इस गुस्से का इज़हार करते हुए पूर्व मेयर किन्नर अमरनाथ को देर से ही सही श्रद्धांजलि देने के साथ ही खूब बड़ा वाला सैल्यूट करने को दिल करता है ! खूब बड़ा वाला सैल्यूट अमरनाथ !
लोग जब नाराज होते हैं और गुस्सा फूटता है तो कई बार अनाप-शनाप विकल्प भी चुन लेते हैं। कुछ समय पहले हमारे गोरखपुर में लोगों ने राजनीतिक विकल्पों से आजिज आ कर एक निर्दलीय किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था। लेकिन खास बात यह है कि उस मेयर अमरनाथ ने बिना किसी राजनीतिक या प्रशासनिक अनुभव के काम भी बढ़िया किया था। बिना किसी भेदभाव के। अधिकारी भी उस अमरनाथ से नाप में रहते थे। क्यों कि कुछ भी गड़बड़ होने पर अमरनाथ अपनी 'किन्नर अदा' पर उतर आते थे। और अपने पूरे समूह के साथ। सो हर कोई घबराता था। हां, वह जब बहुत खुश होते थे तो नाचने भी लगते थे। लेकिन उन के नाचने की ऐसी खबरें जब कई बार अखबारों में छपने लगीं तो उन्हों ने नाचना भी बंद कर दिया। मैं ने तभी एक उपन्यास लिखने की सोचा। मेयर साहब अब नाचते नहीं। अमरनाथ से इस बारे में मैं ने फ़ोन पर तब चर्चा भी की। उन्हीं दिनों मेरा एक उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं आया था। उस की बड़ी चर्चा थी तब के दिनों। अमरनाथ को यह बात तब मालूम थी कि नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन अमरनाथ ने मेरे प्रस्ताव को बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था यह कहते हुए कि, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' मैं ने पूरी रुपरेखा रखी। लेकिन वह बार-बार, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' ही कहते रहे और पूरी विनम्रता से।
संयोग से मैं अमरनाथ को बचपन के दिनों से जानता हूं। गोरखपुर के जिस मुहल्ले इलाहीबाग में मेरा बचपन बीता है, जहां जवान हुआ हूं, उसी मुहल्ले के बगल में नरसिंहपुर के एक यादव परिवार में अमरनाथ की पैदाइश थी। लेकिन किन्नर गुणों के नाते उन के परिवार ने उन्हें एक तरह से घर निकाला दे दिया। तब इलाहीबाग के एक नि:संतान पासी परिवार ने उन्हें अपना लिया। यह पासी परिवार तब के दिनों दातून बेचने का काम करता था। अमरनाथ के किन्नर लक्षणों से हम या हमारे बचपन के साथी तो क्या बहुत सारे बड़े लोग भी तब अनजान थे। साथ खेलते-कूदते थे। कोई मनाही नहीं थी। लेकिन अमरनाथ जैसे-जैसे बड़े होते गए उन का किन्नर रुप भी निखरने लगा। लड़कों में वह 'चिक्कन' और 'नमकीन' कह कर पुकारे जाने लगे। कबड्डी खेलते वक्त हर लड़का उन्हें भरपूर दबोचने की फ़िराक में रहने लगा। भले कबड्डी से वह आऊट हो जाए और अमरनाथ जीत जाएं पर हर कोई अमरनाथ को छू लेने या दबोच लेने की हद तक उत्सुक रहता। खास कर बड़ी गोल के लड़के। बड़ी गोल मतलब बड़ी उम्र के लड़के।
हम लोगों के साथ खेलते-खेलते अमरनाथ घरों में कब बरतन माजने का काम करने लगे तब पता ही नहीं चला। लेकिन हम या हमारी उम्र के लोग तब भी नहीं जान पाए कि अमरनाथ किन्नर हैं। बल्कि किन्नर नाम और गुण से भी सच बात है कि हम परिचित नहीं थे तब के दिनों। इलाहीबाग में तब हम लाला टोली में रहते थे, किराए के घर में। जो एक जमीदार साहब का खूब बड़ा सा घर क्या बिलकुल बंगला था। बड़ा सा अहाता। वह घर जमीदार साहब का हाता नाम से ही जाना जाता था। जमीदार साहब कायस्थ थे। ज़्यादातर घर वहां तब भी कायस्थों के थे, आज भी हैं। इक्का-दुक्का घर ब्राह्मणों के थे। जिस में एक दीक्षित जी और एक दुबे जी के घर को छोड़ कर बाकी हम और या और ब्राह्मण परिवार किराएदार थे। खास बात यह कि दीक्षित जी के घर के पास ही वह पासी परिवार भी रहता था। तो अमरनाथ ने सब से पहले दीक्षित जी के घर में ही बरतन माजना शुरु किया। फिर कुछ और घरों में भी। अमरनाथ मसाला बहुत अच्छा पीसते थे। उन का मसाला पीसना अब मशहूर हो रहा था। तब के दिनों घरों में दोनों टाइम सील-बट्टे पर मसाला-हल्दी पीसने का चलन था। पिसे हुए मसाले या हल्दी के बिकने का तब बहुत चलन नहीं था। खड़ा मसाला-हल्दी ही बिकता था। काम वालियों से बाकायदा यह तय होता था कि हल्दी मसाला भी दोनों टाइम या एक टाइम पीसना होगा। या नहीं पीसना होगा। या कि एक ही टाइम।
खैर, मुहल्ले में अमरनाथ की ख्याति बढ़िया मसाला पीसने में तो हो ही गई, धीरे-धीरे अमरनाथ की देह पर लावण्य भी आ गया। वह कहते हैं न कि रुप निखर आया है हल्दी और चंदन से। उन दिनों सिनेमा घरो में फ़िल्म शुरु होने के पहले और इंटरवल में चलने वाले विज्ञापनों में वीको वज्रदंती के इस विज्ञापन का यह स्लोगन लगता था उन दिनों जैसे अमरनाथ के लिए ही लिखा गया था। अब अमरनाथ हाफ़ पैंट,कमीज या कुरता पायजामा छोड़ कर साड़ी पहनने लगे थे। अचानक। हम या हमारे जैसे 'अबोध टाइप' के लड़के अवाक थे। लेकिन अमरनाथ पर जैसे जवानी छाई थी,क्या छा रही थी।