फ़ोटो : सुशील कृष्णेत |
ग़ज़ल / दयानंद पांडेय
विवाद और पागलपन का जैसे चोली दमन का सिलसिला है
कभी असहिष्णुता तो कभी भारत माता की जय का गिला है
दुनिया भले बदल जाए उन का माइंड सेट बदलना मुश्किल
हिल गई दुनिया पर उन के जंगल का एक पत्ता नहीं हिला है
लॉजिकल इतने पिता से भी डी एन ए टेस्ट मांगने पर आमादा
उन की वैचारिकी की ज़िद में पूर्वाग्रह का नमक बहुत मिला है
सुनना समझना और परखना वह नहीं जानते हरगिज हरगिज
आप चाहे कुछ भी कहिए उन के पास कुतर्क का बड़ा किला है
माचिस से आग भले जलती पर आग में माचिस भी जल जाती
पानी में भी आग लगा करती है यह बहुत पुराना सिलसिला है
सब का अपना कैमरा अपना चश्मा अपना ही झोला अपना कुंआ
जनता तो बस कूड़ेदान है इतिहास में ऐसा प्रमाण सर्वदा मिला है
मंदिर गिरिजा मस्जिद में भी अब सिर्फ़ प्रार्थना अजान नहीं होती
राजनीति वहां ज़्यादा होती फिसल जाता हर कोई चिकना घड़ा है
[ 31 मार्च , 2016 ]
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-04-2016) को "भारत माता की जय बोलो" (चर्चा अंक-2299) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मूर्ख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वैचारिकी की जिद में पूर्वाग्रह का नमक....बहुत जबर्दस्त ।प्रभावित करती गज़ल।बधाई।
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