दयानंद पांडेय
समझ नहीं पाता कि पंडितों से चिढ़ने वाले लोग , पंडितों के चक्कर में पड़ते क्यों हैं। ऐसे पंडित अगर पढ़े-लिखे होते तो यह और ऐसा काम भी नहीं करते। क्यों करते भला , इतना अपमानजनक काम। नहीं देखा कभी किसी को कि प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि अयोग्य बुलाते हों घर पर और काम करवाते हों।
पंडित ही अयोग्य क्यों बुलवाते हैं।
इसी लिए अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम ! गरिया लीजिए। फिर पंडित की दिहाड़ी देने में दुनिया भर की नौटंकी। कभी किसी प्लंबर , कारपेंटर , इलेक्ट्रिशियन आदि को उस की दिहाड़ी देने में नौटंकी करते किसी को नहीं देखा। बल्कि उस की चिरौरी , मनुहार सब कुछ करते हैं लोग। समय पर आए , चाहे चार दिन बाद। लेकिन पंडित समय पर चाहिए। गोया बंधुआ हो।
बैंड बाजा , बघ्घी , आर्केस्ट्रा , डोम , लकड़ी , बिजली , डेकोरेशन , कैटरर्स आदि की फीस देने में किसी को मुश्किल नहीं होती। लेकिन एक पंडित ही है जिसे हर कोई गरियाता मिलता है। उस की फीस देने में सारे करम हो जाते हैं। एक दिन की मज़दूरी देना भी भारी लगता है। अगर इतना ही बोझ है यह पंडित तो फेंकिए इसे भाड़ में अपने घरेलू कार्यक्रम से। पारंपरिक काम से। उसे बुलाने और उस की अयोग्यता का गान गाने से फुरसत लीजिए।
बिना पंडित के भी सारे कार्यक्रम संपन्न होते हैं। हो सकते हैं। संपन्न कीजिए। दिक़्क़त क्या है ? अनिवार्यता क्या है ?
लेकिन घर में झाड़ू -पोछा करने वाली के चरण पखारने वाले लोग पंडितों में हज़ार कीड़े खोजते हैं। तो इस लिए कि पंडितों को अपमानित करने का नैरेटिव बना लिया गया है। फेंकिए इस पंडित को बंगाल की खाड़ी में। छुट्टी लीजिए इस मूर्ख से। पोंगा पंडित से। पाखंड से।
पर यह नैरेटिव वैसे ही है , जैसे कुछ बीमार लोग कहते नहीं अघाते कि उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता। पंडित जाति पूछता है। जब कि सच यह है कि मंदिरों में इतनी भीड़ होती है कि ऐसी बात पूछने का अवकाश किसी के पास नहीं होता। कोई कैसे भी आए-जाए। सच यह भी है कि तमाम क्या अधिकांश मंदिरों में पुजारी , ब्राह्मण नहीं पिछड़ी जाति के लोग होते हैं। दलित भी होते हैं। अब तो पंडिताई के काम में भी कई सारी पिछड़ी जातियों के लोग दिख रहे हैं। ख़ास कर नाई जाति के लोग शहर बदल कर पंडित बन जा रहे हैं।
नाम में उन के शर्मा होता ही है। पंडित के साथ काम करते-करते पंडिताई सीख जाते हैं। कई और जातियों के लोग भी पंडिताई में देखे जा रहे हैं। कोई चेक करने वाला है भी नहीं । अब अगर प्लंबर इलेक्ट्रीशियन का काम करेगा या कारपेंटर का काम करेगा तो कर तो देगा। पर कितना परफेक्ट करेगा ? वह ही जानेगा या काम करवाने वाला।
दिलचस्प तथ्य यह भी है कि ब्राह्मणों में भी पंडिताई यानी पूजा-पाठ का काम कभी सम्मानित काम नहीं माना जाता। पंडिताई का काम करने वालों के यहां आम ब्राह्मण भी शादी-व्याह नहीं करता। पंडिताई करने वाले लोग बहुत ग़रीब होते हैं , इस लिए भी। क्यों कि बाक़ी व्यवसाय की तरह पंडिताई की दुकान अभी पूरी तरह प्रोफेशनल नहीं हो पाई है। जिन कुछ पंडितों की दुकान कारपोरेट कल्चर में फिट हो चुकी है , शोरुम बन चुकी है , कभी उन को बुला कर देखिए। पसीने छूट जाएंगे आप के।
जब वह आप से किसी काम के लिए हज़ारों , लाखों अग्रिम की बात कर देंगे। आप भाग आएंगे। भीगी बिल्ली बन जाएंगे। पंडितों को गरियाना भूल जाएंगे। जब इन पंडितों को अपनी बड़ी सी कार में बैठे , मिसरी की तरह मीठा-मीठा बोलते देखेंगे तो पोंगा पंडित शब्द भूल जाएंगे। जल्दी ही आप सामान्य और विपन्न पंडितों को भी अपनी शर्तों पर काम करते देखेंगे। वह दिन ज़्यादा दूर नहीं है। पंडितों ने भी किसी कुशल मज़दूर की तरह अपना पेशा ठीक करना ज़रा देर से सही , शुरु कर दिया है। तब खोजे नहीं मिलेंगे आप के दाम या दक्षिणा पर यह पंडित। बैंड बाजा बनने की तरफ अग्रसर हैं यह पंडिताई करने वाले लोग भी। अभी लेकिन इन पंडिताई करने वालों को गरियाने का मौसम है। मुफ़ीद मौसम !
क्यों कि ब्राह्मणों में भी यह दलित लोग हैं अभी की तारीख़ में। परशुराम का फरसा नहीं है , इन के पास। जिस दिन होगा , फरसा इन के हाथ में , व्यापार का फरसा , तमाम पार्टियों की तरह आप भी दंडवत होंगे , इन के आगे। गरियाना भूल जाएंगे फिर।
सही है
ReplyDeleteबहुत बढ़िया 🙏
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