अब हम कइसे चलीं डगरिया लोगवा नज़र लड़ावेला! वाली सूरत आ गई थी अमरनाथ को ले कर। अमरनाथ को देखते ही लोग इश्कमिजाजी पर उतर आते। रंगीन मिजाज लोगों की नसें तड़क जातीं। अब वह अमरनाथ के बजाय आशा उर्फ़ अमरनाथ नाम से गुहराए जाने लगे थे। उन के हुस्न को ले कर मुहल्ले की औरतें तक जद्दोजहद में पड़ गई थीं। अब अमरनाथ उर्फ़ आशा कहिए या आशा उर्फ़ अमरनाथ औरतों के लिए रश्क का सबब बन चले थे मुहल्ले की पर्दानशीन औरतों के बीच। क्यों कि अमरनाथ की चाल में, उन के चलन में न कोई परदेदारी थी न कोई लाग लिहाज़ ! छपेली टाइप की साड़ियों में अब वह कहर ढाने लगे थे। जब अमरनाथ चलते तो एक वह गाना है ना, मतवारी नारि झूमति-झूमति चलि जाए ! जैसा मंज़र होता। एक प्रौढ़ सज्जन लार टपकाते हुए पूरे भदेसपन में बउरा कर कहते क्या चभक-चभक कर चलता है ! खैर सब से पहले शिकार उन के दीक्षित परिवार के एक दीक्षित जी ही हुए। जो कि रेलवे में नौकरी करते थे। और लड़का पैदा करने के चक्कर में निरंतर सात बेटियों के पिता बन चुके थे। सात बेटियों के बाद उन्हें पुत्र रत्न आखिर प्राप्त हो गया था। जाने इस कामयाबी में या श्रीमती दीक्षित से ऊब जाने या फिर जाने क्या था कि वह अमरनाथ उर्फ़ आशा के आशिक बन गए। मुहल्ले में यह खबर फैलते और उड़ते देर नहीं लगी। इस के पहले भी यह दीक्षित जी एक और हसीन लड़के के इश्क में बदनाम हो चले थे। लेकिन अब वह एक साथ अमरनाथ और उस हसीन लड़के के साथ देखे जाने लगे। यह लड़का भी बड़ी गोल का था, जाति से बढ़ई था। और उन दिनों शत्रुघन सिनहा स्टाइल से ज़ुल्फ़ें संवारने में भी मशहूर था। ज़ुल्फ़ें उस की पेचोखम लिए हुए होतीं। अब दीक्षित जी के साथ चर्चा में यह लड़का और अमरनाथ, एक साथ थे। तीनों सिनेमा आदि देखने भी एक साथ, एक ही साइकिल से जाते। आगे डंडे पर अमरनाथ, पीछे वह लड़का। दीक्षित जी साइकिल चलाते बीच में।
और यह देखिए अब कुछ और नाम भी अमरनाथ के साथ नत्थी होने लगे। किशोर वय के लड़कों के साथ ही कुछ प्रौढ़ लोग भी। अमरनाथ अब महामारी की तरह चर्चित हो गए। जिस भी किसी के साथ अमरनाथ का नाम जुड़ता, मुहल्ले की औरतें उसे, उस घर को, उस घर के लोगों को अजीब नज़रों से घूरतीं, खुसफ़ुस उन की चर्चा करतीं। उस पासी के छोटे से ओसारे में बैठने वाले लोग ज़्यादा हो गए। अमरनाथ को सिनेमा दिखाने वाले, रात के अंधेरे में उन से मिलने वालों में इज़ाफ़ा हो गया। नतीज़ा सामने था उस पासी परिवार ने भी अमरनाथ को अपने से अलग कर दिया। अब अमरनाथ मुहल्ले की ही एक खाली ज़मीन पर जो थोड़ी आड़ में भी थी, झोपड़ी डाल कर रहने लगे। फिर तो खुला खेल फ़रुखाबादी हो गया। अमरनाथ की झोपड़ी तमाम-तमाम दिलफेक लोगों का अड्डा बन गई। अब अमरनाथ को घरों की शरीफ़ और पर्दानशीन औरतों ने अपने-अपने घरों से क्रमश: काम से हटाना शुरु कर दिया। हर औरत डर गई कि क्या पता अमरनाथ उस के घर के ही किसी पुरुष या किसी लड़के को न फंसा ले। अब हर औरत को अमरनाथ में अपनी सौत दिखने लगी। अमरनाथ उर्फ़ आशा मतलब महामारी को न्यौता हो गया। अब सारे शरीफ़ पुरुष और औरतें अमरनाथ को मुहल्ले से ही बाहर निकालने पर आमादा हो गए। और सचमुच अब अमरनाथ ने एक दिन मुहल्ला अचानक छोड़ दिया। चुपचाप। इस लिए भी कि उन का विरोध तो चौतरफ़ा था ही, काम भी नहीं रह गया था। आशिकों की फ़ौज मौज-मज़ा तो चाहती थी, सिनेमा और चाट या चाय पकौड़ी भी कभी-कभार करवा देती लेकिन रोज की रोटी-दाल की मुश्किल हो गई थी। कई बार इस हसीन आशा उर्फ़ अमरनाथ की रातें ऐयाशी में गुज़रने के लिए बदनाम होने के बावजूद फाके में भी गुज़रने लगी थीं। अमरनाथ ऊब गए थे अब अपनी सुंदरता से, अपनी कटीली और बांकी चाल से। धीरे रे चलो मेरी बांकी हिरनिया का सा उन का नशा उतर रहा था। पेट की भूख बड़े-बड़े का नशा उतार देती है, अमरनाथ के हुस्न का, हुस्न के जादू का भीे उतार रही थी। सो अमरनाथ एक रात अपनी झोपड़ी सूनी कर गायब हो गए। कुछ कर्जा भी हो चला था तब उन के ऊपर। लेकिन अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक कहां गायब हो गए, किसी ने इस की सुधि नहीं ली। न उन के आशिकों ने, न उन्हें कर्ज़ा देने वालों ने। बदनामी के मुहाने से हर कोई बचना चाहता था। खास कर कर्ज़ा देने वाले। एकाध लोगों ने गुपचुप चर्चा भी की तो वह लोग खामोशी साध गए। हालां कि वह कर्ज़ा भी दो रुपए, पांच रुपए, दस रुपए तक वाले ही थे। किसी-किसी ने रुपया या आठ आना या चार आना भी न्यौछावर कर रखा था। सब ने खामोश बर्दाश्त कर लिया यह नुकसान भी।
खैर बहुत दिनों बाद अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक नज़र आए मुहल्ले में। जब एक परिवार में एक लड़के का जन्म होने पर बधावा गाने किन्नरों का एक दल मुहल्ले में आ पहुंचा। तो लोगों ने पहचाना कि अरे, यह तो अमरनथवा है ! लेकिन अमरनाथ का वह लावण्य अब उन से बिसर रहा था। या कहूं कि बिसरने की दस्तक दे रहा था। मैं तब तक किशोर हो गया था और इस बात को बड़ी तल्खी से महसूस कर रहा था। जाने यह किन्नरों की संगत का असर था या जीवन संघर्ष और किन्नर होने के पहचान की त्रासदी थी या और कुछ यह मैं तब ठीक-ठाक नहीं जान सका। लेकिन तब सारी थकन और पराजय के बावजूद अमरनाथ के नृत्य के दौरान कमर में एक खास लोच और गमक ज़रुर दर्ज हो रही थी। वह अन्य किन्नरों की ही तरह ताली बजा-बजा कर अपने हिस्से के सारे संवाद और गाने भी गाए जा रहे थे। हालां कि मैं अमरनाथ के आशिकों में नहीं था, न ही अमरनाथ से कोई खास लगाव था