राजकिशोर
इस न्यायालय को यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि प्रतिवादी दयानंद
पांडेय के साथ क्या किया जाए, इस बारे में वह पूरी तरह विभ्रम की स्थिति
में है। न्याय-प्रक्रिया का कायदा तो यही है कि प्रतिवादी को जरूरी सजा दी
जाए, क्योंकि उसने अपने वादग्रस्त उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ में निश्चित
रूप से हाईकोर्ट की अवमानना की है। कोई भी अदालत अपने बारे में इस तरह का
कथन कैसे स्वीकार कर सकती है कि ‘हाईकोर्ट जो रावणों का धर है। जहां हर जज,
हर वकील रावण है। न्याय वहां सीता है और कानून मारीच।’ (पृष्ठ 241) और
‘हाईकोर्ट कोई पढ़े-लिखों की जगह नहीं है।’ (पृष्ठ 242), आगे न्याय व्यवस्था
पर और कटुतर टिप्पणियां की गई हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद भारत के
न्यायालयों में जनसामान्य की अनास्था और बढ़ सकती है। शुक्र यही है कि लोग,
विशेषतः हिंदी क्षेत्र के लोग, उपन्यास कम पढ़ते हैं। हमें बताया गया है कि
‘अपने-अपने युद्ध’ की सिर्फ ग्यारह सौ प्रतियां छापी गई हैं और इनमें से
आधी भी अभी तक नहीं बिकी हैं। बहरहाल, इस उपन्यास की सौ-डेढ़ सौ प्रतियां भी
बिक गई हैं, तो यह भी इस उपन्यास के लिए चिंता करने का पर्याप्त कारण है।
‘फिर हमारी दुविधा या विभ्रम का कारण क्या है ? उच्च न्यायालय के लिए इतनी असंगत, अपमानजनक और असंतुलित भाषा का प्रयोग देखने के बाद हम क्रोध में कांपने के बजाए दुखी और संतप्त क्यों हैं ? वह क्या चीज है, जो उदाहरण बन जाए, वैसी सजा प्रतिवादी को देने से हमें रोक रही है ? क्या हमने यह बात भुला दी है कि जिस समाज में न्याय-व्यवस्था को संदिग्ध ही नहीं, भ्रष्ट और अन्यायपूर्ण बताया और माना जाने लगता है, वह समाज भयंकर अराजकता का शिकार हो जाता है। ऐसे समाज में सभी लोग असुरक्षित अनुभव करने लगते हैं। हमें तो लगता है, अराजकता की इस वन्य-स्थिति से वह समाज फिर भी बेहतर है जहां लोगों में कोर्ट-कचहरी का डर बना हुआ है। शायद हमारे समाज की स्थिति उस समय ऐसी ही है। यह और बात है कि, जैसा कि उपन्यासकार ने लिखा भी है, न्यायालय का डर गरीब और मध्य वर्ग में ज्यादा है, उच्च और शक्तिशाली वर्ग में बहुत कम। अन्यथा देश के उच्चतम न्यायालय के आदेश की धज्जी उड़ाते हुए राम जन्मभूमि मंदिर-मस्जिद के ढांचे को खुलेआम, राज्य सरकार की सहायता से नहीं गिराया जाता। इस न्यायालय को इस कटु तथ्य का अहसास है कि उसके आदेश पर अमल कितना होता है और किस रूप में होता है। सच तो यह है विश्व के सभी न्यायालयों को कुछ सीमाओं के भीतर ही काम करना पड़ता है। क्या संयुक्त राज्य अमेरिका का उच्चतम न्यायालय अपने देश के मतदाताओं को आदेश दे सकता है कि वे अगले चुनाव में किसी अश्वेत या महिला को राष्ट्रपति पद के लिए निर्वाचित करें ? क्या यह न्यायालय किसी याचिका पर यह आदेश दे सकता है कि एक महीने बाद से उत्तर प्रदेश के किसी भी क्षेत्र में कोई भिखारी नहीं दिखाई पड़ना चाहिए कि वे रामराज्य ला देंगे, तो हम तो यही कहेंगे कि हर मूर्ख को अपने स्वर्ग में रहने का अधिकार है। ‘यह देखकर हमें भारी कष्ट हुआ है कि प्रतिवादी दयानंद पांडेय ने कुछ ऐसी ही बातें बहुत ही भोंडे, अशालीन और सड़कछाप ढंग से कही है। वह एक अनुभवी लेखक है-हमें बताया गया कि इसके पहले उसकी पांच-छह किताबें छप चुकी हैं। वह पत्रकार भी हैं और उसके द्वारा दाखिल किए गए शपथयुक्त बयान में बताया गया है कि वह 21 वर्षों से विभिन्न अखबारों में नौकरी करता रहा है। लेखक और पत्रकार जिम्मेदार व्यक्ति होते हैं। वे जो कुछ लिखते हैं, उसे गौर से पढ़ा जाता है। इसलिए उन्हें लिखते समय भरपूर संयम का परिचय देना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास ने अपने विश्व-विश्रुत ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में कैकेयी, मारीच, रावण आदि खल पात्रों का चित्रण करते हुए एक भी स्थान पर मर्यादा का अतिक्रमण नहीं किया है। क्या प्रतिवादी तुलसीदास से भी महान लेखक है, जो वह साहित्य का कोई भी नियम मानने को बाध्य नहीं है ?
