगे चलकर श्रीधर की चाय की गुमटी थी। यँू तो बन्धा से नीचे उतर कर ही वह सड़क पर चलने वालों से काफी हद तक छुप गया था लेकिन फिर भी उसे यक़ीन नहीं था कि पेट भी पूरी तरह छुप गया होगा। इसलिए वह श्री की गुमटी के आड़ में हो गया। जब बच्चों का झुण्ड गुजर गया तो वह फिर सड़क पर आ गया। पीठ पर बस्ता लटका कर जाते हुए बच्चों को उसने मुड़ कर देखा। बच्चे उछलते कूदते जा रहे थे। उनके उछलने से उनके बस्ते में रखे पेंसिल बाक्स की खड़कने इक्ठ्ठी होकर उसक कानों तक पहँुच रही थी। वे कान के पर्दों के बजाए दिमाग के तारों को ज्यादा झनझना रहे थे। नाम तो उसका भी लिखा है बच्चुओं! वह हँुकारी भर कर अपनी राह बढ़ने लगा। यह कुछ ही लोग ही जानते थे कि उसका नाम दो साल पहले  नदी उस पार के सरकारी स्कूल में लिख गया है। पर महीने में एक ही बार माई या बाऊ के साथ जाता है और वहाँ से सर पर राशन ढोकर लाता है।

वह जब सेठ के घर के पास पहुॅचा तो गेट की जाली से ही सेठ की हिलती डुलती टाँग नजर आ गई। उसे तसल्ली हुई कि चलो दुकान पर नहीं जाना पड़ेगा जो कि साहबगंज सब्जी मण्डी में है। और क्या पता दुकान में भी मिलता या न मिलता। गेट का साँकल ऊँचाई पर था। उसे खोलने के लिये उसे हर बार उचकना पड़ता था। उस समय सेठ का नौकर भोला, धोकर के पसारे गये गेहँू को बोरे में भर रहा था। सेठ हाथ में गेहँू के दानों को लेकर हाथ से मसला और मँुह सिकोड़ कर बोला कि अभी कल फिर सुखाना पड़ेगा।उसने निनकू को गेट खोल कर आते हुये देखा। निनकू तो लगभग रोज ही इस घर में अपने माई के साथ आता था। कभी कभी तो दिन में दो बार आ जाता था। इसलिए सेठ ने उस पर एक सरसरी निगाह भर डाली और जब भोला बोरी को कन्धे पर लाद कर ले जाने लगा तो वह बरामदे में रखे आरामकुर्सी की ओर बढ़ने लगा। तब निनकू दबी जु़बान में बुदबुदाया-

‘सेठ जी, पाँच रुपिया अउर चाहिये ।’

मारवाड़ी सेठ ठिठक गया। फिर मुड़कर उसे देखते हुये आरामकुर्सी पर बैठ गया।

‘पाँच रुपिया और क्यों?’

‘माई बोलती है कि पच्चिस रुपिया में बात हुआ था, बीसे काहे मिला?’

‘ कौन दिया तुम्हे बीस रुपिया?’ सेठ चौंक कर बोला

‘ मालकिन ने।’

सेठ कुछ देर सोच में पड़ गया। वह जैसे ही अपनी बीवी को आवाज देने को हुआ कि भोला हाथ में चाय लेकर आ गया और आरामकुर्सी के चौड़े हत्थे पर, जो कि ऐसे ही इस्तेमाल होने के लिए बना था, गिलास रख दिया।
‘ अपनी मालकिन को भेजकर तब दुकान जाना ’

भोला अन्दर जाकर वापस आ गया और ‘ बोल दिया, बाबू जी ’ कह कर चला गया। थोड़ी देर में सेठानी बाहर आई। वह आम सेठानियों जैसी मोटी एवम् थुलथुली थी। उसके पैर की जोडो में अभी अभी गठिया दर्द की शिकायत शुरु हुई थी। जिससे वह भचक भचक कर चलती थी। वह भचकते हुये आई और खम्भे से सट कर खड़ी हो गई।

‘ तुमने इसे बीस रुपये दिये थे? ’

सेठानी ने उस पर एक हिकारत भरी  निगाह डाली। उसे ऐसा लगा कि सरेआम उसकी चुगली हुई है इसलिए तैश में आकर कहा- ‘हाँ ’

‘ तुमने सारे लड़कों को बीस ही दिया था ? ’

‘ नहीं , औरों को तो पच्चीस ही दिये थे। ’

‘ तो इसे क्यो बीस दिया ? ’

‘ इसे दिया तो बीस ही लेकिन हमें पड़ा पच्चीस से भी ऊपर।’
 
सेठ उसे चकित भाव से देखने लगा।

‘ और सब लड़के इससे बड़े नही थे ? सो उन्होने काम भी ढंग से किया होगा। और सबसे बड़ी बात यह कि इसने खाना नहीं खाया था क्या? ’ वह सेठ के पास धीमे से मारवाड़ी में फुसफसाई -

‘ इसके पेट का साईज देखा है आपने? अगर नहीं देखा है तो अब देख लीजिए ’

निनकू उनकी भाषा अगर सौ फीसदी नहीं समझता था तो ऐसा भी नही था कि अपने मतलब की बात न बूझ सके और अगर चर्चा उसके पेट की छिड़ी हो तो वह इशारों को भी ताड़ सकता था। यह बात अलग है कि सब कुछ जानना और कुछ भी नहीं जानना उसके लिए बराबर था।

‘क्यो रे, खाना नहीं खाया था? ’

सेठानी कड़क कर पूछी तो वह सिहर गया। लेकिन जो खाया था उसके बारे में सोचा तो अन्दर से और भी हिला। उसने माई से नहीं बताई थी यह बात और न ही सेठ से। लेकिन जब मुकदमा चल रहा हो तो वह अपने सारे दलील रखेगा ही-

‘ उ तो सना भात था!’

सेठानी का टेम्पो बिगड़ गया। यँू तो वह आसपास के इलाके में धर्मपरायण एवम् सात्विक स्त्री के रूप में प्रसिद्ध थी लेकिन जब कोई लड़ने पर उतारू हो जाये तो उससे वह दो दो हाथ भी करना जानती थी।

‘ अच्छा सना भात था! थाली में भात दाल एक साथ रख देने से भात दाल मिल गया था कि सना भात था,?’

तो उसमें जो प्याज की लुगदी थी और दाँत से कुचला हुआ अमड़े का अचार जो था, वह कहाँ से आया? निनकू यह सब बातें अपने दिमाग में ही रख सकता था। वह तभी बोलेगा जब पैसा मिलने की उम्मीद बिल्कुल ही न हो। जबकि सेठानी अभी भी अपनी खानदानी चर्बी में सिमटी गर्मी को निकाल रही थी-

‘ क्या इसका पेट केवल सने भात से भर सकता है?’

‘ ओफ् ओ! क्यों उलझती हो इन लोगों से? ’ सेठ ने आरामकुर्सी के हत्थे पर इतनी जोर से मुक्का मारते हुये कहा कि चाय का गिलास गिरते गिरते बचा

‘ जानती नहीं हो इसकी माई को! अगर आकर तमाशा खड़ा कर देगी तो निबट सकोगी?’

पति के एकाएक बरस पड़ने से वह खिसिया गई। फिर उखड़ कर बोली-

‘ ठीक है, ठीक है, दे देती हँू। मेरा क्या है! लुटाइये पैसा! ल्ेाकिन जान लीजिये, यह जो आपका गारण्टी वाला शुद्ध आटा का बिजनेस है न, वह एक दिन जरूर बन्द करना पड़ेगा। ’

‘ बही तुम देखती हो! ’ अपने फलते फूलते धन्धे पर असगुनी बातों से सेठ का पारा चढ़ गया। फिर मारवाड़ी में चिल्लाया ‘  अभी कोई हट्टा कट्टा आदमी करता तो उसे मजदूरी देने के बाद लगाती अपने लाभ हानि का हिसाब! भलाई इसी में है कि तुम सिर्फ घर देखो और बिजनेस मुझे चलाने दो।’

 उसकी बात पूरी सुनने के बगैर ही  सेठानी अन्दर अन्दर चली गई थी। थोड़ी देर बाद जब वह लौटी तो उसका हाथ मुठ्ठियों के शक्ल में बँधा था। निनकू उस बन्द मुठ्ठी का राज जान गया था। पर सेठानी के बन्द दिमाग में क्या है, इस बारे में वह अनजान था। वह मुटल्ली भचकते भचकते उधर गई जहाँ हाते की चहरदीवारी से सटी क्यारी में तुलसी की झाड़ियाँ लगी थी। वह चहरदीवारी को टेक लेकर निहुर गई और आस पास मुआयना करनी लगी। उसी वक़्त निनकू को लग गया कि अभी कुछ बाधा है। सेठानी को वहाँ काफी देर तक निहुरा देख कर सेठ बरामदे से चिल्लाया 

‘ अब क्या हुआ? पैसा वहाँ गिर गया क्या?’

‘ अरे पैसे की छोड़ो!’ वह परेशान होकर बोली ‘ यहाँ पर सुबह मैंने बिल्ली की टट्टी देखी थी। कहाँ गई? ’

‘ कहाँ गई क्या ? अब तक पड़ी होगी ? मैंने साफ कर दी....... सुबह नहाने से पहले।’

‘ साफ कर दी! ’  वह अचानक सीधा हो गई और चहरदीवारी का सहारा छोड़ दिया ‘ अपने आप ही साफ कर दिया! अगर मैं कहती तो भला आप करते साफ ? इतनी जल्दी क्या थी ? इससे न साफ करा लेते! ’

‘अरे भाई!’  सेठ बदहवासी में चिल्लाया ‘ तुलसी माई के पास गन्दगी अच्छी लगती है क्या?’

सेठानी पता नहीं क्या बुदबुदाती हुई भचकते हुये वापस लौटने लगीं। निनकू को कुछ राहत मिली और वह ललचाई नज़रों से उस बन्द मुठ्ठी को देखने लगा जो उसके भचक भचक कर चलने से ऊपर नीचे तो हुई जा रही थी पर खुलने की हद को जरा भी नहीं छू पा रही थी। सेठानी आते हुये यँू लगी कि उसके पास ही आ रही है, पर पास से गुजरते हुये वह अन्दर चली गई। निनकू को लगा कि हो न हो मुठ्ठी ऐसे ही बन्द हो और अब वह पैसे लेने जा रही है। कुछ भी हो देर सबेर तो मिलना ही है। रुपए की आस लिए हुये निनकू अपने घुटने में चेहरा फँसा कर वहीं चबूतरे पर बैठ गया। अबकी सेठानी को बाहर आने में कोई दस मिनट लगे होगें। वह थकी और हताश लग रही थी। फिर बालो को खपर खपर खजुलाते हुये इधर उधर देखने लगी। अचानक उसकी आँखों में चमक आई और उधर गई जहाँ कार खड़ी थी। वहीं से उसने आवाज दी-

‘ इधर आना रे! ’

वह हड़बड़ाया हुआ उधर गया जहाँ सेठानी हाथ में पुराना कपड़ा लिए खड़ी थी।

‘ ले कार साफ कर दे।’

कपड़े थमा कर वह बरामदे की ओर बढ़ गई। 

तो इसलिये परेशान थी यह औरत! निनकू दाँत पीसते हुये कार पोंछने लग गया। यह काम वह फटाफट कर सकता था। लेकिन फटाफट कर देने से इस चुड़ैल को तसल्ली नहीं मिलेगी इसलिये उसने जानबूझ कर देर लगाया। काम निबटा कर वह बरामदे की ओर आया। वहाँ वह अभी तक मोढ़े पर बैठी हुई हाँफ रही थी। उसे बड़ी कोफ़्त हुई। काम वह कर के आ रहा है और हाँफ यह मुटल्ली रही है! कहीं उसके हिस्से का भी तो नहीं हाँफ लिया!

‘ ले! ’ उसने बन्द मुठ्ठी खोल कर सिक्का उसकी ओर फेंका। उसने कलाबाजी खाते हुये सिक्के को जमीन से छूने से पहले ही लपक लिया। उसके चेहरे पर विजयी होने का भाव देख कर वह सेठ के सामने अपनी भँड़ास निकालने लगी- 

‘ इनके माँ बाप खेतों में अनाज ओसते वक्त जानबूझ कर कंकड़ पत्थर मिला देतें हैं ताकि इनके बच्चों को शहर में काम मिल जाये और हमें दुतरफा नुकसान उठाना पड़े, इन्हे मजूरी भी दो और अनाज की तौल भी कम निकले। ’

वह न जाने और क्या क्या भुनभुनाई जा रही थी। निनकू ने समझने के लिए दिमाग पर जोर नहीं दिया। वह अभी तक पाँच के सिक्के कांे निहार रहा था। पाँच का सिक्का सेठानी की मुठ्ठी मंे काफी देर तक रहने के बाद गर्म हो गया था। वह अब अपने हथेली में सिक्के की गर्मी महसूस रहा था। जब सिक्के की सारी गर्मी उसकी हथेली में समा गई तब उसे कुछ ध्यान आया और सेठानी से दबी जुबान में बोला- 

‘ माई आज काम पर नाही आई!’

‘क्या क्या ....!’  सेठानी ने अपने सिर को तिरछा कर के अपने कान को निनकू के और पास ले आई और वह धोखा खा गया कि उसने सचमुच ही ढगं से नहीं सुना। इसलिए वह सेठानी के और पास चला गया-

‘ माई आज नइखे.......’

उसने अभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि सेठानी ने   उस पर  यँ झपट्टा मारा जैसे कि एक बार उसके हाथ में रोटी देख कर बन्दर ने झपट्टा मारा था। निनकू के होश फ़ाख्ता हो गये। सो उसे यह भी न मालूम चला कि उसका पाँच का सिक्का उसके हाथ से कब सेठानी की मुठ्ठी में वापस चला गया था।

‘ माई नहीं आयेगी तो चल तू माज!’
  
सेठानी ने दहाड़ कर चिल्लाया और जब उसने उसका हाथ पकड कर अपने नाखून चुभोने लगी तो आखिरकर निनकू को रोना ही पड़ा-

‘ हमारा हाथ गोड़ सब पिरा रहा है......।’ 

सेठ सेठानी दोनो अकबका गये।

‘ जाने दो यार! स्ुाबह से खट रहा है ’

सेठ ने जरा दया भाव दिखाया तो सेठानी एक झटके से उसकी ओर मुखातिब हो गई। वैसे भी, निनकू के सुबकने से वह अपने गुस्से को लेकर धर्मसंकट में पड़ी थी। अब उसे अपना गुस्सा उतारने को माकूल जगह मिल गई थी - 

‘ जाने दँू! आप साफ कर लेगें ? ’

पति को बगले झाँकते देख वह फिर चिल्लाई -

‘ तो फिर जाने दँू न इसे? आप उठ रहे हैं न?’

‘ अरे भाई तुम भी हद कर देती हो! ’

 सेठ के स्वर में दबी हुई झल्लाहट थी जो आक्रामक कम सुरक्षात्मक ज्यादा थी-

‘ काम चलाने भर के दो चार बर्तन बच्चो के साथ मिल बाँट कर माज लो।’

‘ वाह जी वाह! अगर बीवी बच्च्चों से बर्तन ही मँजवाने हैं तो अपने को सेठ जी क्यो कहलवाते फिरते है!’

फिर उसने साड़ी का फेंटा कमर में खोस कर मानो इस बात का प्रदर्शन किया कि मैदान उसने सँभाल लिया है। उसने कहा भी -

‘ अब सँभालिये न अपना बही और मुझे देखने दीजिये घर! ’

फिर उसने निनकू की ओर देखा। उसके आँसू गाल से ठुड्डी तक का सफर किये बिना सूख गये थे। उसने मुलामियत से उसका हाथ पकड़ा और खींचते हुये अन्दर जाने लगी।

‘ बस बेटा एक कुकर और एक कढ़ाही तू साफ कर दे! ’ फिर सेठ से बोली -

 ‘ बेवकूफ है न यह! अगर पहले बताया होता कि माई नही आयेगी तो मैं फालतू का काम थोड़ी न कराती! ’

वह निनकू को खींचते हुये बढ़ने लगी। वह जब भचकते भचकते उसे खींच रही थी तो निनकू के चाल में भी थोड़ी थोड़ी भचकन आने लगी। भचकते भचकते हुये  निनकू को कम से कम यह तो पता चल ही गया था कि  उसकी माई सेठाइन को कंट्टाइन क्यों बोलती है। सच्ची बात तो यह थी कि कंट्टाइन का सही मायने क्या है, यह उसे आज ही पता चला।

जब वह आँगन में जूठे बर्तनों के बीच बैठा तो उसके सामने एक कुकर एवम कढ़ाही का लक्ष्य था। लेकिन जब उसने कुकर को हाथ लगाया तो कंट्टाइन ने भगौना सरका दिया और जब वह कढ़ाही पर राख मल रहा था तो परात सरका दी। हर बार मनुहार करते भी जा रही थी-

‘ बस बेटा इसे कर दो।’

‘ आटा किसमें सनेगा बेटा?’

अन्त में जब कुछ थालियाँ और कटोरियाँ मय चममच छूट गईं तब सेठानी ने प्यार से कहा-

‘ चाय पियेगा न! मैं बनाती हँू!’

इस शगूफे को छोड़ने के बाद उसने पाँच के सिक्के को नल के चबूतरे पर पर रख दिया और शेष बर्तनों के लिये अलग से चिरौरी करने से बच जाने का तुष्ट भाव लेकर वह रसोई की ओर बढ़ गई। 

सारे बर्तनों को निपटा कर और सेठानी की कड़वी बासी चाय से मुँह का स्वाद बिगाड़ कर, निनकू जब बाहर आया तो उसके अन्दर मुक्ति की तनिक खुशी न थी। यदि वह बगैर बर्तन माँजे निकल पाने में कामयाब हो पाता तो चैन की लम्बी साँस लेता और सिक्के को तमगा समझ कर चूमता भी। पर अब यह उसके लिये पाँच का सिक्का भर था - न एक पैसा कम न एक पैसा ज्यादा। पाँव में पँख लगने के बजाये गेहँू के बोरे बॅधे होने का अहसास ज्यादा था। वह जान रहा था कि हर एक कदम बढ़ाने पर वह सेठ के घर से  थोड़ा दूर और अपने घर के थोड़ा पास हो जायेगा, फिर भी हर एक पग के बाद उसका दम निकला जा रहा था। बेजान से ज़्यादा ग़मगीन इतना था कि पेट के सामने वाला बटन कितनी देर से खुला रह गया था उसे पता ही न चला। हो सकता हो एक दो ने फ़िकरे कसे हों या किसी ने निगाहों से उसकी खिल्ली उड़ाई हो। जब उसने साहबगंज चौक पार किया तो भला हो  होश हवास दुरस्त कर देने वाली उस मसालेदार गन्ध का जिसने निनकू को  उसकी नगीं होती हुई पेट की सुध लेने के काबिल बनाया। उसने फिर कामचलाऊँ उपाय करते हुये कॉज में बटन डाल कर दो तीन बार ऐंठ दिया। उसने एक चोर निगाह इस चैतन्य गन्ध के उद्गम स्थल पर डाली। चाऊमीन का ठेला पूरी तरह आबाद हो गया था और ठेले वाले का छनौटा कढ़ाही से रगड़ रगड़ कर एक अलग किस्म का सुस्वादु सगींत बिखेर रहा था। निनकू को सगींत एवम् स्वाद की खुमारी चढ़ गई। उसका बाऊ तो इसे एक बार खा भी चुका था। यह तब की बात थी जब वे सब नदी उस पार रहते थे। तब उसका बाऊ शहर में एक बार खाकर आया था पर उसने बताया था कि उसे जरा भी अच्छा नहीं लगा था। उसकी शक्ल ही ऐसी होती है जैसे कि केंचुओं को साबुत निगल घोंट रहें हों। उसकी माई भी बोलती है कि उसे देख कर पखाने वाले वाले कीड़ी कंेचुओं की याद आ जाती है। निनकू ने वहाँ खड़े लोगों को चाऊमीन के लच्छे के लच्छे घोंटते देखा। उसे जरा भी कीड़ी केंचुये का धोखा न हुआ। न कभी हुआ था। धोखा तो उसके माई बाऊ ने दिया था। पैसा  बचाने के लिए फुसला दिया उसे! नहीं तो खिला नहीं दिया होता उसे! जैसे बसियाडीह के मेले में जिद करने पर फुलकी खिला दी थी। एक रुपये में चार आया था। माई, बाऊ, उसके एवम छोटकू सबके हिस्से में एक एक आया था। पेट तो नहीं भरा लकिन सबका गला तर हो गया था और वह और छोटकू घन्टे भर तक सीसी करते रहे थे। फुलकी तो एक गपको, मुँह भर जाता है। लेकिन पाँच रुपये के ं चाऊमीन में मुश्किल से दो बार ही मुँह गपकेगा और जब तक ठीक से गपको नहीं तब तक किसी चीज का मजा कहाँ आता है? आज सेठ का लड़का कैसे मँुह भर भर कर खा रहा था। एक बड़ा कटोरा लेकर बैठा था कि उसमें बाजार का पाँच दस क्या बीस रुपया का चाऊमीन आ जाए। पूरे बीस रुपये का माल डकार गया उस सेठ के पूत ने! तभी तो दाल भात खाया न गया होगा और सान कर छोड़ दिया होगा। वही सना भात तो मिला होगा। दाल भात तो छोड़ दिया और कटोरा भर चाऊमीन गपक गया। ऐसा गपका कि एक एक लच्छा सुड़ुक कर मसाला भी चाट गया। ऐसा चाटा कि गन्ध तक न छोड़ा। तभी तो उसका कटोरा बिना हाथ लगाए साफ हो गया। और माई बोलती है इसे पाखाने का कीड़ी केंचुआ! अगर छोटकू खाने को जिद करता तो माई बोलती ऐसा।  तब तो अगर दस रुपये का भी आता तो बाऊ खरीद कर लाता और उसके बाद भी माई पूछती- 

‘ अउर खइबे बेटा?’

पर उससे क्या बोलती !

‘ का रे, तुम्हारा धोंदा नहीं भरा!’

पेट की खिल्ली उड़ाने को लेकर वह दुनिया वालों को क्या कोसे जब उसकी माई ही उसे खरी खोटी सुना देती है और जब उसकी सुनाने की बारी आती है तो कान में ठेंपी लगा लेती है। अगर सुनती तो वह सुनाता नहीं क्या    कि वह तो सना भात भी खा ले रहा था और अगर आँखों के सामने   दाँत से कुचला हुआ अमड़े का अचार और प्याज का टुकड़ा नहीं आ जाता तो वह खा भी लेता। लेकिन एक बार जो घिन्न बैठ गई तो एक एक कौर मुँह में ठूसते वक़्त जी मितलाने लगा। इसीलिए चुपके से फेंक दिया। जब सेठानी के सामने खाली थाली रख कर बोला ‘ अउर‘ तो सेठानी का  जो चेहरा हुआ उसे बयान करने के लिए उसके पास भाखा ही नहीं। माई तो खुद ही उसे कंट्टाइन बोलती है। उस वक्त कंट्टाइन ने  उसकी खाली थाली देखने के बाद उसके पेट को हिक़ारत भरी निगाह से देखा और यूँ पैर पटकते रसोई में गई जैसे कि उसका पूरा जोड़ घटाव गड़बड़ा गया हो। तभी तो पाँच रुपिया काट लिया जालिम ने और गाती फिर रही है कि दो आदमी का खाना खा लिया। अगर माई भी सेठ की तरह बहकावे में आ जाती है तो आ जाये! उसे अब परवाह नहीं। सौ बातों की एक बात यह है कि यह पाँच रुपया उसके खाने का मोल है और उसका पेट अभी भरा नहीं था।

पेट के इस उलझेड़े में डूबा रहने से उसे हरबर्ट बन्धा की चढ़ाई का गुमान भले ही न रहा हो लेकिन उसकी बन्द मुठ्ठी, पाँच के सिक्के के वजूद को सदैव ही महसूसती रही। चढं़ाई जहाँ से शुरु होती थी वहीं से गन्दा नाला बन्धे से सड़क से लग कर चलता था। उसने इधर उधर देख कर सिक्का नाले की ओर लुढ़का दिया। फिर कलाबाजी खाते हुये, नाले में गिरने से ऐन पहले सिक्के को लपक लिया और उल्टे पाँव उस रास्ते दौड़ चला जिस रास्ते चल कर आया था। कुछ उसकी बेकली ने और कुछ रास्ते के ढलुवेपन ने, उसे उस जगह झटपट पहुँचाने में कोई कसर न छोड़ा जहाँ पहँुचने की तमन्ना वह महीनों से पाले हुआ था। उसने ठेले वाली की हिक़ारत भरी नजर को अपने से परे हटाया और अपनी मुठ्ठी खोलकर सिक्का उसे दिखलाया। उसे यह भी कहने की जरुरत न पड़ी कि क्या चाहिये कितनी चाहिये और अगले क्षण ही वह खाने वालों की पात में शामिल था।

पत्ता गोभी का कचर कचर तो उसे रास नहीं आया। लेकिन तीन चार शीशी से जो चटनी मसाला छिड़का था उसी से चटपटा बना होगा, उसने अनुमान लगाया। पाँच रुपया में पेट नहीं भरेगा यह तो तय था लेकिन स्वाद तो मिल ही गया। अब जब भी इधर से गुजरेगा, चखन पिपसिया तो नहीं रहेगा। आज सारा दिन खराब खराब गुजरा बस यही एक बात है  जिसे याद कर मन में गुदगुदी होगी। भले ही पाँच रुपये खर्च हो गये और इसके लिए माई से दो बातें सुननी पड़ेगी। पर माई का क्या वह तो पाँच रुपया पाने के बाद भी बक बक करती

‘ काहे देर हो गया रे ? ’

‘ का? बरतन मँजले ?’ 

‘ अरे बौड़मवा! कहे बरतन के हाथ लगाया?’

यह थोड़ी न देखती कि थका हारा आया था फिर उल्टे पाँव सेठ के पास भागा था। उसे क्या मालूम नहीं होता कि शेर के मुँह से निवाला खींच कर लाया है। चाय की प्यास लेकर गया था। उसे याद भी होगा! अगर याद दिलाएगा भी तो उसी के मत्थे मारेगी-

‘ अच्छा चाय पीबे! चल चइला सुलगा!’ 

अच्छा किया कि पाँच रुपया का चाऊमीन खा गया। अब वह यह तो जान गया कि सेठ का लड़का खाते वक्त जो सुड़ुक सुड़ुक करता है वह उसकी बदमाशी है। चटपटा तो है यह, लेकिन इतना हल्ला करके खाने वाली चीज नहीं है। वह तो उसे खुलेआम चिढ़ाता है। और जब वह उसे ललचाई नजरों से देखता है तो और लम्बी लम्बी सुड़ुक मारता है। आज कम से कम उसकी सुड़ुक का राज खुल गया। पाँच रुपये गये तो गये! माई पूछेगी तो बोल देगा-

‘ नहरी में गिर गईल।’

माई कहेगी-
  
‘ खा किरिया!’

तो वह किरिया खा के बक देगा-

‘ हाथ से छूट कर नहरी की ओर लुढ़ुक गया।’

बस्स! माई क्या कर लेगी ? ज्यादा से ज्यादा एक दो थप्पड़ लगा देगी। वह तो वैसे भी आये दिन लगा देती है। अभी उस दिन ही लगाया था जब उसने गाँव जाने की जिद पकड़ ली थी। उसे क्या मालूम था कि गाँव जाने के नाम उसे दो तीन चाँटे फोकट मंे मिल जायेगें।

‘ जब देखो तब गाँव का माला काहे जपता है रे! का रखा हैे गाँव में ?, खेत ? घर ? दुआर? , ढोर ? डंगर ? ......’
फिर एक चाँटा!   

‘ बार बार भूल जाता है कि, छोटकुवा जब बीमार पड़ा था तो कउन आया था बचाने? कउन दिया था पइसा ? अरे मतलबी तू चाहे कि तोर माई बाऊ ताउम्र भुंइहरवा के बेगारी करे!

फिर एक चाँटा   

यदि चाँटा मारने पर उतारू न होती तो माई से कहता भी-

‘ ए माई, उहाँ स्कूल भी तो बा! बीमारी से बचे खुचे दोस्त भी .....’

लेकिन कुछ तो डर के मारे, और कुछ इस यकीन से कि क्या माई को न मालूम होगी यह बात, वह चुप्पी मार लेता था। अगर न मालूम होती तो चिढ़ के चाँटा क्यों मारती ? स्कूल का नाम सुनते ही माई फनफना जाती है। निनकूवा स्कूल चला जायेगा तो उसके साथ काम पर कौन जायेगा। आठ घर पकड़ रखा है उसकी माई ने! अकेले है उसके बस का? वह तो बर्तन माँजते माँजते हाँफने लगती  है। झाड़ू पोंछे का काम तो हर घर में निनकू को ही निबटाना पड़ता है। तब जाकर माई को पूरी मजूरी मिल पाती है। नहीं तो बाऊ की तरह वह भी किलसती रहती कि फलाने ने मजूरी मार ली, फलाने ने बेगारी करवा ली या फलाने ने मजूरी के बदले घुन्न लगा अन्न थमा दिया। निनकू को तो सारा झोल बाऊ के साईड ही दिखता है। अगर बाऊ ठेकेदार से पूरी मजूरी ले आता तो भला माई को इतने घरों में बर्तन माँजने पड़ते ? उसने माई को तो एक दो बार बाऊ से कहते सुना भी था कि जब पूरी मजूरी नहीं मिलती तो ठेकेदार एवम् मिस्त्री का पुछण्डी पकड़ कर काहे घूमता है। लेकिन जब बाऊ झल्ला कर उस पर बरस पड़ा तो माई ने अपना मँुह सिल लिया। निनकू को क्या याद नहीं है, जब उसका बाऊ सुबह मँुह अँधेरे गाँव से निकल जाता था धर्मशाला बाजार में!  तब महीने में बीस दिन शाम को ऐसे ही घर लौटता था जैसे डंगरों के मेले से कोई डंगर बिना बिके लौट आता है। जब उसे याद है तो माई को न याद होगी यह बात? ठेकेदार के चेलाली में आकर रोज शाम को दो पैसे तो आ जाते हैं।  नहीं तो माई को चार घर और पकड़ने पड़ते और उसे उतने ही घर और झाड़ू पोंछा लगाना पड़ता । इसीलिए  तो माई बाऊ ने नदी इस पार डेरा जमाया था कि पूरे कुनबे को काम मिल सके । रही बात इन्सेफिलेटिस से डर कर गाँव छोड़ने की बात, तो बाकी लोगो ने गाँव क्यों नहीं छोड़ा ? सन्तबली के तो दो बच्चे इन्सेफिलेटिस से मर गये थे , उसने तो नहीं छोड़ा गाँव! सन्तबली ही क्या! जब वह बाऊ के साथ छोटकू के किरिया करम के लिए मुर्दघाट गया था तो वहाँ सिर्फ वह और बाऊ ही थे क्या ? वहाँ तो अपने अपने बच्चों को गाड़ने वालों की भीड़ लगी थी। तो क्या सभी ने गाँव छोड़ दिया? और क्या नदी इस पार बीमारी नहीं आयेगी? 
उसकी माई को नदी के दोनों ओर मुसीबतों के पहाड़ एक जैसे न लगतें हो पर उसे तो दोनो तरफ की दुनिया एक जैसी लगती है। बल्कि कभी कभी तो इस पार का नरक ज्यादा ही भयावह लगता है। गाँव में तो उसके जिम्मे इतनी तकलीफ़ वाला कोई काम न था। कभी गाय गोरूं के नाद को चारे से भरना होता या कभी उनके गोबर के गुइंठे बनाने होते या ऐसे ही काम जिन्हे वह सगीं साथियों के साथ खेल खेल में कर देता था। लेकिन यहाँ पर तो दो पैसे देने के बदले हरामी सब खून निकाल लेते हैं। तिस पर उसके पल्ले ढेला नहीं पड़ता। माई बाऊ पहले से ही हिसाब लगा कर बाट जोहतें हैं। अभी उसकी माई बाट नहीं जोह रही होगी क्या? अगर उसके हाथ में पाँच रुपया होता तो वह भी उस तरह झपट्टा नहीं मारेगी जिस तरह सेठानी ने मारा था? सेठानी ने भले ही तेल निकाल लिया था पर आखिर में दिया न रुपिया ! पर माई ? उसके सामने तो अँधेरा ही छा जायेगा जब उसे पता चलेगा कि उसकी मुठ्ठी खाली है। ऐसे में अगर उसे पता चलेगा कि पाँच का रुपया उसके पेट में गया तो उसका पेट ही न फाड़ डाले। तब नदी इस पार के लौण्डे और भी चहकते फिरेगें कि देखो उनकी बात सही निकल गई , और मोटू सेठ की पेट आखिरकार फूट ही गई। इसके बजाये अगर सिक्का नाली में गिर जाता तो यह उसके लिए कम कुपित वाली बात होगी। अब और अधिक सोचना ही क्या है ? वह तो यही बोलेगा-

‘ नहरी में बुड़ गया ।’

माई अगर शुबहा करेगी तो किरिया खा लेगा

‘ तुहार किरिया माई! हाथ से गिर कर नहरी की ओर लुढ़ुक गया।’

बस्स! आगे कुछ नहीं  सोचना विचारना है। अब वक़्त ही कहाँ था। सामने चटक रगों के दो घरों के बीच, गेरू एवम चूने से पुती उसकी कोठरी जो दिखनी लगी थी। दो कदम आगे और बढ़ा तो घर के मूके भी दिखने लगे थे। अरे, दरवाजे के सामने माई बैठी है क्या?  हाँ, माई ही तो है! उसको जाहे रही है। उसको नहीं, पाँच रुपये को जोह रही है। वह सिहर गया।

‘ अबहिन आ रहा है रे!’

‘ बरतन कउन माँजता ?’  उसने तपाक से जवाब देकर माई का  मिज़ाज ठण्डा करना चाहा

‘ तू पइसा लेकर भाग आता न!’

‘ कइसे भाग आता ? झपट्टा मार कर रुपइवा छोर लिया न सेठानिया ने! सब  बर्तन पर राख रगड़वा के ही दिया पईसा।’

वह अपने दोनों हथेलियों को सहला कर अपनी थकान का इज़हार करने लगा।?

‘ अरे मोर बबुआ!’ माई लाड़ जताते हुए उसे अपने सीने से चिपटाये जा रही थी और वह हिसाब लगा रहा था कि माई की नौटकीं कितने देर की है।

‘ भगौना में चाय बा जा जाके पी ला। अबहिन गरमे होगा।’

 माई जितना लाड़ जताये जा रही थी भीतर ही भीतर वह उतना घुटता जा रहा था। अब माई बन्द भी करे यह नौटकीं और सीधे सीधे मतलब की बात पर आये।

‘ कहाँ बा रे!’ और माई आ ही गई मतलब की बात पर और उसकी हथेली को गौर से देखने लगी ‘ कहाँ छुपाया है रे?’

‘ का ?’ थोड़ी नौटकीं उसने भी करनी चाही। 
‘ पइसवा, अउर का!’

‘ नहरी में गिर गईल।’

‘ का.......!’

माई का गला भी उसी तरह अटका जैसे कि सेठानी का उस वक्त अटका था जब उसने उसे माई के न आने वाली बात बताई थी। जैसे दोनों के गले में पाँच का सिक्का अटक गया हो।

‘ अरे कहाँ गिर गईल रे ? उठाइले काहे नाही रे?’

‘ खोजली तो खूब! मगर नाहीं मिला!’

‘ अरे मोर माई रे! ’ माई माथा पीट कर स्यापा करने लगी  ‘ अरे उहाँ छोड कर यहाँ काहे आ गया, बकलोलवा? ’केहू देखा तो नहीं ?’

‘ नाही। ’

‘ चल मोरे साथ! ’ माई ने उसे जोर से खींचा। वह तैयार न था, इसलिए गिरते गिरते बचा।

‘ ऊपर से खोइया उठा अउर चल मोरे संग ’

माई ने टिन की छत पर काफी देर से सूखते हुये गन्ने की खोइयों की ओर इशारा किया । वह चुपचाप अन्दर गया और अन्दर से बाल्टी लाकर औंधा रख दिया। 

‘ दुआरे पर पइसा के पेड़ लगा है न! धन्ना सेठ बनकर येहर वेहर लुटावत चलत है।’

वह माई की लानतें सुनता हुआ बाल्टी पर चढ़ कर खोइयों के ढेर तक अपना हाथ पहँुचाने की कोशिश कर रहा था। जैसे ही एक खोई उसक हाथ के पहँुच में आया उसने उचक कर उसे खींच लिया। बाल्टी अन्दर रख आकर वह खोई को पटक पटक कर उसकी गर्द निकालने लगा।

‘ अब साफ का करत है! नहरी में त घुसेड़क बा!’

अब जाकर पता चला कि माई ने खोई को क्यों उतरवाया है। अब वह इस खोई से बेमतलब कीच को मथेगा।
‘ पाँच रुपया उहाँ गिरा दिया अउर लाट साहब की तरह हाथ झुलावत चल आया। नहरी में हाथ थोड़ी न डाला होगा।’ 

‘ खूब खोजली माई, खूब। येहीलिए तो देर हो गया।’

कराहते हुए सा बोलकर उसने माई की सहानुभूति बटोरनी चाही।

‘ आसपास केहू था तो नहीं? ’ माई ने दरवाजे पर चुटपुटिया ताला लगाते हुए एक बार फिर पूछा।

‘ नाहीं।’

‘ तो चल ।’

माई आगे आगे चलने लगी और वह पीछे पीछे।

‘ तू आगे चल।’ उसने ठहर कर निनकू को आगे निकल जाने दिया।

निनकू आगे आगे चलते हुए सोचने लगा कि झूठ बोल कर वह अच्छी मुसीबत में फँस गया । वह कब तक नाले को खँगालता रहेगा। माई तो पाँच रुपया लेकर ही मानेगी। इससे अच्छा तो दो तीन चाँटे ही खा लिया होता। उसने एैंठी हुई गन्ने की खोई को सीधा करक लम्बा कर लिया फिर सड़क पर सरसराते हुए इसे खींचते हुए  आगे आगे पाँव फेकते हुए चलने लगा। उसके पीछे पीछे माई न जाने क्या क्या भुनभुनाते हुए चली आ रही थी । चँूकि वह सुनने की कोशिश नहीं कर रहा था , इसलिए ठीक ठीक उसे सुनाई भी नहीं दे रहा था । पर जोर जोर से बोले जाने पर  ‘ हाय माई’ , ‘मोर माई’ यदा कदा उसके कानों में पड़ रहे थे। निनकू इस उलझन में पडा था कि वह तो सुबह से ही खट्टू बना है, पर वह किसे याद करे।

‘ काहे ठहर गया ?’

