दयानंद पांडेय
‘साहित्य का उद्देश्य’ में प्रेमचंद ने लिखा था, ‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’ तो बदली स्थितियों में भी इस कसौटी को बदलने की ज़रुरत आन पड़ी है। इस लिए भी कि प्रेमचंद इस निबंध में एक और बात कहते हैं, ‘वह (साहित्य) देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं है, बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई सच्चाई है।’ इस दोगले समय में प्रतिबद्धता के नाम पर साहित्यकार जिस तरह प्रेमचंद के इस कहे पर पेशाब करते हुए राजनीति के पीछे साहित्य की मशाल ले कर भेड़ की तरह चल पड़े हैं , वह उन्हें हास्यास्पद बना चुका है । पुरस्कार वापसी के नाम पर गिरोहबंदी कर जिस जातीय और दोगली राजनीति के पीछे साहित्यकार खड़े हुए हैं , बीते कुछ समय से साहित्यकारों को भी इस प्रवृत्ति ने दोगला बना दिया है । मुझे अपनी ही एक ग़ज़ल याद आती है :
प्रेमचंद को पढ़ कर खोजा बहुत पर फिर वह मिसाल नहीं मिली
राजनीति के आगे चलने वाली साहित्य की वह मशाल नहीं मिली
कोई अफ़सर था कोई अफसर की बीवी कोई माफ़िया संपादक
कोई पुरस्कृत तलाश किया बहुत लेकिन कोई रचना नहीं मिली
किसी ने तजवीज दी कि आलोचना पढ़िए कोई तो मिल ही जाएगा
माफ़िया मीडियाकर लफ्फाज सब मिले पर आलोचना नहीं मिली
खेमे मिले खिलौने मिले विचारधारा की फांस जुगाड़ और साजिशें
लेकिन इन को पढ़ने खरीदने और जानने वाली जनता नहीं मिली
संबंधों के महीन धागों में बुनी किताबें कैद हैं लाईब्रेरियों में लेकिन
मां को देखते ही बच्चा तुरंत हंस दे ऐसी निश्छल ममता नहीं मिली
रचनाओं पे ओहदेदार थे , ओहदे के साथ यश:प्रार्थी कामनाएं भी
एक सांस पर मर मिटे इन की रचना पर जो वह ललना नहीं मिली
मिले भी कैसे भला ? अगर साहित्यकारों की आंख पर प्रलोभन की चर्बी चढ़ जाए , महत्वाकांक्षा और सनक की एक सरहद तामीर हो जाए तो कैसे मिले ? प्रेमचंद साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहते हैं, तो इस का अर्थ और इस की ध्वनि भी ज़रुर समझनी और सुननी चाहिए। राजनीति और साहित्य के चरित्र में भारी फर्क होता है। राजनीति के बहुत सारे निर्णय फौरी होते हैं। राजनीति ऐसे निर्णय भी लेती है, जो सत्ता प्राप्ति की दृष्टि से ही होते हैं ।राजनीतिज्ञ बहुत दूरगामी परिणाम के बाबत नहीं सोचते , न ही कारगर होते हैं । लेकिन साहित्य में फौरी कार्रवाई का कोई मतलब नहीं होता ।
साहित्य इसी लिए प्रेमचंद की नज़र में राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है । साहित्य को सच ही देखना चाहिए । प्रतिबद्धता के नाम पर साहित्यकार को राजनीति का औजार नहीं बनना चाहिए । बिहार प्रसंग में साहित्यकारों की प्रतिबद्धता के नाम पर जो छीछालेदर हुई है वह अब किसी से छुपी नहीं है । अब से सही , साहित्यकारों को अपनी प्रतिबद्धता समाज और साहित्य के साथ ही रखनी चाहिए । ज़रुरत पड़े भी तो प्रेमचंद के कहे मुताबिक साहित्यकार राजनीति के आगे चलनी वाली मशाल बनें , राजनीति के पीछे चलने वाली दोगली मशाल या औजार नहीं । प्रतिबद्धता के नाम पर साहित्यकारों को अपनी इस दोगलई से हर हाल बाज आना चाहिए । ग़ालिब कहते ही हैं :
रखियो, ग़ालिब मुझे इस तल्ख नवाई में मुआफ
आज कुछ दर्द मिरे दिल में सिवा होता है
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