नहीं जनता आंख से काजल निकाल लेना भी जानती है
कुछ फेसबुकिया नोट्स
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- कांग्रेस मुक्त भारत की दहाङ लगाने वाले नरेंद्र मोदी आहिस्ता-आहिस्ता उसी रहगुज़र के आशिक हो चले दीखते हैं । आप दीजिए गांधी , नेहरू,पटेल और इंदिरा जी को भी इज़्ज़त और बख्शिए उन्हें नूर भी! इस के हक़दार हैं यह लोग। खादी-वादी , हिंदी-विंदी, अमरीका, चीन, जापान , भूटान और नेपाल भी ठीक है, बाल ठाकरे को श्रद्धांजलि दे कर शिव सेना की हवा भी निकालिए लेकिन इन गगनचुंबी बातों की बिना पर, नित नई डिप्लोमेसी की बुनियाद पर असली मुद्दों से आंख तो मत चुराइए जनाबे आली ! नहीं जनता आंख से काजल निकाल लेना भी जानती है । पाकिस्तान और महंगाई इस समय दोनों ही महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। लेकिन ज़मीनी स्तर पर तो वह इस का कोई हल नहीं ही निकाल पा रहे, अपनी चुनावी जन-सभाओं में नरेंद्र मोदी इन दोनों मुद्दों पर कांग्रेसी हो गए हैं । मतलब सोनिया-राहुल-मनमोहन वाली कांग्रेस ! अटल जी के भाषणों की रोशनी में कहूं तो यह अच्छी बात नहीं है ! साठ साल और साठ महीने की यह जुमलेबाजी बहुत सुकून देने वाली है नहीं। अपने राहुल बाबा भी बीते चुनावी भाषणों में यही करते थे। चीखना , चिल्लाना , यह क़ानून बनाया , वह क़ानून बनाया , परचा फाड़ा आदि-इत्यादि भी किया लेकिन मंहगाई और घोटालों आदि पर वह भी वायसलेस थे । सो सब गुड-गोबर हो गया । गोया कि चुनांचे गगन-बिहारी साबित हुए जाते हैं नरेंद्र मोदी ! होना ही है ! सलीम के लिखे डायलॉग तो अब फिल्मों में भी नहीं चल रहे । और तीर पर तुक्का हर बार लग ही जाए कोई ज़रूरी भी नहीं।
- विशाल भारद्वाज की हैदर महाबकवास और बहुत भटकी हुई फ़िल्म है, लेकिन लोग हैं कि जाने क्यों तारीफ़ पर तारीफ़ झोंके जा रहे हैं l अजब भेड़चाल में फंस गए हैं लोग इस फ़िल्म को ले कर l और हद तो देखिए कि विशाल भारद्वाज ने हिंदू अख़बार में एक बयान झोंक दिया है कि अगर मैं वामपंथी नहीं हूं , तो मैं कलाकार ही नहीं हूं l बस इतने भर से वामपंथी साथी भी लहालोट हैं l हालां कि इस फ़िल्म का वामपंथ से भी क्या सरोकार है , यह समझ से क़तई परे है l आंख में धूल झोंकने की भी एक हद होती है l कोढ़ में खाज यह भी कि फ़िल्म प्रकारांतर से कश्मीर में पाकिस्तानी आतंकवाद के प्रति बड़ा पाजिटिव रुख़ दिखाती है l न गाने किसी करम के हैं न संगीत ,न पटकथा , न निर्देशन l बेवज़ह वक्त खराब किया है सो किया ही है, शेक्सपीयर के नाम पर जो बट्टा लगाया है सो अलग l फैज़ की रचनाओं का इस से बुरा इस्तेमाल भी नहीं हो सकता था l कुलभूषण खरबंदा, तब्बू और इरफ़ान जैसे अभिनेताओं की अभिनय क्षमता का दोहन भी फ़िल्म को कूड़ा होने से नहीं बचा पाता l
- बीते कुछ समय से भ्रष्टाचार और कदाचार को छुपाने के लिए सामाजिक समता और धर्मनिरपेक्षता शब्द का इस कदर दुरूपयोग किया गया है कि यह शब्द अपनी ध्वनि, अपना अर्थ और अपनी गरिमा न सिर्फ खो चुके हैं बल्कि विपरीत प्रतिध्वनि की गूंज भी देने लगे हैं। न सिर्फ़ राजनीतिक तौर पर बल्कि सामाजिक,सांस्कृतिक और साहित्यिक अर्थ में भी अब यह शब्द बेमानी हो चला है। न सिर्फ़ इतना बल्कि इस का उपयोग करने वाले लोग लफ्फाज़ के तौर पर भी अपनी पहचान बना कर गुज़र-बसर करने के लिए अभिशप्त हैं।
- आख़िर जिस प्रदेश का मुख्यमंत्री मंदिर में जाने के बाद उस मंदिर की मूर्तियों को फिर से धोए जाने के कष्ट का रोना रोने में समय गुज़ारेगा , अपनी सरलता का परिचय पेड़ से आम तोड़ कर खिलाने से देगा , जो सुशासन बाबू के रिमोट से चलता हो और खुद ही बताता फिरता हो कि वह अपने घर की बिजली का बिल कम करवाने के लिए घूस दे चुका है , उस से आप चुस्त प्रशासन की उम्मीद भी पाल लें तो यह आप की नादानी है , उस का कोई दोष नहीं । छठ हो या रामलीला, गरीब गुरबों को तो इस प्रशासन के बूटों तले कुचला ही जाना है ! बताइए भला कि भगदड़ में भी पटना के गांधी मैदान पुलिस ने लाठी चार्ज किया और कि इतने बड़े मैदान का सिर्फ एक गेट खोल रखा था , बिजली भी एक तरफ गुल थी । अफवाह की नदी जो बही सो अलग ही बही ! बस मुआवज़ा दोनों सरकारें दे देंगी और हम जैसे लोग श्रद्धांजलि ! बहुत अफ़सोस होता है इस नपुंसक व्यवस्था में खुद भी इस तरह नपुंसक ढंग से जीने को ले कर !
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