हिंदी फ़िल्मों में देशभक्ति भी फ़ैंटसी में ही फिट है। जैसे कि प्यार-तकरार, लड़ाई-झगड़े, खून ख़राबे और शोर-शराबे की फच्चर लिए फैंटेसी फहराती है कुछ-कुछ उसी तरह देशभक्ति की फ़ैंटेसी भी इतराती दमकती फिरती है-हमारी फ़िल्मों में।
देशभक्ति फ़िल्मों के नाम पर हमारे निर्माताओं निर्देशकों को जब भी कुछ सूझा तो फ्रेमवर्क का फच्चर ही यहां फहराया। देशभक्ति फ़िल्म मतलब हीरो फ़ौजी ही होना चाहिए। वह भी मेजर, लेफ्टिनेंट, पायलट से नीचे वाला नहीं। जो कभी भूले से हुआ भी कोई हवलदार, सूबेदार तो वह मेजरों कर्नलों को लगभग हांकता हुआ मिलेगा। अच्छा! पायलट है तो वह आसमान में उड़ता मिलेगा। दुश्मन की ज़मीन पर भी वह प्रेमिका के विरह में बौराया हुआ उड़ता है। और जब कभी गोले बरसाता भी है तो समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि वह दुश्मन को दरकचने के लिए गोले बरसा रहा है कि विरह को वश में करने के लिए, उसी ही की याद को भस्म करने के लिए जब तब गोले बरसा देता है। आखि़र वह करे भी क्या। लड़ाई में तो वह कूदा है पर प्यार की स्वर लहरियां भी तो आसमान में उस का पीछा नहीं छोड़ रहीं। वह गा रही है कि, ‘है तेरे साथ मेरी वफ़ा तू नहीं तो क्या।’ हिंदुस्तान की कसम में प्रिया राजवंश और राजकुमार पर फ़िल्माए इस गाने की इंतिहा और भी है। क्यों कि गायकी तो यहां भी चल रही है। गायकी क्या कव्वाली गाई जा रही है, ‘हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा। दर्द सीने में... वह भी तब जब मोर्चे पर है। और बीहड़ों में राह भूल गए हैं। तो राह नहीं मिलती और कव्वाली फूट पड़ती है, ‘.... तड़पता हुआ पाया होगा।’ हकीक़त फ़िल्म की यह कव्वाली अपनी समग्रता में बेहतर और भरपूर है। और कहीं फ़िल्म के दृश्यबंध में आंखें भी भिगोती है। जवानों की तड़प को ताप भी देती है। पर जब, ‘एक हसीन लड़की जो बस लाजवाब थी।’ गाना आक्रमण फ़िल्म में बजता है तो लगता है कि सतही चमक के आगे देशभक्ति की दमक कहीं दब सी गई है। और यह दमक कोई एक आक्रमण फ़िल्म में ही नहीं दबती। उस की हेठी होती है हिंदुस्तान की कसम में, हेठी होती है हकीक़त में, फ़ौजी और ऐसी अन्य तमाम फ़िल्मों में होती है।
हुंह देशभक्ति का पर्याय भी क्या चुना गया है फ़िल्मों में वर्दी, गोलीबारी, विजय चौक और इंडिया गेट के बीच गणतंत्रा वाली परेड की झलकियां। या इसी के आस पास। बस।
फैंटेसी में ही सही, अपनी हिंदी फ़िल्मों में युद्ध है, प्यार है, देश से लगाव है पर उस का मनोविज्ञान नहीं है। अतिरेक है हर कहीं चाहे युद्ध के दृश्य हों या देश से लगाव के। सब कुछ ध्वनि और संवाद के स्तर पर ही, अभिनय और कथ्य दोनों ही को धता बताते हुए। एकाध ही जगह कहीं सब कुछ अपने अनुपात में सही है। जैसे कि आदमी और इंसान फ़िल्म है। है तो फ़ार्मूला ही और फ़ौजी इस का मुख्य विषय नहीं है। पर अपनी समग्रता में आदमी और इंसान भी देशभक्ति का ही बिरवा रचती है। दंद-फंद, तिकड़म, साज़िश और जासूसी के पड़ाव के साथ एक फ्रेम इस का फ़ौजी चरित्र भी है। इस में फ़ौजियों पर उन के मेस में फ़िल्माया गया कोरस गीत, ‘यारा दिलदारा मेरा दिल करता।’ रुमानियत को भी छूता ज़रूर है, पर ‘आगे-आगे हम चलें यारों की कतारों में’ एक रूमानियत रद्द हो कर दूसरी रूमानियत तारी हो जाती है तो यह भला भी लगता है।
