होते
हैं कुछ सम्मान जो व्यक्ति को मिल कर व्यक्ति को सम्मानित करते हैं। पर कुछ सम्मान
ऐसे भी होते हैं जो मिलते तो व्यक्ति को हैं पर सम्मान ही सम्मानित होता है उस
व्यक्ति को मिल कर। बीते 29 सितंबर
, 2019 को
संयोग से गोरखपुर में यही हुआ। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी , दिल्ली ने अपने
सर्वोच्च सम्मान महत्तर सम्मान से सम्मानित कर खुद को सम्मानित कर लिया। विश्वनाथ प्रसाद
तिवारी को वैसे तो बहुत सारे सम्मान मिले हैं पर हिंदी को जो सम्मान उन्हों ने
दिया है वह विरल है। यह पहली बार ही हुआ कि
साहित्य अकादमी का अध्यक्ष हिंदी का कोई लेखक बना तो वह विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
बने। इस के पहले वह साहित्य अकादमी के उपाध्यक्ष भी हुए थे। साहित्य अकादमी के हिंदी परामर्श मंडल
में भी रहे थे और संयोजक भी। यह भी पहली बार ही हुआ था कि हिंदी का कोई लेखक
साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष पद
पर आया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी , अज्ञेय
, विद्यानिवास
मिश्र , नामवर
सिंह , अशोक
वाजपेयी आदि
बहुत से लेखक भी अध्यक्ष नहीं बन सके थे साहित्य
अकादमी के ।
बात बनी हिंदी की तो विश्वनाथ प्रसाद
तिवारी के साथ बनी। लेकिन हिंदी को यह सम्मान दिलाने वाले विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
के मन को यह अभिमान लेश मात्र भी नहीं छूता। वह तो अपनी सरलता में ही मगन मिलते
हैं। जैसे कोई नदी अपने साथ सब को लिए चलती है , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी भी सब को अपने
साथ लिए चलते हैं । सब को मिला कर चलते हैं । न किसी से कोई विरोध , न कोई प्रतिरोध । न
इन्न , न
भिन्न , न
मिनमिन । किसी किसान की तरह। जैसे हर मौसम किसान का मौसम होता है , वैसे ही हर व्यक्ति
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का होता है। वह प्रकृति से कवि हैं , अध्यापन उन का पेशा
रहा है , प्रोफेसर
रहे हैं , संपादक
भी हैं ही दस्तावेज के पर मिजाज से वह किसान ही हैं । यायावरी जैसे उन का नसीब है।
उन की कविताओं में मां, प्रेमिका, प्रकृति और व्यवस्था
विरोध वास करते हैं। उनके व्यक्तित्व में सादगी, सरलता, सफलता और सक्रियता समाई दिखती है। उन की कविताएं प्रेम
का डंका नहीं बजातीं लेकिन लिखते हैं
वह, ‘प्यार
मैं ने भी किए हैं / मगर ऐसे नहीं / कि दुनिया पत्थर मार-मार कर अमर कर दे।’ या फिर ‘मेरे ईश्वर / यदि
अतृप्त इच्छाएं / पुनर्जन्म का कारण बनती हैं / तो फिर जन्म लेना पड़ेगा मुझे /
प्यार करने के लिए।’
कविता, आलोचना, संस्मरण और संपादन को
एक साथ साध लेना थोड़ा नहीं पूरा दूभर है। पर विश्वनाथ जी इन चारों विधाओं को न
सिर्फ़ साधते हैं बल्कि मैं पाता हूं कि इन चारों विधाओं को यह वह किसी निपुण वकील
की तरह जीते हैं। बात व्यवस्था की हो, प्रेम
की हो, प्रतिरोध
की हो, हर
जगह वह आप को जिरह करते मिलते हैं। जिरह मतलब न्यायालय के व्यवहार में न्याय कहिए, फ़ैसला कहिए उस की
आधार भूमि है जिरह। तमाम मुकदमे जिरह की गांठ में ही बनते बिगड़ते हैं। तो मैं
पाता हूं कि विश्वनाथ जी अपने समूचे लेखन में जिरह को अपना हथियार बनाते हैं। उन
की कविताओं को पढ़ना इक आग से गुज़रना होता है जहां वह व्यवस्था से जिरह करते
मिलते हैं। ज़रूरत पड़ती है तो फै़सला लिखने वाले से भी, ‘देखो उन्हों ने लूट
लिया प्यार और पैसा/धर्म और ईश्वर/कुर्सी और भाषा।’ अच्छा वकील न्यायालय में ज़्यादा सवाल
नहीं पूछता अपनी जिरह में। विश्वनाथ जी भी यही करते हैं। कई बार वह कबीर की तरह जस
