देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू का आज जन्म-दिन है तो उन के बहुतेरे किस्से याद आ रहे हैं । हम जब पढ़ते थे तब अक्सर मेरे पिता जी उन का ज़िक्र करते हुए बताते थे कि इक्जामिन इज बेटर देन इक्जामिनर । ऐसा किसी परीक्षक ने राजेंद्र प्रसाद की कापी पर लिखा था । लेकिन तब पिता का यह कहना समझ नहीं आता था कि ऐसा वह बार-बार क्यों सुनाते रहते हैं । बाद में जब संविधान के बाबत पढ़ना शुरु किया और जाना कि संविधान सभा के अध्यक्ष बाबू राजेंद्र प्रसाद ही थे तब समझ में आया । दलितों का इगो मसाज करने के लिए राजनीतिक दल और लोगबाग भले आंबेडकर को संविधान निर्माता कहते फिरते हैं , आंख में धूल झोंकते रहते हैं पर असल निर्माता तो बाबू राजेंद्र प्रसाद ही हैं । तीन सौ से अधिक लोगों की संविधान सभा थी । ढेर सारी कमेटियां थीं । आंबेडकर सिर्फ़ ड्राफ्ट कमेटी के चेयरमैन थे । लेकिन राजनीतिक धूर्तता और कमीनेपन ने अम्बेडकर को संविधान निर्माता घोषित कर दिया ।
तो क्या राजेंद्र प्रसाद सहित बाक़ी संविधान सभा के तीन सौ सदस्य घास छिल रहे थे ? खैर । फिर राजेंद्र बाबू की कई सारी टिप्पणियां पढ़ीं तो उन के लिए मन में आदर भाव और बढ़ गया । उन की विनम्रता , सदाशयता , शालीनता और बड़प्पन के तमाम किस्से हैं । यह भी जग जाहिर है कि नेहरु से उन की बिलकुल नहीं बनती थी । नेहरु और राजेंद्र प्रसाद के बीच मतभेद के अनगिन किस्से हैं । तो भी एक बार जब नेहरु भारत लौटे तो यह क्या सारी परंपरा , प्रोटोकाल तोड़ कर राजेंद्र बाबू नेहरु को रिसीव करने एयरपोर्ट पहुंच गए । क्यों कि नेहरु तब विश्व में भारत का डंका बजा कर लौटे थे । इतना ही नहीं सारी परंपरा तोड़ कर , कमेटी आदि को दरकिनार कर नेहरु को भारत रत्न देने का अचानक ऐलान कर दिया तो लोग भौचक रह गए ।
एक बार क्या हुआ कि इंग्लैण्ड की महारानी को आज़ाद भारत में पहली बार आना था तो इस बाबत नेहरु राजेंद्र प्रसाद से औपचारिक मुलाकात के लिए गए । तमाम बातें हुईं पर जब नेहरु ने उन्हें बताया कि प्रोटोकाल के तहत राष्ट्राध्यक्ष होने के कारण महारानी के स्वागत में उन्हें ही आगे बढ़ कर हाथ मिलाना होगा । राजेंद्र बाबू यह सुन कर बोले कि फिर तो प्रोटोकाल के तहत मेरी पत्नी भी साथ होंगी उस समय । नेहरु ने कहा , बिलकुल । तब राजेंद्र बाबू ने कहा कि फिर तो यह मुझ से न हो पाएगा । नेहरु ने पूछा कि दिक्कत क्या है ? राजेंद्र बाबू बोले , किसी और स्त्री से हाथ मिलाने पर पत्नी कहीं भड़क गईं और महारानी के बाल नोचने पर आमादा हो गईं तो ? अनर्थ हो जाएगा । नेहरु ने कहा कि हां , यह दिक्कत तो बड़ी है । फिर नेहरु ने ही तजवीज दी कि ऐसा कीजिएगा कि आप सिर्फ़ हाथ जोड़ लीजिएगा । तब तक आगे बढ़ कर जल्दी से मैं हाथ मिला लूंगा । किसी को कुछ पता ही नहीं चलेगा । बात फाईनल हो गई ।
