नवनीत मिश्र
इस संग्रह की कहानियों से गुजरना अपने आसपास की उस दुनिया से गुजरना है, जो
या तो हमारे जीवनानुभव का हिस्सा रह चुकी होती है या जो परानुभूत के दायरे
से निकल स्वानुभूत हो जाती है। दयानंद पांडेय के कथा-चरित्र क्रांति का
परचम उठाए नकली पात्र नहीं हैं, वे हाड़-मांस से बने साधारण मनुष्य हैं
जिनकी पीड़ाएं और जीवन व्यापार सामान्य लोगों जैसे हैं। ये पात्र दिखने में
सामान्य लग सकते हैं लेकिन इनकी पीड़ा से उपजे सवाल सामान्य नहीं हैं।
पांडेय का रचना संसार हमें अपने आसपास के संसार का स्मरण कराता चलता है,
यही उनकी विशेषता है।
शीर्षक कहानी समाज में विधवाओं की स्थिति पर कई प्रश्न उठाती है, तो ‘घोड़े वाले बाऊ साहब’ सामंती जीवन की रस्सी के जल चुकने के बाद भी बाकी बची रह गई ऐंठन को रूपायित करती है। ‘देह दंश’ राजनीति की शतरंज का ही उद्घाटन नहीं करती, बाजी जीतने के लिए खेले जाने वाले खेलों को भी परत-दर-परत खोलती है। ‘प्लाजा’ कहानी मैनेजमेंट, कर्मचारी यूनियन और कर्मचारियों के बीच चलने वाली सौदेबाजी और उठापटक के जरिए मजदूर नेताओं के नकाब खोलती है। ‘मुजरिम चांद’ पुलिस तंत्र की उस जड़ता की कहानी है जिससे किसी प्रकार की समझदारी की उम्मीद नहीं की जा सकती। पिता-पुत्रा को संवादहीनता की कहानी ‘संवाद’ की स्थितियां और उनके बीच व्याप्त जड़ता के कारण थोड़ा और स्पष्ट रूप से सामने आ पाते तो पत्र लेखन शैली की यह कहानी और भी मार्मिक बन जाती। ‘मेड़ की दूब’ गांव में सूखे की कथा है।
संग्रह में ‘प्रतिनायक मैं’, ‘सुंदर भ्रम’, ‘वक्रता’ जैसे कहानियां भी हैं जो कथाकार की उस उम्र में लिखी गई जान पड़ती हैं जब हर घटना, हर विचार कहानी का प्लॉट लगता है। और अंत में ‘फोन पर फ्लर्ट....’ क्या जरूरी है कि लेखक अपने हर जीवनानुभव को कहानियों में ढाले ही।
[ इंडिया टुडे में प्रकाशित ]
समीक्ष्य पुस्तक :
बड़की दी का यक्ष प्रश्न
पृष्ठ- 175
मूल्य-175 रुपए
प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2000
पृष्ठ- 175
मूल्य-175 रुपए
प्रकाशक
जनवाणी प्रकाशन प्रा. लि.
30/35-36, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2000
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