की तस धर दीनी चदरिया का काम भी करते हैं। और यह करते हुए वह बड़े-बड़ों से टकरा
जाते हैं। कविता में भी, आलोचना
में भी, संस्मरणों
में भी और अपने संपादकीय में भी। हां, लेकिन
वह आक्रमण नहीं करते, बल्कि
आइना रखते हैं। जिरह का आइना। आइना रख कर चुप हो जाते हैं। नामवर सिंह , राजेंद्र
यादव सरीखों की धज्जियां उड़ाने वाले उन के संपादकीय गौरतलब हैं।
जिन
दिनों पंडित विष्णुकांत
शास्त्री राज्यपाल थे उत्तर प्रदेश के उन्हीं दिनों विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के आचार्य पद से रिटायर हुए। लखनऊ के राजभवन में एक दिन
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जब उन से मिले तो छूटते ही शास्त्री जी ने स्नेहवश पूछा , ‘ वाइस चांसलर बनोगे ? ‘ तिवारी जी ने विनयवत हाथ जोड़ कर कहा , ‘ बड़ी इज़्ज़त से रिटायर हुआ हूं , ऐसे ही रहने दीजिए।‘
शास्त्री जी समझ गए और बात बदल दी।
विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी सही अर्थों में आचार्य हैं। उन से मेरा मिलना अपने घर से ही मिलना
होता है। किसी पुरखे से मिलना होता है। जब मैं विद्यार्थी था और वह आचार्य तब से
हमारी मुलाकात है। कोई चालीस साल से अधिक हो गए । लेकिन शुरू से ही वह जब भी मिलते
हैं धधा कर मिलते हैं। वह हैं तो हमारे पिता की उम्र के लेकिन मिलते सर्वदा
मित्रवत ही हैं। दयानंद जी , संबोधित
करते हुए। स्नेह की डोर में बांध कर जैसे मुझे पखार देते हैं । वह एक बहती नदी
हैं। किसी नदी की ही तरह जैसे हरदम यात्रा पर ही रहते हैं। लेकिन कभी उन को थके
हुए मैं ने नहीं देखा। देश दुनिया वह ऐसे फांदते घूमते रहते हैं गोया वह कोई शिशु
हों , और
अपने ही घर में घूम रहे हों । धमाचौकड़ी करते हुए। हरदम मुसकुराते हुए , किसी नदी की तरह
कल-कल , छल-छल
करते हुए। मंथर गति से मंद-मंद मुसकुराते। उन की विनम्रता , उन की विद्वता और उन
की शालीनता जैसे मोह लेती है बरबस हर किसी को। किसी को विश्नाथ प्रसाद तिवारी से
अकेले में मिलना हो तो उन की आत्मकथा अस्ति और भवति पढ़े। उन से और उन के सरल जीवन
से रोज ही मिले। हिंदी में बहुत कम लोग हैं जो विषय पर ही बोलें और सारगर्भित
बोलें। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी उन्हीं कुछ थोड़े से लोगों में से हैं। और उन का मुझ
पर स्नेह जैसे मेरा सौभाग्य ! उन का यह स्नेह ही है कि उन की आत्मकथा में मैं भी
उपस्थित हूं। उस आत्मकथा में जिस में भवति का प्रवाह है और सत का आधार भी। उन को
बिसनथवा कह कर पुकारने वाली उन की बुआ का चरित्र भी दुर्लभ है। उन की ज़िंदगी जैसी
सादी और सरल है , उन
की आत्मकथा भी उतनी सरल और सादी। छल , कपट
, झूठ , प्रपंच से दूर।
विश्वनाथ जी न जीवन में किसी विचारधारा
की गुलामी करते हैं न रचना में। फिर भी सादगी का शीर्ष छूते हैं। 1978 से दस्तावेज पत्रिका का
संपादन कर रहे विश्वनाथ जी लेकिन नहीं जानते कि अब वह खुद एक दस्तावेज हैं।
गोरखपुर ही नहीं , हिंदी
समाज के दस्तावेज। गोरखपुर और हिंदी समाज को चाहिए कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी नाम
के इस दस्तावेज को , इस
धरोहर को अब बहुत संभाल कर रखे। गोरखपुर में साहित्य अकादमी के महत्तर सम्मान से
सम्मानित होने वाले सिर्फ तीन लोग हैं। एक फ़िराक गोरखपुरी दूसरे , विद्यानिवास
मिश्र और तीसरे, विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
हैं। डाक्टर राधाकृष्णन , चक्रवर्ती
राजगोपालाचारी जैसे गिनती के लोग ही इस महत्तर सम्मान से अलंकृत हुए हैं। विश्वनाथ प्रसाद
तिवारी को देख कर कई बार रामदरश मिश्र का एक शेर याद आता है :