मेरा, न कोई दोस्ती। पर एक लुटते और बिसरते सौंदर्य को इस तरह देख कर मुझे भीतर ही भीतर जाने क्यों बहुत दुख हुआ। लगा कि मेरे भीतर कुछ टूट सा गया है। कुछ दरक सा गया है। एक टीस सी उठी मन में। जैसे भीतर ही भीतर कई सारे कांच टूट गए हों। मेरी आंखें अनायास भर आईं। लेकिन यह बात महसूस कर मैं घुट कर रह गया। किसी से चाह कर भी कुछ चर्चा नहीं कर सका। इस लिए भी कि तब हमारी गिनती मुहल्ले के सब से शरीफ़ लड़कों में होती थी। शराफ़त की यह नकाब तोड़ पाना मेरे लिए अब भी कठिन होता है। नहीं उतार पाता हूं। लेकिन आज भी याद है कि मैं तब अमरनाथ के इस नए रुप को देख कर भीतर-भीतर अपने आप से ही लड़ा बहुत था। खामोश ! फिर वह मुहल्ला छूट गया, गोरखपुर छूट गया। मैं दिल्ली चला गया। नौकरी करने। भूल गया कि अमरनाथ नाम का कोई जीव भी कोई था हमारे बचपन की दिनों में। जिस के हुस्न की तपिश देखते हुए मैं किशोर हुआ था। जिस की कटीली चाल और उस का रुप किशोर हो जाने पर मुझे भी भीतर ही भीतर विभोर करता रहा था। हालां कि अमरनाथ हमारे समय में बड़ी गोल के थे यानी मुझ से उम्र में कुछ साल बड़े थे तो भी उन के निश्छल हुस्न की आंच पहुंचती तो थी ही मुझ तक भी। तो भी मैं उन्हें लंबे समय तक भूला रहा। लेकिन कुछ स्मृतियां ऐसी होती हैं जो मन से विदा नहीं होतीं। ठीक वैसे ही जैसे राख में दबी आग। सुलगती ही रहती है। लेकिन मौका मिलते ही अचानक आग बन कर दहक जाती है।
बहरहाल अब मैं लखनऊ आ गया बाद के दिनों में।
मैं तब फिर विभोर हुआ जब कुछ साल पहले पता चला कि अमरनाथ गोरखपुर के मेयर चुन लिए गए हैं। और कि बतौर निर्दल तमाम दिग्गजों और स्थापित पार्टियों की ज़मानत ज़ब्त कराते हुए। यह तब था जब गोरखपुर में लंबे समय से गोरखनाथ मंदिर के महंत लोगों की हर चुनाव में दखल और वर्चस्व टूटता नहीं है। लेकिन अमरनाथ को मेयर के चुनाव में कुछ लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में चुनाव लड़वा दिया था, बिना किसी तैयारी के। लेकिन तब लोगों के गुस्से ने इस किन्नर अमरनाथ में अपनी छांव पा ली थी और अमरनाथ को पूरी गंभीरता से ले लिया। और यह देखिए कि अमरनाथ ने महंत के और अन्य राजनीतिक वर्चस्व को किन्नर होते हुए भी उस बार मटियामेट कर दिया था। यह गोरखपुर के लोगों का गुस्सा था जो अमरनाथ को मेयर चुनने के रुप में फूटा था। गोरखपुर के लोग तब बागी हो गए थे। और अमरनाथ इस गुस्से का प्रतिफल ले कर गोरखपुर का मेयर बन कर दुनिया के सामने उपस्थित थे। हिंदुस्तान के लोकतंत्र की यह बड़ी घटना थी।
तभी मध्य प्रदेश में एक किन्नर के विधायक होने की खबर भी आई थी। बाद के दिनों में तो मध्य प्रदेश के सागर कटनी, शहडोल और जबलपुर में भी किन्नर मेयर बने। लेकिन इस गुस्से की पहली इबारत अमरनाथ ने ही लिखी देश में। फिर खबर आई कि अमरनाथ के चुनाव को ले कर हाईकोर्ट में मुकदमा कर दिया गया है। उस बार महिला आरक्षण के नाते अमरनाथ आशा देवी बन कर चुनाव जीते थे। कोर्ट की बारीकियों में मुकदमा फंसा रहा। कहा गया कि वह महिला नहीं हैं। आदि-आदि। मुकदमा करने वाले शायद नादान और मूर्ख लोग थे। नहीं अगर वह ठीक से लड़े होते तो अमरनाथ वह मुकदमा ज़रुर हार जाते। क्यों कि अपनी तमाम शराफ़त के बावजूद मैं यह तो जानता ही था कि अमरनाथ पुरुष किन्नर थे। यह कथा फिर कभी किसी मौके पर बताऊंगा। खैर, यह मुकदमे की खबर अभी चल ही रही थी कि उन के जगह-जगह नाचने की खबरें आने लगीं कि मेयर साहब फला कार्यक्रम में फिर नाचे ! के टोन में। लेकिन मीडिया की ऐसी खबरों के चलते यह भी पता चला कि मेयर साहब ने नाचना छोड़ दिया है। यह वही दिन थे जब मैं ने उन्हें फ़ोन कर के मेयर साहब अब नाचते नहीं उपन्यास लिखने के बाबत उन से चर्चा की थी। और अमरनाथ ने, 'नाईं बाबा, रहे देईं!' कह कर बड़ी विनम्रता से टाल दिया था। खैर, जल्दी ही ऐसी खबरों की भी बाढ़ आ गई कि मेयर साहब ने किन्नरों के साथ फला अधिकारी को घेर लिया। और जो काम वर्षों से लंबित था, वह काम हो गया। गोरखपुर शहर की सड़कों, खड़ंजों और नालियों आदि के दिन बहुर गए थे मेयर अमरनाथ के कार्यकाल में। मेयर अमरनाथ ने गोरखपुर के शहरी विकास में जैसे गति ला दी थी। सरकारी महकमों में जो कोई काम न हो रहा हो लोग कहते कि अमरनाथ को बुलाऊं क्या? और काम हो जाता था। लोग एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए, मज़ाक के लिए भी अमरनाथ के पद का हवाला देते ! तंज में कहते अरे, यह तो मेयर साहब हैं। और लोग या तो लजा जाते या नाराज हो जाते। खैर, अमरनाथ ने अपना पूरा कार्यकाल बिना किसी दाग के पूरा किया। लोगों ने उन्हें बहुत चढ़ाया कि वह फिर चुनाव लड़ें। लेकिन अमरनाथ साक्षर ही थे, पढ़े-लिखे नहीं थे पर यह तो जानते ही थे कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती। वह नहीं लड़े।