ऐसा भी नहीं है कि हक़ीक़त और हिंदुस्तान की कसम सिरे से दिल ही तोड़ती हैं। सच में तो यह और ऐसी तमाम फ़िल्में देशभक्ति का जज्ब़ा भी घोलती हैं। लोगों को मथती भी हैं और उत्तेजना भी भरती हैं। यहां तक कि इस उत्तेजना की गरमाई में जबरिया ठूंसे लटके-झटके भी डूब उतरा जाते हैं। पर दिक्क़त उन के एप्रोच को ही ले कर है। अगर वह साधे सीधे देशभक्ति और युद्ध के मनोविज्ञान को अभिनय, निर्देशन और कैमरे की मथनी से मथें तो वह फ़िल्में महान हो जाएं। महान ही क्यों महानतम। जैसे कि शशि कपूर की फ़िल्म ‘विजेता’। महान और महानतम तो नहीं हुई पर अच्छी कहलाई। क्यों कि वह अपने विषय की एकाग्रता को कहीं भंग नहीं करती। सरदार जी की फ़िल्म फ़ौजी या आक्रमण की तरह स्टेशन-स्टेशन उस के जवान माताओं-बहनों से आरतियां नहीं उतरवाते चलते। आसमान में उड़ते वक़्त उस का पीछा प्रेमिका की स्वर लहरियां नहीं करतीं। उस का जहाज सिर्फ़ बादलों में घूमता गोले नहीं बरसाता। विजेता का जहाज तो रेगिस्तान में छुपे दुश्मनों के अड्डों को हेरता और ध्वस्त करता गड़गड़ाता रहता है। लेकिन फिर भी विजेता महान फ़िल्म नहीं बन पाई तो इस लिए कि गोविंद निहलानी जैसा निर्देशक कैमरे का कमाल ही दिखाता रह गया। इसी लिए यह सिर्फ़ ‘अच्छी’ फ़िल्म बन कर रह गई।
देशभक्ति फ़िल्में सिर्फ फ़ौजियों को ही कैमरे में समेट कर अपनी शिनाख्त करवाती फिरती हों, ऐसा भी नहीं है। ढेरों ऐतिहासिक और आज़ादी की लड़ाई वाली फ़िल्मों में भी देशभक्ति का रस घुला है और खूब। खास कर सोहराब मोदी की फ़िल्मों में एक नहीं कई बार। मनोज कुमार तो बरसों ठेका ही लिए रहे देशभक्ति फ़िल्मों का। ठेकेदार तो वह अब भी हैं पर ठेका उन से छिन गया है। एक तो फ़िल्मों पर व्यावसायिक पकड़ उन से छूट गई है और वह पस्त हैं। दूसरे ज़रा इन दिनों देशभक्ति के वह भाव नहीं हैं जो साठ और सत्तर के दशक में थे। तीसरे देशभक्ति की दमक अब इडियट बक्से ने भी संभालनी शुरू कर दी है। खैर, चर्चा मनोज कुमार की देशभक्ति की हो रही थी। क्षमा, उन की देशभक्ति के ठेके की। शहीद में देशभक्ति का शहद उन्हें जब भा गया तो बलिदान जैसी डाकू प्रधान फ़िल्म में भी वह भगवा ध्वज फहरा कर देशभक्त हो लिए।
कांग्रेसियों ने उन्हें जनसंघी बता दिया तो वह घबराए। लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए और ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया तो मनोज कुमार ने इस नारे को फ़ौरन लपका और उपकार बना डाली। उपकार में जय जवान, जय किसान का नारा उन्हों ने इतना कात दिया कि नारे को भी शर्म आने लगी। ख़ास कर उस दृश्य में जहां फ़ौजी बने डेविड किसान मनमोहन को पानी का रहट चलाते देख अपने साथियों सहित सैल्यूट में खड़े हो जाते हैं। उपकार में मनोज कुमार ने कई करतब देशभक्ति की आड़ में कर डाले। यह जो हिंदुस्तान की कसम में राज कुमार गोले बरसा रहे हैं और प्रिया राजवंश गाए जा रही हैं, ‘है तेरे साथ मेरी वफ़ा तू नहीं तो क्या।’ तो इस के बीज मनोज कुमार ने ही उपकार में छोड़ दिए थे। उधर घमासान लड़ाई हो रही है और इधर ‘गुलाबी रात गुलाबी’ सा मांसल गीत भी। इसी उपकार फ़िल्म में मनोज कुमार ने कुछ और उपकार भी किए, ‘मेरे देश की धरती सोना’ जैसे अमर गीत दिए जिन के बजे बिना आज भी अपने देश में 15 अगस्त और 26 जनवरी नहीं मन पाती। प्राण पर उपकार किया उन्हों ने जिसे बाद में कहते भी फिरे।
