Thursday 17 December 2015

जैसे गांव से शहर आ कर अम्मा मुझे विभोर कर देती है

 
पेंटिंग : वासुदेव एस गायतोंडे



ग़ज़ल / दयानंद पांडेय

होती है मुहब्बत तो दिल को चकोर कर देती है
जैसे गांव से शहर आ कर अम्मा मुझे विभोर कर देती है

घर में बच्चा किलकारियां मारता है तो खिलती है चांदनी
इतना खिलती है कि  सारा आंगन अंजोर कर देती है

लोग हैं , पैसा है , अस्पताल है , डाक्टर हैं , और दवा भी  
बीमारी कैसी भी हो मां की दुआ उसे कमज़ोर कर देती है 

दरिया है , समंदर है कि धरती है , देखता नहीं कोई बादल 
बरसता है तो भींगता है जंगल भी , चिड़िया शोर कर देती है 

घर सब कुछ से भरा हो , तिजोरी भी हो लबालब  लेकिन 
नीयत ठीक न हो तो अच्छे-अच्छों को चोर कर देती है 

गरमी हो , बरसात हो ,या कि हो घनघोर सरदी भी
प्यार की तलब हर हाल तुम को मेरी ओर कर देती है 
 
तुम से ऊब कर , खीझ कर मैं लाख बिदकूं और भागूं भी
तुम्हारे मन की निश्छलता और हंसी तेरी ओर कर देती है 

तुम्हारे कपोल , अधर और आंखें , अनमोल है तुम्हारी बिंदी
प्यार की यह सारी अदा ही सर्वदा दिल मांगे मोर कर देती है 

तुम्हारी चितवन , तुम्हारा नाज़ , तुम्हारे नखरे बरसते हैं ऐसे
हर किसी के खेत को ख़ुश जैसे घटा घनघोर कर देती है 

सर्दी की धूप सेकने आंगन में जब बैठता है पूरा का पूरा घर मेरा 
तुम्हारी याद और यादों की बारिश ज़िंदगी को सराबोर कर देती है 

तुम्हारी चर्चा , तुम्हारा ज़िक्र , तुम्हारी वह फूल सी बातें
जो काम किसी मीठी तान में बांसुरी की पोर कर देती है

लोग खाते हैं बहुत कसमें लेकिन यह दुनिया भी बड़ी जालिम 
होती है कोई बात ज़िंदगी में जो दुनिया भर में शोर कर देती है

  सुख और दुःख के तार हैं बहुत छोटे कोई कुछ कर नहीं सकता 
और जो कोई कर नहीं पाता वह आंख  की भीगी कोर कर देती है

[ 17 दिसंबर , 2015  ]

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