उसे जरा देर के लिए खड़ा देखना भी माई को बर्दाश्त न हुआ। हाँलाकि वह वहीं खड़ा था जहाँ से उसे एक असम्भव कार्य को अन्जाम देना था।

‘ यहीं तो गिरा था! ’

उसने अपनी उँगली नाले की ओर तान दी। उसकी माई झुक कर देखने लगी ।

‘ लेकिन अब होगा थोड़े न, बह गया होगा ।’

‘ चुप बकलोल ! कउनो कागज पत्ता है कि बह गया होगा ! कहाँ गिराया था, ठीक से बता!’

निनकू ने फिर उँगली तान दी।

‘ एक जगह बता न! कब्बो एहर कब्बो ओहर! माथा पर जोर देकर याद कर।’

याद कहाँ से करता। फिर भी इस बार अड़ा रहा।

‘ यहीं....यहीं...पक्का! इहाँ से लुढ़का अउर उहाँ जाकर गिरा। हाँ....हाँ बिल्कुल... ये ही जगह! 

अब सिक्के को नाली में गिरने में कोई शुबहा न रहा। लेकिन निनकू को डर इस बात का था कि कहीं माई इस बात की की किरिया न खिला दे कि सिक्का ‘ यहीं’ ’  गिरा है। इसलिए यह नौबत आने से पहले ही निनकू खोई से नाले की कीच को हिलाने डुलाने लगा। माई के चेहरे पर तसल्ली का भाव देखने की गरज से उसने अपनी गर्दन हल्की से तिरछी की। उसकी माई चौकन्नी होकर इधर उधर अपनी गर्दन घुमाये जा रही थी। फिर ढाल की दिशा में एकटक देखने लगी। उसने माई के चेहरे पर तसलली के बजाए आशा का दुर्लभ भाव देखा। उसने भी खँगालना छोड़ कर उधर की ओर ही निगाह कर ली। ढाल पर म्यूनिसिपिलटी का जमादार नूर अपनी कूड़ागाड़ी को गड़र गड़र ढकेलता हुआ ऊपर चला आ रहा था।

‘ अच्छे बखत नूरे आ रहा हैं।’ उसकी माई बुदबुदाई और नूर मय ठेले पास आ गया

‘ का हो भौजी ?’ उसकी माई को अपनी ओर घूरता देख कर नूरे ने अपनी चाल धीमी कर दी।

‘ तनिक बेलचवा देबा।’

‘ बेलचा ? का होई ?’

‘ अरे , इ लंठवा, सिक्का नहरी में गिरा दिया! ’ माई को अपनी ओर इशारा करते देख निनकू फिर अपने काम पर लग गया।

‘ अच्छा ! सोना कि चाँदी के ? ’ 

नूर ने मसखरी की तो उसकी माई झेंप गई।

‘ अरे बौड़मवा! साहबगंज मण्डी में दुकान है मोरा ? नदी ओ पार दस एकड़ खेत है मोरा ? दुआरे दर्जन भर ढोर ढंगर बन्धे है ? बेलचा दा, मसखरी मत कर।’

‘ हम बेलचा अब नाही देब भौजी। हम धो दिये है इसे।’

‘ तू फिकर मत कर! हम धो देब.....’

उसकी माई ने नूर के कुछ और बोलने के पहले ही लपक कर कूड़ेगाड़ी से बेलचा उठा लिया और नूरे को आँखे दिखा कर डपट लगाई-

‘ अब चल फूट इहाँ से! सवाल जवाब बाद में करिये।’

‘ कमीसन देबू न! अच्छा चल, तू एक कप चाय पिला दिहे।’

‘ अच्छा, पाँच रुपल्ली में तू दु रुपिया के चाय पीबे!’

‘ अच्छा चल, रामसमुझ से एक ख़ुराक तमाखू खिला दिहे।’

‘ ओफ्ओ! परे हट! गोखरू की नाई चिपक गया है, घूसखोर, सरकारी मुलाजिम!’

उसकी माई  उसे बेलचा मारने को दौड़ी तो वह दाँत दिखाते हुए, कूड़ेगाड़ी को ठेलता हुआ भाग खड़ा हुआ। वह भागते हुए भी वह उसे छेड़ने से बाज नहीं आ रहा था। लेकिन माई  अब नूर की ओर से घ्यान हटाकर उसकी ओर लगा दी थी।

‘ ले बेलचा! ’

निनकू अभी गन्ने की खोई से कीच हिलाने डुलाने को ही मुसीबत माना हुआ था। बेलचा देखकर और भी पस्त हो गया। माई ने किसी भी हालत में नाले से सिक्का निकालने को ठान ली है। वह बेलचा लेकर नाले में कीचड़ हिलाने डुलाने लगा।

’ कीच हिला कर मक्खन बना रहा है का ?  बाहर निकाल कीच ! ’

जितना बड़ा निनकू नहीं उतना बड़ा बेलचा! उससे भी बड़ा उसका जिम्मा! उसने पहले प्रयास में जितना कीचड़ निकाला उसे देख कर माई भड़क उठी -

‘ काहे कउआ हगन कर रहा है ? आधी रात लगइबे ? हल जा, नहरी में नूरे की नाई।’

निनकू , नूरे का कीचड़ निकालना याद करने लगा। नूरे जब नाला से कीच निकालता था तो आसपास के बच्चों की भीड़ लग जाती थी। कुछ बच्चे ऐसे भी होते जो किनारे ढेर लगते कीचड़ पर आँखें गड़ाये रहते और कोई काम की चीज दिखते ही झपट्टा मार कर अपने बोरे में रख लेते। कभी कभी इन बच्चों में लड़ाई भी होने लगती थी। जब वह इस तमाशे का मजा ले रहा होता था तो ऐसे में उसकी माई या बाऊ उसे खोजते खोजते आ जाते। माई होती थी तो डाँट लगाती थी-

‘ का रे, इहाँ काहे खड़ा है ? चल दूर हट छींटा पड़ जायेगा!’

और अब इसी माई की हुक्म तामील करते हुए वह नाला में पैर बुड़ाये खड़ा था। वह अक्सर नंगे पाँव ही डोलता रहता था , फिर भी उसे महसूस हो गया कि नूर के तलवे जरुर पत्थर जैसे सख़्त होंगें तभी वह आराम से , नाला में नंगे पैर डाल कर कीचड़ निकालता था। उसे तो पैर डालते ही तलवे में चुभन होने लगी। ऐसा लग रहा था मानो वह लालडिग्गी पार्क की चहरदीवारी पर खड़ा हो जिस पर काँच के नुकीले टुकड़े जड़ें हों। उसने पूरी ताकत लगा कर बेलचा अन्दर धँसाया। बेलचे का फल तो पूरा का पूरा अन्दर धँस गया था। लेकिन उसे मय कीचड़ उठाने को जितनी ताकत की जरुरत थी वह दरअसल उसके पास थी ही नहीं। उसने हिला डुला कर बेलचा से उतना ही कीचड़ निकाला जितना आसानी से निकल सकता था। जब उसने तीन चार बेलचे कीचड़ निकाल कर किनारे ढेर लगा दिया, तब उसकी माई गन्ने की खोई से कीचड़ कुरेदने लगी।
इस समय उसकी माई हुबहू कूड़ा बीनने वाली औरत लग रही थी। छिः माई, छिः! अब तेरे पीछे भी कुत्ते भौंकेगें!
लो, अब तमाशा भी लगना शुरु हो गया। रामकिशोर खुद तो आ ही रहा है, कम्बख़त, दो तीन च्ंिाल्लरों को भी खींचता चला आ रहा है। उसकी माई की चढ़ी हुई त्योंरियाँ देख कर तो उससे कुछ पूछने की हिम्मत न हुई होगी। उसकी माई वैसे भी, अपने गुस्सैल स्वाभाव के कारण बदनाम थी। इसलिए वह अपनी आँखे एवम् भवें हिला कर, निनकू से ही माजरा जानने की कोशिश करने लगा।

‘ का है रे!’ उसकी माई ने निनकू को रुका देखा तो रामकिशोर को झिड़क दिया। रामकिशोर सकपका गया फिर चापलुसियाना स्वर में पूछा-

‘ का हेराइल बा, चाची ?’

‘ तुहार माई के करधन, बेटा!’ माई ने उसको उसी के लहज़े में जवाब दिया तो रामकिशोर का मँुह उतर गया। वह चुप्पी मार कर वहीं पर दोजानू बैठ गया।

उसकी माई ने रामकिशोर को तो चुप्प करा दिया। लेकिन सड़क उस पार से, बन्धा की चढ़ाई चढ़ती अब जो रामसमुझ बो ( रामसमुझ की बीवी) चली आ रही थी, क्या उसे भी इस तरह झिड़क देगी ? रामसमुझ कोइरी है, और लालडिग्गी चौराहे पर, पीपल के चबूतरे से सट कर, सुर्ती, चूना वग़ैरह बेचता है। वह बाऊ के लिए तमाखू लेने कई बार उसके ठिए पर जा चुका है। रामसमुझ-बो को  भी तमाखू की लत पड़ चुकी थी और उसके मुँह चलाने  के तरीके सेे ही पता लग रहा था कि तमाखू की एक खुराक अभी भी उसकी दाँतो एवम ओंठ के बीच अटकी है।

‘ का गिरा है, निनकू की माई ? ’

निनकू के कान खड़े हो गए कि देखें अब उसकी माई इसे क्या जवाब देती है ।

‘ का बतायें रामसमुझ बो। इ है पूरा बउक। पाँच का सिक्का नहरी में गिरा दिया।’

निनकू ने ठीक ठीक सुना। बता ही दिया इसे! इसे नहीें झिड़का। आखिर, नाले में झक मारने की वज़ह नहीं बतायेगी तो झेंप कैसे मिटेगी।

‘ हे राम!’ रामसमुझ-बो  ने दया क्या दिखलाई उसकी माई के जख़्म हरे हो गए। वह तड़प कर निनकू से बोली -

‘ खोज रे खोज, पाँच के सिक्कवा ! ’ 

‘ पाँच का सिक्का है चाची! ’

सारे चिल्लरों को एकाएक सुराग मिल गया  और वे फटाफट नाला के किनारे किनारे फैल गए। नाला में आँखे गड़ाये वे इस तरह से चहलकदमी का रहे थे जैसे निनकू की  उन्हे बहुत  फ़िक्र हो। जबकि असल बात निनकू जान रहा था कि उन्हे उसकी को फ़िक्र विक्र न थी। वे तो उसे नीचा दिखा कर उसकी माई से शाबाशी चाहते थे।

‘ चाची, मिल गया! उहाँ है! ’

अचानक रामकिशोर चिल्लाया तो निनकू को छोड़ कर सारे बच्चे उधर बढ़ गये। रामकिशोर की ऊँगली अभी उधर तनी थी।

‘ तू ठूठ बन कर उहाँ काहे खड़ा है ? बेलचा लेकर इहाँ आ!’

माई अब इसी बात से चिढ़ गई थी कि जब सब उधर चले गये थे और सिक्का भी उधर है तो वह अपनी जगह पर क्यों खड़ा है। जबकि निनकू के लिए, बेमतलब वहाँ जाना, वह भी बेलचे को लिए दिए, एक अतिरिक्त परेशानी वाली बात थी। पर माई की धौंस क्या न करवा दे। वह मन मसोस कर , नाला में चलता हुआ उधर की ओर बढ़ा। वहाँ पहुूच कर उसकी आँखें फैल गई। यह तो चमत्कार है! शाम तो हो गई थी, लेकिन अँधेरा नहीं था कि निनकू की आँखंे धोखा खा जाए। बिल्कुल पाँच के सिक्के जैसा गोल! अगर ऊपर से कीच की परत हट जाये तो पाँच का सिक्का चमक उठेगा। निनकू के मन में सवाल उठा कि कौन होगा बौड़म, लंठ, बकलोल और न जाने क्या क्या जो पाँच के सिक्के को नाला में टपका कर भूल गया होगा।
उसने उत्तेजित होकर बेलचे से उस सिक्के तैसे गोल चीज को बाहर निकाला तो सभी ‘धत् धत्’ करने लगे। 

‘ इ तो सीसी का ढक्कन है! ’

यह तो होना ही था! किसी और को तो नहीं , पर उसे पूरा यक़ीन था। जिसने यह सिक्का टपकाया  होता तो भला उसकी माई ने छोड़ दिया होता। अगर उसके हाथ से सिक्का छूटकर, लुढ़कते लुढ़कते नाले में गिर जाता तो वह उसी वक्त नाले में न कूद जाता! नदी इस पार के लौण्डों ने उसकी मदद करने के बहाने उसे पधा ही डाला। वह चोट खाये साँप की तरह फुफकारी मारता हुआ, उन लौण्डों पर नजर डालता है। जरा उनकी ढीठपना तो देखो, वे अभी खुसर फुसुर कर रहे थे।  ष्

एक बोला- ‘ उ का है रे!’
दूसरा बोला- ‘ उहाँ देख ’

वह हर बार माई की ओर देखता, उसके इशारे पर ही वह बेलचा लेकर उधर ही भागता। कोई बड़ा बूढ़ा कहता कि ‘येहर भी बेलचा घुमाओ।’ तो वह माई के इशारे की प्रतीक्षा किये बगैर, वहाँ भी बेलचा घुमाता। एक जगह कलुवा और वासिल उलझे हुए थे। कलुवा ने एक जगह इशारा किया था लेकिन पास खड़ा वासिल  उसकी बात काट रहा था।  

‘ उ पाँच का सिक्का नहीं  है बे! हम पाँच का सिक्का देखें हैं। दु अठन्नी साट दो तो पाँच का सिक्का तैयार हो जायेगा। नई नहीं पुरानी अठन्नी! हमरे घर तीन चार गो पुरनकी अठन्नी है........’

तेरे घर खूब अठन्नियाँ होगी। निनकू ने मन ही मन कहा। उसे पता था कि वासिल का अब्बू कम्पनी वालों की ओर से बीड़ी बनाता हैं।  ं उसने तो उसके अब्बू को ही नही, पूरे परिवार को बीड़ी बँटते देखा था। वासिल का अब्बू पचास पैसे के चार बीड़ी आसपास के लोगों को इस चालाकी से बेचता था कि उसका हिसाब नहीं बिगड़ता था। वासिल जब भी बाजार जाता था तो उसकी मुठ्ठियाँ अठन्नियों से भरी रहती थी। उसने कई बार दुकानदारों को वासिल से उलझते देखा था।

‘ कौन लेगा अठन्नीे रे! चल भाग! ’ 

एक बार तो निनकू के सामने ही एक दुकानदार ने वासिल को झिड़का था-

‘ क्यों बे! इस जुम्मे को कौन सी मसजिद के पास तुम्हारा अब्बू कटोरा लेकर बेठा था! ’

एक वाकया तो उसने देखा नहीं पर सुना था कि किसी दुकानदार ने गुस्से में  वासिल की मुठ्ठी झटक दी  जिससे सारी अठ्ठन्नियॉ नाली में गिर गईं थी। फिर तो ढिबरी लेकर रात भर वासिल, उसके अब्बू अम्मी, एवम् छोटा भाई तब तक लगे रहे जब तक एक एक अठन्नी निकाल न ली। वासिल की आँखों में,  अठन्नी और इस लिहाज़ से पाँच के सिक्के की साईज सध गई होगी, यही सोचकर कलुवा शाँत हो गया होगा और इसीलिए माई ने उस ओर से ध्यान हटा लिया होगा। इसका फ़ायदा निनकू को यह मिला कि उसके हिस्से एक काम कम हो गया। लेकिन कोढ़ फूटे इस राम किशोर को , जिसे पाँच के सिक्के की माई से ज्यादा फ़िक्र थी।
 ‘ ऐ निनकू तनिक  देख रे! उ का लउक (दिखना) रहा है..... गोल गोल!......’

राम किशोर केवल बुदबुदाया भर था। जैसे वह खुद ही बता देना चाह रहा हो कि उसका दावा पुख़्ता नहीं है। लेकिन निनकू ‘ हाँ हाँ करते हुए रामकिशोर की ओर आ गया। उसने दूर से ही तय कर लिया था कि इस चौकड़ी को कैसे सबक सिखानी है। उनका आपस में देर तक उलझे रहना उसके लिए फ़ायदेमन्द ही रहेगा। उसने बेलचा को कीचड़ से लबालब भर लिया। फिर काफ़ी ऊपर तक उठा कर छपाक से किनारे उलीच दिया। अब वह देखेगा तमाशा और लेगा मजा! वह कीचड़ निकालने के बहाने फिर झुका और अपनी दोनों टाँगों के बीच से उन पर निगाह डाली। कोई हाथ पोंछ रहा था तो कोई पैर। एक चुपके से अपने ओंठ को घुटने से रगड़ा रहा था। अगर उसका मुँह खुला होगा तो मँुह में कीच ज़रुर घुसा होगा। उसके कलेजे को तरावट मिली। ये लौण्डे अक्सर उस पर कीचड़ उछाला करते थे। आज चखा दिया उसने उन्हे ख़ालिस कीचड़ का स्वाद! 

‘ अब उहाँ बगुला काहे बन गया है ? ’

उसे काफी देर तक निहुर कर मजा लेना भी माई को रास न आया। वह बेलच को नाले में ऐसे ढकेलता हुआ बढ़ा जैसे नूर अपना कूड़ागाड़ी  ढकेलता है। जब उसे खींस चढ़ती है तो ऐसी ही ऊल ज़लूल हरकतें करता है।

‘ थक गया बेचारा।’

पहली बार किसी ने उस पर तरस खाया। हाँलाकि यह उसी रामसमुझ की बीवी थी, जिससे उसने एक बार अपनी बन्द नाक को छींक लाकर खोलने के लिए तमाखू सुँघाने के लिए चिरौरी की थी और जिसने केवल इसी बिना पर मना कर दिया था कि उसके पास उस वक़्त पैसे नही थे।

‘ कब तक नाले में हला (घुसा) रहेगा ? ’

उसकी माई ने मँुह नहीं खोला। जबकि उसके कान कुछ मन माफ़िक जवाब की आशा में उधर ही तने थे।

‘ इसका बाऊ कहाँ है ? उ काहे नहीं आया ? ’ पीछे से न जाने किसने उस पर तरस खाई थी, निनकू न तो उसे देख ही सका और न ही उसकी आवाज पहचान पाया।

‘ तू  हमें जग के सामने जु़ल्मी साबित करने चली है? इसका बाऊ होता घर में तो आता नहीं इहाँ! निनकू की जगह वही हला होता नहरी म,ें कि घर में बैठ कर आराम कर रहा होता। आ, तेरी साड़ी घुटने तक मोड़ द अउर   तू हल जा नहरी में.....’

हँसी की एक धारा फूट पड़ी, जो नाले के किनारे किनारे बहने लगी।

‘ बाऊ घर में बैठ कर  खटिया तोड़ रहा है? या दारू पीकर तेरे मरद की तरह उल्टी कर रहा होगा ? जानती नहीं है क्या कि जब लिण्टर पड़ रहा होता है तो मिस्त्री लोग का रात भर का काम रहता है! ’

अब निनकू का जी हँसने को चाहा। मिस्त्री! अगर उसका बाऊ मिस्त्री होता तो वह इस गन्दे नाले में गोता लगाता? लेकिन नदी इस पार के लोगो के लिए उसका बाऊ मिस्त्री ही है। अब कोई माई से यह पूछे कि अगर बाऊ मिस्त्री है तो बरसात में टीन के किनारे किनारे से पानी रिस कर नीचे क्यों आता है? लोंगो को दिखाने के लिए कहीं से जंग खाई करनी और छिला कटा गरमाला का जुगाड़ कर घर में रख लिया है । बारिश के समय मसाला लेकर ऊपर चढ़ जाता है और करनी और गरमाला से छप् छप् करता रहता है। ताकि राह चलते लोग उससे पूछे 

‘ ऐ मिस्त्री! का हो रहा है ?’ 

और कान में ‘मिस्त्री’ शब्द पड़ते ही माई बाऊ गदगद्!

‘ कब तक ढूढ़बू हो निनकू की माई ? ’ किरपाल की पतोहू ने आखिर हिम्मत करके पूछ ही लिया

‘ अरे जब तक उजास है तब तक आस है।’

माई की ज़िद सबके मशवरे पर भारी पड़ेगी यह बात सारे लोग जाने या न जाने, निनकू को अच्छी तरह मालूम थी। लेकिन इस ज़वाब से उसे अच्छी तरह मालूम चल गया कि उसे कब तक झींख मारनी होगी। अँधेरा होने में भले ही अभी कुछ देर हो , लेकिन माई के इस जवाब से क्षण भर के लिए उसके आँखों के सामने अँधेरा छा गया।

‘ अरे निनकुवा ढोला रे!’

एक लड़का चिल्लाया तो सबका ध्यान उसकी टाँग की ओर चला गया। एक दुमदार ढोला रेंगते रेंगते उसके घुटने के ऊपर तक चला आया और उसे पता ही न चला। अगर इस लड़के ने बताया न होता तो न जाने कहाँ घुस जाता। उसकी टाँगों में खुजली तो हो रही थी लेकिन ऐसी खुजली तो उसे जब तब  देह भर में होती रहती थी। पहले वह एकटक ढोला को रेंग कर ऊपर चढते हुए देखता है। मुआ खुद तो मस्ती में झूमता हुआ ऊपर चला जा रहा था और अपने साथ लाये कीचड़ को लकीर के रूप में पीछे छोड़ता जा रहा था। जैसे पीछे लौटने का रास्ता न भूल जाये। उसने दूसरी टाँग उठा कर जाँघ तक पहँुच चुके ढोले को हटाया। इस कोशिश में उसका सन्तुलन थोड़ा बिगड़ा और वह नाले में गिरते गिरते बचा।

‘ का भौजी! लैण्डा का जान लेबू का? ’

उसने कीचड़ फेंकते हुए निगाह डाली। उसका अनुमान सही निकला । ऐसी कड़कदार आवाज हरिया की ही हो सकती थी। हरिया की उसके बाऊ से बीड़ी खैनी की यारी थी। उसकी माई को वह ही ऐसे डपट सकता था।

‘ शहर के कचरा से पूरा नाला पटाया है उ में तुम्हारा पाँच का सिक्का मिलेगा ? देख मार कोका कोला अउर पानी के बोतल, चीप अउर मैगी के खोखा......’

हरिया ने किनारे ढेर लगे कीचड़ पर बिखरे कचरे की ओर इशारा किया तो उसने भी एक काक दृष्टि डाली। उसे विश्वास ही न हुआ कि उसने इतना कीच निकाल दिया है और कीच के साथ इतना कचरा निकाल दिया है कि हरिया की सामान की लिस्ट लँगूर की पूँछ की तरह लम्बी होती जायेगी । लेकिन इतनी लम्बी लिस्ट में हरिया ने एक दो के नाम भी छोड़ दिये थे। जैसे शुरू में  नाला से उसने दो तीन दारू की बोतलें भी निकालीं थी। जो या तो टूटी फूटीं थीं या कीचड़ की तह से ढक गईं थीं। इसलिए हरिया ने उसका नाम नहीं लिया होगा। सबसे ज्यादा तो उसने अस्पताल से मुफ़्त बँटने वाले गुब्बारों को निकाला था जिसे जब नदी पार के बच्चे फुला कर खेलते थे तो बड़े बूढ़े सभी मँुह दबा कर हँसने लगते थे। हरिया ने उसका भी नाम नहीं लिया था जबकि एक तो वहीं चमक रहा था जहाँ हरिया खड़ा था। हरिया के इस भूल चूक के बावजूद उसकी धौंस में आकर माई ने जिस कदर मँुह सिल लिया था उससे और लोगों को बहुत बल मिला। दो तीन औरतें आगे खड़े तमाशाबीनोें को धकिया कर आर्गे आइंं। इनमें भी सबसे आगे रामसमुझ बो थी जो बिल्कुल  नाले के किनारे पहुँच कर निनकू को पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया-

‘ आ निनकू बेटा! पकड़ ले हाथ अउर बाहर आ जा!’

उसके बढ़े हुए हाथ को देख कर निनकू को उसे लपक कर बाहर निकलने की इच्छा हुई। लेकिन वह लाचार होकर माई को देखता रहा। जैसे माई की आदेश की उसे प्रतीक्षा हो। तब वह नाले से दूर हट कर उसकी माई के पास आई और हरिया की देखा देखी उसे डाँट पिलाई-

‘ अभी भी तुहार भेजे में बात नहीं घुसी ? सोने की अशरफी है? चल छोड़!’ 

‘ छोड़ देई! ’ उसकी माई का मुँह लपट उगलने लगा  ‘ तू देबू पाँच रुपिया? ’

उसकी माई ने यह बात रामसमुझ बो से ही कही थी लेकिन सन्नाटा सबके चेहरे पर छा गया था।

‘ तुहार मरद तो एक रुपल्ली की उधारी नहीं लगाता! ’

पैसे देने का ज़िक्र छिड़ते ही सभी इधर उधर झाँकने लगे थे । लेकिन सरेआम अपने मर्द की फ़ज़ीहत पर रामसमुझ बो के चेहरे पर माड़ की पपड़ी सी जमती लगी। निनकू जानता था कि रामसमुझ बो कम लड़ाकन न थी लेकिन इस वक्त चँूकि उसकी माई पर ख़ब्त सवार थी इसलिए खम ठोकने के बजाए वहाँ से खिसक जाना मुनासिब समझा।

‘ पैसा देने के नाम पर फूट गई! समझ रही थी जैसे उ दे देगी तो हम ले लेगे! हमें मंगन समझ लिया था। छोड़ दें! हँुह! काहे छोंड़ दें। पाँच रुपया में एक सीसी तेल आ जाई! ’

उफ् माई! अब जाने भी दो न! उसकी माई मैदान छोड़ कर भागते हुए रामसमुझ बो को भी नहीं बक्श रही थी। जबकि वही जानता है  कि पाँच रुपये में कितना तेल आता है और वह तेल कितने दिन चलता है। यह सही है कि पाँच रुपये में एक शीशी तेल आता है लेकिन उस तेल से कितने वक़्त तरकारी बन पाती है! हद से हद तीन वक़्त! और अगर गोश्त पकानी हो तो एक ही वक़्त पूरा पड़ता है। एक बार तो झिनक कसाई ने उसके बाऊ से थोड़ा काम कराया और बदले में मूड़ा (बकरे का सिर) थमा दिया। वह मुआ मूड़ा पूरी एक शीशी तेल पी गया और फिर भी उसके बाऊ को शीशी लेकर रात में तेली के दुकान भागना पड़ा था। उसकी माई रात भर झिनक पर भुनभुनाती रही कि कँगाली में आटा गीला करने के लिए मूड़ा थमा दिया ।ं उसने  बाऊ से साफ साफ कह दिया कि आगे से झिनक से गोश्त, गोड़ी (बकरे का खुर) या चुस्ता (बकरे की अँतड़ी)  के अलावा कुछ भी नहीं लेना है।
रामसमुझ बो आँखों से ओझल हो चुकी थी। रामसमुझ बो के जाने में उसे अपना नुकसान होता दिखा। रुपये पैसे के मामले में भले ही वह दरियादिल न हो लेकिन उसकी तरफदारी में दो शब्द बोल कर उसके बेलचा का बोझ तो हल्का कर ही दे रही थी। माई तो एक एक करके हर उस को हटा देगी जो उसके बेटे पर जरा भी रहम दिखाएगा। माई को उनके सामने कीच कुरेदने में शर्म जो आ रही थी। अरे माई, इन शहराती लौण्डो को भी तो हटा! फिर दोनो मिल कर सुबह तक नाले की खाक छानते छानते राप्ती नदी पहुँच जाएगें।

‘ जरा देखो तो ऐसे बोलकर चली गई रामसमुझ बो कि पाँच रुपये का कोई मोल नही! ’ 

अब उसकी माई किरपाल की पतोहू पर नजर गड़ाई थी।

‘ पाँच रुपया में इत्ता आटा आयेगा!’

अरे बाप रे! उसकी माई ने दोनों हाथ फैला कर कितना आटा बता दिया ? जबकि पाँच रुपये का तो घुन लगा भी उतना आटा नही मिलता। दूसरी बात, यह कि अगर उतना आटा  मिल भी गया तो भी क्या वह दो दिन से ज्यादा चल पायेगा। यह उससे बेहतर कौन जानता है कि जब जब वह पाँच रुपये का आटा लाया है फिर फिर वह अगले दिन आटा लाया है। यह तो तब है जब माई रोटी बनाती है। अगर बाऊ का हाथ लगे तब तो राम भजो! माई क्या तू भूल गई? जब बाऊ तेरे खाने से चिढ़ गया था और तू ताव खाकर बोली थी कि जा तू ही खाना बना। तब बाऊ ने कितनी मोटी रोटियाँ बनाई थी! तवे पर उसने थोड़ी न बनाई थी। वह भी तैश में आ कर बोला था कि वह वैसी ही रोटियाँ बनायेगा जैसे काम पर दोस्तों के साथ बनाता है। फिर क्या था सीमेन्ट का मसाला ढोने वाली कढ़ाई को चूल्हे पर उल्टा लिटाया और उस पर रोटी ऐसे पाथने लगा जैसे वह नदी उस पार गाँव में गोबर पाथ कर गुइठे बनाया करता था। साथ ही साथ उसी आँच पर आलू, टमाटर और लाल मिर्च भी भुनता रहा। आलू टमाटर और मिर्च के चोखे के साथ जब वह, बाऊ और माई रोटियाँ तोड़ने बैठे तो कब रोटियां  खत्म हो गई पता ही न चला। तीनों को रोटी कम पड़ गई और वे देर तक उँगलियॉ चाटते रहे। यही तो चक्कर है! या तो स्वाद ले लो, या पेट ही भर लो! और माई ऐसा दिखावा कर रही है जैसे पाँच रुपये का आटा पाँच दिन चलेगा।

‘ पाँच रुपया कम पड़ गया था तो...’

यह अचानक माई के गले को क्या हो गया ? आवाज इतना बैठा बैठा सा हो गया! इतना चिल्लायेगी तो गला बैठेगा ही! 

‘ डोमिनगढ़ से छोटकू को सदर अस्पताल ले गए थे......’

छोटकू का नाम कान में पड़ते ही निनकू के चेहरे पर झांई पड़ गई। अब समझ में आया कि माई का गला अचानक क्यों बैठ गया था। वह तो आठो पहर भाषण सुनाने वाली औरत है। सुनने वाला थक जाएगा पर वह नहीं। दरअसल अब माई पर छोटकू सवार हो गया है। उसने गाँव में कई औरतों को देखा था। जो अपना आपा खोकर ऊलजलूल हरकतें करतीं थीं । गाँव वाले बोलते थे कि उस पर देवी आ गई है। ठीक ऐसी हालत उसकी माई की हो जाती है जब उस पर छोटकू सवार हो जाता है। अभी तो माई को पाँच रुप्या खोने का ही गम था। अब  छोटकू का भी गम ताजा हो गया तो इससे निनकू का कुछ नही होने वाला है सिवाए उसके लिए मुसीबतों का चट्टा और बढ़ने के। वह तो माई ओर लोंगो के बीच नोंकझोंक का फायदा उठा कर नाले में पैर लटका कर किनारे पर बैठ गया था। माई का रूप बदलते देख उसने समझ लिया कि आराम की घड़ी अब समाप्त हो चुकी है। अब उठना भी मुसीबत बन पड़ा था। ऐसे लग रहा था जैसे चावल की बोरी लादे उठ रहा हो। यँू चावल की बोरियाँ भी उसने साहबगंज मण्डी में खूब उठाई है। लेकिन तब उसे उतनी तकलीफ़ न हुई थी।

‘ कुल पैसा सदर अस्पताल में ही खत्म हो गवा! रात में नौ बजे डागदर बोला कि ले जाओ मेडिकल -इसी बखत! हम उसे गोद में उठाये उठाये रिकसा से धरमसाला के पुल पर पहुँचे। उहाँ  कउनांे टेम्पो वाला कसाईया नाहीं बैठाया कि पाँच रुपया कम पड़ रहा है। हम घन्टा भर जोह कर, बस में धक्का मुक्की खाते मेडिकल गए। पर कहाँ बचा छोटकू......!’

माई का गला गला न रह कर फटा बाँस बन गया था। माई के साथ यह अक्सर ही होता था जब छोटकू उस पर सवार होता था। अब फटे बाँस से सिर्फ घर्र घर्र की आवाज आ रही थी।

‘ अरे हमार छोटकू रे, अरे हमार सोन चिरइया रे!......’

आगे क्या होना था यह सब निनकू को मालूम था। अब माई बुक्का फाड़ कर रोयेगी। बच्चों की तरह! इस तरह तो वह भी नहीं रोता। फिर सारे लोग अपना काम धन्धा छोड़ कर उसकी ओर दौड़गें। यहाँ पर किरपाल की पतोहू और फुलारे की माई उसकी ओर लपकी। दो बँूद आँसू किरपाल की पतोहू ने और एकाध बँूद इससे कम या ज्यादा फुलारे की माई ने चुआये होगें।  उनकी गालों पर चमकती लकीर से ऐसा उसे आभास हो रहा था।

‘ अरे हमार छोटकू रे!...... कहाँ बा रे!.......’

‘ अरे चुप कर निनकू की माई!’

‘ रोने पीटने से भला कोई वापस आया है ’

‘ देखो दाँत न लगे बेचारी के...’

लोग नाले के किनारे से हट कर उसकी माई के इर्द गिर्द इकठ्ठे होने लगे। एक तमाशा समाप्त  भी न हुआ था कि दूसरा तमाशा शुरू हो गया। लोगों के लिए यह अच्छी साँझ हो रही थी। शायद रात भी अच्छी हो जाए। निनकू  इस फेर में पड़ा था कि किसका तमाशा पहले खत्म होगा। माई को अपने आप में न देख कर  वह जरा देर के लिए किनारे बैठ गया। उसने एक लम्बी साँस ली जो न तो चैन की थी न बेचैन की। साँड दुहने की कवायद से उसे पाँच मिनट का भी आराम न मिला था कि हरिया अब दूसरी तरह का मँुह बनाये हुए उसकी ओर चला आ रहा था।

‘ बेटा टैम मत खराब कर! देख अन्धेरा हो रहा है। थोड़ा मन लगा के देख ले बेटा।’ 

लो अब देखो! माई की रुलाई ने कैसे सबका मन बदल डाला। यही हरिया कुछ देर पहले उसकी तरफदारी कर रहा था। अब वह माई के खेमे में जा बैठा था। और अब देखो किरपाल की पतोहू को, क्या कहने आ रही है-

‘ निनकू बेटा तू एक जगह अंगद के नाई गोड़ जमा कर काहे खड़ा हो गया है? तनिक इधर देख, तनिक उधर देख।...’

निनकू को गुस्से में यह ख़्याल आया  कि वह भरे बेलचे को लबालब कीचड़ से और छोंपना शुरु कर दे इन दोगलों के चेहरे पर! इनसे क्या क्या आस लगा कर बैठा था। अब वे उल्टे, उसके काम में ही मीन मेख निकाल रहे थे। माई की रुलाई हमेशा उस पर कहर ढाती है। इसीलिए जब जब माई पर छोटकू सवार होता है, उसकी घिग्घी बँध जाती है। अभी तक तो यह पाँच का सिक्का था, अब सोने की अशरफ़ी बन गई थी।
जब वह पुनः ढाक के तीन पतिया वाले काम पर लगा तो लोगों ने उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था। वह हचक हचक कर बेलचा चला रहा था। थोड़ी ही देर में ही उसने नाले का एक टुकड़ा साफ कर किनारे पर कीचड़ का ढेर लगा दिया था। माँ अभी शोक से उबरी न थी। लेकिन उसका काम सारे तमाशाबीनो ने सँभाल लिया था। कोई गन्ने की खोई से , कोई लकड़ी से तो किसी के हाथ जो लगा उसी से कीचड़ के ढेर को खोदने लगा।
 लौण्डों के लिए एक नया खेल हो गया था

‘ ले सेन्ट छिड़क ले! ’ एक की नजर सेन्ट की शीशी पड़ी तो उसे ठेल कर दूसरे के सामने डाल दिया - ‘ जब से पैदा हुआ है तब से बदबू कर रहा है।.... लगाइये और हमें भरमाइये।...टिरिंग टिरिंग ......’