खैर छोड़िए। सूची बड़ी लंबी है। क्यों कि वह तो फिर भारत ही बन गए। और अभी भी भारत बने रहने की जिद उन की उतरी नहीं है। तो भारत ने पूरब और पश्चिम में फिर देशभक्ति की दरिया बहाई। पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों का कोलाज, उन की टकराहट और यादों की एक लंबी आग दहकाई उन्हों ने और चमक गए वह। पर देशभक्ति की दमक यहां भी दब गई। फिर जब इंदिरा गांधी की इमरजेंसी आई तो वह बाक़ायदा कांग्रेसी हो गए।
‘उपकार’ में इंडिया गेट और विजय चौक कनाट प्लेस से गुज़रती सेना और उस की कवायद के साथ उन्हों ने शास्त्राी जी को सुपर इंपोज किया था तो इमरजेंसी के जीन उन में जब प्रवाहित हुए तो इन परेडों के साथ रोटी कपड़ा और मकान में उन्हों ने इंदिरा गांधी को सुपर इंपोज ही भर नहीं किया उन की तसवीर भी भारत के कमरे में टांग दी। देशभक्ति से लबालब रोटी कपड़ा और मकान में अमिताभ फ़ौजी बने थे। बेकार थे। फ़ौज में भर्ती हो गए। उन की बांह कट गई। किस लड़ाई में पता नहीं। पर वह कटी बांह लिए जूझे। बहरहाल रोटी कपड़ा और मकान में भारत बने मनोज कुमार देशभक्ति की रौ में इतना भभके कि बाद में उन के भारत की लगभग छुट्टी सी ही हो गई। देशभक्ति की दरिया सूख गई। वह जो कभी ‘हम दोनों’ में देवानंद ने बहाई थी। हालां कि ‘हम दोनों’ भी प्यार के लय में कहीं ज्यादा निबद्ध थी। पर इस में प्यार और देशभक्ति दोनों की खनक और दमक थी। प्यार और देशभक्ति का विरल किंतु गठा-गठा मनोविज्ञान भी मथे था देवानंद के अभिनय को। लड़ाई की थकान और प्यार की थकान दोनों ही की थरथराहट उन्हों ने शिद्दत और सलीके़ से जिया था। तभी तो जहां ‘अभी न जाओ छोड़ के दिल अभी भरा नहीं’ जिस गरमाई से आज भी लोगों के दिलों में भरा है कहीं उसी तरुणाई के साथ, प्रेम पुजारी का वह गीत, ‘ताकत वतन की हम से है, हिम्मत वतन की हम से है’ भी कहीं उसी जुनून के साथ जे़हन में बसा हुआ है। पर यह भी सच है कि ‘दिल अभी भरा नहीं’, ‘ताकत वतन की हम से है’ पर भारी है और बेहतर। तो शायद इस लिए भी कि प्यार जीवन में ज़्यादा रचा बसा है। और युद्ध बस एक निश्चित उत्तेजना और ज़रूरत तक ही है जीवन में।
वैसे देशभक्ति के दायरे में डालें तो लगभग हर तीसरी फ़िल्म देशभक्ति वाली कहलाएगी। क्यों कि देश तत्व लगभग सभी फ़िल्मों में जाने अनजाने दो चार परसेंट होता ही है। फ़ौजी, पुलिस, नेता, नागरिक, जासूस या किसी भी किरदार के बहाने देशद्रोहियों को कुचला ही जाता है फ़िल्मों में। तो देशभक्ति तो कहला ही गई। अब कि जैसे तस्करी पर आधारित या जासूसी पर आधारित फ़िल्में भी देशभक्ति के चौखटे में आ ही जाती हैं। और ऐसी ढेरों फ़िल्में हैं जिन सब का विस्तार क्या ज़िक्र भी यहां संभव नहीं है। फिर भी ‘शहीद’ फ़िल्म में प्रदीप के लिखे और लता मंगेशकर के गाए उस गीत को हम याद करते हैं जिसे सुन कर पंडित नेहरू भी रो गए थे और हम सब आज भी सुनते हैं तो रो पड़ते हैं, ‘जो शहीद हुए हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।’