बाद के दिनों में अमरनाथ फिर गुमनामी में चले गए। फिर दो साल पहले उन की याद तब आई थी जब महेंद्र भीष्म का उपन्यास किन्नर कथा पढ़ रहा था। बहुत सारी बातें तो नहीं लेकिन एक किन्नर की जो यातना होती है वह तो वही और वैसी ही थी अमरनाथ की भी। भले वह एक निम्न वर्गीय परिवार से आते थे और महेंद्र भीष्म के किन्नर कथा में वह एक राजपरिवार से आता है। पर किन्नर होने का त्रास और यातना तो दोनों की एक ही है। दिलचस्प यह कि मेयर बनने के बाद उन के परिवार और समाज ने भी अपना लिया। न सिर्फ़ अपना लिया बल्कि नरसिंहपुर के घर में उन्हें जगह भी ससम्मन मिल गई। मिलती भी कैसे नहीं अब वह लालबत्ती पर सवार थे। सफलता सब को अपना बना लेती है। भले वह कोई किन्नर की ही सफलता क्यों न हो ! हालां कि एक बार खबर यह भी मिली थी तब कि अधिकारियों से नाराज हो कर मेयर अमरनाथ मेयर वाली कार छोड़ कर रिक्शे पर लाल बत्ती लगा कर चल रहे हैं। यह और ऐसी तमाम खबरों का पिटारा बन चले थे तब के दिनों अमरनाथ।
बहरहाल अभी जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्य मंत्री बने तो मुझे जाने क्यों बार-बार अमरनाथ की याद फिर आने लगी हैं। क्यों कि जैसे तब के दिनों में अमरनाथ गोरखपुर के लोगों के गुस्से का प्रतीक बने थे कि लोगों ने राजनीतिक पार्टियों और व्यवस्था के प्रति विरोध जताने के लिए एक किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था । और अब दिल्ली के लोगों ने यही गुस्सा दिखाया है अरविंद केजरीवाल और उन की आप पार्टी को चुन कर। इस लिए भी याद आती है अमरनाथ की वह पढ़े-लिखे नहीं थे, मात्र साक्षर थे। पर अरविंद केजरीवल तो पढ़े-लिखे ही क्या नौकरशाह भी रहे हैं। पर जैसे अमरनाथ ने गोरखपुर के लोगों का गुस्सा किन्नर और साक्षर होने के बावजूद संभाल लिया था, निराश नहीं किया था गोरखपुर के लोगों को। तो क्या अरविंद केजरीवाल भी ऐसा कर पाएंगे? क्या अमरनाथ की तरह वह भी यह जानते हैं कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती? अभी जब अमरनाथ की याद लगातार आने लगी इन दिनों तो सोचा कि अमरनाथ से एक बार बात करुं। उन का फ़ोन नंबर पता करने की कोशिश की तो पता चला कि अमरनाथ तो बीते साल ही महाप्रयाण कर गए। और बताइए कि हम जान भी नहीं पाए। तो शायद इस लिए भी कि अमरनाथ जैसे किन्नर की मृत्यु तब किसी मीडिया की खबर नहीं बन पाई। एक किन्नर की मौत भी कोई खबर होती है हमारी मीडिया के लिए भला? भले ही वह हिंदुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी एक गौरवशाली शहर का मेयर बन कर इतिहास में दर्ज हो गया हो। जाने क्यों मुझे कई बार लगता है कि जैसे तब के दिनों गोरखपुर के लोग भारी गुस्से में थे और अपना गुस्सा एक गुमनाम से किन्नर को मेयर चुन कर जाहिर किया था। अब शायद वही गुस्सा समूचे देश में है। और देश को चाहिए कि अपने गुस्से का इज़हार किसी किन्नर को अपना प्रधान मंत्री चुन कर कर दे। स्थितियां तो बिलकुल वही हैं। सो देश को अब बागी हो जाना चाहिए। जैसे कभी गोरखपुर के लोग बागी हुए थे। जैसे कभी मध्य प्रदेश के शहडोल, सागर और जबलपुर के लोग हो गए थे। पर अफ़सोस कि लोग बागी होते दिख नहीं रहे हैं। अफ़सोस यह भी है कि प्रधान मंत्री देश के चुने हुए सांसद करते हैं, [जो चुने जाने के बाद किन्नर भी नहीं, नपुंसक हो जाते हैं।] सीधे जनता नहीं। वैसे भी यह सांसद और राजनीतिज्ञ ऐसे पेश आ रहे हैं गोया जनता से भी उपर संसद हो गई है। जिस संविधान को दिन रात बदल कर अपने अनुरुप बनाते जा रहे यह नेता उस में संशोधन कर कर के उस का लोथड़ा बना चुके हैं। उसी संविधान की दुहाई दे-दे कर जनता को गाय की तरह सुई लगा-लगा कर दूहने वाले यह राजनीतिज्ञ अपनी सुविधा और सुख के लिए दिन रात देश को बेचने लगे हैं। एक नहीं अनेक मामले हैं। और सब को सब कुछ पता है। राहत इंदौरी तो साफ लिख रहे हैं कि:
सच बात कौन है जो सरे आम कह सके
मैं कह रहा हूं मुझ को सज़ा देनी चाहिए।
सौदा यहीं पे होता है हिंदुस्तान का
संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए।
और राहत इंदौरी ने यह शेर या गज़ल कोई आज नहीं लिखी है। यह कोई 6 या 7 साल पुराना शेर है। सवाल तो धूमिल भी उठा गए हैं। प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। तो शायद इसी मशाल को ध्वनित करते हुए धूमिल चालीस साल पहले संसद से सड़क तक की कैफ़ियत बांच रहे थे। धूमिल जैसे अपनी कविताओं से इस व्यवस्था और संसद पर तेजाब डाल रहे थे। एक बानगी देखिए:
मुझ से कहा गया कि
संसद देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद-
तेली की वह घानी है
जिस में आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहां एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिस ने सत्य कह दिया है
उस का बुरा हाल क्यों है?'
धूमिल ने यह सवाल भी पूछा है:
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
ठीक ऐसे ही द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने जाने तंज में यह कविता लिखी थी, यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,/सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।' या कि किसी और भाव में पता नहीं। पर मशहूर बहुत हुई थी तब के दिनों। और हालात सचमुच वही हैं आज की तारीख में। कि सब के सब किन्नर नरेश बन चुके हैं। सो पूरी कविता को यहां बांचिए और खुद से पूछिए कि क्या हमारे शासक सत्ता का दुरुपयोग किन्नर नरेश बन कर ही नहीं कर रहे?
यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।
बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे।
मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन,
मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण।
यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर,
हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर।
बाँध खडग तलवार, सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता,
बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता।
राज महल से धीमे-धीमे, आती देख सवारी,
रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।
जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते,
हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते।
सूरज के रथ-सा, मेरा रथ आगे बढ़ता जाता,
बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता।
खैर,इस गुस्से का इज़हार करते हुए पूर्व मेयर किन्नर अमरनाथ को देर से ही सही श्रद्धांजलि देने के साथ ही खूब बड़ा वाला सैल्यूट करने को दिल करता है ! खूब बड़ा वाला सैल्यूट अमरनाथ ! यह सैल्यूट करते समय बचपन के वह दिन याद आते हैं जब अमरनाथ के खूब हसीन दिन थे। और हम तब यह भी नहीं जानते थे कि अमरनाथ किन्नर हैं। या कि किन्नर क्या बला है और कि उस के दुख क्या-क्या हैं? बल्कि अंतहीन हैं।
लोग जब नाराज होते हैं और गुस्सा फूटता है तो कई बार अनाप-शनाप विकल्प भी चुन लेते हैं। कुछ समय पहले हमारे गोरखपुर में लोगों ने राजनीतिक विकल्पों से आजिज आ कर एक निर्दलीय किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था। लेकिन खास बात यह है कि उस मेयर अमरनाथ ने बिना किसी राजनीतिक या प्रशासनिक अनुभव के काम भी बढ़िया किया था। बिना किसी भेदभाव के। अधिकारी भी उस अमरनाथ से नाप में रहते थे। क्यों कि कुछ भी गड़बड़ होने पर अमरनाथ अपनी 'किन्नर अदा' पर उतर आते थे। और अपने पूरे समूह के साथ। सो हर कोई घबराता था। हां, वह जब बहुत खुश होते थे तो नाचने भी लगते थे। लेकिन उन के नाचने की ऐसी खबरें जब कई बार अखबारों में छपने लगीं तो उन्हों ने नाचना भी बंद कर दिया। मैं ने तभी एक उपन्यास लिखने की सोचा। मेयर साहब अब नाचते नहीं। अमरनाथ से इस बारे में मैं ने फ़ोन पर तब चर्चा भी की। उन्हीं दिनों मेरा एक उपन्यास लोक कवि अब गाते नहीं आया था। उस की बड़ी चर्चा थी तब के दिनों। अमरनाथ को यह बात तब मालूम थी कि नहीं, मैं नहीं जानता। लेकिन अमरनाथ ने मेरे प्रस्ताव को बड़ी विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था यह कहते हुए कि, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' मैं ने पूरी रुपरेखा रखी। लेकिन वह बार-बार, ' नाईं बाबा, रहे देईं !' ही कहते रहे और पूरी विनम्रता से।
संयोग से मैं अमरनाथ को बचपन के दिनों से जानता हूं। गोरखपुर के जिस मुहल्ले इलाहीबाग में मेरा बचपन बीता है, जहां जवान हुआ हूं, उसी मुहल्ले के बगल में नरसिंहपुर के एक यादव परिवार में अमरनाथ की पैदाइश थी। लेकिन किन्नर गुणों के नाते उन के परिवार ने उन्हें एक तरह से घर निकाला दे दिया। तब इलाहीबाग के एक नि:संतान पासी परिवार ने उन्हें अपना लिया। यह पासी परिवार तब के दिनों दातून बेचने का काम करता था। अमरनाथ के किन्नर लक्षणों से हम या हमारे बचपन के साथी तो क्या बहुत सारे बड़े लोग भी तब अनजान थे। साथ खेलते-कूदते थे। कोई मनाही नहीं थी। लेकिन अमरनाथ जैसे-जैसे बड़े होते गए उन का किन्नर रुप भी निखरने लगा। लड़कों में वह 'चिक्कन' और 'नमकीन' कह कर पुकारे जाने लगे। कबड्डी खेलते वक्त हर लड़का उन्हें भरपूर दबोचने की फ़िराक में रहने लगा। भले कबड्डी से वह आऊट हो जाए और अमरनाथ जीत जाएं पर हर कोई अमरनाथ को छू लेने या दबोच लेने की हद तक उत्सुक रहता। खास कर बड़ी गोल के लड़के। बड़ी गोल मतलब बड़ी उम्र के लड़के।
हम लोगों के साथ खेलते-खेलते अमरनाथ घरों में कब बरतन माजने का काम करने लगे तब पता ही नहीं चला। लेकिन हम या हमारी उम्र के लोग तब भी नहीं जान पाए कि अमरनाथ किन्नर हैं। बल्कि किन्नर नाम और गुण से भी सच बात है कि हम परिचित नहीं थे तब के दिनों। इलाहीबाग में तब हम लाला टोली में रहते थे, किराए के घर में। जो एक जमीदार साहब का खूब बड़ा सा घर क्या बिलकुल बंगला था। बड़ा सा अहाता। वह घर जमीदार साहब का हाता नाम से ही जाना जाता था। जमीदार साहब कायस्थ थे। ज़्यादातर घर वहां तब भी कायस्थों के थे, आज भी हैं। इक्का-दुक्का घर ब्राह्मणों के थे। जिस में एक दीक्षित जी और एक दुबे जी के घर को छोड़ कर बाकी हम और या और ब्राह्मण परिवार किराएदार थे। खास बात यह कि दीक्षित जी के घर के पास ही वह पासी परिवार भी रहता था। तो अमरनाथ ने सब से पहले दीक्षित जी के घर में ही बरतन माजना शुरु किया। फिर कुछ और घरों में भी। अमरनाथ मसाला बहुत अच्छा पीसते थे। उन का मसाला पीसना अब मशहूर हो रहा था। तब के दिनों घरों में दोनों टाइम सील-बट्टे पर मसाला-हल्दी पीसने का चलन था। पिसे हुए मसाले या हल्दी के बिकने का तब बहुत चलन नहीं था। खड़ा मसाला-हल्दी ही बिकता था। काम वालियों से बाकायदा यह तय होता था कि हल्दी मसाला भी दोनों टाइम या एक टाइम पीसना होगा। या नहीं पीसना होगा। या कि एक ही टाइम।