‘ थेकूँ थेकँू।’ दूसरा भी कम न था , वह चाकलेट का चमकता कागज लकड़ी में फँसा कर पहले वाले के सामने लहराने लगा - ‘ बदले में आप खाइये मेवा मलाईदार टिक्कीवाला चाकलेट! आपकी सात पुश्तों ने नही खाया होगा।.....आह!.. यम यम यम। ’

वे चहक रहे थे और निनकू कुढ़ा जा रह था। माई की मक्खन पॉलिश करने को होड़ लगी है इन लौण्डो में। करते रहो, करते रहो! न तो तुम्हे माई की ओर से कुछ इनाम मिलना हे और न ही पाँच का सिक्का! तभी लौण्डो का शोरगुल अचानक बढ़ा। निनकू को लगा कि क्या सही में किसी को सिक्का मिल गया? लेकिन शोर पास के लड़को से नहीं हो रहा था। निनकू सर उठा कर उधर देखने लगा जिधर सब देख रहे थे। रामकिशोर किसी लड़के का हाथ पकड़े आ रहा था। रामकिशोर थोड़ी के लिए गुम हो गया था तो उसे सुकून मिला था। निनकू के माथे पर बल पड़ गए। अब यह कौन सी  बला लेकर आ रहा है। निनकू का बेलचा चलाना, लड़कों का कीच कुरेदना, और उसकी माई का शोक मनाना सब कुछ जरा देर के लिए थम गया।

‘ चाची यही लड़का है.....’ रामकिशोर इतना हाँफ रहा था कि वह पूरा बोल ही न पाया। बन्धा की चढ़ाई इतनी न थी कि कोई हाँफने लगे और नही रामकिशोर दौड़ कर आया था। यह तो ऐसी हँफौड़ थी जो किसी अनसुलझी गुत्थी को सुलझा लेने की खुशी के रूप में लगती थी ।

‘ इहे देखा है इसे।’ 

उसने निनकू की ओर ऊँगली दिखाते हुए कहा तो निनकू को लगा कि जैसे उसने बन्दूक तान दी हो।

’ निनकूवा सामलाल के ठेला पर चाऊमीन खइलस है! पाँच रुपया का ही तो आता है छोटा प्लेट!्’

 अब उस बन्दूक से गोली भी निकल पड़ी और ठीक निशाने पर ही लगी। निनकू का इतना खून बह गया कि अब काटो तो एक बूँद भी न मिले।

‘ हें ऽऽ..!’

लो, अब कौन सँभाले उसकी माई को! जिसका गुस्सा फिर उफन आया है जैसे गर्मी में सहमती सिकुड़ती जाती राप्ती नदी, नेपाल से अचानक बाढ़ का पानी पाकर उफन जाती है।

‘  पेटहा! दलिद्दर! हम सबको चूतिया बना रहा है!’

सारे लड़के हो हो करके हँसने लगे। माई की बोली उस पर जहर बुझे तीर जैसे घाव कर रहे थे और इन लौण्डों को गुदगुदी हो रही थी। इसीलिए तो इन लौण्डों को देख कर उसके अन्दर ऐसी कड़ुवाहट भर जाती है जैसे कि सेठाइन के हाथ की बनी चाय पीने से। वह जितना इनसे पीछा छुड़ाने की कोशिश करता था ये उतना ही इससे चिपटते जाते हैं। अब जरा इस लड़के को तो देखो ! जान न पहचान, आग लगाने आ पहँुचा। निनकू तो आज उसे पहली बार देख रहा था तब वह उसे कैसे जानता है ? जरूर सब उसे उसके पेट की वजह से जानते है और इसमें कोई शुबहा न रहा कि आज इसी पेट की वजह से उसकी चोरी पकड़ी गई। वरन्, वह तो ठेले की आड़ में था और ठेला, सहजन के पेड़ और ट्राँसफार्मर के चौखम्भें के आड़ में था। उसने तो पूरी तरह अपने को छुपाने की कोशिश की थी। कम्बखत यह आगे को निकला पेट ही होगा जिसने उसके सारे किये कराये पर पानी फेर दिया। इसी पेट की वजह से वह लुका छिपी के खेल में पकड़ा जाता है और चोर बन कर हमेशा वही पधता है। इसी पेट की वजह से वह आज भी पकड़ा गया। अपने पेट पर उसे इतना गुस्सा आया कि अगर उसके हाथ में बेलचे की जगह छुरा रहता तो जरूर इस पेट को फाड़ लेता। इसी बहाने सिक्का तो बाहर आ जाता। 

लेकिन माई इस कदर बौराई सी चली आ रही थी जैसे पेट फाड़ने का काम वही करेगी आखिर रुपये की जरूरत भी तो उसे ही है ।

‘ चल निकल बे!’

माई की हड़काँन पर पहले तो बेलचा को नाली के किनारे लाठी की भाँति खड़ा किया फिर उस पर अपना बोझ डालते हुए वह बाहर आ गया। अगर बेलचा न होता तो वह नाले के किनारे का सहारा लेकर  घुटनों के बल बाहर निकलता। सबसे अच्छा तब होता जब  नाला से बाहर निकलने की उसकी नौबत ही न आती। लेकिन नाला में जब वह घुसा  था उसी वक्त कीचड़ घुटने से काफी नीचे था। अब तो कीचड़ निकाल निकाल कर इसे और भी छिछला बना दिया था। सो उसमें डूबने से रहा। उसे नाला की सख्त सतह का आभास तलवे में हो रही चुभन से ही हो गया था। इसलिए वह धँस भी नहीं सकता था। आखिरकार उसे उसी प्रकार बाहर आना पड़ा जिस तरह से नदी पार गाँव में तारा साहू के घर भूसे में छुपे चोर को लोगों से घिर जाने के कारण बाहर आना पड़ा था। फ़र्क यह था कि उस वक्त उस चोर पर सारे गाँव वाले एक साथ पिल पड़े थे । कोई लात, कोई घूँसा तो कोई दोनों ही तरीकों से उसकी धुनाई कर रहा था और यहाँ पर केवल माई का ही हाथ उस पर लगा था। सो भी एक झटके में ही वह ढिमला कर गिर गया था। इसलिए झड़ी लगने की नौबत नहीं आई। यह अच्छा ही हुआ था कि उसका पोर पोर पहले से ही दुख रहा था। इसलिए अगर झड़ी लगती भी तो उसको कोई फ़र्क नहीं पड़ने वाला था। हाँ शहराती लौण्डों जरूर चुप हो गए थे। हँसने की अब क्या ज़रूरत थी। हँस हँस कर तो उन्होने माई का गुस्सा मन मुताबिक बढ़ा ही दिया था। इनसे वह इसी तरह की उम्मीद करता था। वे हमेशा उसकी उम्मीद पर खरे उतरते थे।

‘ खोज रहा था उ नाला में अउर डाले  बैठा है इ नाला में ! ’ 

माई उस पर पेट फाडू़ निगाह डाल कर चिल्लाई तो दो एक लौण्डों से हँसी दबाए न दबी। माई ने फनफना कर अब जो झटका दिया तो वह दो कदम छिटक कर गिरा। यह भी संजोग था कि वह घर की दिशा में ही जा गिरा था। इसका लाभ उसे यह मिलेगा कि उसे घर की दिशा में दो कदम कम चलना पड़ेगा। निनकू ने हिसाब लगाया तो पाया कि इसमें तो कुछ घाटा ही नहीं था। अगर माई ऐसे ही झटके देते रहेगी तो वह मुफ़्त में ही ढोला की तरह कीच छोड़ता हुआ घर पहँुच जाएगा। अपने बल से तो वह पहँुचने से रहा। लेकिन नदी इस पार के लोगों ने उसके लिए कोई भला काम किया हो तब न! उन्होने तो अब माई को इस कदर जकड़ रखा था कि वह उनके कब्ज़े में कसमसाई जा रही थी। बोलने को भी उनके पास वही घिसी पिटी बातें थीं - 

‘ का रे निनकूवा कि माई आज तै की हो का कि येकर जान लेवेक है! पाँच रुपया गईल तो गईल!’

जबकि माई ने अब दूसरा राग अलापना शुरू कर था- 

‘ बात रूपिया का नहीं है । पाँच रुपिया के खातिर इ झूठ काहे बोला ? चटोरा त इ हवे ही । इ तो सारी दुनिया जाने है, लेकिन इ चोर भी है येह बात आज पता चला!.....’

माई का साड़ी बिलाऊज इधर उधर हुआ जा रहा था। उसे तो सिर्फ बकने का होश था। उसकी बकबकाहट के साथ थूक के छींटे यहाँ वहाँ लोगों पर पड़ रहे थे सो अलग। तभी तो जब लोगों को लगा  कि उसकी माई को सँभालना मुश्किल है तो सोचा कि क्यों न निनकू को ही यहाँ से हटा कर बोझ से हल्का हो लिया जाए। इसी कारण से तो हरिया चिल्लाया था

‘ जा रे निनकू, बेलचा दे आ!’ साथ में आँखों से इशारा भी किया । तब तो उसे पूरा ही विश्वास हो गया कि यह उसे वहाँ से दूर हटाने का बहाना भर है। 

वह बेलचा को खींचते हुए बन्धा की दाईं ओर उतर गया। श्री की गुमटी के पास खड़ा नूर का ठेला दूर से ही दिख रहा था। नूर अपना ठेला जमीन पर टिका कर कहीं चला गया था। ठेले पर बेलचा रखने के पहले वह उसे म्यूनिसिपिलटी के हैण्डपम्प से आराम से धोने लगा। हैण्डपम्प चलाते चलाते, उसने अपनी माई तथा लोगों के हुजूम को वापस लौटते देखा। लोग भी कहाँ तक माई के साथ जायेगें। वे एक एक करके भीड़ से छँटते जायेगें। इक्के दुक्के लोग ही माई के साथ घर तक जायेगें। वे भला क्यों रात तक रहेगें। फिर तो वह और माई अकेले एक कोठरी में बन्द रहेगें। लेकिन माई कोई रात भर गुस्सा थोड़ी न करेगी!

बेलचा को धो कर उसने नूर के ठेले पर पटक दिया। फिर आराम से अपने हाथ पैर धोने लगा। घर जाने की उसे कोई जल्दी न थी। वहाँ  पलकें बिछाये कोई उसका इन्तज़ार नहीं कर रहा होगा। घर जाने से पहले उसने श्री चाय वाले का ध्यान बेलचे की ओर खींचना आवश्यक समझा।

‘ सिरी चाचा, नूरे को बता दिहा।’

श्री ने बजाए कुछ बोलने के, भौंहें टेढ़ी कर उसकी ओर देखा। फिर चिल्लाया -

‘ का रे, मिल गवा पाँच का सिक्का?’

फिर ही ही कर हँसने लगा। वह जब कुढ़ते हुए अपने घर की ओर मुड़ा तब उसके दुकान पर खड़े ग्राहको की हँसी उसके कानो पर पड़ी। उसने अफ़सोस जनक ढंग से मँुह बिगाड़ लिया। उसके पेट पर एक और कसीदा खुद गया!

घर की ओर बढ़ते बढ़ते अँधेरा हो गया था। अगर सिक्के का भेद न खुला होता तो उसकी माई अपने आप ही काम बन्द करवा देती। सिक्का न मिलने की वजह से थोड़ी हाय तौबा जरूर करती पर निनकू की  इतनी छीछालेदर न होती। अब घर जाते वक़्त न तो सर उठाया जा रहा था न पैर। इस वक़्त न तो उसे अपने बुशशर्ट की बटन की चिन्ता थी न बाहर निकले हुए पेट की। उसे लग रहा था कि अभी वह नाला से निकला ही नहीं और उसक कदम सड़क के बजाये नाला में बढ़ रहें हैं। पैरो की चुभन में भी रत्ती भर फ़र्क न था। जब राप्ती नदी उफान पर होती है और बाढ़ का पानी बन्धा के इस तरफ भी भर जाता है तब मशीन लगा कर इधर का पानी सोख कर उधर फेंक दिया जाता था। उसे लगा कि मशीन का सोख्ता इतना जबर होगा कि पूरे नाले का पानी तो सोख कर इसे सड़क बनाया ही साथ ही साथ उसके बदन का पानी भी निचोड़ लिया। उसने केवल एक ही बार गर्दन उठाई थी वह भी उस वक्त जब उसे आभास हुआ कि आसपास उसे कोई देख न रहा होगा। उसने घर की ओर एक सरसरी निगाह डाल कर अपनी गर्दन फिर नीची कर ली। घर पर उसने जब निगाह डाली थी तो घर का दरवाजा खुला तो दिखा था लेकिन वहाँ ढिबरी का पीला उजाले का आभास नहीं हो रहा था। उसका बाऊ हर दीवाली में कोठरी के अन्दर चूने की पुताई करता था लेकिन कोठरी चूल्हे के धुँये से इतनी धुँअठ जाती थी कि दिन में ही पीले रंग की मनहूसियत छाई रहती है। रात में उसके साथ ढिबरी की पीली जेात मिलती है तो घर के मूके ऐसे दिखते हैं जैसे डोमिनगढ़ रेलवे स्टेशन पर गाड़ी छूटने से पहले के पीले सिग्नल। उसके अन्दर अब यह सवाल घर करने लगा कि उसकी माई ने अब तक ढिबरी क्यों नहीं जलाया? दरवाजा खुला था तो यह पक्का था कि माई घर में ही होगी और घर में अँधेरा था तो यह भी तय था कि माई अकेली ही होगी। यानि अब उसे माई से अकेले ही सामना करना पड़ेगा।

घर में घुसते हुए उसे ऐसा लगा जैसे कि वह घर में नहीं किसी बनैले जानवर की माँद में घुस रहा है। नदी उस पार गाँव में उसका एक दोस्त है अर्जुन। उसके बाऊ मोती मुसहर को किसी औरत से  भद्दगी कर फिर कत्ल करने के जुर्म में फाँसी की सजा हुई है। अभी वह बड़े जेल में बन्द है। अर्जुन तो कहता है कि उसके बाऊ ने नरमदा पाण्डे का जुर्म अपने सिर पर लिया है। बदले में नरमदा पाण्डे ने उसके बाऊ का कर्ज़ माफ़ कर दिया है और वादा किया है कि जब तक उसका बाऊ जेल में बन्द है तब तक पूरे घर का खर्चा पानी देगा । उसने यह भी कहा है कि वह हाक़िम से मिल के उसके बाऊ की फाँसी की सजा भी खत्म करवा देगा। लेकिन अगर सजा माफ नहीं हुई तो अर्जुन का बाऊ उसी तरह फाँसी घर में कदम रखेगा जिस तरह वह इस वक्त अपने घर में रख रहा था।

कोठरी में कदम रखते ही उसने यह जान लिया कि माई घर में ही है और दाहिने ओर जहाँ कथरी बिछी रहती है, वहीं पर पसरी है। घर में घुसते ही मच्छरों का झुण्ड  आया और उसके मुँह पर हवा सा थपेड़ा मारा। वह अचकचा गया। जब से छोटकू इन्सेफिलेटिस से मरा है उसकी माई मच्छरों से बहुत भय खाती है। उसे भी मच्छरो की भिनभिनाहट ऐसी लगती है जैसे नदी इस पार के लौण्डे तालियाँ पीट कर उसके पेट पर हँस रहे हों। इसलिए कोठरी का दरवाजा हमेशा बन्द रहता है और इन मच्छरो की क्या मजाल कि वे धुँओं को ठेल कर माई बाऊ और पूत तक पहुँच सके। अगर कोई कसर रह भी गई तो घर में जो लुबान का टुकड़ें रखे हैं वे किस काम आयेगें? कोठरी के सामने जो नीम का पेड़ है उसकी पत्तियॉ किस काम आयेगीं।

उसने टटोल टटोल कर ढिबरी जलाई और अपने कलेजे को सख़्त बनाते हुए उसकी मटियाली रोशनी में माई की ओर नजर डाला। माई आँखे फाड़े उसे देख रही थी..... न जाने कब से! उसका दिल धड़क कर रह गया। उसने झट वहॉ से नजर हटा ली। उसके बाद उसने कितना भी बेपरवाह होने की कोशिश की लेकिन उसकी माई की वह कलेजा भेदक निगाह सामने यत्र तत्र आ जाती। कोठरी का दरवाजा बन्द करने से  लेकर चूल्हा जलाने का यत्न करते समय भी माई की निगाह कहर ढा रही थी। उसने आशा की  कि धुयें से मच्छर तो भागेगें ही साथ ही साथ माई एवम् उसके बीच एक परदा सा भी टँग जाएगा। माई पीटे तब मुसीबत, न पीटे तब मुसीबत। माई देखे तब मुसीबत न देखे तब मुसीबत। उन आँखों में माई ने उसे थोड़ी न बैठाया होगा। वहाँ तो खून उतरा होगा।

उसने भगौना देखा। उसमें शाम की थोड़ी चाय बची हुई थी। उसमे तुलसी एवम चाय की उबली हुई पत्तियाँ भी थीं। लकड़ियों ने ठीक से आग भी न पकड़ा था कि उसने भगौने में एक गिलास पानी डाल कर उबलने को रख दिया। जब खूब धुआँ निकलता है तो इससे चाय धुँअठ जाती है और इसको पीने में जो मजा मिलता है वह दूध वाली चाय में कहाँ। इसलिए घर में दूध रहे या न रहे इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हाँ एक गिलास चाय को ं एक मुठ्ठी चीनी की दरकार अवश्य रहती है। इसलिए उसने बड़े जतन से चीनी की शीशी उठाई। वह भूला नहीं था, जब पिछली बार चाय बनाते वक्त शीशी हाथ से ऐसे छूटी कि सारी चीनी नीचे बिखर गई थी। तब माई ने दो चाँटे में ही नुकसान की भरपाई कर ली थी। लेकिन अभी तो माई उसे ऐसे ताक़ रही थी जैसे उसे सस्ते में छोड़ देने का मलाल हो रहा हो। 

अब मलाल हो तो हो! वह क्षुब्ध हो गया। अब वह क्या कर सकता है। बस यह माई की मनपसन्द  गरमागरम कड़क चाय का गिलास ही है जो माई की तबियत हरी कर सकती है। धँुये के आड़ में माई की निगाह से बचता हुआ वह माई तक सरक आया और कथरी के पास गिलास रख कर बुदबुदाया -

‘ माई चाह पी ला......’

वह पूरा बोल पाया न ढंग से गिलास ही रख पाया कि माई ने ऐसा हाथ चलाया कि गिलास लुढ़का सिलबिट्टे की ओर और चाय ढुरकी कोठरी के मोरी की ओर!

‘ चल हट! हम तोर हाथ के चाय पीयब! झूठ बोल के सारी दुनिया में जगहँसाई कराइले हमार! पेटहा कहीे का!..’

फिर उसे लगा कि लेटे लेटे कितना भी गुस्सा करले लेकिन गला फाड़ कर चिल्लाने के लिए बैठना ही ठीक होगा। इसलिए वह उठ कर बैठ गई और तब चिल्लाया-

‘ अरे छोटकू की जगह तू काहे नहीं मर गया दरिद्दर! तू मर गया रहता तबे ठीक था।.... अरे हमार छोटकू रे....!’

उधर उसकी माई ने बिलखना शुरू किया और इधर उसके दिल का यह हाल हुआ जैसे अमचक से चिरने के बाद अमिया का एक टुकड़ा यहाँ गया एक वहाँ। जरा माई की चालाकी तो देखो। उसके हलक पर छुरी फेर कर खुद रोने बैठ गई। अब अगर रोना था तो रोने की बारी निनकू की थी! दिन भर में कई बार रोने रोने को हुआ, लेकिन माई ने हर बार मौका हथिया लिया। हर चीज़ की हद होती है। वह कब तक अपने को ज़्ा़ब्त रखे? वह ऐसे तन गया जैसे गेंहँुअन तनता है और उसी की तरह फँुफकारा भी -

‘ सुन माई!.......’

माई की धारोधार रूलाई पर उसकी फुँफकारी का असर न पड़ा तो तैश में आकर उसने माई की ठुड्डी पकड़ी और अपनी ओर मोड़ा। माई के चेहरे पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत न थी कि बावलों की तरह सिर हिलाती वह एकबेग रुक जाती। यह तो उसका बदला हुआ तेवर था जिसने माई को स्थिर बनाया था।

‘ तू पहिले बता माई कि फिन बारिस आई कि नाही?...’

माई जवाब तो तब दे न, जब सवाल का मतलब बूझे।

‘ तू पहिले बता!......फिनो बारिस आई कि नाही?...... आई न!’ 

लग रहा था कि माई की अक्ल की बत्ती अभी भी गुल हैं। लेकिन वह इस कदर हावी था कि माई को गर्दन हिला कर हामी भरनी पड़ी।

‘ तब तो बाढ़ भी  अइहे! .... अइहे न?’

माई का गर्दन पहले की भॉति ‘हाँ’ में हिलता रहा।

‘ तो इनसेफिलटिस  फिनो नाही फैली का? बोल फैली न!.....’ 

निनकू इतना खदबदा रहा था कि माई की पल भर की चुप्पी भी बर्दाश्त न हुई। उसे हिला कर पूछा-

‘ बोल तू कि फिनो बीमारी फैली कि नाही?......’

‘ फैली रे फैली! ’ माई झल्ला कर बोली। रोना धोना तो वह कब का भूल चुकी थी  ‘ तूहे मालूम नइखे कि इनसेफिलेटिस हर सलिहे कत्ले आम मचावत है!’

‘ तब येह दफा बच गये तो काहे आँसू बहावत हउ?.... हम उमर के पट्टा लिखवा के आये हैं का माई?’
 निनकू अपनी फ़लसफ़ी झाड़ने के बाद माई की ठुड्डी छोड़ दी। लेकिन माई इस कदर बुत बनी हुई थी कि उसे लगा कि ठुड्डी छोड़ी न हो बल्कि ठुड्डी पर से अपना हाथ हटाया हो। माई की परछाईं दीवाल पर पड़ रही थी। ढिबरी की हिलती जोत में माई की परछाई हिल रही थी। माई इस तरह जड़ थी कि उसकी तुलना में निनकू को माई की परछाई में ही ज्यादा प्राण नजर आ रहा था। अचानक माई ने जैसे देह धारण किया और वह अकुलाई बकुलाई सी निनकू को अपनी ओर खींच लिया। निनकू इसके लिये न तो तैयार था और न अनिच्छुक। वह खुद बा खुद माई की ओर ख्ंिाचता चला गया। माई ने उसे अपने छाती से चिपटाया तो उसने ऐसा भी हो जाने दिया - जैसे कोई बेल थोड़ा सा ही सहारा मिलते ही अपने आप चढ़ती लिपटती जाती है।

‘ अरे नाही रे नाही! ’ माई बौरी बावली सी होती हुई उसे अपने छाती से और जकड़ा तो उसे यह पता लगाने का मौका मिल गया कि यह आवाज निकली कहाँ से है!

‘ तू मत जइहे रे निनकूआ ऽ ऽ !’

निनकू ने माई की जकड़ से केवल अपना चेहरा छुड़ाया और अपने कानों को चौकस किया। जब माई दुबारा कलपी - ‘ अरे मोर निनकूवा रे!....’  तब जाकर उसे विश्वास हुआ कि माई इस बार छोटकू के बजाये उसके नाम की रट लगा रही है। हाँ, चिपटाया उसे उसी तरह था जिस तरह से उसने मरे छोटकू को चिपटाया था। उसे अपनी ओर घूरता देख माई के ज़र्द चेहरे पर हरियाली की झीनी परत फैल गईं। क्या देख कर उसकी माई खुश हुई? कि मरा छोटकू जिन्दा हो गया! पर माई तो उसे और भी अधिक चिपटाये जा रही थी। जैसे कि मरा निनकू जिन्दा हो गया हो!

‘ अरे मोर बबुआ! अरे मेार चुन्नवा! अरे मेार सुग्गवा! तू झूठ बोल के हमारा माथा काहे खराब किया। तू टिक्की खाये के पइसा माँगा तो बाऊ देहलस नाही का! त्ूा गोलगप्पा खाये के जिद किया तो हम खियाये नाही का! ते इ चाऊमीन कउन सा छलावा है कि तू अपना ईमान धरम सब भूल गया? काहे नाही बोला कि पाँच रुपया के चाऊमीन खा लेले? ’

इस सवाल के जवाब के लिए निनकू को उधेड़ बुन में पड़ने की जरुरत न थी। यह तो उसके ज़ुबान पर रखा हुआ था -

‘ तू चिल्लाती नाहीं का, कि... का रे! तोर कुँइया कब्बो पटाई कि नाही?’

माई की जुबान में बोल कर उसने माई को लाज़वाब कर दिया।

‘ तू का जनिबे? सेठानी सना भात देहलस त हम छुपा के फेंक दिया। दुबारा माँगे पे इत्ता सा भात दिया। उ से कहीं पेट भरता है! बरतन माँज के पाँच रुपया कमाया तो चाऊमीन खा लिया। रे माई, तू पाँच रुपया के चाट खइबू तो तुहार पेट भर जाई। तू पाँच रुपया के गोलगप्पा खइबू तो डकार मारे लगबू। लेकिन बाजार में तो नउका नउका चीज है न, उ से तो पाँच रुपया में खाली मँुह चटावन होई।..... देख, देख माई हमार पेट अबहू खाली है......’

उसने माई का हाथ खंींच कर अपने पेट पर रख लिया। उसकी माई मुस्की मारने लगी-

‘ अरे अरे अरे.. मोर बाबू के धोंदा तो सच्चुल के खाली है!’

वह वहीं बैठे हुये इतना उचकती है कि उसका हाथ दीवाल से सटा कर रखे हुये टीन के सन्दूक तक पहँुच जाये। सहूलियत के हिसाब से हाथ पहुँचा कर उसने सन्दूक को थोड़ा उठा कर नीचे से पाँच का सिक्का निकाला। निनकू साश्चर्य देखने लगा। यह तो वही सिक्का है जिसे उसने सौदे के साथ माई को लौटाया था।

‘ ले तू पाँच रुपिया के अउर खा आ......।’

निनकू देख तो रहा था आँखेे फाड़ कर। पर आँख के देखे हुए पर विश्वास थोड़ी न हो रहा था। पर माई ने जब घुड़की दी-

‘ नाही लेबे पइसा! करें तोर कुटाई!’

तब उसका भरम टूटा और यक़ीन हो गया कि माई नौटकीं नहीं कर रही है। उसने गोद में लेटे लेटे ही माई के हाथ से सिक्का लपकने की कोशिश की। इस कवायद में जरा सी चूक से सिक्का न तो उसके हाथ में रहा न माई के। वह छूट कर नीचे गिर गया और ढाल पा कर कोठरी की मोरी की ओर लुढ़का।

‘ अरे भाग रे, पकड़! कहीं इ मरतबा सच्चुल में (सही में)  न नहरी में बुड़ जाये।’

उसकी माई ने ‘सच्चुल’ पर ज्यादा जोर देकर मसखरी की तो गुदगुदी ही नहीं हुई बल्कि हँसी छूट गई। जो माई की हँसी के दम पर बढ़ने लगीं। उसने माई की छाती में अपना मँुह घुसेड़ दिया। इस तरह से उसे अपने दो हित साधने थे। एक तो, माई की हँसी का सोता ढूँढ़ना था, दूसरे दि भर की थकान मिटानी थी। उसे मोरी की ओर लुढ़कते सिक्के की फिक्र न थी। इसे लपक कर मुठ्ठी में कर लेने में तो वह उस्ताद हो गया था।


               
68  -
एक ख़ून माफ़
[ जन्म : 3 अगस्त , 1968 ]
रंजना जायसवाल


मैं समझ नहीं पा रही थी कि संचय को क्या हो गया है,वह मेरे सामने दूसरे युवा,सुंदर पुरूषों की प्रशंसा क्यों करता रहता है?क्या उसको अपनी कमियों का अहसास है?पर मैंने तो कभी उसके रूप -रंग ,उम्र के लिए उसे कुछ नहीं कहा।कहती भी क्यों ,मैंने ही तो उसे चुना था।जो चीज मनुष्य के हाथ में नहीं, उसके लिए उसे दोषी ठहराना न्यायसंगत भी तो नहीं।

फिर संचय ऐसा क्यों कर रहा है?क्या उसे यह पता चल गया है कि हर स्त्री के सपने का राजकुमार आकर्षक और युवा पुरूष ही होता है पर अब क्यों ?उम्र के ढलान पर उसे कोई मानसिक व्याधि तो नहीं हो रही है?कहीं वह मेरे दमकते रूप -रंग और युवा -देह से भयग्रस्त तो नहीं है?पर मैंने तो कभी उसे यह अहसास नहीं कराया।

रति- क्रिया के समय भी वह अजीब -अजीब सी हरकतें करने लगा है।वह दूसरों के सहवास के किस्से सुनाकर मुझे उत्तेजित करने की कोशिश करता है और मेरा मुँह देखता रहता है कि मुझ पर कैसी प्रतिक्रिया हो रही है?लज्जा से बंद मेरी आंखों को बार -बार खोलने का प्रयास करता है।उसे लगता है कि वह पहले की तरह मुझे संतुष्ट नहीं कर पाता है,जबकि मेरी तरफ से ऐसी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।मैं एक पतिव्रता स्त्री हूँ जिसकी रूचि,इच्छाएं,संतुष्टि सब कुछ पति की रूचि,इच्छा और संतुष्टि पर निर्भर होती है।फिर क्या हुआ है संचय को?क्या बढती उम्र में उसका मानसिक संतुलन गड़बड़ा रहा है?

मैंने देखा है जब मैं रात को गहरी नींद में सो रही होती हूँ।वह एक -एक कर मेरे सारे कपड़े उतार देता है। मैं जाग जाती हूँ, फिर भी नींद में होने का नाटक करती हूँ।वह मेरी नग्न देह को घंटों देखता है ,फिर अजीब- अजीब सी हरकतें करता है और फिर एकाएक उत्तेजित होकर मुझे सुख से सराबोर कर देता है।

इधर उसे एक नई सनक सवार हुई है ।जब वह घर पर होता है ,फोन पर जाने किसी सहकर्मी से सेक्स की बातें करता है।वह उसे बताता है कि इस समय वह अपनी पत्नी के साथ किन- किन काम आसनों की आजमाइश कर रहा है।मैं शर्म के मारे उस जगह से दूर भाग जाती हूँ।बात करने के बाद वह पूरी तरह अवश हो जाता है और मुझ पर किसी भूखे की तरह टूट पड़ता है।मैं इन सब बातों को इग्नोर करती हूँ। बस उस सुख को याद रखती हूं जो उसके इन पागलपन के बाद मुझे मिलता है।

कभी -कभी मैं सोचती हूँ कि वह सहकर्मी मेरे बारे में क्या सोचता होगा?संचय अक्सर उसकी बातें करता है।कहता है- इतना सुंदर लड़का मैंने आज तक नहीं देखा।गुलाबी रंगत,काले घुघराले बाल,नाक -नक्श तराशे हुए।अभी अविवाहित है महज पच्चीस साल का।'

वह सोचती- होगा कोई !उसे क्या!

पर एक दिन वह उसे लेकर घर आ गया। सचमुच बहुत आकर्षक था वह।उसे घर में छोड़कर संचित किसी काम से बाहर चला गया।काम क्या, हम दोनों को अकेले छोड़ने का बहाना था।मैं संकुचित थी कि यह लड़का अमित मेरी सारी गुप्त बातें जानता है।लड़के ने मुझसे बातें शुरू की--आप बहुत सुंदर हैं ।कैसे भैया के साथ निभाती हैं!

क्यों !निभाने के लिए क्या बस रूप -रंग देखा जाता है।

-नहीं ,फिर भी !कहाँ आप और कहां वे!

तो क्या करूं?

-मेरे संग दोस्ती कर लीजिए।निराश नहीं करूंगा।

उसकी आँखों में निवेदन था।

तुम्हें पता है न कि मैं शादीशुदा हूँ!

-तो क्या हुआ आप एक स्त्री भी तो हैं !आपकी भी तो कुछ इच्छाएं होंगी।

देखो ,मैं अपने पति से संतुष्ट हूँ। इस तरह की बातें करोगे तो उनसे कह दूँगी।

-क्या कहेंगी?अरे ,वे तो यही चाहते हैं कि मैं आपके साथ दोस्ती कर लूं।आप क्या समझती हैं वे किसी काम के लिए हमें अकेला छोड़ गए हैं ,नहीं ।वे मुझसे बिस्तर की बातें शेयर करते हैं।आपके एक -एक अंग की बातें करते हैं क्योंकि वे चाहते हैं कि मैं आपमें दिलचस्पी लूँ।और हम दोनों को साथ देखकर वे उत्तेजना महसूस करें।

वह कुछ गलत नहीं कह रहा था,फिर भी मैं अपने पति- धर्म से विचलित नहीं होना चाहती थी।

संचित आया ।उसने गौर से मुझे देखा और फिर उसके साथ चला गया।लौटा तो बड़ा अनमना था। उस रात वह बिस्तर पर करवट ही बदलता रह गया।

क्या हो रहा है इसको ?क्या किसी डॉक्टर के पास ले जाऊं इसे ,पर यह जाने को तैयार कहाँ होगा!अपने हिसाब से तो यह पूरी तरह नार्मल है।

अमित के फोन आने शुरू हो गए थे।वह बार -बार रिक्वेस्ट करता कि बस एक बार उसे प्रेम करने का मौका दे दूँ।
मैं उसे डाँट देती।एक दिन संचय कहने लगा कि अमित को क्यों सताती हो?वह तुमसे मिलना चाहता है और तुम उसे वक्त ही नहीं देती।

-मुझे वह अच्छा नहीं लगता।

झूठ!बिल्कुल झूठ! अमित जैसा लड़का किसी को अच्छा न लगे ,यह तो हो ही नहीं सकता।तुम मेरी चिंता न करो। मैं उसके आने -जाने का बिल्कुल बुरा नहीं मानूँगा।

मैं चुप रह गयी।अमित अक्सर इसकी उपस्थिति में ही आता और कभी -कभार अनुपस्थिति में भी।अब वह कोई ऐसी -वैसी बातें न करता।हमेशा हँसता -हँसाता रहता।अब एकांत में वह सिर्फ मन की बात करता।उसके हाव-भाव में मेरे प्रति प्रेम झलकने लगा था।वह मेरी सुंदरता की प्रशंसा करते हुए आहें भरता।संचय के भाग्य से रश्क करता।मेरी सुख- सुविधाओं की चिंता करता।बाहर घुमाने ले जाता।धीरे -धीरे वह मुझे अच्छा लगने लगा।अब मैं उसका इंतज़ार करने लगी।किसी दिन नहीं आता तो उदास हो जाती।उसने मुझे अपनी आदत डाल दी थी।वह कहता कि मुझे सिर्फ तुम चाहिए और कोई लड़की नहीं।किसी लड़की में तुमसे अधिक क्या होगा?पर जब तक तुम नहीं कहोगी, तुम्हें स्पर्श भी नहीं करूँगा।

उसकी बातों का मुझ पर असर होने लगा था।संचय के प्रति मैं तब भी अपने धर्म का पालन कर रही थी,पर मन में अमित ही अमित था।कभी -कभी सोचती यह पाप है ।फिर सोचती हमने शारीरिक रिश्ता नहीं बनाया है और मन का रिश्ता पाप नहीं होता।

पर अमित ने अपने जन्मदिन के दिन जब उससे तोहफ़ा मांगते हुए अपनी बाहें फैला दी, तो जाने किस भावना के वशीभूत मैं उसकी बाहों में समा गई।उसके युवा देह की मादक गंध मेरी साँसों में घुल गयी।उसने अपने गुलाबी होंठ मेरे होंठों पर रख दिए। ऐसा लगा जैसे किसी ने प्यासे होंठों पर अमृत की बूंदें टपका दी हों।उसने मेरी देह को छुआ, मेरी देह वीणा बन गयी ।उससे मधुर और मादक धुन निकलने लगी।आह,यह कैसी दुनिया है इतनी सुखद ...इतनी मादक !इतनी स्वर्गिक!संचय के साथ तो कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ था।

पर ये पाप है--मन के भीतर से हल्का -सा स्वर उभरा।,जिसे मन ने ही दबा दिया-नहीं, यह अधिकार है।स्त्री की अपनी देह का अपना अधिकार।उसे भी अपने इच्छित पुरूष से प्रेम करने का अधिकार है।अपनी देह के प्रति भी उसके कुछ कर्तव्य हैं।

संचय को मैंने इस बारे में कुछ नहीं बताया ।जाने क्यों ठीक नहीं लगा कि वह जाने कि अमित के साथ मेरे सम्बन्ध प्रगाढ़ हो चुके हैं।अमित ने भी संचय से यह बात छुपा ली।अब हम अक्सर मिलते,पर संचय को नहीं बताते।

संचय यह देख रहा था कि ऑफिस में अमित वही गीत गुनगुनाता है जो घर पर मैं।दोनों की फूटी पड़ रही खुशी भी उसे दिख रही थी,पर इसका रहस्य उसे समझ नहीं आ रहा था।अब अमित उसकी सेक्स संबंधी बातों में रूचि नहीं लेता था और घर पर मैं भी उसके पागलपन पर टोक देती थी।उसे अच्छा नहीं लग रहा था कि उसके दोनों मोहरे अपनी चाल खुद चलने लगे हैं। उसकी ईर्ष्या भड़क उठी थी।उसने घर आकर मुझसे अमित के बारे में पूछा--कैसा लगा उससे सेक्स अनुभव!

क्या! ऐसा कुछ भी नहीं हुआ हमारे बीच।

-अच्छा!क्या यह भी झूठ है कि वह अक्सर यहां आता है।

अक्सर तो नहीं पर कभी -कभार आते हैं ,वह भी आपकी जानकारी में।

-झूठ बोलती हो रंडी,मेरी बिल्ली मुझी को म्याऊं।उसके साथ गुलछर्रे उड़ाती हो और मुझे बताती भी नहीं।

-क्या बताऊँ?

