दुर्योधन अगर कहता था कि मेरा बाप अंधा है तो इस में मेरा क्या कसूर है। दुर्योधन की मांग भी कहीं से नाजायज नहीं थी। लेकिन अपनी मांग को पूरी करने के लिए दुर्योधन के तरीक़े ज़रूर नाजायज थे। जुआ , लाक्षागृह आदि ने उस की जायज मांग को भी नाजायज साबित कर दिया। ठीक उसी तरह आज रिपब्लिक भारत के खूंखार एंकर अर्णब गोस्वामी की बात कहीं से नाजायज नहीं है। उन के कहने के तरीके ने उन की सही बात को भी विध्वंसक साबित करने का उन के विरोधियों के हाथ में हथियार थमा दिया है। रिपब्लिक भारत जब शुरू हुआ था तब कोई दस-बारह दिन देखने के बाद फिर मेरी हिम्मत जवाब दे गई थी और रिपब्लिक भारत देखना बंद कर दिया।
आज जब अर्णब की चौतरफा धुलाई होती देखी तो एक मित्र से उस हिस्से के वीडियो का लिंक मांग कर देखा। अर्णब का तरीका बहुत ही अशोभनीय दिखा। बिलकुल दुर्योधन की तरह। लाक्षागृह की तरह। लेकिन अर्णब के सवाल तो महत्वपूर्ण हैं। ज़रूरी हैं अर्णब के सवाल। सच तो यही है कि सोनिया, राहुल और प्रियंका आदि-इत्यादि किसी ने भी पालघर में दो संन्यासियों की हत्या की निंदा तो छोड़िए , भूल कर ज़िक्र भी नहीं किया कहीं। कांग्रेसियों , वामपंथियों समेत समूची सेक्यूलर जमात इस मॉब लिंचिंग पर सिरे से खामोश रही है।
किसी सूरत आज लब खुले हैं तो अर्णब गोस्वामी के बेसुरे अंदाज़ पर। आज सोनिया का कवच बन कर उपस्थित हुए कौन लोग हैं , ध्यान से देख लीजिए। बाकी अर्णब गोस्वामी हों या रवीश कुमार दोनों एंकर एक ही काम कर रहे हैं। दोनों ही नफरत की दुकानदारी में न्यस्त , व्यस्त और मस्त हैं। बस बाप दोनों के अलग-अलग हैं। लेकिन नफरत और घृणा का कारोबार दोनों ही बखूबी संभाल रहे हैं। एकपक्षीय होना , एजेंडा परोसना दोनों ही की प्रतिबद्धता है। क्या रवीश कुमार नहीं चीखते , चिल्लाते हैं।
हां , सुर उन का अर्णब सा नहीं होता। अर्णब पंचम में होते हैं तो रवीश मद्धम में। पर खीझना , खिसियाना आदि-इत्यादि सब उन के यहां भी है। जो न्यूज़ का हिस्सा नहीं होता। एजेंडा होता है। दिलचस्प यह कि दोनों ही एन डी टी वी के प्रोडक्ट हैं। रवीश अभी एन डी टी वी की ताबेदारी में हैं , अर्णब अपनी निजी दुकान खोल बैठे हैं। फर्क यह है कि भाजपाई अर्णब गोस्वामी के साथ खड़े हैं या यह कहिए कि अर्णब भाजपाइयों के साथ खड़े हैं। ठीक वैसे ही रवीश कुमार के साथ कांग्रेस और वामपंथी खड़े हैं या यह कह लीजिए कि रवीश कुमार कांग्रेस और वामपंथियों के साथ खड़े हैं।
मतलब पूरा महाभारत है। अब आप के पास अपनी सुविधा यह है कि अपनी पसंद के हिसाब से किसी एक को पांडव , किसी दूसरे को कौरव की संज्ञा , विशेषण से नवाज कर अपना काम चला सकते हैं। पर एक दिक्कत यह भी है कि वामपंथियों को रामायण , महाभारत जैसी चीज़ों पर यकीन ही नहीं है। कांग्रेस भी अदालत में दबी जुबान राम के अस्तित्व से इंकार करती है पर हर साल दिल्ली की रामलीला में रावण भी जलाती है। तो इस अंतर्विरोध को मारिए गोली। और जानिए कि इन की चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध कुछ और हैं तो उन के कुछ और। लेकिन चुनी हुई चुप्पियां और चुने हुए विरोध की दुकान दोनों के पास है। फर्क बस इतना है कि चुनाव जीतने में कांग्रेस और वामपंथी भले नाकामयाब हों पर प्रोपगैंडा फ़ैलाने और माहौल बनाने में वह अपने प्रतिदवंद्वी से हज़ारो किलोमीटर आगे हैं।
