नीम के यह पत्ते जब झरेंगे पतझर में , तब झरेंगे। अभी तो पूज्य पिता जी विदा हुए तो शोक में हमारी मूछ भी विदा हो गई है। जब से मूछ आई थी , कभी ओझल नहीं हुई थी , अब शोक में अनुपस्थित हुई है। तो क्या किसी भी वृक्ष के पत्ते या नीम के पत्ते , किसी शोक में विदा होते हैं। पतझर में नहीं। और केदारनाथ
सिंह लिखने लगते हैं :
झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों —
सुधियों की चादर अनबीनी,
दिन के इस सुनसान पहर में रुक-सी गई प्रगति जीवन की ।
साँस रोक कर खड़े हो गए
लुटे-लुटे-से शीशम उन्मन,
चिलबिल की नंगी बाँहों में —
भरने लगा एक खोयापन,
बड़ी हो गई कटु कानों को 'चुर-मुर' ध्वनि बाँसों के वन की ।
थक कर ठहर गई दुपहरिया,
रुक कर सहम गई चौबाई,
आँखों के इस वीराने में —
और चमकने लगी रुखाई,
प्रान, आ गए दर्दीले दिन, बीत गईं रातें ठिठुरन की ।
पिता का होना , यानी मूंछों का होना। पिता नहीं तो मूछ नहीं। गांव के घर की छत पर एक फ़ोटो।
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