तुम्हारी देह मेरी है मैं इसके साथ कुछ भी कर सकता हूँ-तुम्हीं न कहती थी।

-मैं गलत थी यह मेरी देह हैं इसके साथ कोई भी मेरी मर्जी के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता।

अच्छा! कैसे नहीं कर सकता!उसने मुझे गोद में उठा लिया और बिस्तर पर पटक दिया और मेरा चुम्बन लेने की कोशिश करने लगा। बदबू का एक भभूका उस की देह से उठा और मेरा जी मिचलाने लगा। अमित का वह सुमधुर चुम्बन,उसकी देह की युवा गंध ,उसका कोमल स्पर्श याद आया। संचय का शरीर मेरे जिस्म से किसी अजगर- सा लिपट रहा है । मेरा दम घुटने लगा। मैंने पूरा ज़ोर लगा कर अजगर को अपनी देह से नोंच फेंका और उठ कर बैठ गयी। साँसें सामान्य हुई तो देखा संचय जमीन पर पड़ा ऐंठ रहा है । उसके पूरे शरीर को लकवा मार गया है।


69   -
उड़न खटोला
[ जन्मतिथि :  7 मई 1972 ]

दिनेश श्रीनेत
 

पिछले कुछ दिनों से वह ठीक से सो नहीं पा रहा था। यह एक समस्या बनती जा रही थी। वह नींद के प्रति सचेत होने लगा था। यह अक्सर बचपन में बुखार के दौरान आई अधपकी नींद जैसा होता था। जब बदन की तपन बंद आंखों के भीतर तैरते चकत्तों को आहिस्ता-आहिस्ता डुलाती रहती थी।

उस नींद की तरह- जब पसीने से भीगे बदन और गर्म सांसों से रात को इंच-दर-इंच नापना पड़ता था। जब जिद्दी प्रेत की तरह कोई एक घटना या वाक्य सपनों से चिपका रहता था। सपने हवास पर गर्म राख की तरह फैले होते थे और हर करवट पर दिमाग चकरघिन्नी की तरह दिन भर की तस्वीरें उलटता-पलटता रहता।

हां, बचपन में इसी तरह सपने साथ-साथ चला करते थे। उसके लिए याद कर पाना काफी मुश्किल था कि जीवन की सबसे पहली स्मृतियां नींद का हिस्सा थीं या असल जिंदगी का।

“मैं शायद पांच-छह बरस का था। एक ठिठुरती सुबह मैंने खिड़की से बाहर झांका। हर तरफ सफेदी फैली थी। कई सालों बाद मौसम ने ऐसी करवट बदली थी। रोशनदान और ईंटों के बीच खाली गर्म जगहों में कबूतर ऊंध रहे थे। उन दिनों आंगन में रखी अंगीठी में कोयला सुलगता रहता था। अक्सर एक रडार की शक्ल का रूम हीटर बंद कमरे के नीम-अंधेरे में नारंगी रोशनी बिखेरता रहता। घर में पड़ी सोवियत रूस के चिकने पन्नों वाली पत्रिका में खरगोश और भेड़िया भी बाहर फैले सफेद कुहरे जैसी बर्फ पर फिसलते नजर आते। मैं एक डगमगाती साइकिल के आगे बैठा गीली सलेटी सड़क पर आगे बढ़ता जाता। मुझे हर तरफ सफेद धुंध नज़र आती- जो आगे बढ़ने के साथ और गहरी होती जाती। इस अनजान मंजिल की तरफ बढ़ते जाना जैसे मेरी नियति बन जाती थी।“

उन दिनों वह अक्सर धुंध से होकर गुज़रने का यह सपना देखा करता था। इस सपने से वह खुद को इतना आत्मसात कर चुका था कि सुबह-सुबह की ठंडी बयार और सूरज उगने से पहले पश्चिम में छाया सुरमई अंधेरा भी उसे किसी स्वप्न जैसे ही लगते थे। आंखें मलते, खाली मैदान में दौड़ती गायों और उनके कदमों से क्षितिज में उठती धूल देखकर वह चकित हो जाता था। वह दौड़कर मां के करीब पहुंचता और उनसे पूछता था, “आखिर यह दुनिया कितनी बड़ी है... क्या इसका कोई अंत भी है?”

जीवन की उन पहली स्मृतियों की तरह पहले-पहल देखे गए सपनों की यादें भी उसके मन के अंधेरे कोने में बसती चली गईं। वह अपनी बचपन की नींद को कभी भी याद कर सकता था। तीन-चार बरस उम्र से ही रोशनदान से छनती चांदनी, कमरे के मुलायम अंधेरे में मां के बदन से आती महक और पिता के हाथों का स्पर्श उसकी नींद का हिस्सा बन चुके थे।

रात को खाने के बाद मां से बातें करते हुए उसके पिता अपनी उंगलियों से उसका माथा सहलाते रहते। उनकी उंगलियों में एक महीन सा खुरदरापन था। जैसे किसी पुराने वृक्ष के तने में होता है। उस स्पर्श के साथ जब वह आंखें बंद करता तो बंद पलकों के आगे महीन पीली रोशनी से बना जाल तैरने लगता। कुछ ही पलों में तेजी से भागता वह रोशनी का पैटर्न बैंगनी-नीले फूलों में बदल जाता था। उसका पलंग जैसे एक उड़न खटोले में बदल जाता था। पलंग आहिस्ता-आहिस्ता ऊपर उठने लगता। सितारों भरे आसमान में एक डगमगाती सी छलांग के साथ ही वह अपनी चेतना खो बैठता।

चेतना खो बैठना... उसके लिए नींद का सबसे बड़ा जादू यही था। हर सोलह-सत्रह घंटे बाद मौत की दहलीज तक जाकर उल्टे कदमों से लौट आना। हर वापसी के बाद जिंदगी को नए सिरे से जीना... यह बचपन में ही संभव होता है। बड़े होने के बाद वह अक्सर सोचता था कि शायद जानवर और परिंदे ही हर रोज जगने के बाद एक नया जीवन जीते हैं। उम्र का एक हिस्सा रात को उनके सोने के साथ ही खत्म हो जाता है, अगली सुबह नींद खुलने पर वे एक नए जीवन को दस्तक देते हैं।

हां, बचपन के दिन अब स्वप्न जैसे लगते हैं। रात में मेले की परछाइयां, बादलों में कौंधती बिजली, झूले का ऊपर-नीचे होना, पानी की बाल्टी में डोलता सूरज का प्रतिबिंब, चमकीली धूप में हवा से फरफराती रंगीन फिरकियां... धूप-छांह-धूप... फिर सपना... अक्सर जमे हुए खून के कत्थई थक्के उसे आधी रात की नींद से जगा देते थे।

“तुम जब हड़बड़ाकर उठते तो खिड़की के बाहर झरती चांदनी और मां और पिता की सांसों की आवाज भर सुनाई देती। दोबारा सोने की कोशिश करने पर आंखों के आगे वह नन्हा परिंदा फड़फड़ाने लगता जो उस दिन भी उड़ने की कई असफल कोशिशों के बाद सीढ़ियों पर सिमटा बैठा था। शायद घोसले से नीचे गिर गया था। हाथ बढ़ाकर उस भूरे-कत्थई परिंदे को वहां से हटाना चाहा था तो हथेली को सिर्फ पक्षी की धड़कन, नुकीले पंजे और पंखों की फड़फड़ाहट से उपजा प्रतिरोध ही हासिल हुआ। तुम चुपचाप घर लौट गए थे। तुमने सोचा कि घर पर यह बात कहो मगर किसी अनजान सी शर्मिंदगी के चलते चुप रहे। दोपहर में जब तुम दोबारा उन सीढ़ियों से उतरे तो चिड़िया का वह नन्हा बच्चा मृत पड़ा था। उसके शरीर से बहा रक्त एक वृत्त की शक्ल में जमकर कत्थई सा हो गया था। चींटियों की एक कतार उसके शरीर की तरफ जा रही थी। वह अनजाने में किसी के भारी-भरकम जूते से कुचल गया था।”

उस घटना के बाद वह कई दिनों तक उदास रहा। शायद वह नन्हा परिंदा किसी बड़े शख्स के भारी-भरकम जूते से सीढ़ियां उतरते वक्त कुचल गया था। कई महीनों तक वह खुद को इस अपराध के लिए गुनहगार मानता रहा। यह सोचकर कि परिंदा बच सकता था, उसके भीतर से एक तकलीफ सी उमड़ने लगती। यह एक बेतुकी मौत थी। रक्त का कत्थई धब्बा कई दिनों तक बचपन के सपनों में तैरता रहा।

वह थोड़ा बड़ा हुआ तो रात से उसकी दोस्ती गहराने लगी। दिन और रात किसी अनजान कहानी के छोटे-छोटे अध्याय में बदल गए। रात होती थी तो दुनिया बदल जाती थी। लोग बदल जाते। यहां तक कि खुद की परछाई भी उसे बदली-बदली सी नजर आती थी। पेड़ों की पत्तियों से गुजरती हवा की सरसराहट का रात में अलग ही रंग होता था। तब कई बार उसे लगता था कि रात के अंधेरे में चमकती चांदनी के पीछे कोई राज छिपा है। उसने अपनी डायरी में लिखा, “उन परछाइयों और रोशनियों के बीच कुछ ऐसा था जो मेरे भीतर आकार ले रही स्मृतियों की श्रृंखला से बहुत पहले का कोई अनजाना सच सिर्फ और सिर्फ मुझसे साझा करना चाहता था। मेरे मन में कुछ उमड़ने-घुमड़ने सा लगता और मैं चुपचाप अपनी मां के बगल में जाकर बैठ जाता।”

***

 

मां की बगल में न जाने कब उग आया यह मौन अकेलापन धीरे से उसके बचपन में दाखिल हो गया। देखते-देखते मां के सुंदर चेहरे पर टिकी रहने वाली बिंदी- जिसे वह अक्सर उनके माथे से उतारकर खेलता था- गायब हो गई और कनपटियों पर जाने कब आहिस्ता-आहिस्ता सफेदी उतर आई। शाम को आठ बजे दरवाजे पर दस्तक नहीं होती थी और न किसी पुरुष की गरमाहट भरी मौजूदगी उन दोनों की आंखों में चमक बनकर उतरती।

“हां, शाम को आठ बजे के बाद मेरा दिल डूबने लगता। मां मुझे गोद में उठाए अक्सर डॉक्टर के पास भागती। एक वर्ष तक यह सिलसिला चलता रहा। फेफड़ों में सांस न समा पाने से हो रही उफनाहट, अंधेरे के साथ हर तरफ फैलती उदासी की छाया, मां का आंखों में चिंता लिए सपाट चेहरा, टेबल पर नजर आने वाला थर्मामीटर, पेन स्टैंड, पेपरवेट और शीशियों व टेबलेट से भरी एक लोहे की अलमारी। एक बरस। आखिर मैंने अपने अवसाद से दोस्ती कर ली। आठ बजे तक मां काम खत्म करके कमरे की बत्तियां बुझाकर उसके बगल में लेट जाती। हम या तो आपस में बातें करते या रेडियो से उठती धुनों को सुनते।”

रात के अंधेरे में उठती कुछ धुनें अपने साथ फिर वही पुराना अवसाद लपेटे आती थीं। क्योंकि उन धुनों के आगे-पीछे किसी के कदमों की आहट थी। साथ में थी अखबार में लिपटी तली मछलियां और चेहरे पर उंगलियों की खुरदरी सी छुअन। उस धुन को सुनते ही उसे लगता उसके जीवन से कुछ छिनने जा रहा है। उसका दिल डूबने लगता था। कमरे की अंधेरी परछाइयां और गहरी हो जाती थीं। लगता था कि सांस फेफड़ों में समाने की बजाय वापस लौट जा रही है। मगर अपनी इस घबराहट को वह राज रखता। आखिर इतना समझदार हो गया था कि अपनी मां से वह बहुत कुछ छिपा सके- जिसके कारण उन्हें तकलीफ पहुंचती थी। मां-बेटे किसी अनकहे समझौते के चलते अपने अनिश्चित भविष्य के बारे में बातें नहीं करते थे। वे किसी अनकहे समझौते के चलते पिता के बारे में भी बात नहीं करते थे।

“तुमने पिता को आखिरी बार देखा था तो लगा था कि वे सो रहे हैं। सिर्फ उनके होठों के कोने से बही एक खून की लकीर- जो सूखकर लगभग काली सी नजर आ रही थी- उनके चेहरे को कुछ अजीब-सा बना रही थी।”

पिता की मौत उतनी ही बेतुकी थी जितना परिंदे का जूते से कुचला जाना। उन्हें एक जीप ने टक्कर मार दी थी। उनका चश्मा और हाथ में तली हुई मछलियों का पैकेट छिटकर कर दूर जा गिरा था। लोग बताते हैं कि जीप चलाने वाले की कोई खास गलती नहीं थी। वह अभी गाड़ी चलाना सीख रहा था। सामने से आ रही ट्रक देखकर वह हड़बड़ा गया, इसी हड़बड़ाहट में उसका पांव ब्रेक की जगह एक्सीलेटर पर चला गया। उसी रोड पर एक सुरक्षित किनारे उसके पिता तली हुई सोंधी खुशबू वाली मछलियां लेकर घर जा रहे थे। वह अपने समय से एक घंटे लेट आ रहे थे। क्योंकि उसकी जिद पर वे उस दिन रास्ता बदलकर मछली खरीदने चौक की तरफ चले गए थे। जब जीप लहराती हुई फुटपाथ और किनारे की दीवारों को रगड़ती हुई पोल से जा टकराई तो पिता का उसी वक्त, उसी जगह पर होना कतई जरूरी नहीं था।

वह तब उम्र में छोटा और नासमझ था। इतना ज्यादा नासमझ कि जिस दिन पिता को घाट पर जलती लकड़ियों के हवाले किया गया तो लौटते वक्त वह किसी की बात पर मुसकराने भी लगा था। दरअसल चिता से लपटें उठनी शुरु हुईं तभी उसका मन हल्का हो गया था। उस दिन बेहद सुंदर बयार चल रही थी। घाट पर आबनूस जैसा काला व्यक्ति ढेर सारी कागज की रंग-बिरंगी फिरकियां लिए घूम रहा था। जो तेज हवा में फरफरा रही थीं।

बाद में अपनी इस नासमझी पर वह काफी शर्मिंदा भी हुआ। इसका अफसोस उसे बहुत दिनों तक रहा। खुद को शर्मिंदा करने के लिए वह एक बंद कमरे में खूब फूट-फूटकर रोया भी। शुरु के कुछ महीनों तक पिता की गैरमौजूदगी का एहसास उसे शाम को आठ बजे के आसपास होता था। यह उनके घर आने का वक्त था। उसका जी घबराने लगता था और वह चादर से मुंह ढककर सोने की कोशिश करने लगता। चेहरे पर लिपटा अंधेरा एक दरवाजा था- दूसरी दुनिया में कदम रखने का।

“यहीं मैंने नींद से दोस्ती कर ली। यह एक आसान रास्ता था। बेहतर विकल्प। मैंने सपनों को टोहना शुरु कर दिया। जिंदगी समझ से बाहर, अनिश्चय से भरी और डरावनी थी। जबकि जीवन का हर सुखद टुकड़ा एक स्वप्न था। हर स्मृति एक स्वप्न थी। हंसी एक स्वप्न थी। ये नींद के स्याह सागर में तैरती उम्मीदें थीं। मैं सपनों के पीछे किसी शिकारी की तरह लग गया। नींद के अंधेरे जंगल में स्वर्ण मृग जैसे स्वप्न चमकते और गायब हो जाते। जितना ही उनके करीब जाने की कोशिश करो उतना ही उन्हें पकड़ पाना कठिन होता जाता था।”

वहीं उसकी वास्तविक दुनिया में अनिश्चितता बढ़ती जा रही थी। पिता की मौत के बाद वह अपनी मां के साथ छिटक कर जैसे वक्त के हाशिए पर चला गया था। घर के पुराने साल-दर-साल बदरंग हो रहे दरवाजे के पीछे घड़ी की सुइयां ठहर गई थीं। उस दरवाजे के पीछे कुछ घटित नहीं हो रहा था। सिवाय इसके कि मां वक्त बीतने के साथ बूढ़ी और एकाकी होती जा रही थीं। उनके सुंदर चेहरे पर झुर्रियां नज़र आने लगी थीं। मां के पास एक लकड़ी की बनी सुंदर सी संदूकची थी। वे उसे कलमदान बोलती थीं। उसके भीतर कई खांचे बने हुए थे। उसमें वह अपनी पुरानी डायरी, पेन और खत रखती थीं। अपनी डायरी वे उस देखने नहीं देती थीं। हालांकि वह जानता था कि मां ने उसमें दूसरी किताबों में पसंद आने वाले शे’र और कविताएँ लिख रखी हैं। कई बार वे खुद भी कुछ लिखने की कोशिश करती थीं, मगर बाद में संतुष्ट न होने पर या तो अपनी पंक्तियां काट देती थीं या वह पृष्ठ ही फाड़ देतीं। पीले पड़ गए कागजों और पुराने टाइप के अंतर्देशीय में किसके खत थे, जिन्हें वो अकेले में पढ़ती थीं- यह उसके लिए एक रहस्य था।

हर बारिश के बाद घर की छतों पर और ज्यादा पपड़ियां जमने लगी थीं और दीवारों पर उगी काई का रंग और गहरा होता जाता था। घर के पिछले हिस्से में आंगन की बिना पलस्तर वाली दीवार में एक दरार पड़ गई थी। वक्त बीतने के साथ मां बेटे के बीच संवाद कम होता जा रहा था। वे अदृश्य गलियारों में अलग-अलग एक-दूसरे की विपरीत दिशा में चल रहे थे।

“अनिश्चय एक बाघ बनकर तुम्हारी नींद में दाखिल होता था। अपनी आंखों में एक निर्विकार हिंसा लिए। टूटे हुए खंडहरों या खाली फैली छतों पर टहलता। तुम जंगले से उसे देखते और दरवाजे बंद करना शुरू कर देते थे। वह एक निश्चिंतता लिए खुली छत पर लोटता रहता। उसके गले से निकलती खिलंदड़ी गुर्राहट कमरे के भीतर सुनाई देती रहती। तुम भयभीत खिड़कियों से झांकते रहते... उसके पूरी तरह चले जाने की प्रतीक्षा में।”

हर बारिश में दीवार की दरार और बढ़ जाती थी। वह कई बार उत्सुकता से दरार के भीतर झांकता था। दरार के भीतर उसे एक पूरी दुनिया नजर आती थी। वहां हरी काई का जंगल उग आया था। गर्मियों में चमकीले कत्थई कैटरपिलर के झुंड उसके भीतर अलसाये भाव से रेंगते नजर आते। कभी कपास का नन्हा सा फूल उस दरार में जाकर अटक जाता तो कभी चींटिंयों का झुंड मार्च करता हुआ वहां से गुजरता था। सर्दियों में छिपकलियां उस दरार के भीतर गहन निद्रा में सोती दिखाई देती थीं। आंगन की उस दरार के दूसरी तरफ बाहर का संसार तेजी से बदल रहा था। युवा होती लड़कियां ज्यादा आत्मविश्वास से चहकती नजर आती थीं। गली में क्रिकेट खेलते लड़के उन्हें देखकर और दम लगा देते या बॉल कैच करने के लिए कलाबाजियां खाना शुरु कर देते।

“तुम्हारे लिए वे सभी दुसरी दुनिया का हिस्सा थे। तुम उस दुनिया का हिस्सा चाहकर भी नहीं बन सकते थे। तुम कभी अगर उनके बीच से होकर गुजरते भी तो लगता जैसे सपनों से निकली कोई भुतैली परछाईं अटपटी चाल से चलती उन लड़के-लड़कियों के बीच आकर खड़ी हो गई हो। तुम्हारी जुबान सिल जाती।“

अक्सर वह काफी शर्मिंदा होकर लौट जाता और रात को खाली कमरे में चहलकदमी करते हुए अपनी कल्पना में उन लड़कों या लड़कियों से आत्मविश्वास भरा संवाद करने की कोशिश करता। चलते-चलते जब थक जाता तो बिस्तर पर लेटकर आंखें बंद कर लेता। एक बार इसी तरह थककर वह अपने कमरे में सोया ही था कि कुछ गिरने की आवाज आई।

यह मां थीं जो बाथरूम जाते समय आंगन में फिसल गईं। बीते पांच-छह दिनों से उनकी दवा खत्म हो गई थी। बढ़े रक्तचाप के कारण शायद उनका सर चकरा गया और वे गिर गईं। उनकी नाक से गर्म रक्त की एक लकीर बह पड़ी जो उनकी साड़ी पर बड़े-बड़े धब्बे बना रही थी। उसका रंग कुछ वैसा ही स्याह था जैसे उस नन्हीं चिड़िया के बच्चे के तन से निकला था या पिता के होठों के कोर पर जम गया था। मां को काफी चोट आई थी। कंधे और पीठ का हिस्सा स्याह पड़ गया था और बहुत दिनों तक उनका शरीर इस कदर अकड़ा रहा कि उठने-बैठने के लिए भी उन्हें सहारा चाहिए था।

इस घटना का उसकी नींद पर गहरा असर पड़ा। उसे अपनी लापरवाही पर कई दिनों तक अफसोस रहा। उसे बड़ी तीव्रता के साथ यह अहसास हुआ कि किसी तरह मां के न होने पर वह बिल्कुल अकेला हो जाएगा। सिर्फ मां ही उसके अतीत की मौन साझीदार थी। उस घटना के बाद से वह कच्ची नींद सोने लगा था। मां को डायबिटीज़ था और इसके कारण उन्हें बार-बार बाथरूम जाना पड़ता था। रात को मां कांपते-डगमगाते कदमों से बाथरूम की तरफ लपकतीं तो उनके चप्पलों की घिसटती आवाज से उसकी आंखें फट से खुल जातीं और वह लपक कर उन्हें थाम लेता। ऐसा रात में कम से कम दो बार होता था।

धीरे-धीरे मां के चप्पलों की आहट उसकी नींद में दाखिल होती गई।

रात को उसे कई बार उठना होता था। इस आधी-अधूरी नींद में वह धीरे-धीरे उस दहलीज को बेहद करीब से पहचानने लगा था, जहां से लोग सपनों के भीतर कदम रखते हैं। जब वह उनींदा होता था तो आसपास की हलचल धीरे-धीरे उसकी संवेदनाओं को छुए बगैर निकलने लगती थीं। यह ठीक वैसे होता था जैसे पानी के भीतर जाने पर हम सिर्फ अपने चारो तरफ मौजूद पानी के एहसास को जी रहे होते हैं। आसपास की आवाजों से निर्लिप्त उसका मन धीरे-धीरे किसी एक विचार की तरफ केंद्रित होने लगता था। और एक झपाटे के साथ पुरानी स्मृति चील की तरह उसके वर्तमान में दाखिल होती थी। एक अनायास बिंब- जो उसकी प्रत्याशा से बाहर की चीज होती थी।

“मेरा अपनी नींद के प्रति सचेत होना दरअसल वास्तविक दुनिया और सपनों के बीच एक पुल बनाता जा रहा था। इसका नतीजा यह होता था कि नींद के हर झोंके के दौरान मेरे दिमाग में बिजली की एक कौंध सी उठती थी। उस कौंध में जो मुझे जो कुछ दिखता वह हकीकत और सपनों के परे था। इतना ही नहीं वह स्मृति, कल्पना या विचार जैसे खांचों में भी नहीं बंटा था। यहां मेरे लिए सब कुछ एक मिश्रित अनुभूति में बदल जाता था। हर कल्पनामय बिंब की जड़ें अतीत की किसी स्मृति में थीं और हर स्मृति की गहराई में कोई विचार घुला-मिला होता था। एक दिन एक ऐसी ही कौंध हुई और मुझे लगा कि आने वाले दिनों में हमें दिख रही दुनिया सपाट नहीं रह जाएगी, वह हर तरफ फैली होगी। दसो दिशाओं में।”

और उन्हीं दिनों उसने अपनी जिंदगी का सबसे अद्भुत स्वप्न देखा। एक जगमगाता सुंदर शहर- जो सपाट धरती पर नहीं था- पेड़ों की शाखाओं की तरह हजारों किलोमीटर आसमान की तरफ फैला हुआ था। यह एक काली रात थी- जिसमें सुनहरी रोशनी का जाल बिछा हुआ था। वैसी ही रोशनी- जैसी वह बचपन में आंखें बंद करने पर अपने उड़नखटोले में देखता था।

***

यहां तक आते-आते शहर की आवाजें डूब चुकी थीं। सिर्फ उसकी टिमटिमाती बत्तियां नजर आ रही थीं। ऊपर आसमान तारों से भरा था। इतने तारे उसने कभी नहीं देखे थे। ऐसा आसमान सिर्फ बचपन में अपने पिता के साथ नेपाल की तराई के खुले मैदानों में देखा था। इस आसमान में सप्तऋषि भी पहचाने जा सकते थे और एक क्षितिज से दूसरे तक जाती धुंधली आकाशगंगा भी।

वे छत पर थे। अंधेरा था मगर उसका चेहरा तारों की रोशनी में नजर आ रहा था। क्योंकि वह उसके बहुत करीब थी। शायद उसकी इजाजत से वह उसे छू भी सकता था। वह उसके लिए ट्रे में चाय लेकर आई थी। जब कोई लड़की पहली बार हमारी जिंदगी में दाखिल हो रही होती है तो वह दरअसल खुद में एक जिंदगी की तरह होती है- जिसके भीतर हम दाखिल हो रहे होते हैं। “मैं उसके भीतर दाखिल हो रहा था। वह धुआँ थी। वह परछाईं थी। वह स्वप्न थी। मैं स्वप्न के भीतर दाखिल हो रहा था। जब मैंने पहली बार उसे देखा था तो घनघोर बारिश हो रही थी। पानी से तरबतर वह भी उसी पुराने मकान के बरामदे में खड़ी हो गई, जहां मैं पानी के रुकने का इंतजार कर रहा था। उसके माथे, पलकों, बरौनियों पर बूंदें अटकी हुई थीं। मैंने बाहर आसमान की तरफ झांका जो स्लेटी बादलों से ढका हुआ था। दिन का उजास लगभग खत्म था। ये बादल मेरी जिंदगी में फिर-फिर वापिस आते थे। स्मृतियों से डबडबाए और अनिश्चित भविष्य की कौंध लिए।” 

“हमें चलना है न?”  उसकी आवाज अंधेरे को चीरती हुई टकराई।

“हां, हमें चलना है।”

“मैं करीब आने पर उसकी आंखों में जगमगाते शहर को देख सकता हूं। यह वही शहर है जो मैं देखना चाहता था। उसकी सांसें मुझसे टकरा रही हैं। देखो, मेरे बचपन के सपनों की वह सुनहली रोशनी उसके बालों और चेहरे पर उतर आई है। मैं पलटा। मेरे सामने आसमान तक फैला वह शहर था। आसमान तक जगमगाती मद्धम पीली रोशनियों का जाल। जैसे रात को पर्वतों के बीच गुजरने पर शहर तलहटी से आकाश तक टिमकता दिखता है। वह मुझसे एक कदम आगे थी। उसने पीछे मुड़कर मेरा हाथ थाम लिया। उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की चमक थी। हर आगे बढ़ते हुए शहर के भीतर दाखिल हो रहे थे। शहर का बहुत सारा हिस्सा अंधेरे में डूबा हुआ था। हम खाली मकानों के बीच चांदनी रात में फैली भुतैली परछाइयों से होकर भटक रहे थे। खाली पड़े सैकड़ों कतारबद्ध मकान अपनी अंधी खिड़कियों से टकटकी लगाए किसी जैसे किसी अनजान आगंतुक की प्रतीक्षा में थे। मैं उसे लेकर एक छोटे से मकान के भीतर दाखिल हुआ। भीतर रोशनी नहीं थी। फर्श पर चांदनी के चौखटे जहां-तहां बिछे थे। वह चुपचाप ठंडे फर्श पर बैठ गई। वह थकी सी लग रही थी।”

दोनों कमरे के फर्श पर एक-दूसरे के करीब खामोश बैठे थे। एक वेदना से भरा संगीत उन दोनों के बीच किसी नदी की तरह बह रहा था। यह स्मृतिविहीन अस्तित्व था। यह स्वप्न एक पूरे जीवन जितना विशाल था। इस स्वप्न में उन दोनों के पास न कोई अतीत था और न भविष्य। उसे पहली बार अहसास हुआ कि बीते कल और आगत से छुटकारा पाना कितना सुखद हो सकता है।

इस स्वप्न को वह कभी भूल नहीं पाया। इस सपने में उसने एक पूरा जीवन जी लिया। ऐसा जीवन जिसको पाने के लिए शायद उसने जन्म लिया था मगर उस तक पहुंचने से पहले जागती आंखों के आगे फैले दुःसवप्न में उलझ गया। पहली बार उसे एहसास हुआ कि एक जीवन में कितने जीवन समाये हुए हैं। हर स्वप्न जो याद रह जाता है- किस तरह से स्मृतियों और समय की हदों को लांघ जाता है। काले, अंधेरे महासागर में बहते आइसबर्ग जैसे ये स्वप्न अपने भीतर चांदनी रातों की तरह राज छुपाए हुए थे। उनका वास्तविक जीवन से कोई सीधा संबंध न था। वे काल की सीमाओं से परे किसी अनंत से जा मिलते थे। 

दिन छोटे होने लगे और रातें लंबी।

वह रात अक्सर जागते हुए गुजार देता था। नतीजा यह होता था कि दिन में उसे नींद के झोंके आने लगे। कभी भी, कहीं भी। कचहरी की बेंच पर। पार्क में। कई बार साइकिल चलाते वक्त। नींद अचानक बहते पानी की तरह गुजर जाती थी। सपने टुकड़ों में आते थे। ये स्वप्न उसके वर्तमान से आबद्ध होते थे।

जिस दिन वह नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गया था, बाहर इंतजार करते-करते उसे नींद आ गई।

“तुम्हारे पांव स्कूल के मैदान में अगस्त की बारिश में भीगी घास पर थे। सामने दुबले-पतले गांधीवादी टोपी लगाए प्रधानाचार्य खड़े थे। तुम सहमे हुए थे। अभी-अभी तो तुमने गलती की थी। पता नहीं वे इस बारे में क्या सोचेंगे। क्या वे इस आफिस में शिकायत करने पहुंच जाएंगे? जहां तुम आज नौकरी मांगने आए हो? स्कूल के आगे आफिस के लोग भला क्या कर सकते हैं। तुम्हारी गलती तो प्रधानाचार्य को पता चल गई है। हो सकता है प्रेयर के बाद वे तुम्हें अपने कमरे में बुलाएं।”

***

उसे जहां काम मिला था, उसका आफिस दवाओं और सर्जिकल सामानों के डिस्ट्रीब्यूटर्स से भरी एक मार्केट में था। वहां दिन भर बिजली न होने के कारण जनरेटर तड़तड़ाते रहते थे। उसे खिड़की के पास सीट मिली थी। तपती गर्मियों में कई बार जेनरेटर खराब होने की वजह से खिड़की खुली रखनी पड़ती थी। मार्केट की दीवारें बरसों से पुताई न होने कारण बदरंग हो गई थीं। खिड़की के ठीक सामने काई लगी दीवार पर बहुत धब्बे पड़े थे। खाली वक्त में वह उस बदरंग दीवाल में तरह-तरह की आकृतियां खोजा करता था। उसमे हरे रंग का एक धब्बा उसे ऐसा दिखता था मानों कोई कुत्ता मुंह फाड़कर भौंक रहा हो। धीरे-धीरे उस भौंकते कुत्ते की शक्ल वाले हरे धब्बे से उसकी पहचान-सी हो गई। कई बार वह बाहर देखता-देखता उनींदा हो जाता तो लगता कि हरे धब्बे में एक लहर सी दौड़ गई।

रात को ठीक से नींद न आना अब तक उसके एक समस्या बन गई थी। वह काफी दुबला और कमजोर भी हो गया था। लिहाजा नींद के झोंके उसे दिन में कई बार आते थे।

एक दिन वह हरा कुत्ता टहलता हुआ उसकी मेज के नीचे आ गया। “क्या मुसीबत है...” वह बुदबुदाया। “…नींद कभी भी कहीं भी चढ़ बैठती है। मैं जगा हुआ हूं सो नहीं रहा हूं…” हरा कुत्ता बिना कुछ बोले मेज के नीचे सिकुड़कर बैठ गया। उसने ‘हुश!’ करते उसे भगाने की कोशिश की मगर वह टस से मस नहीं हुआ। वह दुविधा में था कि वह आफिस में सपना देख रहा है क्या? सामने की टेबल से लड़की फाइल लेकर उठी और उसकी तरफ आने लगी। सब कुछ ठीक लग रहा था और वास्तविक भी। यहां तक कि दीवार पर टिकटिकाती घड़ी भी लंच के बाद का समय ही दिखा रही थी। लड़की उसकी टेबल तक पहुंच गई। हरा कुत्ता मेज के नीचे दुबका रहा। आखिरकार खीजकर उसने कुत्ते पर ध्यान देना ही छोड़ दिया।

सपनों से दोस्ती का यह नया पड़ाव था।

दिन की झपकियों में स्वप्न की हर कौंध के साथ वह किसी पुरानी स्मृति में दाखिल होता था मगर उसी पुरानी घटना में उसे बिल्कुल नया अर्थ दिखाई देने लगता था। कभी कई बरस पहले रात को देखे गए कुछ सपने कौंध जाते। मगर वे ऐसे लगते जैसे बचपन की कोई भूली हुई बात अचानक याद आ जाती है। कई बार वह परेशान हो उठता था कि दरअसल उसे जो याद आया है वह उसके किसी ख्वाब का हिस्सा था या वास्तविकता का। यह सब कुछ इतने ही कम समय के लिए होता था जितने कम समय में आकाश में बिजली चमकती है। वह जब तक इन चीजों के मायने को समझ पाता वह तेजी से उसकी स्मृति से ओझल हो जाती। यह बिल्कुल ऐसे ही था जैसे कोई खड़िया से कुछ लिख रहा हो और वह मिटता भी जा रहा हो।

उसे पहली बार महसूस हुआ कि जिंदगी सिर्फ उतनी भर नहीं है जितनी वह जागते हुए देखता-महसूस करता है, बल्कि नींद और सपनों की देहरी पर खड़े होकर देखो तो वह एक मुकम्मल आकार लेती है।

“यह मेरे लिए महज एक संसार से दूसरे संसार में कदम रखने जैसा था। मगर इन दो कदमों के बीच का फासला रहस्य से भरा था। मैं कभी याद नहीं रख पाता था कि मैं किस पल स्वप्न के भीतर दाखिल हुआ। अक्सर होता था कि वास्तविक संसार में सुनाई देने वाले शब्द, ट्रैफिक और जेनरेटर का शोर-गुल सब मेरे इर्द-गिर्द तैरने लगते थे। आवाजें किसी जंगल, कुहरे अथवा अंधेरी गलियों मे भटकने लगती थीं।”

उसने अपनी डायरी में लिखा।

“हर बार नींद का झोंका मुझे कुछ भूली हुई बातों की याद भी दिला देता है। यह तत्काल में देखी गई तमाम छवियों में जीवन भर में इकट्ठा छवियों को शामिल कर देता है। उन छवियों से जीवन के प्रति एक नया अर्थ पैदा होता है। हर तात्कालिक छवि किसी पुरानी छवि के साथ घुलमिल जाने पर जीवन के साथ एक नए रिश्ते को खोलती है- जिसे मैं जाग्रत अवस्था में कभी नहीं समझ पाता।”

एक दिन और उसने लिखा...