याद कीजिए अख़लाक़ , पहलू खान , तबरेज अंसारी आदि-इत्यादि के मामले। पूरे देश में आग लग गई थी। अख़लाक़ मारा गया उत्तर प्रदेश में लेकिन तत्कालीन मुख्य मंत्री अखिलेश यादव को भूल कर , क़ानून व्यवस्था राज्य सरकार के जिम्मे है , नज़रअंदाज़ कर सारा ठीकरा केंद्र सरकार पर फोड़ते हुए साहित्य अकादमी को हथियार बनाया गया। तब जब कि साहित्य अकादमी स्वायत्तशासी संस्था है। सिवाय बजट देने के केंद्र सरकार का एक पैसे का दखल नहीं है। अवार्ड वापसी गैंग इस बात को बखूबी जानता था। लेकिन साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी से व्यक्तिगत खुन्नस निकालने के लिए अशोक वाजपेयी ने वामपंथियों का बखूबी इस्तेमाल कर लिया। रंग भी चोखा हो गया। पर अख़लाक़ , पहलू , तबरेज के दुकानदार पाल घर में संन्यासियों की मॉब लिंचिंग पर खामोश दूरी बनाए हुए हैं। लेकिन अर्णब गोस्वामी द्वारा सोनिया गांधी पर निशाना साधने पर यही दुकानदार बौखला गए हैं। पत्रकारिता के शिष्टाचार तक पर यह सभी दुकानदार आ गए हैं।
गोया देश में अभी पत्रकारिता शेष हो। जो सचमुच देश में पत्रकारिता शेष होती तो यह दुकानदार जाने क्या-क्या कहते। हां , यह ज़रूर है कि पालघर में संन्यासियों की हत्या पर भाजपाइयों , संघियों की ज़बरदस्त हार हुई है। एक तो लॉक डाऊन दूसरे , प्रोपगैंडा में , माहौल बनाने में नाकामयाब हुए हैं , भाजपाई और संघी। असल में इन के पास प्रोपगैंडा के लिए , माहौल बनाने के लिए वामपंथियों जैसी कुशल टीम नहीं है , जो कि कांग्रेस के पास है। भाजपाइयों के पास है भी तो अर्णब गोस्वामी। जो खेल बनाता कम , खेल बिगाड़ता ज़्यादा है। अर्णब का बम-बम स्टाइल में सोनिया पर हमलावर होना , कांग्रेसियों और वामपंथियों के गैंग को रास आ गया है। देखिए न कुछ घंटे में ही बात संन्यासियों की हत्या से हट कर , अर्णब गोस्वामी की पत्रकारिता पर आ गई है। एफ आई आर आदि हो गई। एडीटर्स गिल्ड-विल्ड हो गया।
नैरेटिव एकदम से बदल गया है। वामपंथियों को यह कला बखूबी आती है। भाजपाई और संघी इस खेल में वामपंथियों से पिटने के लिए ही पैदा हुए हैं। सर्वदा पिटते रहेंगे। वामपंथियों की दिक्कत बस यही है और कि मलाल भी आखिर कब तक उन्हें सेक्यूलरिज्म की बिसात पर कांग्रेस के लिए बैटिंग करती रहनी पड़ेगी। कब तक मॉब लिंचिंग से लगायत शाहीनबाग तक वह कांग्रेस के लिए बैटिंग करते रहेंगे। कब तक राहुल गांधी में भविष्य झांकते फिरेंगे। कन्हैया कुमार जैसे लोग कब तक कांग्रेस के लिए खाद ही बनते रहेंगे। कब तक केरल में ही लाल सलाम करते रहेंगे। आगे की धरती आखिर कब देख पाएंगे। लाल किले पर लाल सलाम का सपना कब रंग लाएगा। बस इन को कोई यह बताने वाला नहीं है कि बैंड बजाने वाले , बैंड ही बजाते रहते हैं। चाहे जितना अच्छा बैंड बजा लें , दूल्हा नहीं बनते।
No comments:
Post a Comment