देशभक्ति फ़िल्मों के नाम पर हमारे निर्माताओं निर्देशकों को जब भी कुछ सूझा तो फ्रेमवर्क का फच्चर ही यहां फहराया। देशभक्ति फ़िल्म मतलब हीरो फ़ौजी ही होना चाहिए। वह भी मेजर, लेफ्टिनेंट, पायलट से नीचे वाला नहीं। जो कभी भूले से हुआ भी कोई हवलदार, सूबेदार तो वह मेजरों कर्नलों को लगभग हांकता हुआ मिलेगा। अच्छा! पायलट है तो वह आसमान में उड़ता मिलेगा। दुश्मन की ज़मीन पर भी वह प्रेमिका के विरह में बौराया हुआ उड़ता है। और जब कभी गोले बरसाता भी है तो समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है कि वह दुश्मन को दरकचने के लिए गोले बरसा रहा है कि विरह को वश में करने के लिए, उसी ही की याद को भस्म करने के लिए जब तब गोले बरसा देता है। आखि़र वह करे भी क्या। लड़ाई में तो वह कूदा है पर प्यार की स्वर लहरियां भी तो आसमान में उस का पीछा नहीं छोड़ रहीं। वह गा रही है कि, ‘है तेरे साथ मेरी वफ़ा तू नहीं तो क्या।’ हिंदुस्तान की कसम में प्रिया राजवंश और राजकुमार पर फ़िल्माए इस गाने की इंतिहा और भी है। क्यों कि गायकी तो यहां भी चल रही है। गायकी क्या कव्वाली गाई जा रही है, ‘हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा। दर्द सीने में... वह भी तब जब मोर्चे पर है। और बीहड़ों में राह भूल गए हैं। तो राह नहीं मिलती और कव्वाली फूट पड़ती है, ‘.... तड़पता हुआ पाया होगा।’ हकीक़त फ़िल्म की यह कव्वाली अपनी समग्रता में बेहतर और भरपूर है। और कहीं फ़िल्म के दृश्यबंध में आंखें भी भिगोती है। जवानों की तड़प को ताप भी देती है। पर जब, ‘एक हसीन लड़की जो बस लाजवाब थी।’ गाना आक्रमण फ़िल्म में बजता है तो लगता है कि सतही चमक के आगे देशभक्ति की दमक कहीं दब सी गई है। और यह दमक कोई एक आक्रमण फ़िल्म में ही नहीं दबती। उस की हेठी होती है हिंदुस्तान की कसम में, हेठी होती है हकीक़त में, फ़ौजी और ऐसी अन्य तमाम फ़िल्मों में होती है।
हुंह देशभक्ति का पर्याय भी क्या चुना गया है फ़िल्मों में वर्दी, गोलीबारी, विजय चौक और इंडिया गेट के बीच गणतंत्रा वाली परेड की झलकियां। या इसी के आस पास। बस।
फैंटेसी में ही सही, अपनी हिंदी फ़िल्मों में युद्ध है, प्यार है, देश से लगाव है पर उस का मनोविज्ञान नहीं है। अतिरेक है हर कहीं चाहे युद्ध के दृश्य हों या देश से लगाव के। सब कुछ ध्वनि और संवाद के स्तर पर ही, अभिनय और कथ्य दोनों ही को धता बताते हुए। एकाध ही जगह कहीं सब कुछ अपने अनुपात में सही है। जैसे कि आदमी और इंसान फ़िल्म है। है तो फ़ार्मूला ही और फ़ौजी इस का मुख्य विषय नहीं है। पर अपनी समग्रता में आदमी और इंसान भी देशभक्ति का ही बिरवा रचती है। दंद-फंद, तिकड़म, साज़िश और जासूसी के पड़ाव के साथ एक फ्रेम इस का फ़ौजी चरित्र भी है। इस में फ़ौजियों पर उन के मेस में फ़िल्माया गया कोरस गीत, ‘यारा दिलदारा मेरा दिल करता।’ रुमानियत को भी छूता ज़रूर है, पर ‘आगे-आगे हम चलें यारों की कतारों में’ एक रूमानियत रद्द हो कर दूसरी रूमानियत तारी हो जाती है तो यह भला भी लगता है।