“धुंध हमेशा अस्पष्टता नहीं लाती- धुंधलापन कई बार जीवन के बड़े अर्थ या रहस्य की तरफ संकेत करता है। स्पष्टता भ्रम पैदा करती है। हर स्पष्ट वस्तु हमें विवश करती है कि हम उसे ठीक उसी तरह से समझें जैसी कि वह अपने भौतिक रूप में हैं। मगर क्या जीवन सिर्फ भौतिक वास्तविकताओं के जरिए समझा जा सकता है? इस दुनिया की हर वस्तु को हम अपने अनुभवों की ताप में महसूस करते हैं। हर भावना संगीत के एक नोटेशन की तरह है, स्वप्न इन्हें संगीत में बदलने की कोशिश करते हैं। यानी हर स्वप्न हमें पूर्णता की ओर उन्मुख करता है। यह भावनाओं की पूर्णता है। जाग्रत अवस्था तो सतही है। वहां हर भावना का एक क्षणिक जीवन है जो बाहरी भौतिक वातावरण से प्रभावित होता है। मगर स्वप्न हर भावनात्मक स्पार्क को सहेजता है और उसको एक वृहत्तर गाथा में बदलता है।” 

सपनों की दुनियां में आवाजाही उसके लिए एक दिलचस्प खेल में बदल गया था।

यह खेल कभी भी शुरु हो जाता था। अपने दफ्तर की चपल और तीक्ष्ण आंखों वाली लड़की को वह अक्सर चोरी-छुपे देखा करता था। चोरी-छुपे ही... क्योंकि उसे हमेशा लगता था कि वह उससे घृणा करती होगी, क्योंकि उसके पास आने पर वह हमेशा किसी न किसी बहाने से उसे नजरअंदाज करती थी।

एक दिन अपनी टेबल पर बैठे-बैठे उसने निगाह दौड़ाई तो पाया कि वह उसी की तरफ देख रही थी। वह उसे देखकर मुस्कुरा उठी। वह समझ गया कि उनींदेपन में उसे सपना आ रहा है। इससे पहले तो कभी ऐसा नहीं हुआ। उसके देखते-देखते वह अपनी मेज से उठी और उसके पास आने लगी। उसने मेज को थपथपाया, ताकि जागने और नींद के फर्क को महसूस कर सके। लड़की सचमुच उसके सामने खड़ी थी। वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करे।

अब उसके सामने एक नया सवाल था। अगर सचमुच वास्तविकता और सपनों के बीच इतना झीना सा फर्क है तो क्या वास्तविकता को भी अपनी निजी रोशनी में देखा जा सकता है। क्या जिंदगी उसकी मनचाही कहानी में बदल सकती है। क्या इस जिंदगी में वह सपनों की तरह एक लंबी दौड़ लगा सकता है। इस दौड़ में सिर्फ जगहें पीछे न छूटें बल्कि परिवेश और काल भी उसके कदमों तले गुजरता जाए। जहां उसे कोई चोट न पहुंचा सके। गर चोट पहुंचाए तो दर्द न हो। वह जिंदगी को एक सख्त खुरदुरे पत्थर की तरह नहीं बल्कि भावना की एक तरंग की तरह महसूस कर सके। जहां जिंदगी के बारे में उसकी नाजुक सोच आहत न हो। बल्कि कल्पनाएं ही जिंदगी बन जाएं। जैसे वाटर कलर से बने सैरा। 

वह अपने अतीत को पा सके। खोई हुई सुबह और शामों को पा सके। पिता के कदमों की आहट फिर-फिर सुन सके।

***

उसने अपनी बेमकसद जिंदगी का मतलब सपनों में तलाशना शुरू कर दिया। उसकी चेतना में दो दुनियाओं के बीच का फर्क मिट गया। स्वप्न कभी भी उसके वर्तमान में दाखिल हो जाते थे और वह अपने सपनों में कभी भी एक सचेत हस्तक्षेप कर सकता था।

वह धुआँधार बारिश का मौसम था। दीवार की दरार नन्हें प्राणियों से भर गई थी। साल-दर-साल वह और कमजोर होता जा रहा था। जब कभी आइने के सामने वह अपने कपड़े उतारता तो हड्डियों का ढांचा भर नजर आता। मां इस बीच ज्यादा बीमार और अपने में खोई रहने लगीं। मां उसके अस्तित्व से इस कदर अभिन्न हो गई थीं कि कई बार उनकी अनुपस्थिति का ख्याल ही उसके सामने एक भयावह शून्य खड़ा कर देता था।

...और एक दिन कुर्सी पर बैठे-बैठे नींद के झोंके मे उसे अपने पिता दिखाई दिए, जिन्हें वह लगभग भूल चुका था। ठीक वैसे और उतनी ही गरमाहट से भरे हुए जैसे कि बचपन में दिखते थे। वे किसी से जिरह कर रहे थे। एक विश्वास से भरी जिरह। उनके पास हमेशा की तरह नपे-तुले शब्द थे- जिनमें जीवन की समझ छिपी थी।

“इस सपने में मुझे पिता का नया रूप दिखाई दिया। जिसे मैं बचपन में कभी समझ नहीं पाया था। शायद तब मैं बहुत छोटा था। अब मुझे एहसास हुआ कि वे दरअसल जिंदगी को इस तरह से समझते थे कि उनका होना और उनकी जिंदगी दोनों एक हो जाएं। जीने का अर्थ उनके शब्दों और कर्म में छिपा था। मेरे सपने में वे जिस नरमाहट भरी दृढ़ता के साथ अपनी कह रहे थे- उसके पीछे उनकी अपनी आत्मा की आवाज थी।“

उसकी नींद उस बात की तह तक न जा सकी। पिता की जिद क्या थी? वह कभी समझ नहीं पाएगा।

मगर यह सपना उसे एक बिल्कुल नई वास्तविकता के करीब ले गया। उसे इस बात का एहसास हुआ कि कैसे कोई ‘न होने के बावजूद’ अपने अस्तित्व के एहसास को बनाए रख सकता है। "वह उसी तरह से हमारे आसपास मौजूद रहेगा जैसे अषाढ़ के काले घुमड़ते बादलों में पानी मौजूद होता है।" वैसे ही पिता थे। उसके स्वप्नों में विचरते। उसके आसपास। शरीर से नहीं। शब्दों से नहीं। आवाज से नहीं। अपनी गति से। अपने कर्म से। उनके कर्म ब्रह्मांड में दर्ज थे। घटनाओं के गणितीय संयोग में अतीत की फुसफुसाहट फिर सुनाई देती है। काल के अंतराल मिट जाते हैं। तारीखों से पर्दे उठ जाते हैं और पुरानी घटनाएं वर्तमान के मंच पर चहलकदमी करने लगती हैं। समय के बंधन से परे। वह कभी भी उनसे मिल सकता है।

और एक दिन वह अपनी कुर्सी से उठा और अगले ही कदम में पांच जनवरी 1978 की कुहरे से भरी सर्दियों में दाखिल हो गया। बाहर धुंध इकट्ठा होने लगी थी। सड़क पर कहीं रेडियो से फिल्मी धुन उठ रही थी। चालीस वाट के बल्ब की पीली मटमैली रोशनी में मां किचन में स्टोव को पंप करती नजर आतीं। तख्ते पर पड़े अखबार के पन्नों पर सिनेमा के बड़े-बड़े इश्तहार छपे थे। दरवाजे पर दस्तक हुई। उसने आंगन पार करके सांकल खोली तो पिता नजर आए। “आप कहां थे? आप न तो अपने आफिस में हैं और न ही अब मेरे घर पर नजर आते हैं। आखिर कहां छिपे-छिपे घूमते रहते हैं आप? मैं बड़ा हो चुका हूं। कितनी सारी बातें आपसे बताने के लिए हैं..."

वह आवेश में आकर उनसे जिरह करता है। आखिर बचपन से ही सोचता आया है कि बड़े होने पर पिता मिलेंगे तो ऐसे ही बात करूंगा।

पिता उसे ग़ौर से सुनते हैं मगर उससे बात नहीं करते हैं। पिता कभी भी उससे सपनों में बात नहीं करते। तब उसे बड़ी शिद्दत से यह अहसास हुआ कि सपने में दाखिल होने के बाद भी वह एक आउटसाइडर है। सपनों की दुनिया से उसका कभी सीधा रिश्ता नहीं बन सकेगा। वह सपने में दाखिल तो हो सकता है मगर कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। बस एक दर्शक की तरह देख सकता है। वह चीखेगा मगर उसकी चीख उन्हें कुहरे की तरह चीरते हुए कहीं गुम हो जाएगी। “मैं और पिता अंतरिक्ष में छिटके सितारों की तरह थे। एक-दूसरे को देख सकते थे मगर काल की गणना ने हमें हजारों प्रकाशवर्ष दूर फेंक दिया था।"

***

मां के कमरे में लटके कैलेंडर की तारीख कई दिनों से नहीं बदली है। खिड़कियों से आ रही तेज हवा से उसके पन्ने फड़फड़ा रहे थे। वह बीते कई दिनों से दफ्तर नहीं गया। मां एक हफ्ते से बुखार में है और वह अपने बंद कमरे के चम्पई अंधेरे में लगातार अपने अतीत से लड़ रहा है। कमरे की छत पर रोशनी से बनती-बिगड़ती छवियों को वह गौर से देखता रहता है।

सुबह होने वाली मगर बीते कई घंटों से छत पर रुक-रुककर कोई आहट हो रही है। शायद रात से मुंडेर पर बाघ टहल रहा है। वह खिड़की से झांकता है तो पाता है कि बाहर आंगन में पिता खड़े हैं। कुछ पलों बाद वे चुपचाप आंगन में बैठ जाते हैं और दीवार के पास रखी खुरपी उठाकर आंगन में बनी क्यारी की गुड़ाई शुरू कर देते हैं। वह खामोशी से अपने पिता को देखता रहता है। थोड़ी देर बाद भीतर मां के कमरे में जाता है। उनके बदन से आंच उठ रही है। उनकी आंखें बंद हैं और सांस तेजी से चल रही है। जब वे सांस छोड़ती हैं तो उनके गले से थीमी सी गुर्राहट सी निकलती है।

वह मां के सिरहाने बैठ गया। उसने मां का हाथ थामा। उनका हाथ बहुत हल्का लग रहा था। किसी सूखी हुई टहनी की तरह। सफेदी लिए गोरी रंगत पर ढेर सारी नसें उभरी हुई थीं। बाहर सुबह की बयार में कोई परिंदा चहचहा रहा था। मां ने खाली कमरे में बुखार में आंखें बंद किए-किए कुछ बुदबुदाया...। उनकी बंद आंखों के भीतर समय बीस साल पहले की तरफ घूम चुका था। जुलाई की वह सुबह रोज के मुकाबले कुछ ज्यादा अंधेरी थी। आसमान में फैले बादल उसकी मां के स्तनों की तरह भारी और डबडबाए हुए थे। मां ने अस्पताल के सुरमई उजाले में उसे पहली बार देखा था। उसकी काली आंखों और हाथ-पैर की पारदर्शी उंगलियों को। सीधे उनके गर्भ से बाहर आया एक धड़कता हुआ अलहदा अस्तित्व।

बाहर का दरवाजा खुला था। हवा के झोंके से कमरे के पर्दे हल्के-हल्के हिल रहे थे। भीतर घर में कहीं पानी टपकने की आवाज़ आ रही थी। उसने अपनी आंखें बंद कीं और पानी गिरने की आवाज को चुपचाप सुनता रहा। बंद पलकों के पीछे अंधेरे में दिन भर की जाने कितनी बातें बवंडर की तरह चक्कर खाती रहीं... और तब उसने मां को देखा। जैसे वे उसके बचपन में दिखती थीं। जवान, खूबसूरत और इत्मिनान से भरी। किसी शांत दोपहर में कच्ची दीवालों वाले घर की खिड़की से बाहर ताकती। उनके हाथों में एक डायरी थी, जिस पर वे किताबों में पसंद आ जाने वाली कविताएँ या शायरी बड़े धैर्य से बैठकर लिखती रहती थीं। वह उनके करीब गया। बाहर की बयार से पेड़ सरसरा रहे थे और मां के चेहरे पर ढलक आई लटें हल्के-हल्के हिल रही थीं। वे अपनी डायरी पर झुकी हुई थीं। उनके चेहरे पर एक उजाला ठहरा हुआ था। वह एक एकाग्र और अपने में तल्लीन चेहरा था। मां की यह छवि उनकी बाद की तमाम छवियों के भीतर कहीं खो गई। 

मन के भीतर एक के बाद एक दरवाजे खुलते चले जाते हैं। यही मां की वो छवि थी जिसको उसने असल जिंदगी में खो दिया था। मां खुद इस छवि को खो चुकी थीं। इसके बाद सपनों की एक अनवरत दौड़ थी उस खोई छवि को पाने की। 

उसकी आंखें खुल जाती हैं। मां बार-बार अपनी जुबान होठों पर फेर रही हैं। उनको पानी चाहिए। वह उनके पास से उठकर मेज के पास तक जाता है। “तुम हर दूसरे पल बदल जाते हो। समय तुम्हारे भीतर से होकर बह रहा है। मगर उस धारा में कुछ ऐसा है जो बदलता नहीं और स्वप्न की मृग-मरीचिका बन जाता है। तुम उसे हासिल करने के लिए अपने अवचेतन में दौड़ते रहते हो- मगर वह कभी हाथ नहीं लगता...”

वह मां के करीब आता है। उनकी पीठ पर अपनी बांह का सहारा देकर पानी का गिलास उनके होठों से लगा देता है। मां अपना गला थोड़ा सा तर करती हैं, फिर तकिए पर टेक लगा लेती हैं। वह उसकी तरफ इस तरह से देखती हैं जैसे पहचानने की कोशिश कर रही हों। ऐसा अक्सर उस वक्त होता है जब शरीर की तकलीफ उनकी बर्दाश्त करने की हद को पार करने लगती। “चिंता मत करिए आप ठीक हो जाएंगी...” उसने आहिस्ता से कहा।

“...फिर हम उस शहर चलेंगे जो दसो दिशाओं में फैला है। पेड़ की शाखाओं की तरह आसमान तक फैली उसकी सड़कें और मकान जगमगा रहे हैं। उसी शहर के किसी अनजान कोने में वह लड़की भी होगी- जो घनघोर बारिश के बीच किसी मकान के बरामदे में भीगती-ठिठुरती मिली थी। शायद वहां आपको पिता भी मिल जाएं... हो सकता है वे हमसे कभी न मिलें और शहर की अंधेरी गलियों में हमसे छिपते फिरें। वहां मैं आपसे एक बार फिर मिलुंगा। उस मां से जिसे मैं नहीं जानता। जो लकड़ी की संदूकची में बंद अपनी पुरानी चिट्ठियों जैसी रहस्य से भरी है।”

“वहां मैं खुद से भी मिलूंगा । किसी छत पर खड़ा दूर छितिज में उड़ती धूल को कौतुक से देखता...”

 
70   - 
धोबी का कुत्ता
[ जन्म: 8 जून 1972 ]
सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

हबीब धोबी का गदहा मलहुआ आज कूद कूद कर धोबिऔठा गा रहा था।

 कारण था हबीब के कुत्ते मंगरुआ का उदास और चेहरा उतरा होना ।

मलहुआ हबीब धोबी का तिजारती नुमाइंदा था जबकि मंगरुआ हठ आश्रयी परजीवी। मलहुआ अपने ओहदे के रसूख से भलीभांति वाकिफ था । दोनों एक ही तंग आश्रय के हुकूक के प्रतिस्पर्धी। पट्टीदार मंगरु की हालत पतली भांप कर मलहुआ आज ' मानवीय दृष्टि ' अपनाकर दो कौर बेबी खाया ।

             दरअसल हुआ यह था कि हबीब धोबी कुछ खरीदारी करने गोरखपुर निकल गए थे जो रोजाना बगैर नागा किए जब भी खाना खाते तो अपनी थाली से मंगरुआ के लिए ' कौरा' निकाल कर उसे खिलाते थे जो आज किसी कारणवश भूल गए थे। जब मंगरुआ बहुत छोटा था तबसे यह सिलसिला चलता आ रहा था।भोजन के बाद हबीब मंगरुआ के सिर पर हाथ फेर कर पुचकारते भी थे जिसपर मंगरुआ हबीब पर मोहब्बत की बरसात कर देता था और बस यही ' आग' थी जो मलहुआ गदहे को भीतर तक भून कर रख देती थी।

मोहब्बत की यही सौगात मलहुआ को बेचैन कर डालती थी । हबीब द्वारा मंगरुआ को दिया गया यह प्यार मलहुआ को फूटी आंख नहीं भाता था। आज न तो हबीब थे न ही कौरा न ही कोई पुचकार,,, लिहाजा उदास था मंगरुआ ।
        न क्षुधा तृप्त न मर्म स्पर्श , पलक लटकी हुई, चेहरा झुका हुआ, जीभ बाहर लटकी बेजार कांपती हुई,तेज चलती सांसों की धौंकनी न जाने किसका मुंह दिख गया था सुबह सुबह बेचारे मंगरुआ को ।

     घर पर हबीब की पत्नी और बेटा मंजूर दोनों मौजूद थे लेकिन उनकी दुनिया खुद तक ही सीमित थी। कुत्ते की खबर भला कौन रखता।

 मौका बढ़िया था,आज मलहुआ ने ठान लिया था कि बेटा मंगरु को उनकी औकात बता कर रहेगा।

देखने में तो मलहुआ भारी भरकम वजूद का मालिक था लेकिन लोग कहते हैं कि बड़ों का दिल अक्सर छोटा होता है।  मलहुआ भी था बिल्कुल ईर्ष्या का एवरेस्ट लेकिन दुनिया के समक्ष बिल्कुल कबीर पंथी विचार का झंडाबरदार बना फिरता था।

गीता के उपदेश सी कर्तव्य परायणता की मूर्ति बन सादगी का सफेद चोला ओढ़े रहता था। 

लगा सोचने,,,हुंह  आज लाऊंगा बेटा मंगरु को पहाड़ के नीचे। नियंत्रण के खतरे की लिहाज से भी बिल्कुल महफूज था मलहुआ ।

भोजपुरी में कहावत है कि ' जेकर डर से घरहीं नाहीं आ सांस नन्द के डर ही नाही '

पलखत पाते ही मंगरु को अर्दब में लेना शुरू कर दिया।

क्यों बे,,,, कुत्ते की जाती ,, हमसे पट्टीदारी ,,,आयं,, बहुत हबीब का दुलारा बना फिरता है,,मुंह देखा है कभी शीशे में।

दिन भर होंय होयं किया फिरता है मुंह बाए,,,फकीर कहीं का मालुम है,,,,? मालुम है क्या कहते हैं ये दुनिया वाले तुम्हारे बारे में,,,

कहते हैं कि धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का,,,अबे हैसियत क्या है तुम्हारी,,, हमसे चले हो बराबरी करने,,,
अरे पट्टीदारी करते हैं बराबरी वालों से । कहां तुम और कहां मैं।

 मंगरु पूरी घटना को विधि का विधान मानकर सहता रहा सबकुछ, बिल्कुल चुपचाप, यंत्रवत, वहीं खड़े।

यह देख मलहुआ ने एक रद्दा और चढ़ाया,,, अबे  मेरी तरफ क्या देखता है, रहता हूं शानदार टिनशेड में, दरवाजे पर फर्स्ट क्लास नाद , सखुआ की लकड़ी का खूंटा, उस पर लोहे का बांन, मुझसे चले हो बात करने। यह हमारे गले में देख रहे हो झुनझूने वाली हरी पट्टी,,,, अजमेर से लाए थे हबीब भाई हमारे लिए बिल्कुल ख़ास। सुबह हबीब खुद अपने हाथों हमारा नाद तैयार करते हैं   वह भी चोकर भूसा से एक दम पंच । हबीब बहू जो खुद हबीब को एक गिलास पानी देने से कतराती हैं अक्सर खुद मेरे लिए खेत से बाजरा काटकर लाती है। ठाठ से ब्रेकफास्ट करता हूं तब जाता हूं घाट पर। वहां भी एकाध गट्ठर कपड़े लेकर। गट्ठर उतार कर बिल्कुल फ्री हो जाता हूं और मस्ती करता हूं पोखरे के किनारे। घर लौटते ही डिनर और फिर चैन की नींद।

पर तेरा क्या,,,बोल बे,,ऐं  आवारा की तरह मुंह मारता फिरता है साला । प्रापर्टी के नाम पर यह एक फुटहा कटोरा ,,, दस दुआर घूमता रहता है फिर भी पेट नहीं भरता है साले का ,,, धोबी का कुत्ता साला ।

अब तक मंगरुआ सारी जलालत सुनता रहा, घुटता रहा लेकिन धोबी का कुत्ता और दस दुआर घूमने वाली बात उसकी पेशानी में गर्म छुरी की मानिंद पैवस्त हो गई और भूचाल मचाने लगी । दस दुआर,,,, दस दुआर,, काफी देर तक ये बातें जैसे उसके सिर पर हथौड़े का चोट कर रही थीं। वह लुटा -पिटा सा तक हार कर वहीं पास के भुसौले में जाकर लेट गया।

उधर लंच के बाद मलहुआ अपने पट्टीदार को चारों खाने चित करने वाला स्वीडिश ले मानो इंद्राशन का सुख पा गया था। मस्ती में कौरी करते ऊंघने लगा । तभी अचानक किसी गाड़ी की पों-पों से उसकी नींद उचट गई।

अरे इधर,, थोड़ा और पीछे,, थोड़ा और हां हां बिल्कुल सही यहीं रोक दीजिए।

आवाज़ हबीब की थी। मलहुआ ने थोड़ा उठ कर देखा ,,,आवाज़ तो हबीब की थी। गाड़ी से सफेद रंग की कोई मशीन उतारी जा रही थी।और गांव के बच्चे उसको चारों तरफ से घेरे खड़े थे।बगल से गुजरते हुए रामदरश बाबा ने पूछा,,, कैसी भींड लगी है हो हबीब कौनो बात है का और यह गाड़ी से क्या उतारा जा रहा है।

जिज्ञासा वश बाबा आगे बढ़े तो हबीब ने सलाम ठोकते हुए कहा  ई वाशिंग मशीन ह ए भाई,

अच्छा,,, केतना में पड़ा है

कसयां से ही लिए होंगे 

नहीं भाई  ऊ हमारे साढ़ू हैं न,, गोरखपुर वाले

हं  हं,,,

वहीं मशीन वाले दुकान पर काम करते हैं सेठ बहुत मानता है उनको वहीं से लिए हैं। अभी पूरा पैसा भी नहीं दिलाया है कहें हैं कि धीरे धीरे दो चार महीने में चुका देना।

आटोमेटिक मशीन है कम पानी में बढ़िया धुलाई करता है और सुखा कर निकालता है।अब घाट पर नहीं जाना पड़ेगा। घरवें सब काम हो जाएगा। आप तो सब जनबे करते हैं बाबा। अरे पोखरा सूख रहा है और मलिकइनियां हरमेशा बेमारे रहती है मंजुरवा साला दिन रात मोबाइल मे लगा रहता है अकेले जान अब ई सब सपर नहीं रहा है बाबा।

का कहा जाय आज कल के लौंडों को । अरे बाप कैसे रोटी जुटा रहा है इन सालों से कौनो मतलब नहीं है। अब मशीन लग जाएगा तो कुछ कमाई बढ़ेगी बाबा ।

तब तो रेटओ  शहर का लोगे,,, नाही बबा

अरे ओही में समझ लिया जाएगा पहिले लगे तो ।

नीम का खरिका करते फणीस भाई ने हबीब का समर्थन किया अरे महंगाई बढ़ रही है तो कुछ न कुछ तो बढबे करेगा ।

हबीब बोले, जान रहे हैं भाई, असल में मंजुरवा का विआह तय हो गया है

कहां रे,,,

पडरौना में, बपवा सरकारी ड्राइवर है त जब निमने घर की लड़की ले आएंगे तो इहवां का भी व्यवस्था ठीक रखना पड़ेगा न ।अब दुआर पर से ई गदहा ओदहा हटाना पड़ेगा।  तो क्या करोगे गदहवा का,,,,

करेंगे क्या कोई दे देता है हजार-पाच सौ तो दे देंगे नहीं तो हांक देंगे सरेह में। बुढा भी गया है।

अरे टिनशेड खाली हो जाएगा खूंटा हटा कर वहीं मशीन का फाउंडेशन बन जाएगा।

नरकटिया वाली दुकान है न जो चौराहे पर , उसी से सीमेंट और बालू बोल कर आए हैं भेजता ही होंगा। कल सुबह गुन्नू को लेकर कलाम मिस्त्री आएगा और आपके आशीर्वाद से फाउंडेशन बनाकर लग जाएगी मशीन।

     बतकही तो हबीब रामदरश बाबा और फंणीस भाई में चल रही थी लेकिन इसकी तासीर थोड़ी दूर भौचक खड़े मलहुआ और मंगरु पर दिख रहा था।

दोनों एक दूसरे को बेजा ही देखे चले जा रहे थे। मलहुआ के सपनों का टिनशेड,,, जैसे किसी तूफान में उडा चला जा रहा था। सपने क्षण भर में बिखर गए, गर्व उसकी आंखों के सामने ही चूर -चूर हो रहा था। पैरों तले जमीन थरथराने लगी। वह खूंटा उखाड़ा जा रहा था जिससे उसकी डोर हबीब से बंधी हुई थी।

अब क्या होगा,,,

मंगरुआ धीरे से हबीब के पैरों में समाकर दुम हिलाने लगा। मंगरु की नजर मलहुआ से मिली । मलहुआ को लगा जैसे मंगरु कह रहा हो कि हम तो धोबी के कुत्ते हैं भैया, दस दुआर भी घूम लेंगे लेकिन आपका क्या होगा। अब तक मंजूर अपनी कुदाल से खूंटा उखाड़ चुका था।


71   -

कुमार साहब और हंसी मुन्ना मस्तान की
[ जन्म : 30 अप्रैल 1973 ]
राजशेखर त्रिपाठी


(पिछड़ी हुई भाषा का समाज पिछड़ा होता है या उसकी दृष्टि, जल्दबाजी में जवाब जरा मुश्किल है। लेकिन हमारी हिन्दी तयशुदा तौर पर एक पिछड़ी हुई भाषा है। वरना ये न होता कि सितारों की जिस दुनिया के किस्से बयान करने में अंग्रेजी की कलमों के “कण्डोम” फट गए....हिंदी का कलमकार 'सिली सेंटीमेंट” तक ही सिमट कर रह जाता)


अरे! इस कुतिया को किसने बुलाया?

तुमने ?

हां, मैंने...शी इज माई गेस्ट डार्लिंग !

गेस्ट !!...लेकिन...

हृवाट लेकिन ?...शट योर लिप्स एंड केयर अबाउट योर लिपस्टिक...

शहर मुंबई के एक पांच सितारा होटल की टैरेस पर बस अभी-अभी रंग ला रही एक पार्टी में दो ढ़लती उमर की औरतों के बीच ये संवाद संभव हो रहा था । अमूमन फिल्‍मी पार्टियां इतनी शालीन और सलीकेदार नहीं होतीं लेकिन यह कोई एैसी-वैसी “महूरत” जैसी शाम नहीं थी । बीते दो-ढाई दशकों से हिन्दी सिनेमा के साम्राज्य पर शासन कर रहे सुपर स्टार अभीजीत कुमार के बेटे अभिजात को आज अपनी होने वाली दुल्हन को सगाई की अंगूठी पहनानी थी; हालांकि पहनना-पहनाना क्या, रिंग सेरेमनी तो महज एक बहाना थी... यार दोस्तों का मानना था कि इस बहाने एक फॉर्मल अनाउंसमेंट हो जाएगी । बहुत दिनों से अभिजीत कुमार ने कोई “गेट-टू-गेदरः भी नहीं की थी । जबकि इधर के दिनों में उनके रिश्तों का दायरा काफी बढ़ गया था। इस बात का अहसास उन्हें तब हुआ जब उनकी शरीक-ए-हयात ने मेहमानों की फेहरिश्त देख कर बताया कि छोटी-सी पार्टी में बुलाई जाने वाली गैर फिल्‍मी हस्तियों की तादाद ही सैकड़ों में जा रही है। मिसेज अभिजीत कुमार का मानना था कि ये गैर फिल्‍मी रिश्ते ज्यादा टिकाऊ और मतलब के हैं । इनमें राजनीतिक, उद्यमी और अफसर किस्म के लोग थे । बहरहाल, तमाम ऐंरे-गैरै फिल्म वालों को काट-छांट कर इन लोगों को ही तरजीह दी गई लिहाजा पार्टी का शोर कुछ ज्यादा ही था । इतना कि न्यूज चैनलों के चटक चेहरों वाले पत्रकार गनमाइक थामे “ओबी वैन्स' पर सवार होकर आ जुटे । एक चैनल ने तो “लाइव” प्रसारण के दौरान विश्लेषण का भी इंतजाम किया था। और इसके लिए खास तौर पर एक बंगाली समाजशास्त्री को बतौर गेस्ट आमंत्रित किया जो अपनी विवादास्पद टिप्पणियों से खुद को चर्चा में बनाए रखने के माहिर थे।

आम तौर पर पार्टियों से कन्नी काटने वाले अभिजीत कुमार को यह पार्टी एक खास रणनीति के तहत देनी पड़ी थी। उनका बेटा अभिजात दीगर स्टार पुत्रों की तरह मीडिया कवरेज नहीं पा रहा था । दूसरी ओर फिल्मों में बतौर एक्टर एंट्री से भी उसे परहेज था । वह कुछ करना तो चाहता था मगर क्या !? ये अभिजीत कुमार को भी नहीं पता था। लंदन के बिजनेस स्कूल से चार सालों में मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी कर वापस लौटते ही उसने शादी की फमाइश कर दी । बहरहाल तुरत-फुरत (बहुत सोच-समझ कर) मिसेज अभिजीत कुमार और उनके एक मैनेजर टाइप मित्र ने इस पार्टी का फैसला लिया । दोनों का मानना था और फिलहाल अभिजीत कुमार भी इससे सहमत थे कि मेलजोल और मीडिया कवरेज ही शायद लड़के को कोई दिशा दे।

टैरेस पर भीड़ नहीं थी, जगह काफी थी और नजारा खूबसूरत। होटल की पीठ पर समुंदर की लहरें थपेड़ें मार रही थीं, तो होटल के सामने भी एक छोटा-मोटा जनसमुद्र हिलोरें ले रहा था । तमाम मशक्कत के बाद भी खबरची केवल फोटो सेशन के लिए ही पार्टी में एंट्री पा सके, सो बाकी वक्त वो होटल के बाहर से ही प्रसारण को जीवंत बनाने में जुटे थे । लेकिन भीतर पार्टी में बेहद सुसंस्कृत किस्म की शांति थी । एल्टन जॉन और रोजर वॉटर की बजाए वहां प. विश्वमोहन भट्ट की मोहन वीणा के तार झनझना रहे थे । बाद में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई भी सुनाई पड़ने लगी । असल में पार्टी पर कुमार साहब के व्यक्तित्व का पूरा असर था । प्रचार को तरजीह न देना भी प्रचारित होने की एक रणनीति है । अभिजीत कुमार ने अपने पूरे करियर में इस फंडे पर अमल किया था , जैसा कि टीवी पर बंगाली समाजशास्त्री ने अभी-अभी बताया । लेकिन मीडिया ने इस पार्टी में अपनी जगह कुमार साहब के उन्हीं मैनेजर मित्र की मार्फत बनाई, जिन्होंने ये पार्टी आयोजित करने की सलाह दी थी । मीडिया को मैनेज करने में माहिर इन सज्जन की सलाह पर ही बाकायदा फोटो सेशन भी रखा गया । अभिजीत कुमार ने इस पार्टी की इजाजत ना-ना करते ही दी थी । फिल्मी शख्सियत होने के नाते वो पार्टियों के जिस चरित्र से परिचित थे वो उन्हें डराती थीं । लेकिन उनकी पत्नी और उनके दूसरे मैनेजर अभिजीत कुमार के व्यक्तित्व की गंभीरता से परिचित थे, लिहाजा अंत तक उन्हें बहुत-सी जानकारियां दी ही नहीं गईं । हालांकि इस पारिवारिक किस्म के आयोजन को वो अपने बंगले के लॉन पर ही निपटाना चाहते थे, और मिसेज कुमार होटल के टैंरेस पर पार्टी का प्रयोजन उन्हें लाख चाहकर भी नहीं समझा सकीं । आखिरकार उन्होंने अर्धागिंनी का वीटो इस्तेमाल करते हुए पार्टी होटल में कर ही डाली । अभिजीत कुमार एक दिन पहले तक शूटिंग में व्यस्त रहे, और थोड़े शर्मिंदा भी । क्योंकि जिस फिल्म की शूटिंग में वे व्यस्त थे उसका प्रोड्यूसर-डायरेक्टर तक पार्टी में आमंत्रित नहीं था, और पार्टी का शोर पूरी इंडस्ट्री में था  । इसीलिए उस दिन उनका शूटिंग पर जाने का मन भी नहीं हो रहा था, लेकिन मिसेज कुमार उन्हें पार्टी की तैयारियों से इस कदर काटे हुए थीं कि उन्होंने शूटिंग पर जाने में ही भलाई समझी । जाते-जाते उन्होंने बेटे से जरूर हाय-हैलो की मगर वह भी अपने पार्टी वियर्स में इस कदर बिजी था कि मामला 'हलो यंग मैन” और “हाय डैड”' तक ही सिमट कर रह गया । पार्टी में रह-रह कर अपने कम हो चुके बालों से माथा ढकते अभिजीत कुमार हर शख्स से यूं चौंक कर मिल रहे थे गोया उससे राह चलते मुलाकात हो रही हो, पार्टी में बुलाया न गया हो । वो असहज होते-होते ये सोचकर सहज हो जाते थे कि आखिर पार्टी उन्होंने ही दी है । सगाई उन्हीं के बेटे की हो रही है । वो तत्काल फिर मेहमानों से हाथ मिलाने में व्यस्त हो जाते । अभिजीत कुमार “टी-टोटलर” नहीं थे मगर पार्टियों में ड्रिंक्स को हाथ नहीं लगाते थे । जैसा कि बंगाली समाजशास्त्री ने टीवी पर बताया कि ये अभिजीत कुमार की एक और 'स्ट्रेटेजी’ है । एक दौर में ऐसी खबरें जनता में उनके नायकत्व की आभा को कई गुना बढ़ा देती थीं।
बहरहाल अभिजीत कुमार चूंकि पार्टियों में ड्रिंक्स नहीं लेते थे, इसलिए वो उस वक्त ड्रिंक्स कॉर्नर पर भी नहीं थे । अगर होते तो शायद मिसेज कुमार को उनकी भी सवालिया नजरों का सामना करना पड़ता । दरअसल बात उस सवाल की हो रही है जो अभिजीत कुमार के सगे छोटे भाई की बीवी ने अपनी सगी मौसेरी बहन यानि मिसेज कुमार से ड्रिंक्स कॉर्नर पर चकित स्वर में पूछा था । मिसेज कुमार जानती थीं कि ब्लडी मेरी के तीन पेग पीने के बाद इस लड़की को कुछ ख्याल नहीं रहता (हालांकि मिसेज कुमार उन्हें लाड़ से ही लड़की कहती थीं वर्ना थीं वो पैंतालीस के लपेटे में) । उन्हें मेहमान के लिए कुतिया सुनकर उतना बुरा नहीं लगा ; बल्कि गालियां तो उस औरत को वो कभी भी इससे ज्यादा देना चाहती हैं । लेकिन पीने के बाद अपनी बहन का बिगड़ता चेहरा उन्हें भद्दा लग रहा था । डर भी था कि वो पीकर कोई भद्दगी न कर बैठे, इसलिए उसे बरजना भी जरूरी था । लेकिन ये महिला मेहमान थी ही इनती खास की सारी निगाहें यक-ब-यक उधर ही उठ गईं । इस बार अभिजीत कुमार चाह कर भी सहज न रह सके । वो उस वक्त अपने एक जमाने के जिगरी फिल्मी दोस्त के साथ खड़े थे, जो अब सियासत में छलांग लगा कर बाकायदा केंद्र सरकार में डिप्टी मिनिस्टर की कुर्सी कमा चुक थे । ये एंट्री मंत्री महोदय को भी चौंका रही थी, लेकिन अब चूंकि वो अपने भाव छिपाने में माहिर हो चुके थे, सो बोले कुछ नहीं....हां, मुस्कान जरूर थोड़ी अर्थपूर्ण हो गई । असहज अभिजीत कुमार ने अचानक एक वेटर को कंधे से पकड़ कर अपनी ओर घुमाया और स्कॉच का एक बड़ा पैग एक झटके में आधे से ज्यादा गटक गए । उनका ये असहज होना मंत्री मित्र से छुपा न रह सका । अभिजीत कुमार के कंधे पर हाथ मार कर उन्होंने कहा,

“वाह जनाब ! ये हुई न बात...इसे कहते हैं जश्न । भई बेटे की सगाई का जश्न है आज तो पिएंगे ही । लाओ भाई...एक और दो।”

ये कहते हुए उन्होंने ट्रे से एक साथ दो गिलास उठाए । एक अभिजीत कुमार के नकारते हाथों में थमाया और दूसरा खुद थामा । मंत्री मित्र का सुर इतना ऊंचा था कि कई और मेहमान करीब खिसक आए । मंत्री जी ने खुद अभिजीत कुमार का हाथ थाम कर चियर्स भी कर डाला और गिलास आधे से ज्यादा खाली भी, मगर कुमार साहब का गिलास एक चियर्स सिप के बाद उनके हाथों में ही झूल रहा था । साफ नजर आ रहा था कि वो जबरिया मुस्करा रहे हैं । कुछ यूं कि जैसे किसी ने भरी भीड़ में पीछे से आकर रंग लगा दिया हो । वो गिलास कहीं रख देना चाहते थे, पर फिलहाल ऐसा करना मेहमान नवाजी की एथिक्स के खिलाफ था । गिलास बेमन से उनकी उंगलियों में फंसा लटका था और एक बेजान-सी मुस्कान उनके चेहरे पर।

(हालांकि जानकर उनकी इस मुस्कान की सेलेबिल्टी के कायल थे । ये मुस्कान उन्होंने खासतौर पर एक फिल्म के लिए मशहूर माफिया डॉन मुन्ना मस्तान से उधार मांगी थी। बताते हैं कि मस्तान की हंसी कभी होठों से आगे नहीं बढ़ती थी। अभिजीत कुमार ने ये मुस्कान हमेशा के लिए अपने पास रख ली और जब-तक इसका इस्तेमाल जरूरत के मुताबिक करते थे)

इससे पहले कि आप कह दें कि कहानी पूरी फिल्‍मी हैं ये रहस्य तोड़ना बेहद जरूरी है कि पार्टी में थोड़ी देर पहले नमूदार हुई ये रहस्यमय महिला कौन थी। दरअसल ये बताने के लिए थोड़ा 'डिटेल” में जाने की जरूरत होगी, डिटेल यानि अभिजीत कुमार का थोड़-सा बैकग्राउंडर बांधना होगा। ये आजादी के बाद के मोहभंग और समाजवादी आंदोलनों के रुझान का दौर था। अभिजीत कुमार के पिता मुंबई में एक प्रतिष्ठित हिंदी पत्रिका के संपादक हुआ करते थे, और मिसेज कुमार के पिता उन दिनों विपक्ष के नेता थे। दोनों में गहरी छनती थी। करियर को लेकर अभिजीत कुमार भी खासे कनफ्यूज हुआ करते थे। ऐसे में फिल्मों में आने की उनकी पृष्ठभूमि पिता ने अपने कठिन प्रयास और सहज संपर्कों की बदौलत रची। लेकिन “दब्बू” अभिजीत कुमार फिल्मों में आकर भी “बद्दू” बन गए थे। एक के बाद एक कई फिल्में फ्लॉप हो गईं । एक दिन संपादक महोदय ने अपनी पत्रिका में कुंडली का कॉलम लिखने वाले ज्योतिषी को पुत्र की कुंडली दिखाई तो उन्होंने तत्काल उसका विवाह करने की पुख्ता सलाह दी । अब संयोग देखिए कि जब ये सलाह दी जा रही थी तो उसी वक्त मिसेज अभिजीत कुमार के पिता संपादक महोदय के कमरे के बाहर पायदान पर धोती उठाए जूता रगड़ रहे थे। उनकी उपस्थिति सिर्फ संयोग थी,लेकिन इसने एक और संयोग को जन्म दिया और जज्ञाकारी पुत्र ने पिता की आज्ञा मानकर उसी तरह विवाह मंडप में प्रवेश किया, जिस तरह फिल्मों में प्रवेश कर लिया था। लेकिन इस विवाह के बाद एक अद्भुत चमत्कार घटित हुआ । उनका लड़खड़ाता हुआ करियर अचानक किसी अदृश्य ताकत ने थाम लिया। हालांकि कुछ दुष्प्रचरी अचानक उनके ससुर के सत्ता में आने को भी इसका एक कारण बताते हैं। लेकिन सत्ता संपर्क एक आध फिल्में दिला सकते हैं, किसी अभिनेता को ट्रैंड सेटर नहीं बना सकते । ज्योतिषियों की गदगद भाषा का सहारा लें तो अभिजीत कुमार भार्या भाग्य से एकाएक फिल्म उद्योग के शिखर पर जा बैठे ।

