बहुत दिनों बाद लखनऊ में आज की शाम बड़ी सुखद बन गई । बीते कई सालों से कथाक्रम पत्रिका निकालने और कथा क्रम का आयोजन करने वाले शैलेंद्र सागर के रचना संसार पर कैफ़ी आज़मी सभागार में प्रगतिशील लेखक संघ ने एक संगोष्ठी आयोजित की । इस मौक़े पर शैलेंद्र सागर की रचनाओं के बहाने उन के व्यक्तित्व पर भी बात हुई । उन की नई पुरानी रचनाओं पर बात हुई , उन की सादगी और संजीदगी की बात हुई , संकेतों में ही सही उन के शौक़ और आशिक़ी की बात हुई । लेकिन जो उन का सब से बड़ा गुण है , उन की संतई और उन की तपस्या , इसी की बात नहीं हुई । जो ज़रूर होनी चाहिए थी । बातें और भी होनी चाहिए थी , जो नहीं हुई । जैसे कि उन के रचना संसार पर सुविचारित परचा पढ़ा जाना चाहिए था । उन के रचना संसार और व्यक्तित्व पर लोग बोले तो सही पर कोई भी एक वक्ता पूरी तैयारी के साथ नहीं बोला । किसी भी की तैयारी नहीं दिखी । यह शैलेंद्र सागर जैसे व्यक्ति के साथ एक तरह का अन्याय है । इस लिए भी कि जो आदमी हर साल एक सुंदर आयोजन अपने पिता की याद में किसी तपस्वी की तरह करता हो , उस व्यक्ति पर इस तरह का रूटीन कार्यक्रम कुछ पैबंद सा लगा । तो भी आधी - अधूरी तैयारी और सोच के बावजूद लगभग सभी वक्ताओं ने शैलेंद्र सागर के लिए जो आत्मीयता परोसी और जो दिल खोल कर उन के गुण-अवगुण गाए वह आज की शाम को सुखद ही नहीं , भरपूर आत्मीय और तरल भी बना गए ।
बिस्मिल्ला शिवमूर्ति ने किया । और अपने पूरे ठाट में किया । शिवमूर्ति की एक खासियत है कि वह बिना किसी तैयारी के भी किसी भी विषय पर मजमा बांध कर महफ़िल लूट लेना जानते हैं । यहां भी उन्हों ने यही किया । राजा भर्तृहरि के मोहभंग का संदर्भ लिया लखनऊ से शैलेंद्र सागर के मोह की बात की और फिर शैलेंद्र सागर के कथाक्रम से अपने अरसे से जुड़े रहने की तफ़सील परोसी , उन के पुलिस अधिकारी की सादगी वगैरह की चर्चा की साथ ही उन की गुलयची जैसी कुछ पुरानी कहानियों की चर्चा के बहाने फिर वही रहगुज़र याद आया पर वह आ गए । उन की स्मृतियों , उन की सादगी और संवेदना की कई परतें खोलीं और जोड़ीं । क्रिकेट में जो अमूमन होता है न कि अगर सलामी बल्लेबाज़ ओपनिंग ठीक कर देता है, खाता ठीक से खोल देता है तो टीम कितनी भी कमज़ोर क्यों न हो , मैच जीत ही जाती है । तो इस कार्यक्रम में भी यही हुआ । प्रताप दीक्षित कुछ तैयारी से आए ज़रूर थे पर ऐन वक़्त पर बिजली गुल हो जाने के चलते वह अपनी लाई लिखी हुई समीक्षा नहीं पढ़ पाए । पर शैलेंद्र सागर से अपने परिचय , उन से जुड़ाव और उन की रचनाओं पर विस्तार से बोले । बोले एस के पंजम भी । पर वह अपनी दलित चौहद्दी में ही घिरे रह गए । जाने क्या है कि दलित उभार के बहाने दलित चिंतक और लेखक व्यर्थ ही हर बात को दलित विरोध और दलित अपमान से जोड़ने की असाध्य बीमारी से इस क़दर जकड़ गए हैं कि सामान्य बात और सामान्य चर्चा को भी वह उसी फ्रेम में फिट कर के स्टार्ट हो जाते हैं । विषय कोई भी हो , यह लोग दलित नाम का एक फोड़ा जेब में रख कर लाए रहते हैं और बिना किसी प्रसंग के वही फोड़ा ज़ोर-ज़ोर से फोड़ने लगते हैं । मवाद आदि बहना दिखा कर भी शांत नहीं हो पाते । तो पंजम भी शैलेंद्र सागर की कुछ रचनाओं के बहाने चमार आदि शब्दों के बहाने पिल पड़े तो पिल पड़े । व्यर्थ ही । रजनी गुप्त ने शैलेंद्र सागर की रचनाओं पर संक्षेप में बात की । उषा राय ने भी उन की रचनाओं के दलित और सामाजिक सरोकार को रेखांकित किया । शैलेंद्र सागर की रचनाओं में दलित चरित्रों , पुलिसिया रौब और समाज के बदलते अंदाज़ को विस्तार से रखा । एक चरित्र संग्राम सिंह को विस्तार से बांचा उषा राय ने ।
