फ़ोटो : गौतम चटर्जी |
ग़ज़ल
जो चिरई उड़ गई थी बादलों में फिर धरती पर लौटी है
सुखद यह कि मन की सूखी नदी में धार ले कर लौटी है
दूब पर जैसे गिरती है ओस धरती पर बारिश की बूंद जैसे
प्यार की नदी में बहती संबंधों की एक नाव ले कर लौटी है
हाथी पर बैठ कर घूमी जंगल में इधर उधर बहुत चिरई
सपनों में नहा पुरानी अलमस्त अंगड़ाई ले कर लौटी है
परायेपन की ठोकर में बदल जाती है दुनिया बड़े बड़ों की
बालम चिरई की भी बदली प्यार की बरसात ले कर लौटी है
पंख सही सलामत हैं उड़ने की चाह भी वैसी ही निर्मल
पर अब की वह धरती पर जीने की चाह ले कर लौटी है
पुल नदी में ही नहीं बनता संबंधों में कहीं ज़्यादा बनता है
पुल के कई सारे बहाने और डिजाईन साथ ले कर लौटी है
आकाश निर्मल है सुंदर है सब कुछ सुहाना भी है लेकिन
अकेलेपन की आंच में झुलसने की कहानी ले कर लौटी है
किस्से बहुत हैं आकाश की तनहाई के शोक गीत भी हैं
हक़ीकत में तो चिरई आकाश का अंगार ले कर लौटी है
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (14-05-2016) को "कुछ जगबीती, कुछ आप बीती" (चर्चा अंक-2342) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'