खैर, मुहल्ले में अमरनाथ की ख्याति बढ़िया मसाला पीसने में तो हो ही गई, धीरे-धीरे अमरनाथ की देह पर लावण्य भी आ गया। वह कहते हैं न कि रुप निखर आया है हल्दी और चंदन से। उन दिनों सिनेमा घरो में फ़िल्म शुरु होने के पहले और इंटरवल में चलने वाले विज्ञापनों में वीको वज्रदंती के इस विज्ञापन का यह स्लोगन लगता था उन दिनों जैसे अमरनाथ के लिए ही लिखा गया था। अब अमरनाथ हाफ़ पैंट,कमीज या कुरता पायजामा छोड़ कर साड़ी पहनने लगे थे। अचानक। हम या हमारे जैसे 'अबोध टाइप' के लड़के अवाक थे। लेकिन अमरनाथ पर जैसे जवानी छाई थी,क्या छा रही थी।अब हम कइसे चलीं डगरिया लोगवा नज़र लड़ावेला! वाली सूरत आ गई थी अमरनाथ को ले कर। अमरनाथ को देखते ही लोग इश्कमिजाजी पर उतर आते। रंगीन मिजाज लोगों की नसें तड़क जातीं। अब वह अमरनाथ के बजाय आशा उर्फ़ अमरनाथ नाम से गुहराए जाने लगे थे। उन के हुस्न को ले कर मुहल्ले की औरतें तक जद्दोजहद में पड़ गई थीं। अब अमरनाथ उर्फ़ आशा कहिए या आशा उर्फ़ अमरनाथ औरतों के लिए रश्क का सबब बन चले थे मुहल्ले की पर्दानशीन औरतों के बीच। क्यों कि अमरनाथ की चाल में, उन के चलन में न कोई परदेदारी थी न कोई लाग लिहाज़ ! छपेली टाइप की साड़ियों में अब वह कहर ढाने लगे थे। जब अमरनाथ चलते तो एक वह गाना है ना, मतवारी नारि झूमति-झूमति चलि जाए ! जैसा मंज़र होता। एक प्रौढ़ सज्जन लार टपकाते हुए पूरे भदेसपन में बउरा कर कहते क्या चभक-चभक कर चलता है ! खैर सब से पहले शिकार उन के दीक्षित परिवार के एक दीक्षित जी ही हुए। जो कि रेलवे में नौकरी करते थे। और लड़का पैदा करने के चक्कर में निरंतर सात बेटियों के पिता बन चुके थे। सात बेटियों के बाद उन्हें पुत्र रत्न आखिर प्राप्त हो गया था। जाने इस कामयाबी में या श्रीमती दीक्षित से ऊब जाने या फिर जाने क्या था कि वह अमरनाथ उर्फ़ आशा के आशिक बन गए। मुहल्ले में यह खबर फैलते और उड़ते देर नहीं लगी। इस के पहले भी यह दीक्षित जी एक और हसीन लड़के के इश्क में बदनाम हो चले थे। लेकिन अब वह एक साथ अमरनाथ और उस हसीन लड़के के साथ देखे जाने लगे। यह लड़का भी बड़ी गोल का था, जाति से बढ़ई था। और उन दिनों शत्रुघन सिनहा स्टाइल से ज़ुल्फ़ें संवारने में भी मशहूर था। ज़ुल्फ़ें उस की पेचोखम लिए हुए होतीं। अब दीक्षित जी के साथ चर्चा में यह लड़का और अमरनाथ, एक साथ थे। तीनों सिनेमा आदि देखने भी एक साथ, एक ही साइकिल से जाते। आगे डंडे पर अमरनाथ, पीछे वह लड़का। दीक्षित जी साइकिल चलाते बीच में।
और यह देखिए अब कुछ और नाम भी अमरनाथ के साथ नत्थी होने लगे। किशोर वय के लड़कों के साथ ही कुछ प्रौढ़ लोग भी। अमरनाथ अब महामारी की तरह चर्चित हो गए। जिस भी किसी के साथ अमरनाथ का नाम जुड़ता, मुहल्ले की औरतें उसे, उस घर को, उस घर के लोगों को अजीब नज़रों से घूरतीं, खुसफ़ुस उन की चर्चा करतीं। उस पासी के छोटे से ओसारे में बैठने वाले लोग ज़्यादा हो गए। अमरनाथ को सिनेमा दिखाने वाले, रात के अंधेरे में उन से मिलने वालों में इज़ाफ़ा हो गया। नतीज़ा सामने था उस पासी परिवार ने भी अमरनाथ को अपने से अलग कर दिया। अब अमरनाथ मुहल्ले की ही एक खाली ज़मीन पर जो थोड़ी आड़ में भी थी, झोपड़ी डाल कर रहने लगे। फिर तो खुला खेल फ़रुखाबादी हो गया। अमरनाथ की झोपड़ी तमाम-तमाम दिलफेक लोगों का अड्डा बन गई। अब अमरनाथ को घरों की शरीफ़ और पर्दानशीन औरतों ने अपने-अपने घरों से क्रमश: काम से हटाना शुरु कर दिया। हर औरत डर गई कि क्या पता अमरनाथ उस के घर के ही किसी पुरुष या किसी लड़के को न फंसा ले। अब हर औरत को अमरनाथ में अपनी सौत दिखने लगी। अमरनाथ उर्फ़ आशा मतलब महामारी को न्यौता हो गया। अब सारे शरीफ़ पुरुष और औरतें अमरनाथ को मुहल्ले से ही बाहर निकालने पर आमादा हो गए। और सचमुच अब अमरनाथ ने एक दिन मुहल्ला अचानक छोड़ दिया। चुपचाप। इस लिए भी कि उन का विरोध तो चौतरफ़ा था ही, काम भी नहीं रह गया था। आशिकों की फ़ौज मौज-मज़ा तो चाहती थी, सिनेमा और चाट या चाय पकौड़ी भी कभी-कभार करवा देती लेकिन रोज की रोटी-दाल की मुश्किल हो गई थी। कई बार इस हसीन आशा उर्फ़ अमरनाथ की रातें ऐयाशी में गुज़रने के लिए बदनाम होने के बावजूद फाके में भी गुज़रने लगी थीं। अमरनाथ ऊब गए थे अब अपनी सुंदरता से, अपनी कटीली और बांकी चाल से। धीरे रे चलो मेरी बांकी हिरनिया का सा उन का नशा उतर रहा था। पेट की भूख बड़े-बड़े का नशा उतार देती है, अमरनाथ के हुस्न का, हुस्न के जादू का भीे उतार रही थी। सो अमरनाथ एक रात अपनी झोपड़ी सूनी कर गायब हो गए। कुछ कर्जा भी हो चला था तब उन के ऊपर। लेकिन अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक कहां गायब हो गए, किसी ने इस की सुधि नहीं ली। न उन के आशिकों ने, न उन्हें कर्ज़ा देने वालों ने। बदनामी के मुहाने से हर कोई बचना चाहता था। खास कर कर्ज़ा देने वाले। एकाध लोगों ने गुपचुप चर्चा भी की तो वह लोग खामोशी साध गए। हालां कि वह कर्ज़ा भी दो रुपए, पांच रुपए, दस रुपए तक वाले ही थे। किसी-किसी ने रुपया या आठ आना या चार आना भी न्यौछावर कर रखा था। सब ने खामोश बर्दाश्त कर लिया यह नुकसान भी।