लेकिन जब महारानी आईं तो राजेंद्र प्रसाद ने नेहरु को मौका दिए बिना लपक कर ख़ुद हाथ मिला लिया। अब नेहरु घबराए कि कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए। पर कहीं कुछ भी नहीं हुआ। राजेंद्र प्रसाद की पत्नी शांत खड़ी रहीं। बाद में जब महारानी की भारत यात्रा सकुशल संपन्न हो गई और वह इंग्लैण्ड लौट गईं तब एक दिन राजेंद्र प्रसाद से नेहरू ने पूछा कि आप ने तो हाथ मिला लिया और कुछ नहीं हुआ। तो राजेंद्र बाबू ने नेहरू को बताया कि असल में उस दिन आप के जाने बाद रात में पत्नी से बताया कि एक संकट आ गया है। एक अंगरेज औरत से हाथ मिलाना पड़ेगा तो वह बहुत नाराज हुईं कि मेरे रहते तो यह संभव नहीं । तो मैं ने पत्नी को बताया कि मामला नौकरी का है । अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी । तो पत्नी ने कहा कि अगर बात नौकरी की है तो हाथ मिला लीजिए , नौकरी नहीं जानी चाहिए ।
लेकिन जब महारानी आईं तो राजेंद्र प्रसाद ने नेहरु को मौका दिए बिना लपक कर ख़ुद हाथ मिला लिया। अब नेहरु घबराए कि कहीं कुछ अनर्थ न हो जाए। पर कहीं कुछ भी नहीं हुआ। राजेंद्र प्रसाद की पत्नी शांत खड़ी रहीं। बाद में जब महारानी की भारत यात्रा सकुशल संपन्न हो गई और वह इंग्लैण्ड लौट गईं तब एक दिन राजेंद्र प्रसाद से नेहरू ने पूछा कि आप ने तो हाथ मिला लिया और कुछ नहीं हुआ। तो राजेंद्र बाबू ने नेहरू को बताया कि असल में उस दिन आप के जाने बाद रात में पत्नी से बताया कि एक संकट आ गया है। एक अंगरेज औरत से हाथ मिलाना पड़ेगा तो वह बहुत नाराज हुईं कि मेरे रहते तो यह संभव नहीं । तो मैं ने पत्नी को बताया कि मामला नौकरी का है । अगर उस अंगरेज औरत से हाथ नहीं मिलाया तो नौकरी चली जाएगी । तो पत्नी ने कहा कि अगर बात नौकरी की है तो हाथ मिला लीजिए , नौकरी नहीं जानी चाहिए ।
राजेंद्र प्रसाद की पत्नी इलाहाबाद की थीं। महादेवी वर्मा की परिचित भी। एक बार महादेवी वर्मा दिल्ली गईं तो राष्ट्रपति भवन भी गईं। राजेंद्र प्रसाद की पत्नी से मिल कर जब चलने लगीं तो उन्हों ने महादेवी से कहा कि अगली बार जब आएं तो उन के लिए सूप ज़रूर ले आएं। यहां सूप नहीं है कि अनाज ठीक से फटक कर साफ़ कर सकें। अगली बार जब महादेवी इलाहाबाद से दिल्ली गईं तो राष्ट्रपति भवन सूप ले कर गईं। बाद के दिनों में जब राजेंद्र बाबू का कार्यकाल खत्म हुआ तो अपने निजी सामान में उन की पत्नी ने वह सूप भी रखा ले जाने के लिए। राजेंद्र प्रसाद ने जब उस सूप को देखा तो पत्नी से कहा कि यह उपहार में मिला हुआ है , हम इसे नहीं ले जा सकते। और वह सूप राष्ट्रपति भवन में ही छोड़ दिया। राजेंद्र बाबू चाहते तो दिल्ली में सरकारी घर में रह सकते थे। पर वह दिल्ली छोड़ कर पटना चले गए। अपने पैतृक घर में। जो खपरैल का था। बरसात में चूता था। लेकिन उन के पास इतने पैसे भी नहीं थे कि उस खपरैल के घर की मरम्मत करवा सकें। दस बरस राष्ट्रपति रहने के बाद भी उन की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी।