अभिजीत कुमार का शर्मीलापन , कम बोलना, थोड़ा गुस्सा और बड़बोली भीड़ में ठंड़ी खामोशी अचानक उस दौर की फिल्मों का एक ट्रेंड बन गया। निर्माता अभिजीत कुमार की काम के प्रति ईमानदारी से बहुत खुश रहते थे । वो धीरे-धीरे सुपर सितारा बनने के करीब थे, लेकिन दुखद पक्ष ये था कि अब तक किसी हिरोइन के साथ उनकी जोड़ी ही नहीं बन पा रही थी । अभिजीत कुमार का विवाहित होना भी इसमें आड़े आ रहा था । वो किसी हिरोइन के साथ बदनाम ही नहीं हो पा रहे थे कि उससे ही उनकी जोड़ी बना दी जाती । ऐसे में अचानक एक दिन एक खस्ताहाल निर्माता ने अपनी डूबती नैया और मिसेज कुमार के पिता के साथ अपने पुराने संबंधों का हवाला देकर उनसे एक फिल्म कर लेने की गुजारिश की । अभिजीत कुमार शायद ये याचना स्वीकार भी कर लेते मगर फिल्मों का हिसाब-किताब तो मिसेज कुमार ही रखती थीं । वह कीमत से समझौते को कतई तैयार नहीं थी, बल्कि हर सुविधा मसलन थोक में डेट्स वगैरह देने के लिए वो राजी हो गईं । मरता क्या न करता, निर्माता तैयार हुआ मगर हिरोइन उसने एकदम नई रखी । ये एक ऐसी बंगाली लड़की थी जो एक आध बांग्ला आर्ट फिल्में करके बंबई आई थी । स्क्रीन टेस्ट के बहाने निर्माता उसे थोड़ा सहला-टहला भी चुका था। दिक्कत ये थी कि लड़की को हिंदी बोलनी ही नहीं आती थी....लेकिन फिल्म तो बनानी ही थी । काम शुरु हुआ, निर्माता ने डेट्स थोक में हासिल की थीं सो पूरे डेढ़ महीने शूटिंग चलती रही। शुरु-शुरु में तो अभिजीत कुमार शोंट्स के अलावा लड़की पर ध्यान भी नहीं देते थे। लेकिन बाद में उसकी हास्यास्पद हिंदी ने अभिजीत कुमार का ध्यान उसकी ओर खींचा। इनडोर शूटिंग के उबाऊ माहौल में उसका गोल-गोल होठों से अशुद्ध उच्चारण उन्हें मजेदार लगा। कुमार साहब लड़की की एक-आध गलतियों पर ठहाका भी लगा बैठे। लड़की रुआंसी हो गई तो बाद में उन्होंने उसे ढाढस भी बंधाया। थोड़ा खुलापन आया तो लडत्की हिम्मत करके उनसे एक आध शब्दों के मायने और हिंदी उच्चारण भी पूछ बैठी। अब इस बीच कब अभिजीत कुमार उस लड़की के हिंदी ट्यूटर बन बैठे उन्हें खुद भी पता न चला। लेकिन शूटिंग के दौरान अभिजीत कुमार और नई तारिका झुम्पा घोष की बढ़ी नजदीकियों पर यूनिट गौर करने लगी... और अचानक एक दिन जब फिल्म एकदम पूरी होने को थी अभिजीत कुमार और झुम्पा घोष की एक ऐसी तस्वीर मार्केट में आई जिसका संकेत साफ था।

“कुमार इन लव विथ ए बोंग”

अभिजीत कुमार ने कभी प्यार नहीं किया था इसलिए इश्क में रुसवाई क्या होती है इसका अंदाजा उन्हें नहीं था । इश्क में रुसवाई जमाने में क्‍या रंग लाती है इसका अंदाजा तो सबको है मगर फिल्मों की दुनिया शायद इस जमाने से बाहर है, और शायद तभी उसे सितारों की दुनिया का दर्जा भी मिला है। फिल्‍मी दुनिया में इतनी बड़ी जगह बना लेने के बाद भी अभिजीत कुमार इस दुनिया के तौर तरीकों से कितने नावाकिफ थे, इसका अंदाजा इसी बात लगाया जा सकता है कि यह तस्वीर और उसके साथ छपी खबर देखते ही उन्होंने पत्रिका के संपादक को शुद्ध हिंदी में तकरीबन 50 गालियां दीं। अपने संपादक पुत्र होने का हवाला देते हुए उन्होंने संपादक को पत्रकारिता के एथिक्स भी समझाने चाहे । लेकिन बदले में उस संपादक ने उन्हें यह अहसास कराया कि भले ही उनके पिता एक जमाने की "मोस्ट सर्कुलेटेड” मैगजीन के संपादक थे, लेकिन थे तो हिंदी वाले ही । हिंदी हलके की एथिक्स अंग्रेजी से अलग होती हैं । बाद में बेहद शालीन ढंग से उसने कुमार साहब को यह सलाह दी भी दी कि उस जैसे जर्नलिस्ट को एथिक्स समझाने की नादानियां अभिजीत कुमार को महंगी पड़ सकती हैं । उसका कहना था कि हमारा कुछ न बोलना ही आपको महंगा पड़ेगा  मिस्टर कुमार ! अभिजीत कुमार ने झल्लाकर फोन पटक दिया, लेकिन वो अभी इस शर्मनाक स्थिति का सामना करने की सोचते इससे पहले ही फोन बज उठा । इस बार उसी संपादक की ओर से किसी महिला का फोन था । संपादक उनसे सीधे उनसे मुखातिब नहीं होना चाहता था, सो उसने महिला को मीडिया बनाया । वह महिला पूरी विनम्रता के साथ उनसे पूछ रही थी कि “क्या हम अपने लेटेस्ट एडीशन में जो बस निकलने-निकलने ही वाला है....इस गाली-गलौच पर एक पेज दे दें...इफ यू डोंट माइंड! 
अभिजीत कुमार इस बार झल्लाने से ज्यादा चकरा से गए और दोबारा फोन पटक कर उन्होंने अपना माथा पकड़ लिया । अगले ही दिन से फिल्म की डबिंग शुरु होनी थी । खुद अभिजीत कुमार ने जोर देकर निर्माता को झुंपा घोषा की डबिंग किसी और से कराने को रोका था। उन्होंने बाकायदा तर्क भी दिया था कि इस आवाज का बंगाली असर फिल्म को एकदम नया ही 'फ्लेवर' देगा। लेकिन अब हाल ये था कि उनकी घर से बाहर कदम रखने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वो देर रात घर लौटी मिसेज कुमार का सामना करने से भी कतरा रहे थे । लेकिन फोन अचानक फिर बज उठा और  कुमार साहब फिर चौंक पड़े । इस बार फोन मिसेज कुमार ने उठाया। फोन पर दूसरी ओर झुम्पा घोष थी और उसने अपने परिचित अंदाज में मिसेज कुमार से बात शुरू की।

-आमी बोलची दीदी भाय

-हां! हां! झुम्पा बोले...

-केमोन आछेन...कायसी हांय?

-ठीक हूं.....और बताओ....शूटिंग तो पूरी हो गई न....कुमार साब जग गए हैं। मैं बोलती हूं उनको....

कुमार साहब पत्नी को इस तरह सामान्य देखकर चकित थे, लेकिन झुम्पा से बात करने के लिए खुद उनको सामान्य होना पड़ रहा था। फोन थामते हुए अपनी धीर-गंभीर आवाज में उन्होंने सिर्फ इतना कहा....हूं।

कोथाया आछेन....सॉरी....अब भी आदत हाय छूटता नहीं हाय..-कोब आएंगे। मैं थोड़ा पहले रिअस्सल करूंगी...

- हूँ....आता हूं...बट झुम्पा यार मुझे सॉरी बोलना था... मैं समझ नहीं पा रहा किस तरह फेस करूं तुमको...ये साल तो उल्टा-पुल्टा छापते ही रहते हैं।

- आओ हां केमोन बाजे कोथा...कितना गान्दा पाब्लिश किया....बुरा तो हमको भी लगा...किंतु कोरबो की...एई बाटली वाला तो बोलछे कि भालो स्टोरी...फिल्म को माइलेज मिलेगा...शेटाई आमी साइलेंट बोशेछी...आपको बहुत बुरा लगा हाय न...हमको मालुम था।

- मालूम था।

- हैं आमी बूझे छी...आपनार मूड चीन्हे छी...एई तो बोलछेन दीदीभाय..

- हामको आपका बारे में उनसे बेशी पता है...। आच्छा चले एशो ताड़ा-ताड़ी।

झुम्पा घोष, इसके बाद चुप हो गई। उसके बोलने में मासूमियत भी थी, और एक मुस्कान भी। अभीजीत कुमार को यह अजीब लगा कि वह उनको एक डेढ़ महीने के भीतर ही दीदीभाय-यानि उनकी पत्नी से ज्यादा जानने का दावा कर रही है। और यह भी कि मूलतः यह दावा उनकी पत्नी के ही किसी स्टेटमेंट पर आधारित था। फिर अचानक बीते एक महीने की शूटिंग के दौरान उन्हें झुम्पा घोष के साथ बिताए एक-एक क्षण की याद आयी। उन्हें यह भी याद आया कि कैसे सेट पर बाद में उन्हें घर में आने वाले फोन भी झुम्पा ही रिसीव कर लेती थी, और ये भी कि “दीदीभाय” के तमाम संदेश भी 'एई-शेई” करके झुम्पा ही उन्हें बताती थी। वह इन दृश्यों को एक क्रम में सजाने का प्रयास कर ही रहे थे कि मिसेज कुमार लगभग आंधी की तरह कमरे में घुसीं। लड़का पैदा होने के बाद नाइट गाउन में वो इतनी “फद्दड़” लगती थीं कि बाज दफा अभिजीत कुमार उन्हें देखना भी नहीं चाहते थे। लेकिन जितनी रफ्तार से वो धमकीं कुमार साहब को उन्हें देखना ही पड़ा...

-कुमार! ये रायजादा से कया हुआ....??

-कुछ अचंभे और लगभग उतनी ही परेशानी में पड़ी मिसेज कुमार ने पूछा। जवाब में अभिजीत कुमार दांत पीस कर इतना ही बोल पाए थे कि ‘ही ब्लडी'...

मिसेज कुमार ने बीच में छलांग मारी
“कुमार कूल डाउन प्लीज ! ये फिल्‍मी मैगजीन्स हैं...क्या मैं नहीं जानती कि इनमें सिर्फ गॉसिप छपते हैं। अरे परेशान तो मुझे होना चाहिए। आखिर मैं ठहरी एक बेसहारा अबला औरत....हू इज फॉर मी ऑफ्टर यू डार्लिंग !”

आखिरी लाइनों में जरा-सी हंसी दुलार जरा-सा वाला अंदाज था। इस अंदाज से अक्सर और कहें तो शादी के बाद से ही कुमार साहब असहज-सा महसूस करने लगते थे। मुश्किल ये कि ऐसे दुलार का इजहार करते हुए मिसेज कुमार कई बार उनके घुटनों पर चढ़ बैठती थीं, और गरदन को जकड़ने की हद तक अपनी बाहों में लपेट लेती थीं । कुमार साहब इस जकड़न और घुटन से बचने के लिए जल्दी-जल्दी उनकी बात मान लेने का नाटक करने लगते थे । उस वक्त भी वे शांत हो गए और मिसेज कुमार की ये बात सुनकर भी शांत ही रहे...

मैं मानती हूं कुमार ये यलो जर्नलिज्म है। इसीलिए मैंने रायजादा से कहा कि वो आपके रिएक्शन भी छापे । रायजादा को अपनी गलती का अहसास है । अगले एडीशन में ये खबर भी होगी कि अभीजीत कुमार ने इस खबर के लिए रायजादा को खरी-खोटी सुनाई। थोड़ा मिर्च-मसाला लगाए तो भी चलता है। हम कोई पॉलिटीशियन नहीं हैं....हमारे लिए पब्लिक का "माइंडसेट” जरूरी है...कोई 'मैंडेट’ थोड़ी चाहिए।

लेकिन लव स्टोरी कहें य गॉसिप इस प्रसंग का अंत आने वाले दिनों में भी नहीं हुआ, बल्कि कहें तो अभिजीत कुमार की इच्छा के विपरीत उसे हवा दी जाती रही। हार कर अभिजीत कुमार ने उधर से आंख ही बंद कर ली। सुना तो ये भी जाता है कि इस बीच मिसेज कुमार ने निर्माताओं पर झुंपा घोष को ही बतौर हिरोइन साइन करने का दबाव भी बनाया। कुमार साहब की जोड़ीदार बनने से झुम्पा का मार्केट रेट भी काफी ऊंचा उठ गया था। भाषा संबंधी उसकी दिक्‍कतें भी दूर हो चुकी थीं, जिस पर अभिजीत कुमार की बेहतर हिंदी का असर साफ था।

मगर इस बीच ये कहानी कब गॉसिप का चोला उतार कर हकीकत में बदल गई मिसेज अभिजीत कुमार को भी पता नहीं चला। उन्हें अपने हाथ की लगाम पर पूरा भरोसा था लेकिन जब तक वो सतर्क हुई उन्हें लगा कि जैसे वो अपने हाथों पर से ही भरोसा खो देंगी। जिस झुम्पा घोष को उन्होंने छोटी बहन जैसा प्यार दिया। भोले-भाले और अपने प्रति बेहद लापरवाह कुमार साहब की छोटी-छोटी जरूरतों की जानकारी उसे दी, हर फिल्म में उसे कुमार साहब की हिरोइन बनवाया, अमूमन कुमार साहब की फिल्मों में हिरोइन के लिए करने को कुछ बचता ही नहीं था फिर भी उसके रोल बढ़वाए...वो झुम्पा घोष उनके साथ ऐसा घात करेगी!!! मिसेज कुमार ने सपने में भी नहीं सोचा था। हालांकि इस तनाव में भी मिसेज कुमार ने संयम नहीं खोया। जब सारी इंडस्ट्री चटखारे लेकर इस किस्से को बयान कर रही थी, और चटखारों के लिए पर्याप्त चाशनी भी मौजूद थी अचानक मिसेज कुमार एक दिन घर से बिना किसी पूर्व घोषणा के बेटे को साथ लेकर निकल गईं। जाते-जाते बेडरूम की कॉर्नर टेबल पर सवा लाइनों का एक संदेश छोड़ा....

“मैं जा रही हूं कुमार....तुम्हारी सुविधा के लिए....हमेशा तुम्हारी”
खत कहीं उड़ न जाए इसके लिए उन्होंने बतौर पेपर वेट अपने बच्चे का सबसे प्यारा खिलौना इस्तेमाल किया...वो खिलौना जो झुम्पा मासी ने उसे दिया था.... उसके जन्म दिन पर...


(अब आते हैं सन 1984 के खबरों से गर्म गुलाबी जाड़ों के दिन, जब देश को पता चला कि एक प्रधानमंत्री के जान की कीमत देश के चार हजार मासूम, निहत्थे और असुरक्षित नागरिकों की जान की कीमत के बराबर होती है। और ये कि बिना मां का बच्चा देश का सबसे बड़ा डेमोक्रेट हो सकता है। जब जाड़ा थोड़ा और बढ़ा तो देश की तीन चौथाई आबादी को भोपाल गैस कांड के बाद पहली बार पता चला कि बहुराष्ट्रीय कंपनी क्‍या होती है )

ये सारी बातें अखबारों और पत्रिकाओं के जरिए ही नहीं अब टीवी के जरिए भी पता चल रही थीं, कि तभी हिन्दी-अंग्रेजी में समान रूप से मशहूर एक फिल्म पत्रिका ने हरिद्वार से लाई एक एक्सूलिव खबर में सचित्र बताया कि सुपर स्टार अभिजीत कुमार की पत्नी इन दिनों अपने वृद्ध और सन्यस्थ ससुर की सेवा में लगी हैं। खबर में बताया गया था कि
 “...इन दिनों लगभग साध्वियों सा सादा जीवन जी रहीं मिसेज अभिजीत कुमार अपने वृद्ध और बीमार ससुर की सेवा में लगी हैं। कभी हिंदी की मोस्ट सर्कुलेटेड मैगजीन के संपादक रहे अभिजीत कुमार के पिता इन दिनों अपना वक्त एक विश्व प्रसिद्ध धार्मिक प्रकाशन के लिए राधा माधव चरित्र लिखने में बिता रहे हैं । मिसेज कुमार सुबह के स्नान-ध्यान से लौट कर उनका दोनों वक्त का भोजन अपने हाथों से बनाती हैं। बाकी के वक्त में वो पुस्तक के हस्तलिखित पन्‍नों को सहेजती समेटती हैं...आदि-इत्यादि...” 

संवाददाता ने यह भी लिखा कि मिसेज कुमार ने मीडिया के लिए अपने दरवाजे कस कर बंद कर रखे हैं। लेकिन एक दिन हर की पैड़ी से पैदल लौटती मिसेज कुमार को इस पत्रकार ने रास्ते में घेर ही लिया तो उन्होंने सिर्फ इतना कह कर होंठ सी लिए कि 

“बंबई से ज्यादा जरूरी मेरे लिए हरिद्वार हैं...पापा जी के आशीर्वाद और उनकी सेवा में ही मेरा स्वर्ग है”

अभिजीत कुमार के बारे में लाख पूछने पर भी उन्होंने मुंह नहीं खोला और तेज कदमों से निकल गईं। ये खबर उन दिनों ऊपर बताई गई राष्ट्रीय खबरों के साथ ही और तकरीबन उसी वजन से चर्चा में थी ।

 ये अजब दुर्योग था कि जिन अभिजीत कुमार की वजह से उनकी पत्नी, पिता, परिवार और उनकी प्रेमिका सब चर्चा में थे, उनकी एक के बाद एक आई तीन फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बुरी तरह पिट गईं। इंडस्ट्री में हड़कंप मच गया और कुमार साहब बुरी तरह डिप्रेशन के शिकार हो गए। चंद रोज में ही हालात इतने बिगड़े कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और उनके अस्पताल में भर्ती होने की खबर इस खबर के साथ ही समाचार पत्रों में टॉप बॉक्स बनी कि 

अभिजीत कुमार की पत्नी हरिद्वार से मुंबई लौट आई हैं। साथ ही उनके ससुर यानि अभिजीत कुमार के पिता भी लौटे जो जाने कब से वानप्रस्थ आश्रम में हैं ये सिर्फ विकट व्यामोह था जो उन्हें खींच लाया था या मिसेज कुमार उन्हें ले आयीं। कहना कठिन है। बहरहाल मिसेज कुमार की सेवा, समर्पण और त्याग ने रंग दिखाया और सुपर स्टार अभिजीत कुमार एक दिन हाथ हिलाते , अस्पताल के झरोखे से प्रशंसकों की भीड़ के आगे नमूदार हुए । 

झुम्पा घोष इस बीच कहां थी ? ये किसी को पता नहीं था । एक मराठी सांध्य दैनिक के अपराध संवाददाता की सूचना पर गौर करें (जो सच्ची भी हो सकती है) तो उसे बंबई के पुलिस कमिश्नर ने वहां जाने से रोका था । पुलिस कमिश्नर का स्वर आदेशात्मक था, उसका कहना था कि झुम्पा घोष अगर वहां गईं तो प्रशंसकों की भारी भीड़ जो वहां हर वक्त जुटी रहती है हंगामा खड़ा कर सकती है । लोग उस पर जानलेवा हमला कर सकते हैं । अस्पताल से लौटकर पूरे एक महीने अभिजीत कुमार ने घर पर ही आराम किया। 

डॉक्टरों के मुताबिक लगातार कई फिल्मों में काम का तनाव उनकी बिगड़ी सेहत की मूल वजह था । डॉक्टरों ने उन्हें ‘कंप्लीट बेड रेस्ट’ और ‘टोटल रिलैक्सेशन’ की सलाह दी थी। इसी ‘रेस्ट’ और ‘रिलैक्सेशन’ के दौरान एक शाम अभिजीत कुमार उकता कर अपने पिता के कमरे में चले गए । पिता शाम की सैर पर निकले थे और उनके बिस्तर पर उनके लिखे पन्ने फड़फड़ा रहे थे । अभिजीत कुमार इन पन्नों को उलट-पलट ही रहे थे कि पिता वापस लौट आए । मुस्कुराते हुए उन्होंने अभिजीत कुमार से पूछा-
- क्या देख रहे हो कुमार?
अचकचाए से अभिजीत कुमार ने किसी अबोध बच्चे की तरह हाथ में उठाए पन्ने उनकी ओर बढ़ा दिए, बोले कुछ भी नहीं । वह सुपर स्टार थे, दुनिया उनका हर नखरा उठाने को तैयार थी लेकिन अपने पिता के सामने हर बार वे उतने ही बड़े होते थे, जितना कि होश संभालने से पहले थे ।

“अच्छा...राधा-माधव चरित्र...देखो-देखो... कुछ कहो भी । तुम्हें तो हमेशा से मेरे लिखे में रुचि थी।”

हरिद्वार जाने के बाद से उनकी आवाज में सचमुच संतो सी निर्मलता आ गई थी। सम्मोहन बढ़ गया था । कुमार साहब ने भी गौर किया, लेकिन वे कुछ खास बोल पाने की स्थिति में नहीं थे । बस इतना ही कह सके

“कहूं क्या...? ये तो अभी अधूरा है।”

“हां...अधूरा तो है...लेकिन बहुत कुछ अधूरा है । ये जीवन ही अधूरेपन का नाम है। राधा भी अधूरी हैं....माधव भी अधूरे हैं...दोनों एक-दूसरे के बगैर अधूरे हैं। लेकिन ये भी तो देखो कि राधा सिर्फ माधव की प्रेरक शक्ति हैं...उससे ज्यादा कुछ नहीं। माधव सिर्फ उनसे अपनी पूर्णता का संयोग करते हैं..लेकिन बस यहीं तक। जानते हो न...राधा उनकी जीवन संगिनी नहीं थीं”

कुमार साहब तल्लीनता के साथ अपने पिता को सुन रहे थे । उनकी आंखें पिता के पूरे व्यक्तित्व में डूब गई थीं । वो कहीं कुछ टटोल-तलाश रहे थे । उन्हें लग रहा था इस राधा-माधव आख्यान की तरह पिता जी की बात भी अधूरी है। लेकिन उनके पिता एक सिद्ध हस्त संपादक थे । उनका कोई भी संपादकीय कभी अधूरा, अपूर्ण, असंतुलित, असामयिक और बे-वजह नहीं होता था। अचानक उन्होंने पट परिवर्तन किया...

“कुमार ! तुम्हारी पत्नी सिर्फ तुम्हारी पत्नी नहीं, तुम्हारा भाग्य भी है । मैं जानता हूं कि तुम्हारे जीवन में वो तुम्हारी इच्छा से नहीं आई थी, लेकिन मेरी इच्छा से भी वो बहुत सोच-समझ कर लाई गई थी । ये बात तो तुमको पता है...और देखो उसका जरा-सा असंतोष...सब कुछ हिल-सा गया है । मैं जानता हूं तुम मेरी इच्छा का आदर करते हो...। लेकिन इस बार बिना किसी दबाव के तुम खुद विचार करो कुमार...जहां आज तुम हो वहां तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारा नहीं है। ठीक उसी तरह जैसे तुम्हारी कोई फिल्म सिर्फ तुम्हारी नहीं होती...उसमें एक बड़ा समाज, ढेर-सा मानव संसाधन भी सक्रिय होता है….रात होने लगी है अब जाओ और अपने कमरे में आराम करो...हां मन शांत हो और पहले से स्वस्थ अनुभव कर रहे हो तो मैं अब कुछ दिनों में प्रस्थान की सोचता हूं।”

पिता की इच्छा का सपने में भी अनादर न करने वाले अभिजीत कुमार को उस रात पिता के आदेश के बावजूद नींद नहीं आई । वो हर रात झुम्पा घोष से थोड़ी देर के लिए ही सही बात कर लेते थे, लेकिन उस रात वो जाने किस द्वंद में फंसे थे कि उन्हें फोन छूते हुए भी डर लग रहा था । सोचते-सोचते रात के अंतिम पहर उन्हें झपकी आई भी तो अचानक एक दुस्वप्न से उनकी नींद उचाट हो गई । उन्हें दिख रहा था कि झुम्पा घोष और उनके बीच महज एक बड़े से फोन का फासला है । वो फोन के एक तरफ तो झुम्पा फोन के दूसरी तरफ...वो फोन पर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं । वो थोड़ी दूर चढ़ भी जाते हैं मगर उन्हें दिखता है कि फोन के ठीक बीचों-बीच प्रोड्यूसर-डायरेक्टर बाटलीवाला अपनी पूरे लवाजमे के साथ खड़ा है। मिसेज कुमार पैर पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींच रही हैं और संपादक रायजादा तालियां बजाकर न सिर्फ ठहाके लगा रहा है बल्कि अपनी असिस्‍टेंट को कुछ बोल कर नोट भी करा रहा है। 

इसी बीच जाने कब मिसेज कुमार का दम फूल जाता है और वो अचानक पैरों से फिसल कर नीचे जा गिरती हैं। उनके हाथ रह जाता है तो सिर्फ जूता। तभी कहीं दूर से उनके पिता की आवाज सपने में प्रवेश करती
है.....कट...कट..कट.” और कुमार साहब का सपना भी यहीं कट हो गया।

 ........ कुछ महीनों का अंतराल...............

और जल्द ही फिल्मी खबरों के कॉलम कुमार साहब की नई वापसी नई शुरुआत जैसी खबरों से पटे पड़े थे । इस बार कुमार साहब एकदम नए ट्रेंड की हॉलीवुडिया रीमेक के मुहूर्त की तस्वीरों के साथ सामने आए। खास बात ये थी कि इस फिल्म में तीन हिरोइनें थीं मगर उनकी जोड़ियां अलग थीं । वो एक ऐसे सुधरे हुए दस नंबरी थे जिसने अंत में भाइयों के प्यार पर अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी । एक सूचना ये भी थी कि झुम्पा घोष के साथ बनने वाली उनकी दो पूर्व घोषित फिल्मों में से एक का डिब्बा गोल हो गया था और दूसरी में से प्रोड्यूसर ने झुम्पा को निकाल कर किसी और हिरोइन को रख लिया था। लेकिन एक के बाद एक आ रही इन खबरों के बीच ही एक खबर और आई। खबर ये कि झुम्पा घोष ने संन्यास लेने का फैसला किया है। संन्यास मतलब-फिल्मों से संन्यास नहीं-फिर कैसा संन्यास ? बहरहाल संन्यास की खबर कितनी सच थी ये तो पता नहीं लेकिन ये सच था कि झुम्पा घोष इन दिनों एक गुजराती संत के प्रभाव में थी । एक दिन उसी संत के एक पांच सितारा प्रवचन में जो पानी के एक बड़े जहाज पर हो रहा था-जिसे नई जबान में क्रूज कहा जाता है। बाकी यात्री तो फिर वापस चले आए मगर झुम्पा घोष पूरे दो साल कहां थी किसी को नहीं पता था । लेकिन दो साल बाद जब वह लौटी तो उसका पूरा व्यक्तित्व ही एक कांतिमय आभा से आछन्न था।

स्वदेश लौट कर झुम्पा घोष ने बंबई में ही एक सांस्कृतिक परिसर विकसित किया। वो फिल्मों में भी धीरे-धीरे वापप्त आई और आज भी गिनी-चुनी फिल्में करती है। लेकिन अमूमन ऐसी फिल्में, जिनका बाजार से सीधा लेन-देन कम ही होता है। इस सवाल का जवाब आज भी किसी के पास नहीं है कि फिल्मों ने उसके सांस्कृतिक परिसर को ज्यादा समृद्ध किया या सांस्कृतिक परिसर से उनका फिल्‍मी व्यक्तित्व ज्यादा समृद्ध हुआ। हां, कुमार साहब के बाद झुम्पा घोष के जीवन में कोई दूसरा पुरुष नहीं आया। हालांकि हाल के दिनों में जरूर फिल्‍मी गलियारे में ऐसी कुछ खबरें जेरे बहस रहीं कि जब कुमार साहब अपनी किसी फिल्म की शूटिंग के लिए विदेश जाते हैं तभी झुम्पा घोष अपने किसी सेमिनार के सिलसिले में “अब्रॉड” क्यों चली जाती हैं ? रायजादा के लड़के ने जो अब बाप की गद्दी संभाल रहा था । एक बार इस ख़बर के बारे में नाश्ते की टेबल पर चर्चा की तो रायजादा ने डपटते-खांसते उसे समझाया....

“ऐसी गलती मत करना...अब फिल्मी दुनिया हमारे दिनों जैसी नहीं रही...अब कलाकार सिर्फ कलाकार नहीं हैं....जिसके बारे में लिख रहे हो पहले उसके संपर्कों और रिश्तों की खबर रखो...पूरा हाउस बंद हो जाएगा...सड़क
पर आ जाओगे।”

(इतनी बकवास के बाद अचानक इस कथा लेखक के आगे ये रहस्य उद्घाटित हुआ कि हो न हो वो जीनियस है। जीनियस होने की सबसे बड़ी पहचान अपने ही रचे गए के प्रति व्यर्थता बोध है। जो इस लेखक को इतनी देर बाद हुआ, ये सोचकर कि अब तक जो भी कहा उसमें नया क्या है, और ये कि इतने बड़े स्टार के बारे में तो ये सब...सबको पता है)

उम्र और करियर के इस मुकाम पर खड़े अभिजीत कुमार को भी एक व्यर्थताबोध रह-रह कर घेर लेता है । रहते-रहते उन्हें अचानक ये अहसास होने लगता है कि यह सब क्‍यों ? किसके लिए ? उन्हें लगता है कि वो यंत्रवत अपना जीवन दूसरों के लिए जिए जा रहे हैं । सब कुछ उन्हीं की मार्फत , उन्हीं के नाम पर....मगर दूसरों के लिए हो रहा है । झुम्पा घोष कहीं न कहीं उनके मन में आज भी कसकती है । वो उनके मन में एक टीस की तरह समा गई है। वह बहुत चाहते थे कि झुम्पा भी शादी करे, घर बसाए....लेकिन अब इस झुम्पा घोष पर दबाव डाल कर कुछ कहने की वो हिम्मत नहीं कर सकते । नई झुम्पा घोष वो बंगाली मेय नहीं थी जिसे अपने सीने से छुपा कर वो गहरे संतोष का अनुभव करते थे । जिसकी देह से गुंथ कर उनकी आत्मा को चरम तृप्ति मिलती थी । हालांकि उसकी इस नई बोल्डनेस में भी एक आर्द्रता है जो उन्हें कचोटती है।

उनके जीवन की ये शायद सबसे बड़ी कसक है कि झुम्पा और उनके रिश्ते को कोई नाम नहीं मिल सका। अपने नाम से जोड़कर वो उसे कोई सम्मान नहीं दे सके। और तो और वो झुम्पाघोष जिसने उनके पीछे न जाने कितने सपने बलिदान कर डाले उस झुम्पा घोष के इस बलिदान को अंततः कोई सहानुभूति मिलेगी या नहीं वो ये भी सुनिश्चित करने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन वक्त बहुत से चेहरों की पहचान बदल देता है, कम से कम अभिजीत कुमार का ये मलाल उनके बाद की पीढ़ी नहीं रहने देने वाली थी । कम से कम आज की ये पार्टी इस बात की गवाही थी। 

स्कॉच का एक लार्ज पैग धीरे-धीरे असर करने लगा था, और अभिजीत कुमार असहज से काफी कुछ सहज हो चुके थे। अचानक उन्होंने देखा कि टैरैस के एक छोर पर बने स्टेज पर उनका बेटा उनकी होने वाली बहू को अंगूठी पहना रहा है। पार्टी में मीडिया घुस चुकी थी और शोरगुल काफी बढ़ गया था । वह सुपर स्टार होकर भी हाशिए पर थे...और उनका बेटा सचमुच स्टार ऑफ द नाइट था। थोड़ी देर बाद स्टेज पर बधाई देने वालों की होड़ लग गई । अचानक उनके वही मंत्री मित्र उन्हें खीचंते हुए स्टेच पर ले गए।
फिर मिस्टर एंड मिसेज कुमार ने भी बेटे-बहू के साथ तस्वीरें खिंचवाईं। मिस्टर कुमार इसके बाद नीचे उतरना चाहते थे लेकिन मिसेज कुमार ने उनका हाथ दबा कर उन्हें रोक लिया। तभी वे घटना हुई जिसे आप विशेष संदभों में युगांतर का छोटा-सा आभास कह सकते हैं, या फिर यह कि पिछली पीढ़ी की गलतियां अगली पीढ़ी इसी ढंग से सुधारती है ।

कैमरों की इस चमक-दमक के बीच अचानक उनका बेटा अभिजात स्टेज से नीचे उतरा और तेजी से झुम्पा घोष की ओर बढ़ा। झुम्पा घोष अभी भीड़ के हटने की प्रतीक्षा ही कर रही थीं....लेकिन अभिजात अचानक उन्हें अपने हाथों से बांध कर मंच पर ले आया अभिजीत कुमार फिर असहज हो गए थे, लेकिन कैमरे के आगे मुस्कराने की प्रोफेशनल दक्षता अब कहां पीछा छोड़ती है। झुम्पा घोष भी अभिजात की इस हरकत से अचाकचा-सी गईं। लेकिन अब वह कर ही क्या सकती थीं । मंच पर झुम्पा घोष को लाकर अभिजात ने बाकायदा उनके पैर छुए और अपनी मंगेतर को भी ऐसी ही करने को कहा । उसकी आवाज इस आपाधापी में भी सुनाई पड़ी-“टच हर फीट-सी इज ऑलसो लाइक माइ मदर....की झुम्पा मासी ?”

लड़की पहले अचकचाई, फिर कनखी से मिसेज कुमार को भी देखा लेकिन अब वो कर भी क्या सकती थी ? कोई भी क्या कर सकता था ? सिवाय मुस्कराने के....भले ही ये मुस्कान विषैली हो। झुम्पा घोष और अभिजीत कुमार दोनों की आंखों में आंसू थे...फर्क सिर्फ इतना था कि झुम्पा उन्हें छिपा नही सकीं। बहती आंखों और गदगद हृदय से झुम्पा घोष ने इस जोड़ी को गले लगा लिया।

“ओरे....रे बोऊ मां...केमोन भालो....केमोन मिष्टी....”

झुम्पा घोष भावातिरेक में दोनों को चूमती जा रही थीं और गले लगाती जा रही थीं। कैमरे चमकते जा रहे थे। पूरे पांच मिनट पैंतीस सेकेंड तक ये दृश्य समाचार चैनलों पर दिखाई देता रहा। अभिजीत कुमार ने सालों बाद झुम्पा घोष से वो बांग्ला सुनी थी जो वो उन्हें सिखाने पर उतारू थी लेकिन वो नहीं सीख सके थे । मगर उन्हें आश्चर्य था कि उनका बेटा भी बांग्ला बोल सकता है । वह अपने आंसू नहीं रोक सके जब झुम्पा घोष ने अपने कंधों पर अभिजात और उसकी होने वाली बहू दोनों का चेहरा हथेलियों में थाम कर  टिका लिया। कैमरामैन चीख रहे थे....ओनली वन सेकेंड मोर मैम....ओनली वन सेकेंड !!! इस त्रिमूर्ति के पीछे जब कुमार साहब ने चुपके से अपने आंसू पोंछे तो मिसेज कुमार दांत पीस कर मुस्करा पड़ीं....लेकिन वे काफी सहज थे।

हद तक ये उनकी आदत के खिलाफ है। लेकिन देर तक चली पार्टी और पार्टी के एकदम आखिरी दौर में दोस्तों के दबाव में लिए गए स्कॉच के तीन और नए पैग....चाह कर भी अभिजीत कुमार अगले दिन दस बजे के पहले आंख नहीं खोल सके। जगने के बाद वो जब बेडरूम से नीचे आए तो हॉल में टीवी पर अब भी रात की पार्टी के हाइलाइट्स ही दिख रहे थे। हाइलाइट्स में भी झुम्पाघोष की असरदार मौजूदगी को ही हाईलाइट किया जा रहा था। मिसेज कुमार की ओर भी उनका ध्यान तब गया जब उन्होंने झुम्पा घोष और अभिजात के गले लगने वाले दृश्य पर झमक कर टीवी ऑफ कर दिया। कुमार साहब कुछ बोले नहीं, उन्होंने हाथ बढ़ा कर सेंटर टेबल पर बिखरे अखबार अपनी ओर खींच लिए । कुमार साहब चकित थे कि हर अखबार के पहले पन्ने पर उनके बेटे की सगाई वाली तस्वीर ही प्रमुखता से छपी थी। मगर उससे भी चकित करने वाली बात ये थी कि अखबारों में भी झुम्पा घोष और अभिजात के गले लगने वाली तस्वीर को ही हाई लाइट किया गया था। एक अखबार ने तो बेदह कलात्मक ढंग से पृष्ठभूमि को इस तरह उभारा था कि मिसेज कुमार बेहद गैर जरूरी ढंग से हाशिए पर चली गई थीं । तस्वीर के लिए कैप्शन भी चुनिंदा और सार गर्भित रखे गए थे....मसलन...अ मदर्ली किस...द रेयरब्लेसिंग...वगैरह-वगैरह ।

गौरतलब ये भी कि किसी अखबार ने कहीं किसी हर्फ में उनके और झुम्पा घोष के नए-पुराने रिश्तों पर कलम नहीं चलाई थी । टीवी चैनलों पर जहां दोपहर तक ये पार्टी सप्ताहांत की सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना की तरह मौजूद रही, झुम्पा घोष के आते ही एंबिएंस हाई हो जाता था...और नैरेटर चुप। दो मिनट की खबर के आखिरी आधे मिनट इसी दृश्य पर केंद्रित रहे। अभिजीत कुमार चकित थे कि आखिर उनके बेटे की शादी कितनी बड़ी सांस्कृतिक परिघटना थी, जिसे इतना बड़ा मीडिया कवरेज मिला है। लेकिन अपने चकित होने को व्यक्त करने में भी उन्हें डर लग रहा था। कहीं लोग ये न मान लें वो अपने बेटे से ही ईर्ष्या करने लगे हैं । सुबह की पहली चाय की कड़वी चुस्की लेते हुए उन्होंने मिसेज कुमार को बधाई दी 

“मैडम, मान गए भई...योर सन इज रियल स्टार...हर जगह बस एक ही खबर....!”
“हां...और एक ही तस्वीर भी”

कल जैसी ही बल्कि उससे भी विषैली मुस्कान के साथ मिसेज कुमार ने जवाब दिया । गुस्सा मिस्टर कुमार को भी आता है, इशारा किस ओर है मिस्टर कुमार बखूबी समझ रहे थे।

“मैंने तो बुलाया नहीं था....और जाहिर है अपने आप चली नहीं आई”

“हां मैंने ही बुलाया था....लेकिन इसलिए नहीं कि मेरी ही छाती पर मूंग दल कर चली जाए” 

मिस्टर कुमार के थोड़े से कड़क तेवर पर ही चापलूस अदाओं के साथ समर्पित हो जाने वाली मिसेज कुमार इस ढलती उमर में अब भावनाओं पर काबू नहीं रख पातीं। हाई ब्लड प्रेशर, डायबिटीज और दो एक ऐसी ही बीमारियों ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया है। ऐसे में उनकी खीझ साबित कर रही थी कि भीतर से वो कितनी लाचार औरत हैं। उनकी इस लाचार खीझ पर खिन्न होकर कुमार साहब ने चुप्पी साध ली। वो दुबारा अखबार में सिर गड़ाने ही जा रहे थे कि मिसेज कुमार फिर भुनभुना उठीं ।

“कितने शान से गई थी उसके घर कार्ड देने...लो...जिस घर को तोड़ने की तैयारी में थी उसी घर में बेटे की शादी है, उसी बेटे की जिसके बाप पर तुम डाका डालने चली थी....और बेटा, इसने तो मेरी ही छाती पर छुरी चला दी।”

“हवाट रब्बिश….टाकिंग यू आर!”