खैर बहुत दिनों बाद अमरनाथ ऊर्फ़ आशा अचानक नज़र आए मुहल्ले में। जब एक परिवार में एक लड़के का जन्म होने पर बधावा गाने किन्नरों का एक दल मुहल्ले में आ पहुंचा। तो लोगों ने पहचाना कि अरे, यह तो अमरनथवा है ! लेकिन अमरनाथ का वह लावण्य अब उन से बिसर रहा था। या कहूं कि बिसरने की दस्तक दे रहा था। मैं तब तक किशोर हो गया था और इस बात को बड़ी तल्खी से महसूस कर रहा था। जाने यह किन्नरों की संगत का असर था या जीवन संघर्ष और किन्नर होने के पहचान की त्रासदी थी या और कुछ यह मैं तब ठीक-ठाक नहीं जान सका। लेकिन तब सारी थकन और पराजय के बावजूद अमरनाथ के नृत्य के दौरान कमर में एक खास लोच और गमक ज़रुर दर्ज हो रही थी। वह अन्य किन्नरों की ही तरह ताली बजा-बजा कर अपने हिस्से के सारे संवाद और गाने भी गाए जा रहे थे। हालां कि मैं अमरनाथ के आशिकों में नहीं था, न ही अमरनाथ से कोई खास लगाव था मेरा, न कोई दोस्ती। पर एक लुटते और बिसरते सौंदर्य को इस तरह देख कर मुझे भीतर ही भीतर जाने क्यों बहुत दुख हुआ। लगा कि मेरे भीतर कुछ टूट सा गया है। कुछ दरक सा गया है। एक टीस सी उठी मन में। जैसे भीतर ही भीतर कई सारे कांच टूट गए हों। मेरी आंखें अनायास भर आईं। लेकिन यह बात महसूस कर मैं घुट कर रह गया। किसी से चाह कर भी कुछ चर्चा नहीं कर सका। इस लिए भी कि तब हमारी गिनती मुहल्ले के सब से शरीफ़ लड़कों में होती थी। शराफ़त की यह नकाब तोड़ पाना मेरे लिए अब भी कठिन होता है। नहीं उतार पाता हूं। लेकिन आज भी याद है कि मैं तब अमरनाथ के इस नए रुप को देख कर भीतर-भीतर अपने आप से ही लड़ा बहुत था। खामोश ! फिर वह मुहल्ला छूट गया, गोरखपुर छूट गया। मैं दिल्ली चला गया। नौकरी करने। भूल गया कि अमरनाथ नाम का कोई जीव भी कोई था हमारे बचपन की दिनों में। जिस के हुस्न की तपिश देखते हुए मैं किशोर हुआ था। जिस की कटीली चाल और उस का रुप किशोर हो जाने पर मुझे भी भीतर ही भीतर विभोर करता रहा था। हालां कि अमरनाथ हमारे समय में बड़ी गोल के थे यानी मुझ से उम्र में कुछ साल बड़े थे तो भी उन के निश्छल हुस्न की आंच पहुंचती तो थी ही मुझ तक भी। तो भी मैं उन्हें लंबे समय तक भूला रहा। लेकिन कुछ स्मृतियां ऐसी होती हैं जो मन से विदा नहीं होतीं। ठीक वैसे ही जैसे राख में दबी आग। सुलगती ही रहती है। लेकिन मौका मिलते ही अचानक आग बन कर दहक जाती है।
बहरहाल अब मैं लखनऊ आ गया बाद के दिनों में।
मैं तब फिर विभोर हुआ जब कुछ साल पहले पता चला कि अमरनाथ गोरखपुर के मेयर चुन लिए गए हैं। और कि बतौर निर्दल तमाम दिग्गजों और स्थापित पार्टियों की ज़मानत ज़ब्त कराते हुए। यह तब था जब गोरखपुर में लंबे समय से गोरखनाथ मंदिर के महंत लोगों की हर चुनाव में दखल और वर्चस्व टूटता नहीं है। लेकिन अमरनाथ को मेयर के चुनाव में कुछ लोगों ने मज़ाक-मज़ाक में चुनाव लड़वा दिया था, बिना किसी तैयारी के। लेकिन तब लोगों के गुस्से ने इस किन्नर अमरनाथ में अपनी छांव पा ली थी और अमरनाथ को पूरी गंभीरता से ले लिया। और यह देखिए कि अमरनाथ ने महंत के और अन्य राजनीतिक वर्चस्व को किन्नर होते हुए भी उस बार मटियामेट कर दिया था। यह गोरखपुर के लोगों का गुस्सा था जो अमरनाथ को मेयर चुनने के रुप में फूटा था। गोरखपुर के लोग तब बागी हो गए थे। और अमरनाथ इस गुस्से का प्रतिफल ले कर गोरखपुर का मेयर बन कर दुनिया के सामने उपस्थित थे। हिंदुस्तान के लोकतंत्र की यह बड़ी घटना थी।
तभी मध्य प्रदेश में एक किन्नर के विधायक होने की खबर भी आई थी। बाद के दिनों में तो मध्य प्रदेश के सागर कटनी, शहडोल और जबलपुर में भी किन्नर मेयर बने। लेकिन इस गुस्से की पहली इबारत अमरनाथ ने ही लिखी देश में। फिर खबर आई कि अमरनाथ के चुनाव को ले कर हाईकोर्ट में मुकदमा कर दिया गया है। उस बार महिला आरक्षण के नाते अमरनाथ आशा देवी बन कर चुनाव जीते थे। कोर्ट की बारीकियों में मुकदमा फंसा रहा। कहा गया कि वह महिला नहीं हैं। आदि-आदि। मुकदमा करने वाले शायद नादान और मूर्ख लोग थे। नहीं अगर वह ठीक से लड़े होते तो अमरनाथ वह मुकदमा ज़रुर हार जाते। क्यों कि अपनी तमाम शराफ़त के बावजूद मैं यह तो जानता ही था कि अमरनाथ पुरुष किन्नर थे। यह कथा फिर कभी किसी मौके पर बताऊंगा। खैर, यह मुकदमे की खबर अभी चल ही रही थी कि उन के जगह-जगह नाचने की खबरें आने लगीं कि मेयर साहब फला कार्यक्रम में फिर नाचे ! के टोन में। लेकिन मीडिया की ऐसी खबरों के चलते यह भी पता चला कि मेयर साहब ने नाचना छोड़ दिया है। यह वही दिन थे जब मैं ने उन्हें फ़ोन कर के मेयर साहब अब नाचते नहीं उपन्यास लिखने के बाबत उन से चर्चा की थी। और अमरनाथ ने, 'नाईं बाबा, रहे देईं!' कह कर बड़ी विनम्रता से टाल दिया था। खैर, जल्दी ही ऐसी खबरों की भी बाढ़ आ गई कि मेयर साहब ने किन्नरों के साथ फला अधिकारी को घेर लिया। और जो काम वर्षों से लंबित