राजेंद्र बाबू के संबंध तब के लेखकों और पत्रकारों से भी बहुत अच्छे थे। निजी थे। पंडित सूर्य नारायण व्यास को लिखी उन की एक चिट्ठी याद आती है। व्यास जी को ब्लड प्रेसर हो गया है। राजेंद्र बाबू को जब यह पता चला तो चिट्ठी लिख कर वह उन को सर्पगंधा लेने की तजवीज देते हैं। चिट्ठी में बताते हैं कि उन के बिहार में नेपाल सीमा पर यह पौधा बहुतायत में मिलता है। अगर न मिले तो कृपया बताएं , भेजने की व्यवस्था करेंगे। यह एक राष्ट्रपति की चिंता है , उज्जैन में बैठे अपने एक लेखक मित्र के लिए। आज कहां संभव है ऐसी सदभावना , ऐसी संवेदना और सदाशयता। इसी लिए बाबू राजेंद्र प्रसाद याद आते हैं। पिता ठीक ही कहते थे , इक्जामिन इज बेटर देन इक्जामिनर । राजेंद्र बाबू आज भी हमारे सम्मुख बेटर इक्जामिन हैं । उन का कोई सानी नहीं ।
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ReplyDeleteडॉ. अंबेडकर ने संविधान रचना में कितना परिश्रम किया इस बात का अंदाजा 4 नवम्बर, 1948 को दिए गए “टी.टी. कृष्णामाचारी” के संविधान सभा में वक्तव्य से लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा –
ReplyDelete“मैं उस परिश्रम और उत्साह को जानता हूँ, जिससे उन्होंने संविधान सभा का प्रारूप को तैयार किया। संविधान सभा सात सदस्य मनोनीत थे। उनमें से एक ने संविधान सभा से त्याग पत्र दे दिया, जिसकी पूर्ति कर दी गई, एक सदस्य का देहांत हो गया। उसका स्थान नहीं भरा गया। एक अमेरिका चला गया और स्थान खाली बना रहा। एक अन्य सदस्य राजकीय कार्यों में व्यस्त रहा और उनका स्थान भी खाली रहा। एक या दो सदस्य दिल्ली से बाहर रहे और शायद स्वास्थ्य के कारण उपस्थित नहीं हो सके। हुआ यह कि संविधान बनाने का सारा भार डॉ. अंबेडकर के कंधों पर आ पड़ा। इसमें मुझे संदेह नहीं कि जिस ढंग से उन्होंने संविधान तैयार किया, हम उसके लिए कृतज्ञ हैं। यह निस्संदेह प्रशंसनीय कार्य है।”
इनके अलावा सैयद करीमुद्दीन, प्रो. के.टी. शाह, पंडित लक्ष्मीकांत मैत्रे, डॉ. पंजाब राव देशमुख, एस. नागप्पा, टी. प्रकाशम, जोसेफ ए.डी सूजा, आर.के. सिधवा, जे.जे. निकोलस राय आदि के भी वक्तव्य ध्यान देने योग्य हैं जिसमें उन्होंने डॉ. अंबेडकर की सराहना की है।
नेहरू ने भी उनकी संविधान संरचना में उनके योगदान की प्रशंसा करते हुए कहा था कि –
“अक्सर डॉ. अंबेडकर को संविधान निर्माता कहा जा रहा है। वे अपनी तरफ से कह सकते हैं कि उन्होेंने बड़ी सावधानी और कष्ट उठाकर संविधान बनाया है। उनका बहुत महत्वपूर्ण और रचनात्मक योगदान है।”
26 नवम्बर, 1949 को आखिरकार डॉ. अंबेडकर ने भारतीय संविधान को 2 वर्ष, 11 माह और 18 दिन में देश को समर्पित कर दिया। इसलिए इस दिन को “संविधान दिवस” के रूप में मनाया जाता है। गणतंत्र भारत में संविधान को 26 जनवरी, 1950 को अमल में लाया गया। इस अवसर पर “डॉ. राजेन्द्र प्रसाद” ने कहा था –
“सभापति के आसन पर बैठकर, मैं प्रतिदिन की कार्यवाही को ध्यानपूर्वक देखता रहा और इसलिए, प्रारूप समिति के सदस्यों, विशेषकर डॉ. अंबेडकर ने जिस निष्ठा और उत्साह से अपना कार्य पूरा किया, इसकी कल्पना औरों की अपेक्षा मुझे अधिक है। डॉ. अंबेडकर को प्रारूप समिति में शामिल करने और उसका अध्यक्ष नियुक्त करने से बढ़कर कोई और अच्छा हम दूसरा काम न कर सके। उन्होंने अपने चुनाव को न केवल न्यायोचित ठहराया है, बल्कि उस काम में कांति का योगदान दिया है जिसे उन्होंने सम्पन्न किया है।”