जहां
आप पहुंचे छ्लांगे लगा कर,
वहां
मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।
विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी धीरे-धीरे ही चले और शिखर पर उपस्थित हैं। जहां से अब उन को कोई
डिगा नहीं सकता। याद कीजिए कुछ समय पहले जब अशोक वाजपेयी और कुछ और लेखकों ने अपने
बड़प्पन की छुद्रता
में साहित्य
अकादमी अवार्ड वापसी का एक नकली देशव्यापी अभियान चलाया था। दिखने में लगता था कि
वह अवार्ड वापसी अभियान नरेंद्र मोदी के विरोध में है लेकिन वह उस का राजनीतिक रंग
था और अकारण था। वास्तव
में यह पूरा अभियान विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को साहित्य अकादमी से उखाड़ने के लिए
था। लेकिन उस तूफ़ान में जिस
धीरज के साथ विश्वनाथ प्रसाद तिवारी ने न सिर्फ अपनी व्यक्तिगत मर्यादा बचा कर रखी
, साहित्य
अकादमी की मर्यादा पर भी आंच नहीं आने दिया। यह आसान नहीं था। लेकिन विश्वनाथ
प्रसाद तिवारी ने चुप रह कर , हरिश्चंद्र
की तरह सत्य के मार्ग पर चल कर गांधीवादी तरीक़े से सब कुछ फेस किया। और न अपना , न साहित्य अकादमी का
बाल बांका होने दिया। दिल्ली के लोगों ने सोचा था कि गंवई से दिखने वाले एक छोटे
से शहर गोरखपुर के आदमी को मछली की तरह भून कर खा जाएंगे। लेकिन उन का मंसूबा
कामयाब नहीं हुआ। तो इस लिए भी कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी की सादगी से , विनय से वह लोग हार
गए। वह लोग नहीं जानते थे कि विश्वनाथ प्रसाद तिवारी कभी लाल बहादुर शास्त्री ,
हेमवती नंदन बहुगुणा और शिब्बनलाल सक्सेना जैसे लोगों के साथ काम कर चुके हैं। उस
संग-साथ में तप चुके हैं। सो तिवारी जी कुंदन बन कर निकले। विश्वनाथ जी की एक
कविता याद आती है जो उन्हों ने अभी अपने सम्मान भाषण में उद्धृत की :
दिल्ली
में उस से छुड़ा लेना चाहता था पिंड
जो
चार बार विदेश यात्राओं में सहयात्री रहा
मगर
आख़िर वह आ ही गया
मेरे साथ गोरखपुर
उस
गाय की तरह
जो
गाहक के हाथ से पगहा झटक कर
लौट
आई हो अपने पुराने खूंटे पर
और
अब , वह
मेरे पुराने सामानों के बीच
विजयी-सा
मुस्करा रहा
चुनौती
देता और पूछता मुझ से
' क्या आगे बढ़ने के
लिए ज़रूरी है
उन्हें
पीछे छोड़ देना
जिन
के पास भाषा नहीं है
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जिन के पास भाषा है , उन
के साथ भी होते हैं और जिन के पास भाषा नहीं है , उस के साथ और ज़्यादा होते हैं।
सिर्फ़ कविता में ही नहीं , जीवन में भी। उन की एक कविता फिर याद आ गई है :
कितने रूपों में कितनी बार
जला है यह मन तापो में
गला है बरसातों में
मगर अफसोस है मैं बड़ा नहीं बन सका
रोटी दाल को छोड़ कर खड़ा नहीं हो सका।
[ राष्ट्रीय सहारा , गोरखपुर में प्रकाशित ]
बहुत ही मन से बहुत सही लिखा है आपने। मेरी भी यही भावना है। बधाई ।आदरणीय प्रो. तिवारी जी को मेरा प्रणाम।
ReplyDeleteमुझे भी दो बार मिलने और स्नेह पाने का अवसर मिला है। इतना सहज, सरल व आत्मीय व्यवहार है कि मोह सा हो जाता है। मेरे गाँव से ज्यादा दूर नहीं है इनका गांव और इनसे मेरी रिश्तेदारी भी ज्यादा दूर की नहीं है। गर्व होता है कि इतना विराट व्यक्तित्व अत्यंत सहज रूप में हमारे बीच है।
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख
ReplyDeleteपूर्ण समर्पण भाव से लिखा गया आपका लेख जिस रूप में उन्हें प्रस्तुत करता है वह मानवीय रूप अनुकरणीय है।
ReplyDeleteऔर ऐसर धरोहरों के बारे में पढ़वाने वाले आप पूरा एन्साक्लोपीडिया हैं सर
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