‘हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रतिवादी दयानंद पांडेय एक विकृत मस्तिष्क का स्वामी है। इस उपन्यास में, उसके नायक संजय के माध्यम से, उसने यौन क्रिया के प्रति जो उन्मादपूर्ण लगाव दिखाया है, उसका एकमात्र निष्कर्ष यही है कि वह मनोरोगी होने की दुखद-स्थिति में पहुंच चुका है और उसे काफी समय तक किसी मनःचिकित्सक की सहायता की जरूरत है। सेक्स का चित्रण इसी शहर के महान लेखक यशपाल जी, अश्क जी कभी किया करते थे और खुल कर किया करते थे। लेकिन उन्हों ने भी कामुकता का ऐसा तूफान नहीं खड़ा किया है कि सभ्य जीवन की न्यूनतम शर्तें भी भुला दी जाएं। हमें इस पर और भी सख्त एतराज है कि उपन्यास में स्त्रियों को भी भयावह रूप से दिखाया गया है। एकाध स्त्री ऐसी हो सकती है, पर ‘अपने-अपने युद्ध’ को पढ़ कर ऐसा लगता है कि यह तो स्त्री जाति का स्वाभाविक गुण है या आजकल हो गया है। हमारे सामने कोई ऐसा साक्ष्य नहीं है, जिसके आधार पर हम विकृत वर्णनों को वास्तविक या यथार्थ-विमुख करार दे सकें। लेकिन हम यह अनुभव जरूर करते हैं। यदि यह वास्तविकता हो, तब भी इस गोपनीयता का परदा बने रहना चाहिए। स्त्री भारतीय-संस्कृति की धुरी है। अतएव स्त्रियों के बारे में कोई भी अमर्यादित बात न लिखी जानी चाहिए न कही जानी चाहिए।
‘यह लेखक की मनोरोगिता का ही प्रमाण है कि उसने एक जगह स्त्री और हाईकोर्ट को एक करने की कोशिश की है। उपन्यास का नायक चेतना की फुंफकार की परवाह किए बगैर उसे फिर से चूमने लगता है, तो वह कहती है, ‘कुछ तो सुधरिए और समझिए कि मैं हाईकोर्ट नहीं हूं।’ (पृष्ठ 244) यह तो अति ही है। इस से भी जाहिर होता है कि लेखक का दिमाग किस तरह सेक्स और हाईकोर्ट से आक्रांत है। गनीमत यही है कि पत्रकारिता की भी उस ने ऐसी ही भयावह तस्वीर खींची है। चूंकि प्रतिवादी स्वयं लंबे समय से पत्रकारिता में रहा है, इस लिए उस के द्वारा खींची गई यह तस्वीर उस के अपने अनुभवों पर ही आधारित होगी। अगर पत्रकारिता का भी कोई अपना हाईकोर्ट होता, तो हमारा विश्वास है कि उपन्यासकार वहां भी प्रतिवादी के रूप में खड़ा होता।
‘फिर भी, हम प्रतिवादी दयानंद पांडेय को जेल नहीं भेजना चाहते हैं। जेल में कुछ समय गुजारने के बाद उसकी विकृतियां और बढ़ सकती हैं। साथ ही, उसने न्याय-व्यवस्था की गंभीर विकृतियों को उजागर कर न्यायालय और समाज, दोनों की सेवा की हैं सच लिखना न्यायालय की मानहानि करना नहीं है। लेकिन हम पांडेय को यों ही छोड़ भी नहीं सकते, क्योंकि उसने भ्रष्टतम भाषा का प्रयोग किया है। अतः हम आदेश देते हैं कि (1) प्रतिवादी दयानंद पांडेय अदालत के सामने एक घंटा मौन खड़ा रहे और इस दौरान विचार करे कि क्या इन्हीं बातों को शालीन ढंग से नहीं लिखा जा सकता; और (2) राज्य सरकार किसी योग्य मनःचिकित्सक से प्रतिवादी की दिमागी जांच कराए और मानसिक चिकित्सा की जरूरत हो, तो तुरंत उसका प्रबंध; और (3) प्रतिवादी के उपन्यास ‘अपने-अपने युद्ध’ की सभी अनबिकी प्रतियां बाजार से वापस ले ली जाएं एवं जजों और वकीलों में बिना कोई कीमत लिए बांट दी जाएं।’
तो प्रिय पाठक, यह रहा फैसला जो अभी किया नहीं गया है, हालांकि मुकदमा लंबित है। इस फैसले की भाषा या इसमें व्यक्त विचारों का वास्ता स्तंभकार के निजी विचारों से कम और न्याय की मर्यादा और न्यायाधीशों के परिकल्पित आग्रहों से ज्यादा है। अलबत्ता यह स्तंभकार चाहता है कि वास्तव में ऐसा ही फैसला जारी हो। आखिर लेखक वही होता है जो एक वैकल्पिक जीवन व्यवस्था का सुंदर और व्यावहारिक चित्र खींच सकता है। हम जानते हैं कि न्यायालय कानून की सीमाओं से बंधा होता है। पर कानून की सीमाओं को रेखांकित करना भी इसी न्यायिक मर्यादा का हिस्सा है।
[ अपने-अपने युद्ध लिखने पर इलाहबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में जब
कंटेम्प्ट आफ कोर्ट का मुकदमा हुआ तो उस संदर्भ में राजकिशोर ने जनसत्ता
के 17 फ़रवरी , 2002 अंक के अपने कालम में यह टिप्पणी लिखी थी । ]
पृष्ठ सं.264
मूल्य-250 रुपए
प्रकाशक :
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2001
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