ऐसा भी नहीं है कि हक़ीक़त और हिंदुस्तान की कसम सिरे से दिल ही तोड़ती हैं। सच में तो यह और ऐसी तमाम फ़िल्में देशभक्ति का जज्ब़ा भी घोलती हैं। लोगों को मथती भी हैं और उत्तेजना भी भरती हैं। यहां तक कि इस उत्तेजना की गरमाई में जबरिया ठूंसे लटके-झटके भी डूब उतरा जाते हैं। पर दिक्क़त उन के एप्रोच को ही ले कर है। अगर वह साधे सीधे देशभक्ति और युद्ध के मनोविज्ञान को अभिनय, निर्देशन और कैमरे की मथनी से मथें तो वह फ़िल्में महान हो जाएं। महान ही क्यों महानतम। जैसे कि शशि कपूर की फ़िल्म ‘विजेता’। महान और महानतम तो नहीं हुई पर अच्छी कहलाई। क्यों कि वह अपने विषय की एकाग्रता को कहीं भंग नहीं करती। सरदार जी की फ़िल्म फ़ौजी या आक्रमण की तरह स्टेशन-स्टेशन उस के जवान माताओं-बहनों से आरतियां नहीं उतरवाते चलते। आसमान में उड़ते वक़्त उस का पीछा प्रेमिका की स्वर लहरियां नहीं करतीं। उस का जहाज सिर्फ़ बादलों में घूमता गोले नहीं बरसाता। विजेता का जहाज तो रेगिस्तान में छुपे दुश्मनों के अड्डों को हेरता और ध्वस्त करता गड़गड़ाता रहता है। लेकिन फिर भी विजेता महान फ़िल्म नहीं बन पाई तो इस लिए कि गोविंद निहलानी जैसा निर्देशक कैमरे का कमाल ही दिखाता रह गया। इसी लिए यह सिर्फ़ ‘अच्छी’ फ़िल्म बन कर रह गई।
देशभक्ति फ़िल्में सिर्फ फ़ौजियों को ही कैमरे में समेट कर अपनी शिनाख्त करवाती फिरती हों, ऐसा भी नहीं है। ढेरों ऐतिहासिक और आज़ादी की लड़ाई वाली फ़िल्मों में भी देशभक्ति का रस घुला है और खूब। खास कर सोहराब मोदी की फ़िल्मों में एक नहीं कई बार। मनोज कुमार तो बरसों ठेका ही लिए रहे देशभक्ति फ़िल्मों का। ठेकेदार तो वह अब भी हैं पर ठेका उन से छिन गया है। एक तो फ़िल्मों पर व्यावसायिक पकड़ उन से छूट गई है और वह पस्त हैं। दूसरे ज़रा इन दिनों देशभक्ति के वह भाव नहीं हैं जो साठ और सत्तर के दशक में थे। तीसरे देशभक्ति की दमक अब इडियट बक्से ने भी संभालनी शुरू कर दी है। खैर, चर्चा मनोज कुमार की देशभक्ति की हो रही थी। क्षमा, उन की देशभक्ति के ठेके की। शहीद में देशभक्ति का शहद उन्हें जब भा गया तो बलिदान जैसी डाकू प्रधान फ़िल्म में भी वह भगवा ध्वज फहरा कर देशभक्त हो लिए।
कांग्रेसियों ने उन्हें जनसंघी बता दिया तो वह घबराए। लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री हुए और ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया तो मनोज कुमार ने इस नारे को फ़ौरन लपका और उपकार बना डाली। उपकार में जय जवान, जय किसान का नारा उन्हों ने इतना कात दिया कि नारे को भी शर्म आने लगी। ख़ास कर उस दृश्य में जहां फ़ौजी बने डेविड किसान मनमोहन को पानी का रहट चलाते देख अपने साथियों सहित सैल्यूट में खड़े हो जाते हैं। उपकार में मनोज कुमार ने कई करतब देशभक्ति की आड़ में कर डाले। यह जो हिंदुस्तान की कसम में राज कुमार गोले बरसा रहे हैं और प्रिया राजवंश गाए जा रही हैं, ‘है तेरे साथ मेरी वफ़ा तू नहीं तो क्या।’ तो इस के बीज मनोज कुमार ने ही उपकार में छोड़ दिए थे। उधर घमासान लड़ाई हो रही है और इधर ‘गुलाबी रात गुलाबी’ सा मांसल गीत भी। इसी उपकार फ़िल्म में मनोज कुमार ने कुछ और उपकार भी किए, ‘मेरे देश की धरती सोना’ जैसे अमर गीत दिए जिन के बजे बिना आज भी अपने देश में 15 अगस्त और 26 जनवरी नहीं मन पाती। प्राण पर उपकार किया उन्हों ने जिसे बाद में कहते भी फिरे।
