अपने भीतर
इतने गुलमोहर
मत खिलाओ
नहीं तो आग लग जाएगी
तुम्हारे यह होठ क्या कम थे
आग लगाने के लिए
जो अपने भीतर
गुलमोहर खिलाने लगी
तुम्हारी यह आंख क्या कम थी
इतराने के लिए
जो तुम गुलमोहर की आड़ ले कर
इस तरह इतराने लगी
यह तुम्हारे वक्ष ,यह तुम्हारे नितंब
यह तुम्हारे गरदन के पीछे से
झांकती तुम्हारी पीठ क्या कम थी
अपने अंगार में मुझे डुबो लेने के लिए
जो तुम गुलमोहर के शहद में मुझे डुबाने लगी
मेरे भीतर
गुलमोहर की तरह
आहिस्ता-आहिस्ता
इतना मत दहको
नहीं तो रात जग जाएगी
मौसम की राह चल कर
मेरे मन के भीतर
गुलमोहर की तरह
इतना मत झरो
नहीं तो बांसुरी बज जाएगी
प्यार की वही पुरानी बांसुरी
जो हरि प्रसाद चौरसिया से हमने सुनी थी
साथ-साथ
और खो गए थे एक दूसरे में
गुलमोहर की यह गमक
पलाश की लहक की तरह
महुआ की मदमाती महक की तरह
हमारी सांसों में खो गई थी
गुलमोहर की छांव तले
हरी घास पर बिछ गए
गुलमोहर के नरम फूलों पर बैठ कर
[ 29 अप्रैल , 2015 ]
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