अखिलेश बहुत अच्छा बोले । चतुरंग , ये इश्क नहीं आसां जैसे उपन्यासों और कई कहानियों की चर्चा की । दलितों पर कई रचनाएं लिखने और उन के नाम में सागर होने की बिना पर कुछ लोगों के बीच उन के दलित होने के संदेह की भी चर्चा की । शैलेंद्र सागर से अपनी पहली मुलाक़ात का व्यौरा बांचा और कई आत्मीय क़िस्से भी सुनाए । शैलेंद्र सागर की सदाशयता , उन का सहयोग और उन की सरलता का बखान किया । उन की कंजूसी का बखान किया और संकेतों में ही उन की आशिक़ मिजाजी का बयान तनिष्क के संदर्भ सहित कुछ इस खिलंदड़पने से किया कि अभी इसी महीने जनवादी लेखक संघ द्वारा आयोजित चार यार कार्यक्रम की याद आ गई । जिस में दूधनाथ सिंह , रवींद्र कालिया और काशीनाथ सिंह ने एक दूसरे की पोल खोल याराना गांठा था । तो अखिलेश ने भी जैसे उसी ठाट को, उसी अंदाज़ में दुहराया और पूरी दिल्लगी से दुहराया । शैलेंद्र सागर ने भी अपनी बात में यह खिलंदड़पना उसी मासूमियत से परोसा । उन्हों ने राजेंद्र यादव से अपनी मुलाक़ात , अपनी रचनाओं और आयोजनों की चर्चा की । कई कील-कांटों को इशारों में बयान किया । पर जाने क्यों सारी चर्चा में श्रीलाल शुक्ल का ज़िक्र सिरे से सब की बात से खारिज रहा । क्या लोग इतनी जल्दी सब को भूल जाते हैं ? खैर ।
शैलेंद्र सागर को देख कर , उन से मिल कर जाने क्यों अमृत लाल नागर की याद आ जाती है और हर बार । रत्ती भर पुलिसिया रंग के बावजूद नागर जी सी ही सरलता , सादगी , आत्मीयता और वही फ़कीराना अंदाज़ शैलेंद्र सागर में भी उपस्थित मिलता है । ख़ास कर कथाक्रम का आयोजन जिस तप और त्याग के साथ वह हर साल अंजाम देते हैं , और शहर में ही नहीं पूरे हिंदी जगत में जो एक ऊष्मा भर देते हैं वह अविरल है , अकथनीय है । ख़ास बात यह कि सालों-साल से हो रहे इस आयोजन में शिरकत करना देश भर के लोग अपना सौभाग्य समझते हैं । आज तक तमाम उथल-पुथल और गरमा - गरमी के बावजूद कथाक्रम आयोजन और कथाक्रम पुरस्कार पर अब तक न कोई दाग लगा है न कोई आरोप । यह आसान नहीं है । लेकिन शैलेंद्र सागर ने इस कठिन काम को सरल बना दिया है , पानी जितना साफ और सरल । बिलकुल संत भाव से । उन की इस संतई की चर्चा नहीं हुई इस आयोजन में । यह बात बहुत खली । मैं ने यह बात शैलेंद्र सागर से कार्यक्रम खत्म होने पर कही भी पर वह अपने पान में ही मुसकुरा कर रह गए । शैलेंद्र सागर अप्रिय या जटिल बातों को ऐसे ही पी जाते हैं । नागर जी का भी यही अंदाज़ था । लेकिन कभी-कभार किसी अप्रिय बात पर नागर जी सहज ही फूट पड़ते थे । लेकिन शैलेंद्र सागर को मैं ने कभी फूटते नहीं देखा किसी अप्रिय बात पर भी । वह अपनी समूची कायस्थीय कमनीयता और डिप्लोमेसी में चुप-चुप रह कर ही सारी बातें और विवाद निपटा लेते हैं । नहीं लखनऊ में लेखकों के हलके में जिस तरह की छिछोरी राजनीति और काट पीट तारी है , उस में से अपने को निर्विवाद भी बचा कर रख ले जाना और पूरी सक्रियता के बावजूद आसान नहीं है । एक सफल आयोजक और संपादक हो कर भी ।
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता शक़ील सिद्दीक़ी ने की । अकसर वह वक्ता और संचालक की भूमिका में ही होते हैं। आज अध्यक्ष थे । लेकिन अपने बोलने में आदतवश वह कार्यक्रम के अध्यक्ष को भी संबोधित कर बैठे और अपनी इस ग़लती पर फ़ौरन हंस भी पड़े । शक़ील ने भी शैलेंद्र की रचनाओं और उन के व्यक्तित्व का गुणगान किया । उन की सादगी, शराफत, सहयोग और सदाशयता का बखान किया । किरन सिंह ने बहुत बढ़िया और सधा हुआ संचालन किया , प्रज्ञा पांडेय ने धन्यवाद ज्ञापन । लेकिन जैसे शैलेंद्र सागर की रचनाओं पर लोग बिना तैयारी के आए थे और रूटीन ढंग से बोल गए , यह बात खटकी । शैलेंद्र सागर के संत रूप की चर्चा और उस का बिरवा किसी ने नहीं रोपा यह बात भी खटकी । खटकने का एक सबब और भी रहा इस आयोजन में वह यह कि लखनऊ के एक श्रेष्ठ वक्ता नलिन रंजन सिंह पूरे कार्यक्रम में उपस्थित थे और उन से बोलने के लिए नहीं कहा गया । यह बात बहुत ज़ोर से खटकी । अभी तक खटक रही है । वैसे किसी रचनाकार को केंद्रित कर इस तरह के आयोजन निरंतर होते रहने चाहिए । लेकिन पूरी तैयारी के साथ । बहुत ज़रूरत है ऐसे आयोजनों की इस शहर को । हां लेकिन कैफ़ी आज़मी सभागार की अव्यवस्थाओं को देखते हुए इस से बचते हुए भी ।
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