कुमार साहब ने बीवी को चुप कराने की कोशिश्र की, लेकिन वो फिर भी चुप न रहीं। सोफे से उठती-उठती बोलीं-

“नॉट रब्बिश....ही इज योर ब्लड एंड ही हैज प्रूव्ड”

इस नए बखेड़े से अभिजीत कुमार खिन्न जरूर हुए लेकिन बस उतनी ही देर तक जितनी देर तक मिसेज कुमार बड़बड़ाती रहीं । वो जानते थे कि ये बड़बड़ाना भी देर तक नहीं चलने वाला । आफ्टर ऑल मिसेज कुमार इज ए प्रैक्टिकल लेडी...ये जुमला खुद कई बार उन्होंने फिल्मी गलियारे में अपने कानों से सुना था।

अभिजीत कुमार की सारी खिन्नता , खीझ और चिढ़ तात्कालिक थी । बल्कि न जाने कौन-सी चीज उन्हें कल रात से ही एक साथ गहरे दुख और मधुर अवसाद की ओर ले जा रही थी । उन्हें लग रहा था कि उनका कम से कम एक ऋण उनके बेटे ने उतार दिया है । झुम्पा घोष को लेकर बना रहने वाला अपराध बोध कुछ कम हुआ है। चाय पीकर वो फिर ऊपर स्टडी में चले गए...बहुत दिनों बाद वो स्टडी में आए थे। बहुत दिनों से स्टडी की सफाई भी नहीं हुई थी, इसलिए धूल बढ़ गई थी। लेकिन धूल से बेपरवाह वो कुर्सी पर बैठ गए। हाथ बरबस फोन की ओर बढ़ा और उंगलियां खुद-ब-ख़ुद झुम्पा घोष का नंबर तलाशने लगीं।

“हूं...मैं बोल रहा हूं....कैसी रही पार्टी”

“भालो तो...केनो...?”

“ऐसे ही अच्छा लगा तुम आई”

“सालों बाद तो दीदीभाय ने याद किया था...उनका आदेश पूरा नहीं करती...बोऊ तो बहुत सुन्दर है”

“हां...और बेटा... ?”

“ओ थोड़ा बादमाश है।...आई फेल्ट भेरी नारभास...कोन बोला उसको ऐसा करने को?”

“कोई नहीं...आई फेल्ट स्ट्रेंज ऑलसो ! बट कहीं भीतर से मैं भी यही चाहता था” 

कुमार साहब की इस बात के बाद दूसरी ओर झुम्पा घोष एक अबूझ-सी खामोशी में खो गईं। इतनी कि कुमार साहब को भी उन्हें आवाज देनी पड़ी।


“हलो....हलो...झुम्पा...”

“हां...हूँ...आपका बेटा आपके जैसा नहीं है...ही इज रादर मोर...और झुम्पा कुछ छुपा गई”

-कुमार साहब इस बात पर हंस पड़े- “हां मुझे भी ऐसा लगता है...मगर उसकी मां का कहना है कि मेरा बेटा मुझ पर ही गया है”

इसी बातचीत में अचानक ये राज भी खुला कि अभिजात पिछले डेढ़ सालों से लगातार झुम्पा घोष के संपर्क में है । झुम्पा घोष ने बताया कि पहली बार वो खुद कोशिश करके उनसे मिला , जब वो एक डांस ग्रुप को लेकर लंदन गई थीं । वेस्ट एंड के उस होटल में जब उसने पहली बार अपना परिचय दिया तो झुम्पा स्तब्ध रह गईं...कुछ देर के लिए एकदम खामोश...एकदम उसी अंदाज में 

“की झुम्पा मासी”

छुटपन में भी वो झुम्पा मासी से बांग्ला में बात करने की कोशिश करता था...ये कोशिश तब भी जारी रही । झुम्पा ने बताया कि उसी की जिद पर एक बार वो लंदन एक दिन ज्यादा रुकीं...उसने अपने कुछ दोस्तों से भी मिलवाया... एक रेस्टोरेंट में उन्हें चिंगड़ी माछ भी खिलाया...वर्ना साउथ हॉल के अलावा कहीं इतना अच्छा भारतीय खाना मिल सकता है उन्होंने सोचा भी नहीं था । वो जब तक झुम्पाघोष के साथ रहा केवल भारतीय कला और संस्कृति और ग्लोबल मार्केट में उसकी संभावनाओं के बारे में बात करता रहा । अगले दिन वो जब उन्हें होटल ले जाने के लिए आया तो थोड़ा दूर-दूर था । झुम्पा ने नोटिस लिया...और जनाब ने कबूल कर लिया -

“मासी फ्रैंकली स्पीकिंग...इन फैक्ट मैंने आज थोड़ी देर पहले...जरा सा ड्रिंक किया....स्मेल तो आती है ना...लेकिन मासी प्लीज आप पापा को नहीं बोलना...। मैं जानता हूं आप दोनों की बात होती है”

झुम्पा नकली नाराजगी दिखाकर चुप हो गईं लड़के की साफगोई उन्हें अच्छी लगी शायद ये उसकी साफ गोई और साहस ही था कि यहां लौटने के बाद भी उसने झुम्पा मासी से मिलना जारी रखा।

“...सो हवाट !...झुम्पा मासी...इट्स माई लाइफ...मैं अब बच्चा नहीं हूं...”

अभिजीत कुमार को लग रहा था कि ईश्वर ने एक ही जन्म में कई अधूरी इच्छाएं पूरी करने के लिए उन्हें इसी जन्म में एक और जन्म दे दिया है। साफगोई कभी उनमें नहीं रही। झुम्पा से रिश्ते सीमित करने की ही कोई वजह वो आज तक नहीं तलाश पाए। उनकी आंखें एक बार फिर नम और कलेजा बेटे की गबरू अदाओं पर गदगद था । भले ही मिसेज कुमार ने गुस्से में कहा हो , लेकिन कुमार साहब को गर्व था कि...वो उनका खून है और उसने ये साबित किया है ।

(सगाई की शाम के बाद बेटे के प्रति अभिजीत कुमार के व्यवहार में आश्चर्यजनक परिवर्तन आए थे, झुम्पा घोष से बातचीत के बाद तो और भी। वो खुद को उसके ज्यादा से ज्यादा करीब ले जाना चाहते थे, लेकिन वक्त के हाथों वो इतने मजबूर थे कि करीब होने का वक्त ही नहीं मिलता था । इस ढली उम्र में भी कुमार साहब का क्रेज इस कदर बरकरार था कि अब अधेड़ और बूढ़े केन्द्रीय चरित्र वाली फिल्मों का उनके पास अंबार लगा था । वो शिद्दत से सन्यास लेने की सोच रहे थे, लेकिन दो फिल्में पूरी नहीं होती थीं कि वो तीन और फिल्में साइन करने को मजबूर हो जाते)

पार्टी को अभी पंद्रह दिन भी न गुजरे होंगे कि उनके पास विज्ञापन फिल्म करने का एक नया प्रस्ताव आया। अभिजीत कुमार के रिश्ते के एक भाई जो इन दिनों एक मशहूर ऑटोमोबाइल कंपनी के शेयर होल्डर थे, अपनी नई बहुउपयोगी वैन के लिए उन्हें ब्रांड अम्बेस्डर बनाना चाहते थे । लेकिन अब अभिजीत कुमार के साथ वो फिल्म में अभिजात को भी साइन करना चाहते थे । कम्पनी के ब्रांड मैनेजर ने कांसेप्ट सिटिंग में बताया कि

“सर...इनफैक्ट यंग जेनरेशन में आपके सन को लेकर अपकमिंग क्रेज का माइलेज हमें मिलेगा सर...इधर का सर्वे बताता है कि फैमिली कल्ट में इनका रेप्यूटेशन बहुत बढ़ गया है सर...हम ये जो नया ब्रांड ला रहे हैं, दरअसल इट्स अ वेरी प्रोडक्ट फॉर फैमिली सर...आप बीवी बच्चों के साथ, पूरा फैमिली प्लस योर बटलर...किसी भी ट्रिप पर निकल सकते हैं सर...सो यंग से लेकर ओल्ड जेनरेशन तक इसका केज होना चाहिए सर...घर में हर एज के मेंबर पर इसका इंप्रेशन जाना चाहिए सर...इनफैक्ट इट्स अ कार फार परिवार सर...एन एक्सलेंट आइडिया सर। आप विद योर सन एक लांग ड्राइव पर निकलते हैं...फिर कभी आप कार की कंफर्टेबल लगने वाली खूबियां बताते हैं तो कभी...योर सन विल से समर्थिंग अबाउट स्पीड एंड स्लीकनेस, साइमलटेनसली...और हमारी जो ये पंचलाइन है न ये भी इंगलिश और हिंदी में एक साथ होगी सर । आप तो जानते हैं हिंदी की मार्केट वैल्यू भले ही कम हो सर बट उसका मार्केट है बहुत बड़ा सर । थोड़ा ट्रेडिशनल है पर हमें इसी को तो अट्रैक्ट करना है।”

अभिजीत कुमार पूरी तरह चौकन्ने होकर इस आईडिया के बारे में सुन रहे थे। लेकिन अभिजात ने आदत के मुताबिक उकता कर हस्तक्षेप किया-

“शूटिंग कहां करेंगे...हां दो दिन से ज्यादा तो नहीं लग जाएंगे । यू नो आई हैव नो इंटरेस्ट इन दिस मूवी बिजनेस...बट डैड के साथ करना है, सो आई कांट मिस दिस चांस...क्यों डैड !”
बेटे की इस स्मार्टनेस पर सम्मोहित अभिजीत कुमार खिलखिलाकर हंसे और बाकी की औपचारिकताएं पूरी की जाने लगीं।

फिल्म की शूटिंग पर कुमार साहब ये देख कर चकित थे कि कैमरा फेस करने में अभिजात को ज्यादा मुश्किल नहीं पेश आ रही थी । डायरेक्टर को कुछ 'स्टाक शाट्स’ लेने थे जिसमें संवाद नहीं थे, बातचीत क्या करनी है ये कुमार साहब और अभिजात को तय करना था। निर्देशकीय सुझाव महज इतना था कि चौंकिए, हंसिए, हंसाइए और ठहाके लगाइए...।

-ओ के डैड...लेट्स स्टार्ट...अभिजात ने पूछा ।

-अच्छा!

-और क्या!!!

-तो बताओ...बताओ कि तुम झुम्पा से मिलते रहे ये बात मुझसे क्यों छिपाई...?

-ओ डैड...डैड...व्हाट आर यू टॉकिंग मैन...क्या झुम्पा मासी ने भी ये बात आपसे छिपा रखी थी।

-हां...उसने तो पार्टी के अगले दिन बताया ।

-वेरी गुड!...आई एम ड्राइविंग इन अ राइट वे...नाऊ वी शुड टेक अ राइट टर्न

अभिजीत कुमार को निर्देशक की बात याद थी सो उन्होंने एक बे-वजह का ठहाका लगाया। ठहाके पर चौंकते-मुस्कुराते अभिजात ने कहा...

-डैड इट्स अ सेंटीमेंटल मूव...मैं कोई बच्चा नहीं हूं...आई कैन अंडरस्टैंड योर रिलेशंस विथ दैट नाइस लेडी...मैं इस रिश्ते की कदर करता हूं । हां...ठीक है...मॉम को ये पसंद नहीं...बट शी हैज हर ओन नोशंस...हर ओन कॉज...इट
में बी रियल...बट नॉट फॉर मी...।

थैंक्स! अभिजीत कुमार ने जब आंखें चमका कर कृतज्ञता ज्ञापन किया तो इस बार बेटे ने बेवजह ठहाका लगाया।

-हे डैड...हे इट्स ओके। बट आप जानते हैं न, मैं झुम्पा मासी के साथ एक बिजनेस वेंचर भी प्लान कर रहा हूं.

बिजनेस...अभिजीत कुमार सचमुच चौंक पड़े। दरअसल इस शब्द के साथ वो कभी सहज नहीं हो पाते थे । ये और बात है कि उनकी बेहतरीन से बेहतरीन फिल्म का मूल्यांकन भी उसके बिजनेस के आधार पर ही होता है।इस बार ये शब्द वो अपने बेटे के मुंह से सुन रहे थे।

आप जानते हो उन्होंने मुझसे क्या पूछा...'डुबा दिया तो'....मालूम है डैड मैंने क्या जवाब दिया!

क्या...?

अगर ये पैसा आपका बेटा डुबा देता तो....?...ये कह कर अभिजात ने बड़े शातिर अंदाज में अपनी आंख दबाई...

झुम्पा कया बोली ?

कुमार साहब के चेहरे और बोली से चहक गायब थी

डैड यू नो दीज इमोशनल मूव्स...औरतें तो होती हीं हैं सेण्टी स्पीशीज. 

-वो तो सुबकने ही लगीं

-अरे... !  लेकिन... ?

डोण्ट वरी डैड...आय हैंडल्ड हर स्मार्टली...मैंने चुप करा लिया उनको....बट डैड अभी तो तीर निशाने पर नहीं है...बातों में वजन नहीं आ रहा...मैं लाख कह दूं कि मैं बच्चा नहीं हूं... जरा सोचिए डैड...इतना पैसा...इतनी रेप्यूटेशन....उनके बाद इसका क्या होगा...मेरी समझ में नहीं आता ये मिशन-विशन....खैर आराम से बात करते हैं...बट आप थोड़ा मैनेज करिए डैड !

शॉट पूरा हो गया था, अभिजात ने कार रोक दी थी, वो कार से उतर भी चुका था, पर अभिजीत कुमार जड़वत अपनी सीट से चिपके हुए थे। आखें विंडस्क्रीन के पार कहीं गुम हो चुकी थीं....और दिमाग तकरीबन सुन्न था।

डायरेक्टर ने जब पास आकर कार का दरवाजा खोला तब कहीं जाकर उन्हें गाड़ी से उतरने का ख्याल आया। खिसियानी हंसी हंसते हुए डायरेक्टर ने कहा- 

“बाद में तो आप ठहाके लगाना भूल ही गए सर, बातचीत थोड़ी लंबी हो गई...बट योर सन इज रियली टैलेंटेड...क्या एक्सप्रेशन दिए...??”

कुमार साहब के चेहरे पर फिर वही मुन्ना मस्तान से उधार ली गई हंसी थी । यूनिट पैक-अप में भिड़ चुकी थी...कुमार साहब को घर वापसी का ख्याल भी नहीं था।

         

72     -

तर्पयामि
[ जन्म : 1974 ]
शेष नाथ पाण्डेय


सतई महाराज जब भी हवन कुण्ड की लकड़ी में घी प्रवाहित करने के बाद उसमें अग्नि प्रवाहित करते थे, धुँआ उनके मुँह पर ही आने लगता था।अग्निकुण्ड के चारो ओर जाने पर भी धुँआ उनका साथ नहीं छोड़ता था।उन्हें ऐसा लगता था कि कथा सुनने में जैसे कोई खोट रह गया हो जिससे भगवान भक्तों के बीच उनके मुख पर ही कालिख पोत कर दिखाना चाहते हों ,देखो जो ध्यान से नहीं सुनेगा उसे मौके पर ही तुरंत ऐसे ही पाप चढ़कर दण्ड मिलेगा।सतई महाराज का असली नाम सत्यनारायण था।गाँव में बड़ा नाम लेने में ज्यादा शब्द उच्चारण के ऊर्जा व्यय को संरक्षित करने की नीयत से घर्षण करके छोटा पुकार नाम बना दिया जाता है इसलिए घिस्सू समाज ने उनका नाम सतई रख दिया था।सतई महाराज के पिता त्रिपुरारी अपने जवार के नामी कथावाचक और पंडित थे।सत्यनारायण व्रत कथा की किताब के हिंदी अनुवाद सहित संस्कृत के सारे श्लोक उन्हें याद थे।इतने उद्भट विद्वान थे कि दूसरा कोई कथावाचक यदि एक भी उच्चारण गलत कर दे तो उसे तुरंत धर्म भ्रष्ट घोषित कर देते थे।अपनी पोथी के बल पर ही चार कोस के भीतर उनके विद्वता का ऐसा आतंक था कि मजाल क्या है कोई दूसरा उनके सामने टिके।चढ़ावे की रकम आने-पैसे में ही जोड़-जाड़ कर कई कई रुपये हो जाती थी।कहते तो यह भी हैं कि त्रिपुरारी पंडित ने चांदी के सिक्कों का तसला अपने घर की दलान में गाड़ रखा था।

त्रिपुरारी पण्डित के दो पुत्रों में देवनारायण और सत्यनारायण थे।ज्येष्ठ पुत्र देवनारायण का विवाह उन्होंने अपने एक जजमान के घर ही कर दिया था।जिस लड़की से विवाह किया वह बी ए कर रही थी सो उसने देवनारायण पर पंडिताई न करने का दबाव बनाया।देवनारायण उसकी दबंगई और प्रेमपाश दोनों के प्रतिरोध का साहस नहीं जुटा सके सो घर जमाई बन कर वहीं के हो गए।छोटे पुत्र होने के नाते सत्यनारायण को त्रिपुरारी पण्डित ज्यादा लाड़ प्यार करते थे।कथा बाँचने के बाद घर लौटने पर चढ़ावा गिनते वक्त उसमे से चुराने की जो आदत बचपन में पड़ी वह किशोर होने तक और प्रबल होती गई। गाँव के लोग बताते हैं कि सतई भाई स्कूल में साथियों को खूब कचालू और दिलबहार खिलाते थे।अपनी चंचल वृत्ति के नाते सतई हाई स्कूल में दो बार फेल हुए।इज्जत बचाने के लिए त्रिपुरारी पंडित ने कनैचा स्कूल में कई बार फार्म भराया लेकिन परीक्षा का सेंटर ऐसे आतताई प्रिंसीपल के स्कूल पर चला जाता था जहाँ नकल करने वाले को तुरंत पकड़ लिया जाता था।सो सतई की डिग्री नौवीं पास तक ही रह गई थी।रोजगार के आसन्न संकट को देखते हुए पिता त्रिपुरारी ने सतई को अपने साथ कथावाचन में जोड़ लिया।सतई में भले सौ बुराइयाँ रही हों लेकिन अपने माता पिता के लिए वे श्रवण कुमार थे।रुपया पैसा न मिलने पर भले धमकाकर,गाली गलौज करके ले लें लेकिन पाते ही चरण छू कर प्रणाम कर लेते थे।ऐसा लगता था जैसे पाप का प्रायश्चित तुरंत करके पुराणों में दी गई व्यवस्था का पालन कर रहे हों। पुत्र की इस विनम्रता पर त्रिपुरारी पंडित भी गदगद थे।

कथावाचन में आतंक के पर्याय अपने पिता के साथ साथ आने जाने से अपने गाँव के अलावा जवार के बाकी गांवों में सतई महाराज के हाई स्कूल फेल होने की विशेष योग्यता के बारे में उनसे कोई जल्दी पूछता नहीं था।त्रिपुरारी पंडित के साथ रहते रहते सतई को आठ दस संस्कृतनिष्ठ शब्दों का ज्ञान हो गया था।उनका अर्थ नहीं जान पाए थे लेकिन उच्चारण इतने आत्मविश्वास से करते थे जैसे पाणिनि के व्याकरण सूत्र में कुछ इनके द्वारा भी जोड़े गए हों। 
 
छंटे छँटाये उचक्कों के बीच बचपन गुजारने के नाते सतई महाराज फूहड़ मजाक भी बहुत रुचि लेकर करते थे।उन्हें पढ़े लिखे और अनपढ़ दोनों तरह के लोगों का मनोवैज्ञानिक भली भाँति पता था।वे पढ़े लिखे लोगों को धर्म भ्रष्ट और घमण्डी मानते थे।अपने से कम पढ़े लिखे या निरक्षर को वे बौद्धिक रूप में अपने से कमतर मानते थे लेकिन ऐसे लोगों को वे पक्का धार्मिक और श्रद्धालु बताते थे।

त्रिपुरारी पंडित के कथा साम्राज्य में कुछ नए कथावाचकों ने सेंध लगा दी थी।कुछ उनका चेला बनने का ढोंग बनाकर चर्चित हो रहे थे और कुछ उन्हें बुड्ढा बताकर यह भ्रम फैला रहे थे कि त्रिपुरारी गुरु अब कुछ कुछ भूलने लगे हैं और आधा अधूरा कथा बांच कर श्रद्धालुओं को पाप का भागीदार बना रहे हैं।इन उचक्कों से पार पाने के लिए ही अपने साथ ही त्रिपुरारी पंडित ने सतई महाराज को भी कथावाचन के टिप्स देने शुरू कर दिए।देखो बेटा, कथा शुरू करने के पहले पूजन करना चाहिए।सबसे पहले गणपति की पूजा फिर इन्द्रादि दशदिक्पाल की और क्रमश: पंच लोकपाल, सीता सहित राम, लक्ष्मण की, राधा कृष्ण की। इनकी पूजा के पश्चात ठाकुर जी व सत्यनारायण की पूजा की जाती है। इसके बाद लक्ष्मी माता की और अंत में महादेव और ब्रह्मा जी की पूजा करनी चाहिए। 

सतई झट बोल उठे, 'ऐसा कोई उपाय नहीं है कि एक ही देवता की पूजा करके शुरू कर दिया जाय।' इतनी झंझट में कहीं कुछ आगे पीछे हो जाय तो।'

'अरे सतई नालायक तुम पंडित त्रिपुरारी के पुत्र हो जिसके समान कथावाचक कोई नहीं है।जहाँ जहाँ कथा बाँचता हूँ,वहाँ वहाँ ससुर दस साल से सायकिल के पीछे कैरियर पर गाँड़ रगड़ते हुए साथ जाते हो सुनते का हो बे।'यह कहते हुए त्रिपुरारी पंडित क्रोध से काँपने लगे।किसी तरह शांत हुए तो बोले बेटा 'ऐसे नहीं होता है।सत्यनारायण व्रत कथा स्कन्दपुराण के रेवाखण्ड से लिया गया है।इसमें पूजन का विधान है।इधर-उधर करोगे तो लोगों का विश्वास करना कठिन हो जाएगा कि तुम प्रकाण्ड विद्वान त्रिपुरारी के ही पुत्र हो।'

सतई बोले 'अच्छा बाबू यह बताओ कि ई बात कितनों को पता है कि सत्यनारायण व्रत कथा किसी पुराण से ली गई है।'

'अरे कलंकी मैं ही सबको बताता आया हूँ।तेरा भी नाम मैंने भगवान सत्यनारायण के नाम पर ही रखा था।'डाँटने से त्रिपुरारी पंडित का ब्लड प्रेशर बढ़ जाता था सो धोती में मूत्र-स्राव हो जाने के कारण बार बार अपने ऊपर जल तर्पण करके पवित्र होते थे।

सतई को यह विश्वास नहीं हो रहा था कि जब दस साल से लगातार एक ही बात को मैं नहीं रट पाया तो कथा स्रोताओं को क्या घंटा पता होगा।उसे पता होता कि कथा बाँचने में भी इतनी झंझट है तो वह भी बडे भाई की तरह जाकर किसी की नौकरी ही करता भले ही दरवानी क्यों न हो।लेकिन तुरंत ही मन मे कथावाचक की इज्ज़त प्रतिष्ठा को सोचकर वह इससे विमुख नहीं हो पा रहा था।

अब आगे ध्यान दो,त्रिपुरारी पंडित ने आसन जमाने का इशारा करते हुए कहा-देखो इसमें पाँच अध्याय हैं-पहले अध्याय में यह बताया जाता है कि जो भी भक्त सत्यनारायण का व्रत करेगा, पूजन करेगा और उनकी कथा करवाएगा, उसके सारे मनोरथ पूरे होंगे। दूसरे से पांचवें अध्याय तक सूत जी पांच पात्रों शतानंद ब्राह्मण, काष्ठ विक्रेता भील, राजा उल्कामुख, साधु नाम के बनिये और राजा तुंगध्वज की कहानी बताते हैं। इस कथा में सबसे प्रमुख पात्र साधु बनिया की पत्नी लीलावती और पुत्री कलावती हैं।

सतई बोल उठे 'लेकिन हर अध्याय खत्म होने पर शंख भी बजाना है न।'

हाँ बजाना है लेकिन कथा में शंख अध्याय के पारायण पर ही बजाने का विधान है।पहले पूरी विधि ठीक से समझ लो फिर शंख और घंटी का नियम बताता हूँ। लेकिन समझाने के बीच में ही आप दूसरा दूसरा कठिन शब्द बोलकर हमें भरमा दे रहे हैं।अब ई पारायण क्या होता है?

त्रिपुरारी पंडित कभी कभी क्रोधित होते लेकिन कभी कभी पुत्र सत्यनारायण की प्रश्नाकुलता पर उसे मन ही मन विद्वानों की श्रेणी में गिनकर प्रसन्न हो जाते थे।लाख समझाने के बाद भी ऊसर बीज बोए फल जथा की भाँति सतई महाराज का सत्यनारायण कथा का पाठ और पूजन विधि के ज्ञान से छत्तीस का आंकड़ा ही बना रहा।

और सुनो बेटा देवताओ के पूजन हेतु " पूजयामि " कहते हुये पुष्प अक्षत और " तर्पयामि " कहते हुये एक आचमनी जल अर्पण करना चाहिए।

कथा खत्म होने के बाद हवन करना होता है और हवन के बाद शांति पाठ में सबके शांति की कामना की जाती है।इसमें ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति, पृथ्वी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति,सर्वँ शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति, सा मा शान्तिरेधि।ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: का उच्च स्वर में पाठ जरूर करना।

कुल मिलाकर त्रिपुरारी पंडित के गूढ़ कथोपदेश की गंगा में से सतई महाराज दो अनमोल शब्दों पूजयामि और तर्पयामि को पूरी तरह कंठाग्र कर चुके थे।

सहसा एक ही दिन कई जजमान के कथा वाचन सम्बन्धी आग्रह पर त्रिपुरारी पण्डित ने बगल के गाँव में एक जजमान के घर कथा वाचन से रस सिक्त करने के लिए अपने नवधा धुरंधर शिष्य-पुत्र सत्यनारायण को भेजा।नाम मे ही साक्षात नारायण का समावेश होने और उद्भट कथावाचक त्रिपुरारी पण्डित का सुपुत्र होने के नाते जजमान के परिवार के छोटे से लेकर बुजुर्ग तक सभी स्त्री-पुरूष ने उनका चरण स्पर्श किया।अविवाहित होने के नाते सतई महाराज युवक-युवतियों से पैर छुआने में स्वाभाविक शर्म महसूस करते थे।उन्हें लगता था कि सब पैर ही छुएंगे तो दिल को कौन छुएगा।तीस की पार उम्र वाली हर महिला को वे भौजाई बना लेते थे।इससे हास्य विनोद में देवर बनकर दैहिक सीमा के काल्पनिक स्पर्श का उनके पास भरपूर अवसर होता था।गाँव के तंबाकू सेवकों ने उपहार स्वरूप उन्हें उसकी लत लगा दी थी सो उसका सद्धर्म निर्वाह करना उनकी मजबूरी थी।

आवभगत और पानी-मिठाई की औपचारिकता के बाद कथावाचन की तैयारियां शुरू हुईं।सामाजिक मनोवैज्ञानिक के रूप में सतई महाराज को यह पता चल चुका था कि सत्यनारायण व्रत कथा सुनने वालों को यह पता नहीं होता है कि वे किसलिए इसे सुन रहे हैं।यही एक ऐसी कथा होती है जिसमे कहने वाले,सुनने वाले, प्रसाद लूटने वाले और हर शंख ध्वनि पर बेसुरा भौंकते वाले आस पास के श्वान समाज,सबकी अलग अलग स्वार्थसिद्धि है।यदि नया घर बनवाने, नई गाड़ी खरीदने, विवाह के बाद दुल्हन के घर पदार्पण आदि आदि अवसरों पर यह कथा नहीं सुनी गई तो भगवान प्रसन्न होंगे या नहीं इसकी गारंटी नहीं है लेकिन नहीं सुना तो भरी बिरादरी में कंजूस कहलाने और नाक कटने जैसी बेइज्जती होना तय है।सो सतई महाराज ने पूजा में देवी-देवता के वरिष्ठता क्रम की कोई परवाह न करते हुए इसे शुरू कराया।जिन शब्दों पर उन्हें पूरा कमांड था उसका दीर्घ स्वर में वाचन करते हुए श्रोताओं के चेहरे को घूरकर देखते थे मानो यदि उच्चारण से प्रभाव न पड़ा हो तो मुख मंडल से जरूर पड़ जाय।उन्हें यह भी पता था कि श्रोता जन कथा के गूढ़ रहस्य के बजाय ध्यान लगाकर शंखध्वनि जरूर सुनते हैं जिससे एक अध्याय कम होने पर यह जानकर तसल्ली होती है कि चलो एक कम हुआ अब कथा जल्दी ही खत्म होने वाली है।

पोथी खोलते ही सतई महाराज उन महिलाओं से मुखातिब हुए जिनसे देवर- भौजाई के रसीले सम्बंध जोड़ चुके थे। 'अरे इस कथा से सारे देवी देवता प्रसन्न होकर जजमान और श्रोताओं के घर मंगल वर्षा करते हैं।कथा कहते समय श्रद्धा पूर्वक मंगलगीत गाने से देवों के आनन्द की कोई सीमा नहीं रह जाती है।युवा सतई के आग्रह और भगवत्कृपा की लालसा पर उपस्थित नारी समुदाय ने गला फाड़ फाड़ कर गीत गाना शुरू किया।कर्तव्यपरायण जजमान भी इसी भाव से आँखे बंद कर विह्वल हो रहे थे कि कथा चल रही है।अपने पिता की भाव भंगिमा के माफिक सतई महाराज कुछ बड़बड़ा रहे थे।मुँह से निकलने वाली अस्पष्ट ध्वनि में कभी कभी लगता था कि ओम नमः बोले हैं,शेष ध्वनियाँ अंग्रेजी के नॉलेज शब्द में के की भाँति साइलेंट थीं।शंख ध्वनि से यह आभाष होता था कि कथा में कोई अध्याय खत्म हुआ है।मुँह से फूंकने में बल के अलावा बुद्धि तत्व पर कोई भार नहीं था सो सतई महाराज ने शंख वादन में एक नई कला जोड़ दी थी।जितने अध्याय पूरे होते थे  शंख ध्वनि में पूऊऊ के साथ ही जल्दी से पू पू पू मार देते थे।इससे श्रोता जन आश्वस्त हो जाते थे कि कितने अध्याय सही में खत्म हुए और कितने बचे हैं।कथा के पाँचों अध्याय खत्म होने के बाद वर्षों से त्रिपुरारी पण्डित से कथा सुन रहे बेचन मास्टर ने पूछा- पण्डित जी आपने तो अर्थ नहीं समझाया।हम तो इंतज़ार ही करते रह गए कि कन्या कलावती और लकड़हारे का नाम सुनने को मिलेगा।बेचन मास्टर को नहीं पता था कि अपने कथा वाचन के ज्ञान को भौजाइयों की गीत गायक मंडली के उच्च स्वर के गायन से पंडित जी ने उसी तरह ढक लिया था जैसे पांचजन्य बजाकर भगवान श्री कृष्ण ने अश्वत्थामा मरो, नरो वा कुंजरो के 'कुंजरो' शब्द का लोप उत्पन्न कर दिया था।पण्डित जी बोल पड़े 'अरे जजमान ई भौजाई लोग तनिक चुप रहें तब न।ई सब तो ठाकुर जी की भक्ति में गला फाड़ फाड़ कर गीत गाये जा रही हैं।अब दस औरतों के गाने की आवाज में कहाँ मंत्र और अर्थ सुनाई पड़ सकता है।पहली बार आपके गाँव में ऐसी कथा हुई होगी जिसमें गीत गौनाई के साथ मंत्र पढ़ा गया होगा।ठाकुर जी भगवान सत्यनारायण अतिशय प्रसन्न होंगे।चलिए जजमान अब हवन की तैयारी करिये।'

हवन बेदी पर आम की लकड़ी और हवन सामग्री में धूपबत्ती, कपूर, केसर, चंदन, यज्ञोपवीत, रोली, चावल, हल्दी, कलावा, रुई, सुपारी,पान के पत्ते, फूल , फूलमाला, कुशा व दूर्वा, पंचमेवा, गंगाजल, शहद, शक्कर, शुद्ध घी, दही, दूध, अमरूद- केला आदि फल मिठाई, चौकी, आसन, केले के पत्ते, पंचामृत, तुलसी दल, कलशा,लाल,पीला और सफेद कपड़ा का इंतजाम जजमान ने किया था।इतनी हवन सामग्री देखकर सतई महाराज का दिमाग चकरा गया।मन ही मन जाप करने लगे ठाकुर जी कथा का तो बेड़ापार करके भौजाइयों ने इज्जत बचा लिया।अब हवन के मालिक आप ही हैं।आज जजमान के घर टोपी भले न छूटे लेकिन लगता है धोती छूट जाएगी।अपने कथावाचन में त्रिपुरारी पण्डित सतई का सहयोग केवल हवन कुण्ड और बेदी सजाने में ही लेते थे।सतई की सारी व्यूह रचना अपने को केवल धुँए से बचाने की होती थी इसीलिए बाकी चीजों पर अपना दिमाग नहीं लगाते थे।

अग्नि दग्ध कर वृहस्पति के भाँति अपने आसन पर विराजे सतई महराज बोले-सुनो जजमान हवन से ही सिध्दि होती है सो मेरे साथ साथ बोलना।जब कहूँगा पूजयामि तब हाथ जोड़ लेना।जब कहूँ तर्पयामि तब आम के पल्लव से जल छिड़कना।'हवन में मंत्र के 
 
उच्चारण को दुरूह पाते हुए सतई महाराज ने अपनी काइयाँ बुध्दि दौड़ाई।हो न हो भौजाइयों को हवन का गीत भी जरूर आता होगा।

अरे देखती क्या हो खाली धुँआ ही आकाश थोड़े जाएगा।ठाकुर जी को भला लगे कि जजमान का पूरा कुटुम्ब कथा में शामिल हैं।इतना सुनते ही महिलाओं के गले से समवेत स्वर फूट पड़ा "बड़ी भागी ऊ जमीनिया हो जहाँ होवे हवनियाँ" इस शोर में सतई के बोल किसी को सुनाई नहीं दिए लेकिन एक एक कर सारी हवन सामग्री अग्निदेव की सेवा में अर्पित करते सब ने दूर से देखा।बाल दल कथा के उपरान्त प्रसाद लूटने की व्यूह रचना में लग गए, कुछ उत्साही कृतज्ञ जन वितरण की योजना बनाने लगे।हवन कुंड में सामग्री के बोझ ने आग की बजाय धुआँ ज्यादा फैला दिया सो कुटुम्बियों को छोड़कर जजमान और सतई महाराज उसकी शान्ति के उपाय में आचमनी के बजाय बार बार अग्निकुण्ड में जलार्पण कर तर्पयामि, तर्पयामि, तर्पयामि बोले जा रहे थे।कुल मिलाकर उपस्थित जनों ने यह जान लिया कि तर्पयामि से ही जलती हुई आग को शांत किया जाता है।रही होगी त्रिपुरारी पण्डित को पोथी याद करने की कला लेकिन श्रोताओं की बुद्धि पर सतई महाराज के कथा मनोविज्ञान की छाप अकाट्य हो गई।


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राग-अनुराग
[ जन्म : 30 जून , 1970 ]
अमित कुमार 