खैर छोड़िए। सूची बड़ी लंबी है। क्यों कि वह तो फिर भारत ही बन गए। और अभी भी भारत बने रहने की जिद उन की उतरी नहीं है। तो भारत ने पूरब और पश्चिम में फिर देशभक्ति की दरिया बहाई। पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों का कोलाज, उन की टकराहट और यादों की एक लंबी आग दहकाई उन्हों ने और चमक गए वह। पर देशभक्ति की दमक यहां भी दब गई। फिर जब इंदिरा गांधी की इमरजेंसी आई तो वह बाक़ायदा कांग्रेसी हो गए।
‘उपकार’ में इंडिया गेट और विजय चौक कनाट प्लेस से गुज़रती सेना और उस की कवायद के साथ उन्हों ने शास्त्राी जी को सुपर इंपोज किया था तो इमरजेंसी के जीन उन में जब प्रवाहित हुए तो इन परेडों के साथ रोटी कपड़ा और मकान में उन्हों ने इंदिरा गांधी को सुपर इंपोज ही भर नहीं किया उन की तसवीर भी भारत के कमरे में टांग दी। देशभक्ति से लबालब रोटी कपड़ा और मकान में अमिताभ फ़ौजी बने थे। बेकार थे। फ़ौज में भर्ती हो गए। उन की बांह कट गई। किस लड़ाई में पता नहीं। पर वह कटी बांह लिए जूझे। बहरहाल रोटी कपड़ा और मकान में भारत बने मनोज कुमार देशभक्ति की रौ में इतना भभके कि बाद में उन के भारत की लगभग छुट्टी सी ही हो गई। देशभक्ति की दरिया सूख गई। वह जो कभी ‘हम दोनों’ में देवानंद ने बहाई थी। हालां कि ‘हम दोनों’ भी प्यार के लय में कहीं ज्यादा निबद्ध थी। पर इस में प्यार और देशभक्ति दोनों की खनक और दमक थी। प्यार और देशभक्ति का विरल किंतु गठा-गठा मनोविज्ञान भी मथे था देवानंद के अभिनय को। लड़ाई की थकान और प्यार की थकान दोनों ही की थरथराहट उन्हों ने शिद्दत और सलीके़ से जिया था। तभी तो जहां ‘अभी न जाओ छोड़ के दिल अभी भरा नहीं’ जिस गरमाई से आज भी लोगों के दिलों में भरा है कहीं उसी तरुणाई के साथ, प्रेम पुजारी का वह गीत, ‘ताकत वतन की हम से है, हिम्मत वतन की हम से है’ भी कहीं उसी जुनून के साथ जे़हन में बसा हुआ है। पर यह भी सच है कि ‘दिल अभी भरा नहीं’, ‘ताकत वतन की हम से है’ पर भारी है और बेहतर। तो शायद इस लिए भी कि प्यार जीवन में ज़्यादा रचा बसा है। और युद्ध बस एक निश्चित उत्तेजना और ज़रूरत तक ही है जीवन में।
वैसे देशभक्ति के दायरे में डालें तो लगभग हर तीसरी फ़िल्म देशभक्ति वाली कहलाएगी। क्यों कि देश तत्व लगभग सभी फ़िल्मों में जाने अनजाने दो चार परसेंट होता ही है। फ़ौजी, पुलिस, नेता, नागरिक, जासूस या किसी भी किरदार के बहाने देशद्रोहियों को कुचला ही जाता है फ़िल्मों में। तो देशभक्ति तो कहला ही गई। अब कि जैसे तस्करी पर आधारित या जासूसी पर आधारित फ़िल्में भी देशभक्ति के चौखटे में आ ही जाती हैं। और ऐसी ढेरों फ़िल्में हैं जिन सब का विस्तार क्या ज़िक्र भी यहां संभव नहीं है। फिर भी ‘शहीद’ फ़िल्म में प्रदीप के लिखे और लता मंगेशकर के गाए उस गीत को हम याद करते हैं जिसे सुन कर पंडित नेहरू भी रो गए थे और हम सब आज भी सुनते हैं तो रो पड़ते हैं, ‘जो शहीद हुए हैं उन की जरा याद करो कुर्बानी।’
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