घुमक्कड़ी और प्रकृति में रुचि रखने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए ऊँटी से मैसूर तक का सफर बेहद मनमोहक होगा। इस मार्ग का कुछ भाग बांदीपुर राष्ट्रीय उद्यान से होकर जाता है। इसी मार्ग पर उद्यान से सटे एक गाँव था। गाँव क्या था, कोई सात-आठ परिवारों का बसेरा था  वह। जंगल से शहद और औषधीय कंद-मूल प्राप्त करके बेच कर गुजारा करते थे ये सभी। पर यह तो दुनिया को दिखाने का धंधा था। साल में एक दो बार किसी बड़े शहर में जाकर बड़ी लूट करके साल भर मस्त रहते थे ये सभी। सारे परिवारों के बीच जबरदस्त बंधन, विश्वास और सहयोग। कंद-मूल, वनस्पतियों के औषधियों की बेजोड़ जानकारी और उतनी ही जबरदस्त योजनाबद्ध तरीके से लूट और डकैती का हुनर भी। यह सब पुश्तों से चला आ रहा था, कभी इसके इतर सोचा नहीं, कभी और कुछ किया नहीं। इन्हीं परिवारों में से एक परिवार का बारह साल का लड़का रमन्ना जब जंगल की ओर जाता तो रास्ते में पड़ने वाले प्राथमिक विद्यालय के बच्चे उसे संगी-साथी और सगे लगते थे। वह उस विद्यालय में जाना चाहता था पर उसके परिवार के सदस्य उसे बड़ी कड़ायी से रोक देते। उन्हें लगता कि, वह पढ़ने पर बिगड़ जायेगा, पुश्तैनी धंधे से भटक जायेगा। रमन्ना को चित्र उकेरने की जन्मजात महारत थी। वह किसी भी व्यक्ति और घटना का हू-ब-हू चित्र उकेर देता था जो उसके सामने से होकर गुजरा हो या घटी हो। कोयले या खड़िया से खाना-बनाती हुई अपनी माँ, काम कर रही महिलाओं, जंगल में शहद के लिए जुगत लगाते अपने परिवार वालों के काम, सरीखे सैकड़ांे चित्र गाँव के आस-पास, यत्र-तत्र बिखरी चट्टानों पर गाहे-बगाहे उकेरता रहता था। पूरा परिवार और कुटुम्ब रमन्ना की इस प्रतिभा को अपने आराध्य का आशीर्वाद मानता था। वे सोचने लगे थे कि, उनके लूट के लिए लक्षित घर की रेकी के दौरान घर और आस-पास का चित्रांकन रमन्ना कर देगा जिससे लूट में शामिल होने वाले सभी लोगो के साथ योजना बनाने में उसका चित्रांकन सहायक होगा।

जाडे़ की शुरुआत के साथ रमन्ना के गाँव के लोगों ने लूट के पहले चरण की शुरुआत की। पहले चरण में एक समृद्ध कालोनी के बाहर की ओर स्थित बडे़ और मालदार बंगले को चुना गया। फिर एक सप्ताह तक अलग-अलग सदस्यों द्वारा कभी फेरीवाला बनकर तो कभी मांगने वाले भिखारी के भेष में तो कभी साधु का रूप धर कर उस मकान के सदस्यों, नौकरों की संख्या, उनकी गतिविधियाँ, एवं उस घर में आने-जाने वालों की पूरी जानकारी एकत्र की गयी। इसके बाद का चरण था घर के अहाते में घुसकर घर के अन्दर के प्रवेश की संभावनाओं का आकलन करना। यह चरण सबसे महत्वपूर्ण होता था और सबसे जोखिम भरा भी। इसको अंजाम देने के लिए किसी किशोर को तैयार किया जाता। पकड़े जाने की दशा में वह गंूगा-बहरा बन कर आॅ-वाॅ करने लगता। या फिर कोई महिला दुधमुँहा बच्चे को लेकर घुसती। कोई देख लेता या मिल जाता तो बच्चे के बीमार और भूखे होने की दुहाई देती हुई बचती।

आपराधिक कृत्यों के लिए निकलने से पूर्व आराध्य की अर्चना का अपना एक मनोविज्ञान है। यह अपराध के प्रति मन को दृढ़ करते हुए स्फूर्ति देता है और किए गये कृत्य को न्यायसंगत ठहराने का बल प्रदान करता। इस बार घर के अहाते में घुसने के लिए रमन्ना को चुना गया। रमन्ना पहली बार अपने पुश्तैनी धंधे के लिए जा रहा था इसलिए कुटुम्ब की मान्यता एवं परम्परा के अनुसार अनुष्ठान किया गया। रमन्ना को विधिवत समझाया गया। उसके मन को मजबूत किया गया। पकड़े जाने की दशा में क्या करना है, के लिए प्रशिक्षित किया गया।

रमन्ना जब घर के अहाते में घुसा तो धुधलका होने लगा था। घर के सामने बड़ा-सा लाॅन था और गेट के सामने पोर्च। पोर्च के बाद चार फुट का पैसेज था जो मकान के पीछे तक जाता था। घर में प्रवेश द्वार केवल बरामदे से था। घर में पीछे की तरफ भी एक दरवाजा था जो शायद आपातकालीन निकास था। पीछे की तरफ प्रथम तल पर खिड़की पर स्लाइड वाले शीशे थे जो घर में प्रवेश के लिए आसान और अच्छा विकल्प थे। रमन्ना के मस्तिष्क में पूरा मानचित्र अंकित हो गया था। यह सुखद ही था कि घर में लगभग सन्नाटा था और प्रथम दृष्टया ऐसा लगता था कि, इस बड़े से घर में बहुत कम सदस्य रहते होंगे। काम हो गया था। रमन्ना को झट-पट निकल जाना था। वह घर से निकलने के लिए मेन गेट की ओर बढ़ा कि पूरा घर रोशनी में नहा गया। धक से हो गया उसका दिल और जब अगले पल गेट के सामने ही तीन गाड़ियों के रूकने के साथ उसमें से उतर कर लोग गेट की ओर बढ़े तो वह कलेजे तक सिहर गया। वह घर के पीछे ही बाउण्डरी वाल के पास इक्ट्ठा करके रखी गयी लकड़ियों के साथ दुबक गया। आने वाले सभी लोग बड़े संभ्रात लग रहे थे। घर के इकलौते नौकर एवं तीनों गाड़ियो के ड्राइवर मुस्तैदी से काम में जुट गये। लाॅन में कुर्सिया लगा दी गयीं। देर रात तक बात-चीत और खाना-पीना चलता रहा। कोने में गठरी बनकर दुबका रमन्ना अब और डरने लगा था। उधर बाहर उसका इंतजार कर रहे उसके लोगों का डर और चिन्ता दोनों बढ़ता जा रहा था। कहीं अधीर होकर मारे डर के रमन्ना बाहर निकल आया और पकड़ा गया तो चोर समझ लिया जयेगा फिर सभी पकड़े जायेंगे।

जब खाना-पीना समाप्त हुआ तो रात काफी बीत चुकी थी। सभी लोग जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। घर में रह गये बस मकान मालिक और उसका नौकर। घर की जब सभी बत्तियाँ बुझ गयी तो रमन्ना निकल भागने के लिए आतुर हो गया। पर उसको बार-बार समझाया गया था कि, धैर्य के साथ इंतजार उनके लिए सबसे बड़ा हथियार होता है। लिहाजा वह कुछ देर और गठरी बना रहा। जब यह इत्मीनान हो गया कि ऊपर सब सो गये तो रमन्ना धीरे से उठकर गेट की ओर बढ़ा। घर के चारों ओर बाउण्डरी थी। गेट की ऊँचाई कम थी जिसको आसानी से कूद कर पार किया जा सकता था। वह गेट से दस कदम ही दूर रहा होगा कि, घर के मुख्य द्वार पर खटका हुआ-दरवाजों के लाॅक के खुलने वाला खटका। रमन्ना सन्न। दरवाजा खुलने और रमन्ना के भाग कर लाॅन के अँधरे कोने में छुपने में क्षण भर का अंतर रहा होगा। वह जहाँ छुपा था वहाँ बड़ा-सा डस्टविन था-खाने-पीने की जूठी प्लेटों और अन्य खाद्य पदार्थो के अवशेषों से पटा हुआ। दरवाजे पर मकान मालिक था- एक हाथ में मोबाइल फोन लिए हुए। उसका दूसरा फोन वहीं कहीं छूट गया था जिस पर वह रिंग करके रिंग टोन सुनने का प्रयास कर रहा था। वह लाॅन की तरफ बढ़ा तो डस्टबिन की तरफ थोड़ी हलचल-सी हुई। बिल्ली होगी सोच कर उसने फोन के टार्च से डस्टबिन की तरफ रोशनी फेकी। रोशनी पड़ी ही थी कि रमन्ना उछलकर घर के पीछे की ओर सरपट भागा। अवाक मकान मालिक भी उसके पीछे भागा। कोने में जहाँ वह कुछ देर पहले दुबकर बैठा था वहाँ पुरानी लकड़ियाँ और पटरे सजा कर रखे हुये थे। वह उस पर चढ़कर दीवार को फाँद कर निकल जाना चाहता था। उसने ऐसा ही किया। पटरे पर चढ़कर लपककर बाउण्ड्री पर लगे ग्रिल को पकड़ा और दीवार पर पंजा टिकाकर चढ़ने का प्रयास किया। तभी उसका पैर फिसला और ग्रिल का भाला उसके गर्दन में घुसकर चीरता हुआ जबड़े पर अटक गया। वह बेहोश हो गया, शरीर उस भाले पर अटक कर झूलने लगा। मकान मालिक की आँखों के सामने यह सब एकदम पलक झपकते ही घटा। इस हलचल में नौकर की नींद खुल गयी थी। मकान एक बार फिर रोशनी में नहा गया। नौकर भागा हुआ नीचे पहुँचा तो देखा मालिक लाॅन से मेज खींच रहे हैं। आनन-फानन में मेज लगा कर झूल रहे रमन्ना के शरीर को उतारा गया। मकान मालिक ने एम्बुलेन्स और पुलिस को फोन करके रमन्ना की नाड़ी को देखना चाहा पर जख्म पर नजर पड़ते ही पूरा शरीर सिहर गया। वह हट कर अपने दोस्तों को फोन करने लगा। समय बड़ा भारी हो रहा था। वह एक बार फिर जाकर उस बेसुध पड़े शरीर की नाड़ी देखना चाहा तभी एम्बुलेन्स की सायरन सुनायी दी। पीछे पुलिस की गाड़ी भी आ गयी। चिकित्सा कर्मियों ने जब रमन्ना के शरीर को चेक करने के बाद ‘क्वीक फास्ट’ की आवाज के साथ प्राथमिक उपचार और एहतियात का काम शुरू किया तो मकान मालिक के जान-में-जान आयी। रमन्ना को लेकर जब तेज गति से हास्पिटल की ओर एम्बुलेंस बढ़ी तो अंधेरे में दुबक कर पूरी घटना पर नजर बनाये उसके परिजन भी एम्बुलेंस के पीछे भागे। एम्बुलेंस के जाने के बाद पुलिस इन्सपेक्टर जो मकान मालिक का गहरा परिचित था पूछा-‘‘कैसे हुआ।’’

मकान मालिक ने पूरी घटना बतायी फिर जोड़ा- ‘‘लड़का भूखा रहा होगा। खाने की महक से अन्दर घुस आया होगा। जूठी प्लेटो में खाना ढूढ रहा होगा कि मैं आ गया और...’’ उसके चेहरे पर अफसोस और पीड़ा की एक गाढ़ी लकीर उभर आयी थी।

‘‘चोर भी हो सकता है’’ इन्सपेक्टर ने कहा ,  ‘‘पुलिस को सभी चोर ही नजर आते हैं। देखा नहीं कितना छोटा बच्चा था। वह क्या चोरी करेगा। मैं निकलता हूँ अस्पताल के लिए।’’ कहने के साथ ही वह नौकर को कुछ हिदायत देकर गेट की ओर बढ़ चला।

इन्सपेक्टर भी औपचारिकताओं के लिए अपने अधीनस्थों के साथ अस्पताल की ओर ड्राइवर को चलने के लिए कहा।

‘‘लड़के की स्थिति गंभीर है। उसका बचना चमत्कार ही है। घाव यदि आधा इंच और बायीं ओर हुआ रहता तो उसका विंड पाईप ही कट जाता।’’ मकान मालिक विजयन को डाक्टर ने बताया।

‘‘जवाब में विजयन ने केवल ‘हूँ’ कहा। विजयन रात भर अस्पताल में बैठा रहा। नींद से बोझिल होने पर वह कुर्सी पर ही बैठे-बैठे सो गया। उधर रमन्ना के परिजन पैदल एम्बुलेन्स का पीछा नहीं कर पाये तो पूछते हुये मेडिकल कालेज पहुँच गये। रात से लेकर सुबह तक उन लोगों ने हर एक कमरे में रमन्ना को खोजा पर वह नहीं मिला। फिर उन्होंने शहर के लगभग सभी सरकारी अस्पताल में ढूढ़ा पर रमन्ना उन्हें कही नहीं मिला। मिलता तो तब जब रमन्ना वहाँ होता। वह तो शहर के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल में भर्ती था।

रमन्ना का एक आपरेशन कर दिया गया था। हालत खतरे से  बाहर थी। परन्तु उसका स्वर यंत्र बुरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गया था। इसलिए अब वह बोल नहीं सकेगा। डाक्टर ने विजयन को बताया। डाक्टर की बात पर विजयन ने रमन्ना की आवाज बच जाने के उपाय के बारे में पूछा तो डाक्टर ने कहा कि इसके लिए रमन्ना का एक बड़ा आपरेशन होगा। इस तरह के केस के लिए मुम्बई का एक विशेषज्ञ हास्पिटल है। आपरेशन जितनी जल्दी होगा परिणाम भी उतना बेहतर आयेगा। विजयन रमन्ना को लेकर मुम्बई के लिए उड़ान भरा। साथ में उसका नौकर भी था। उधर रमन्ना को अस्पताल में खोजने के बाद जब वह नहीं मिला तो सभी लोग गाँव की ओर लौट गये सिवा उसके बाप के ‘वह उस घर के आस-पास रहकर उचित मौका मिलने पर उस घर के मालिक से रमन्ना के बारे में किसी बहाने से पूछेगा।’ ऐसा रमन्ना के बाप ने गाँव लौट रहे अपने साथियों को बताया था। उसने यह भी आश्वस्त किया था किसी भी प्रकार का खतरा होने पर वह मर जायेगा पर अपने काम और कुटुम्ब के बारे में नहीं बतायेगा। 

विजयन विश्वविद्यालय में अनुवांशिक विज्ञान का एसोसिएट प्रोफेसर था। अपराध की प्रवृत्ति में गुण सूत्रों की भूमिका विषय पर वह शोध कार्य कर रहा था। अपने शोध कार्य के लिए बैंग्लोर में वह पिछले तीन माह से था। जहाँ पर रमन्ना के साथ घटना घटी थी वह उसके एक मित्र का मकान था जो पुलिस महकमे में बड़ा अधिकारी था और कर्नाटक के किसी जिले में कार्यरत था। घटना वाली रात बैंगलोर में उसकी अंतिम रात थी, इसलिए वह अपने साथियों एवं सहयोगियों को पार्टी दिया था। इधर रमन्ना का बाप उस घर के आस-पास लगातार चक्कर लगाया पर विजयन कभी दिखा ही नहीं। उस बडे़ घर में सदैव सन्नाटा ही पसरा रहता था। लगभग एक महीने बाद एक पुलिस अधिकारी उस बंगले में अपने परिवार सहित रहने के लिए आ गया तो रमन्ना के बाप के पास घर लौट जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचा। वह अपने गाँव लौट गया। गाँव में रमन्ना की माँ रमन्ना के लिए व्याकुल थी। अपने पति को रमन्ना के बिना लौटने पर वह उसे कोसने लगी। वह इस जिद्द पर अड़ गयी कि वह बंैगलोर जाकर अपने बेटे को ढूढ़ लेगी। लिहाजा रमन्ना का बाप अपनी जो भी गृहस्थी थी उसे लेकर रमन्ना की माँ और रमन्ना की छोटी बहन अनसुइया को लेकर बैंगलोर चला आया। शहर के बाहरी इलाके में उन लोगो ने सड़क किनारे तम्बू गाड़ कर अपनी गृहस्थी सजायी। माँ पत्थर का सील-बट्टा बनाने और छीनने का काम करने लगी और बाप साइकिल पर घूम-घूमकर चाकू-छुरी, कैंची में धार बनाने का काम करने लगा। वे रमन्ना को अब चरणबद्ध तरीके से ढूढ़ने की योजना पर काम करने लगे थे। रमन्ना की माँ उस मकान में काम माँगने के बहाने गयी। गेट पर तैनात सिपाही ने बहुत अनुनय-विनय करने के बाद सिपाही ने डरते हुये मेम साहब को इत्तला दी। मेम साहब वहीं से मना कर देती पर एक दस-बारह साल की बच्ची भी है यह सुनकर कुछ पुराने कपड़े लेकर बाहर आयीं, दी और कार्य के लिए सीधे मना कर दिया तो रमन्ना की माँ ने पूछ लिया- ‘‘इसके पहले वाले साहब काम देने के लिए बोले थे अब कहाँ मिलेंगे वे।’’ 

मेम साहब ने कहा कि, वह उन्हें नहीं जानती। हाँ इस घर के मकान-मालिक जो एक बड़े पुलिस अधिकारी हैं, से पूछे तो वह बता सकते हैं। उन्होंने सिपाही से उनका फोन नम्बर लिखकर भेजवा दिया। पर रमन्ना की माँ ने हार नहीं मानी। वह क्रम से शहर के अस्पतालों में जाकर सफाई कर्मियों से परिचय बढ़ाकर उनके साथ उठना-बैठना करने लगी। इस परिचय के सहारे एम्बुलेन्स के ड्राइवरों से उस दिन घायल बच्चे को लाने वाले को जानना चाहती थी जिससे अस्पताल और फिर उस अस्पताल से रमन्ना के बारे में कुछ भी जानकारी मिल सके।

उधर मुम्बई में रमन्ना का दूसरा आपरेशन हुआ पर वह सफल नहीं हुआ। डेढ़-साल बाद एक आपरेशन और होना था पर उससे भी आवाज वापस आ ही जायेगी कहा नहीं जा सकता था। अस्पताल से छुट्टी के बाद विजयन रमन्ना को घर ले आया। वह रमन्ना के माँ-बाप को खोजना चाहता था। पर रमन्ना उसे कुछ भी बता नहीं पा रहा था, न अपने बारे में न माँ-बाप के बारे में। बताता भी कैसे पढ़ना-लिखना वह जानता नहीं था, आवाज चली ही गयी थी उसकी। विजयन रमन्ना को बहुत दुलार और हिफाजत से रखता था पर माँ-बाप की याद रमन्ना को गमगीन कर देती थी। रमन्ना के कारण विजयन भी पछतावा में रहता। एक दिन रमन्ना विजयन की कापी मंे उसका एक स्केच बना दिया। यह विजयन के लिए अविश्वनीय चमत्कार सा था। वह भाव-विह्वल हो गया। विजयन रमन्ना के आगे के जीवन के लिए चिन्तित था परन्तु अब तो रमन्ना का जीवन बहुत बेहतर हो सकता है- पूरी दुनिया में रमन्ना मशहूर हो सकता है। वह रमन्ना को मुम्बई के सबसे प्रतिष्ठित स्केच आर्टिस्ट के सानिध्य में प्रशिक्षण के लिए रखवा दिया और उसकी पढ़ाई का भी प्रबन्ध कर दिया।

जब समय अनुकूल नहीं होता है तो काटे नहीं कटता। लेकिन समय को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। वह अपनी एक सी गति से चलता रहता है। यह हम पर निर्भर करता है कि समय की गति कैसी होगी। रमन्ना के माँ-बाप को जीवन संघर्ष के साथ रमन्ना को ढूढ़ने में एक साल से अधिक का समय बीत चुका था। पर उसका कोई अता-पता नहीं मिल पाया था। कभी-कभी रमन्ना की माँ उसे याद करके रोने लगती तो अनुसुइया भी सुबकने लगती थी। वे कुछ और दिन बाद हताश होकर गाँव लौट गये। समय अपनी गति से चलता रहा। उसकी चाल में लेश मात्र भी परिवर्तन नहीं आया। समय की इस चाल से दस वर्ष का समय बीत गया। इन दस सालों में बहुत कुछ बदल गया। रमन्ना की माँ मर गयी। अनुसुइया बड़ी हो गयी। रमन्ना के परिवार सहित गाँव वालों के न तो जेहन में न ही यादों में अब रमन्ना कहीं था।

प्रेम मूलतः रासायनिक क्रियाओं के फलस्वरूप घटित होने वाली भावना है। यह जितना जटिल है उतना आवेगात्मक भी। प्रकृति द्वारा रचित यह रासायनिक षड़यन्त्र प्रकृति की अपनी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बना है। अनुसुइया की उम्र का तकाजा था कि गाँव का ही हमउम्र लड़का उसे भाने लगा था। भावना उधर भी कम नहीं थी। गाँव से दूर जंगल में जंगल के वातावरण के साथ वे घण्टों गुंजायमान रहते थे। ऐसे में किसी एक दिन उन दोनों ने मान्य तरीके से साथ रहने की बात पर आपस मंे गंभीरता से मंत्रणा की। प्रेम सपनों की उड़ान भी देता है पर सांसारिक जीवन में सपनों की उड़ान के लिए पैसे की जरूरत होती है और शहद निकाल कर जड़-मूल बेचकर पेट भरा जा सकता था, सपने पूरे नहीं किए जा सकते थे। लिहाजा लड़के ने अपने कुछ साथियों के साथ किसी बड़े शहर में किसी घर को लूटने की योजना बना डाली। दो महीने की मेहनत के बाद उन लोगो ने कलाविडा भवन का चयन किया जो एक बड़े शहर का सेमी पाॅश कालोनी का सबसे एकान्त का मकान था। कन्नड़ भाषा में कलाविडा का अर्थ कलाकार होता है। उस भवन में एक युवा रहता था जिसका नाम कलाविडा ही था। घर में उसके अलावा उसके हम उम्र दो और लोग रहते थे जो हफ्ते में तीन दिन के लिए बाहर जाते थे। काम वाली शाम को आती थी, माली हफ्ते में तथा कपड़े वाला एक दिन नागा करके। यह सब उन लोगो ने रेकी के माध्यम से पता किया। शायद इस युवा के माँ बाप कही विदेश में या फिर किसी दूसरे बड़े शहर में रहते हों उन लोगों ने यह आकलन किया। योजना में अनुसुइया और उसके बाप को भी शामिल किया गया। दरअसल लूट का तीन चैथाई हिस्सा लूट में शामिल लोगों में बँटता था और शेष एक चैथाई कुटुम्ब के लोगों में। यह परम्परा थी।

योजना के अनुसार अनुसुइया ने डोर बेल बजायी। उसकी गोद में दो साल का एक बच्चा था। कलाविडा ने ही दरवाजा खोला। ‘‘बच्चा बीमार है, प्यास से तड़प रहा है, थोड़ा पानी मिल जाता तो जान बच जाती।’’ अनुसुइया ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। कलाविडा ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। वह इशारे से उसे रुकने के लिए कहा। अंदर किचन से पानी का बोतल और कुछ खाने की सामग्री लेकर जब वह लाॅबी तक पहुँचा तो देखा कि वह औरत अंदर तक आ चुकी है। उसके अंदर तक चले आने पर उसका माथा ठनका। वह इस तरह से लूट के तरीकों से वाकिफ था। खतरे को वह भाँप चुका था। लिहाजा औरत को पकड़कर बाहर ढकेलने ही वाला था कि, बाहरी दरवाजे के पीछे से एक पुरुष प्रकट होता हुआ दिखा। उसके पीछे दूसरा फिर तीसरा। दरवाजे के पीछे ज्यों ही उसने पहले पुरुष को देखा वह उस औरत को छोड़कर अंदर की ओर भाग जाने के लिए डग बढ़ाया ही था कि दूसरा पुरुष जो कोई साठ साल के आस-पास रहा होगा को देखकर उसके पैर जम गया। वह अपलक उस और देख कर कुछ समझना चाह रहा था कि पहले पुरुष ने उसके सर पर हथौड़े से जोरदार प्रहार किया। प्रहार से दर्द का अहसास होने के पूर्व ही वह बेहोश होकर फर्श पर गिर पड़ा। खून पहले कपड़े पर फिर फर्श पर फैल कर गाढ़ा होने लगा था। उन सभी ने आनन-फानन में घर को खंगाला। घर में कोई और नहीं है, इस इत्मीनान के बाद घर के लाॅकर और आलमारियों की खोज शुरू हुई। अनुसुइया के गोद का बच्चा अब कुछ कुनमुनाने लगा था तो वह किचन में जाकर कुछ खाने की तलाश करने लगी। इस क्रम में उसने देखा कि लाॅबी में गिरे उस व्यक्ति की आँखे मिचमिचा रही हैं। वह हल्के-हल्के आँखे झपका रहा था। वह बच्चे को वहीं बैठा कर उसके करीब तक आ गयी। कलाविडा अब अर्द्ध चेतना में आ चुका था। फर्श पर बेदम पड़ी ऊँगलियों के हल्के हरकत से वह कुछ संकेत कर रहा था। सघन पीड़ा के बाद भी उसके चेहरे पर किसी भी प्रकार का भय और बक्श देने का भाव नहीं था बल्कि असीम शांति और तृप्ति का भाव था। अनुसुइया को लगा कि उसकी आँखें उसे बुला रहीं हैं, कुछ कहने के लिए। वह उसके निकट आ गयी। कलाविडा की आँखों के कोरों पर आँसू ढरक आये। अनुसुइया उस दो बूँद आँसू से व्याकुल हो उठी। उसे जमीन पर खून के साथ पसरा वह आदमी अपना सगा लगने लगा। इसी के वशीभूत अनुसुइया उसके बगल में बैठ गयी। कलाविडा के चेहरे पर एक असीम संतोष का भाव फैल गया। अनुसुइया ने उसका बायाँ हाथ अपने हाथों में ले लिया। यह अनुसुइया के हाथों के स्पर्श की ताकत थी या कलाविडा के पूर्ण होश में लौटने का कोई चरण था कि उसने अनुसुइया के हाथो पर दबाव बनाया। कलाविडा के आँखों से आँसू झर झर बहने लगे। अनुसुइया के लिए यह सब बर्दाश्त करना मुश्किल हो रहा था। उसे महसूस होने लगा कि सामने पड़े व्यक्ति की नहीं बल्कि उसकी अपनी जीवन डोर उससे छूटती जा रही है। वह जार-बेजार रो लेना चाहती थी। तभी ‘अनुसुइया’ की एक तेज आवाज से वह चिहुँक गयी। एक कमरे को खंगाल कर दूसरे कमरे में जा रहे उसके एक साथी ने यह आवाज दी थी जो जल्दी करने की हिदायत थी। वह झट से कलाविडा का हाथ छोड़कर खड़ी हुई तो उसके चेहरे पर नजर गयी। वह ऊँगलियों से सामने रखे लकड़ी को बने कैबिनेट की ओर ईशारा कर रहा था, चेहरे पर वही संतोष और शांति भाव लिए। अनुसुइया ने अपना चेहरा फेर लिया। किचन में तब तक बच्चा रोने लगा था। वह किचन की ओर भागी। बच्चे को उठाकर पुचकारा और फिर वहीं फर्श पर बैठाकर कुछ खाने के लिए दे दिया। वह किचन से बाहर आयी। न चाहते हुये भी लाॅबी में पड़े उसके चेहरे की ओर उसकी आँखें टिक गयीं। उफ! क्या है इसकी आँखों में जो उसे इतना बेचैन कर दे रहीं है पर इस बार उसने अपने को मजबूत किया। दौड़ कर लाॅबी में रखे कुशन को उठा कर उस आदमी की आँखें बंद कर देने के लिए बड़ी क्रूर मंशा के साथ बढ़ी। कलाविडा के चेहरे पर अभी भी किसी डर का चिन्ह नहीं था। उसने एक बार फिर उस कैबिनेट की ओर इशारा किया। वह ठिठकी पर अगले ही क्षण उसके मुँह पर कुशन रखकर दबाने लगी। उसके शरीर ने कोई विरोध नहीं किया। यहाँ तक कि जब उसके शरीर से प्राण वायु का अंतिम कतरा भी समाप्त हो रहा था भी उसके शरीर में कोई जुम्बिश नहीं हुई। कुशन लेकर जब वह उसके शरीर के ऊपर से उठी तो उसकी आँखे खुली हुई थीं। उसका चेहरा अब और शांत तथा अपनापन लिए हुये था। वह कैबिनेट की ओर बढ़ी। 

आखिर क्या है इस कैबिनेट में जिसकी ओर यह बार-बार इशारा कर रहा था। वह कैबिनेट खोलने को हुई कि एक बारगी ठिठक गयी। कहीं यह उसकी कोई चाल तो नहीं पर अगले पल उसका निर्विकार चेहरे की ओर देखकर वह एक झटके से कैबिनेट खोल दी। कैबिनेट में कई दराज थे। एक-एक दराज खोलने के बाद एक में चाभियों के कई गुच्छे दिखे। वह घर के सभी लाॅकर और आलमारियों की चाभियाँ थी। अलग-अलग की-रिंग में। अनुसुइया को यह बात थोड़ी खटकी कि क्यों कर इस आदमी ने सारी चाभियाँ उसे बता दीं। पर चाभी लेने की खुशी ने उसके मन के खटके को दूर घकेल दिया। उसने चिल्लाकर सभी को बुलाया। चाभियों का गुच्छा देखकर उन सबकी आँखें चमक उठीं। चाभियों का अलग-अलग गुच्छा लेकर वे सभी कमरों की ओर भागे। उस दल का सबसे उम्र दराज आदमी जिसे प्रवेश द्वार पर देखकर कलाविड़ा भागने की बजाय ठिठक कर खड़ा हो गया था, को लाकर की चाभी मिली थी। वह लाॅकर को काफी देर से खोलने का प्रयास कर रहा था पर लाॅकर में कोई हरकत नहीं हो रहा था। अब चाभी लगते ही लाॅकर खट से खुल गया। लाॅकर का आकार बड़ा था लिहाजा ज्यादा माल-असबाब पाने की उम्मीद वाली खुशी उसकी आँखों में तैरने लगी। उसने लाॅकर में हाथ डाला। एक बस्ता निकला जिसे उसने बेड पर फेक दिया। फिर हाथ डाला। पर इस बार-कुछ भी हाथ नहीं आया। लाॅकर के कोने-अतरे में टटोला, बार-बार टटोला पर कुछ भी नहीं मिला। उसके चहरे की खुशी मद्धिम होने लगी। वह बिस्तर पर फेके गये बस्ते की ओर लपका। बस्ते का दोनों फीता खोलते ही दस-बारह स्केच कापी छितरा गये। वह बस्ते को खंगालने लगा, कहीं इसी में कुछ छिपाकर रखा हो। अभी उसकी उम्र साठ साल है। जब वह पन्द्रह साल का था तब उसने अपने कुटुम्ब के साथ लूट के काम में है। पर किसी भी लाॅकर में किताब-कापी, पोथी नहीं देखी। जमीन के कागज-पत्तर, जरूर देखा है पर उनके साथ गहना, रुपया भी रहता था। उसके चेहरे से खुशी एकदम गायब हो गयी थी। अचानक उसके मन में आया कि कापियों में तो कहीं कुछ नहीं है। वह एक स्केच बुक उठाकर पलटने लगा। पहले-दूसरे पन्ने को खोलते ही उसकी आँखें फैल गयीं। तीसरे-चैथे पन्ने तक आते-आते उसके चेहरे की भाव-भंगिमा ही बदलने लगी। उसने दूसरा स्केच बुक उठाकर उसके पन्ने पलटे, फिर तीसरा और चैथा। उसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया। उसने पाँचवा स्केच बुक खोला फिर छठाँ और फिर सातवाँ। सातवें स्केच बुक के एक पन्ने पर आकर वह रुक गया। उस पन्ने पर एक बारह साल के बच्चे का स्केच था जिसका जबड़ा बाउण्ड्री वाल के भाले में फँसा था और शरीर बेदम झूल रहा था। वह बदहवास चीखने लगा और भागता हुआ कलाविड़ा की लाश तक आ गया। उसकी चीख सुनकर उसके सभी साथी भागते हुए आये। वह व्यक्ति कलाविड़ा की लाश के सर को अपनी जाँघ पर रखकर दहाड़ें मार कर रोने लगा। अनुसुइया अपने बाप के इस हरकत पर हतप्रभ थी। कोई कुछ समझ नहीं पा रहा था। कमरे में ऐसा क्या घटा कि बापू पागल सा हो गया। अनुसुइया भागती हुई लाॅकर वाले कमरे में गयी। कमरे को निहारने के बाद वह स्केच बुक को पलटने लगी। इन स्केच बुक में कलाविड़ा ने अपने बचपन जब वह रमन्ना था से लेकर कलाविड़ा तक के अपने पूरे सफर को सिलसिलेवार बहुत ही प्रभावशाली ढंग से उकेरा था। अनुसुइया के सामने रमन्ना के साथ का बचपन चलचित्र की तरह चलने लगा। वह सर पकड़कर विक्षिप्त-सी होकर चीखने लगी फिर फफक-फफक कर रोने लगी और एक कातर चीख के साथ पुकारी ‘भइया’। पर भइया अब कहाँ सुनने वाला था।



कथा-गोरखपुर की कहानियां 


कथा-गोरखपुर खंड-1 


मंत्र ● प्रेमचंद 

उस की मां  ● पांडेय बेचन शर्मा उग्र 

झगड़ा , सुलह और फिर झगड़ा  ● श्रीपत राय 

पुण्य का काम ●सुधाबिंदु त्रिपाठी

लाल कुरता   ● हरिशंकर श्रीवास्तव 

सीमा  ● रामदरश मिश्र 

डिप्टी कलक्टरी  ● अमरकांत 

एक चोर की कहानी  ●श्रीलाल शुक्ल

साक्षात्कार  ● ज ला श्रीवास्तव 

अंतिम फ़ैसला  ● हृदय विकास पांडेय 


कथा-गोरखपुर खंड-2 

पेंशन साहब ● हरिहर द्विवेदी 

मां  ● डाक्टर माहेश्वर 

मलबा ● भगवान सिंह 

तीन टांगों वाली कुर्सी ● हरिहर सिंह 

पेड़  ● देवेंद्र कुमार 

हमें नहीं चाहिये ऐसे पुत्तर  ●श्रीकृष्ण श्रीवास्तव

सपने का सच ● गिरीशचंद्र श्रीवास्तव 

दस्तक ● रामलखन सिंह 

दोनों ● परमानंद श्रीवास्तव 

इतिहास-बोध ●विश्वजीत  


कथा-गोरखपुर खंड-3 

सब्ज़ क़ालीन  ● एम कोठियावी राही 

सौभाग्यवती भव  ● इंदिरा राय 

टूटता हुआ भय  ● बादशाह हुसैन रिज़वी 

पतिव्रता कौन  ● रामदेव शुक्ल 

वहां भी ● लालबहादुर वर्मा 

...टूटते हुए ● माहेश्वर तिवारी

डायरी  ● विश्वनाथ प्रसाद तिवारी 

काला हंस ● शालिग्राम शुक्ल 

मद्धिम रोशनियों के बीच  ● आनंद स्वरूप वर्मा 

इधर या उधर ● महेंद्र प्रताप 

यह तो कोई खेल न हुआ   ● नवनीत मिश्र 

कथा-गोरखपुर खंड-4 

आख़िरी रास्ता  ● डाक्टर गोपाल लाल श्रीवास्तव 

जन्म-दिन ●कृष्णचंद्र लाल 

प से पापा  ● रमाकांत शर्मा उद्भ्रांत 

सेनानी, सम्मान और कम्बल ● शक़ील सिद्दीक़ी 

कचरापेटी ●रवीन्द्र मोहन त्रिपाठी

अपने भीतर का अंधेरा  ● तड़ित कुमार 

गुब्बारे  ● राजाराम चौधरी

पति-पत्नी और वो  ● कलीमुल हक़ 

सपना सा सच ● नंदलाल सिंह 

इंतज़ार  ● कृष्ण बिहारी 


कथा-गोरखपुर खंड-5 

तकिए  ● शची मिश्र 

उदाहरण ● अनिरुद्ध 

देह - दुकान ● मदन मोहन 

जीवन-प्रवाह ● प्रेमशीला शुक्ल  

रात के खिलाफ़ ● अरविंद कुमार 

रुको अहिल्या ● अर्चना श्रीवास्तव 

ट्रांसफॉर्मेशन ●उबैद अख्तर

भूख ● श्रीराम त्रिपाठी 

अंधेरी सुरंग  ● रवि राय 

हम बिस्तर ●अशरफ़ अली


कथा-गोरखपुर खंड-6 

भगोड़े ● देवेंद्र आर्य

एक दिन का युद्ध ● हरीश पाठक 

घोड़े वाले बाऊ साहब ● दयानंद पांडेय 

खौफ़ ● लाल बहादुर

बीमारी ● कात्‍यायनी

काली रोशनी  ● विमल झा

भालो मानुस  ● बी.आर.विप्लवी

तीन औरतें ● गोविंद उपाध्याय 

जाने-अनजाने   ● कुसुम बुढ़लाकोटी

ब्रह्मफांस  ● वशिष्ठ अनूप

सुनो मधु मालती ● नीरजा माधव 


कथा-गोरखपुर खंड-7 

पत्नी वही जो पति मन भावे  ●अमित कुमार मल्ल    

बटन-रोज़  ● मीनू खरे 

शुभ घड़ी ● आसिफ़ सईद  

डाक्टर बाबू  ● रेणु फ्रांसिस 

पांच का सिक्का ● अरुण कुमार असफल

एक खून माफ़ ●रंजना जायसवाल

उड़न खटोला ●दिनेश श्रीनेत

धोबी का कुत्ता ●सुधीर श्रीवास्तव ' नीरज '

कुमार साहब और हंसी ● राजशेखर त्रिपाठी 

तर्पयामि ● शेष नाथ पाण्डेय

राग-अनुराग ● अमित कुमार 


कथा-गोरखपुर खंड-8  

झब्बू ●उन्मेष कुमार सिन्हा

बाबू बनल रहें  ● रचना त्रिपाठी 

जाने कौन सी खिड़की खुली थी ●आशुतोष 

झूलनी का रंग साँचा ● राकेश दूबे

छत  ● रिवेश प्रताप सिंह

चीख़  ● मोहन आनंद आज़ाद 

तीसरी काया   ● भानु प्रताप सिंह 

पचई का दंगल ● अतुल शुक्ल 


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