था, वह काम हो गया। गोरखपुर शहर की सड़कों, खड़ंजों और नालियों आदि के दिन बहुर गए थे मेयर अमरनाथ के कार्यकाल में। मेयर अमरनाथ ने गोरखपुर के शहरी विकास में जैसे गति ला दी थी। सरकारी महकमों में जो कोई काम न हो रहा हो लोग कहते कि अमरनाथ को बुलाऊं क्या? और काम हो जाता था। लोग एक दूसरे को चिढ़ाने के लिए, मज़ाक के लिए भी अमरनाथ के पद का हवाला देते ! तंज में कहते अरे, यह तो मेयर साहब हैं। और लोग या तो लजा जाते या नाराज हो जाते। खैर, अमरनाथ ने अपना पूरा कार्यकाल बिना किसी दाग के पूरा किया। लोगों ने उन्हें बहुत चढ़ाया कि वह फिर चुनाव लड़ें। लेकिन अमरनाथ साक्षर ही थे, पढ़े-लिखे नहीं थे पर यह तो जानते ही थे कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती। वह नहीं लड़े।
बाद के दिनों में अमरनाथ फिर गुमनामी में चले गए। फिर दो साल पहले उन की याद तब आई थी जब महेंद्र भीष्म का उपन्यास किन्नर कथा पढ़ रहा था। बहुत सारी बातें तो नहीं लेकिन एक किन्नर की जो यातना होती है वह तो वही और वैसी ही थी अमरनाथ की भी। भले वह एक निम्न वर्गीय परिवार से आते थे और महेंद्र भीष्म के किन्नर कथा में वह एक राजपरिवार से आता है। पर किन्नर होने का त्रास और यातना तो दोनों की एक ही है। दिलचस्प यह कि मेयर बनने के बाद उन के परिवार और समाज ने भी अपना लिया। न सिर्फ़ अपना लिया बल्कि नरसिंहपुर के घर में उन्हें जगह भी ससम्मन मिल गई। मिलती भी कैसे नहीं अब वह लालबत्ती पर सवार थे। सफलता सब को अपना बना लेती है। भले वह कोई किन्नर की ही सफलता क्यों न हो ! हालां कि एक बार खबर यह भी मिली थी तब कि अधिकारियों से नाराज हो कर मेयर अमरनाथ मेयर वाली कार छोड़ कर रिक्शे पर लाल बत्ती लगा कर चल रहे हैं। यह और ऐसी तमाम खबरों का पिटारा बन चले थे तब के दिनों अमरनाथ।
बहरहाल अभी जब अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्य मंत्री बने तो मुझे जाने क्यों बार-बार अमरनाथ की याद फिर आने लगी हैं। क्यों कि जैसे तब के दिनों में अमरनाथ गोरखपुर के लोगों के गुस्से का प्रतीक बने थे कि लोगों ने राजनीतिक पार्टियों और व्यवस्था के प्रति विरोध जताने के लिए एक किन्नर को अपना मेयर चुन लिया था । और अब दिल्ली के लोगों ने यही गुस्सा दिखाया है अरविंद केजरीवाल और उन की आप पार्टी को चुन कर। इस लिए भी याद आती है अमरनाथ की वह पढ़े-लिखे नहीं थे, मात्र साक्षर थे। पर अरविंद केजरीवल तो पढ़े-लिखे ही क्या नौकरशाह भी रहे हैं। पर जैसे अमरनाथ ने गोरखपुर के लोगों का गुस्सा किन्नर और साक्षर होने के बावजूद संभाल लिया था, निराश नहीं किया था गोरखपुर के लोगों को। तो क्या अरविंद केजरीवाल भी ऐसा कर पाएंगे? क्या अमरनाथ की तरह वह भी यह जानते हैं कि काठ की हाड़ी फिर दुबारा नहीं चढ़ती? अभी जब अमरनाथ की याद लगातार आने लगी इन दिनों तो सोचा कि अमरनाथ से एक बार बात करुं। उन का फ़ोन नंबर पता करने की कोशिश की तो पता चला कि अमरनाथ तो बीते साल ही महाप्रयाण कर गए। और बताइए कि हम जान भी नहीं पाए। तो शायद इस लिए भी कि अमरनाथ जैसे किन्नर की मृत्यु तब किसी मीडिया की खबर नहीं बन पाई। एक किन्नर की मौत भी कोई खबर होती है हमारी मीडिया के लिए भला? भले ही वह हिंदुस्तान जैसे लोकतांत्रिक देश में किसी एक गौरवशाली शहर का मेयर बन कर इतिहास में दर्ज हो गया हो। जाने क्यों मुझे कई बार लगता है कि जैसे तब के दिनों गोरखपुर के लोग भारी गुस्से में थे और अपना गुस्सा एक गुमनाम से किन्नर को मेयर चुन कर जाहिर किया था। अब शायद वही गुस्सा समूचे देश में है। और देश को चाहिए कि अपने गुस्से का इज़हार किसी किन्नर को अपना प्रधान मंत्री चुन कर कर दे। स्थितियां तो बिलकुल वही हैं। सो देश को अब बागी हो जाना चाहिए। जैसे कभी गोरखपुर के लोग बागी हुए थे। जैसे कभी मध्य प्रदेश के शहडोल, सागर और जबलपुर के लोग हो गए थे। पर अफ़सोस कि लोग बागी होते दिख नहीं रहे हैं। अफ़सोस यह भी है कि प्रधान मंत्री देश के चुने हुए सांसद करते हैं, [जो चुने जाने के बाद किन्नर भी नहीं, नपुंसक हो जाते हैं।] सीधे जनता नहीं। वैसे भी यह सांसद और राजनीतिज्ञ ऐसे पेश आ रहे हैं गोया जनता से भी उपर संसद हो गई है। जिस संविधान को दिन रात बदल कर अपने अनुरुप बनाते जा रहे यह नेता उस में संशोधन कर कर के उस का लोथड़ा बना चुके हैं। उसी संविधान की दुहाई दे-दे कर जनता को गाय की तरह सुई लगा-लगा कर दूहने वाले यह राजनीतिज्ञ अपनी सुविधा और सुख के लिए दिन रात देश को बेचने लगे हैं। एक नहीं अनेक मामले हैं। और सब को सब कुछ पता है। राहत इंदौरी तो साफ लिख रहे हैं कि:
सच बात कौन है जो सरे आम कह सके
मैं कह रहा हूं मुझ को सज़ा देनी चाहिए।
सौदा यहीं पे होता है हिंदुस्तान का
संसद भवन में आग लगा देनी चाहिए।
और राहत इंदौरी ने यह शेर या गज़ल कोई आज नहीं लिखी है। यह कोई 6 या 7 साल पुराना शेर है। सवाल तो धूमिल भी उठा गए हैं। प्रेमचंद कहते थे कि साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है। तो शायद इसी मशाल को ध्वनित करते हुए धूमिल चालीस साल पहले संसद से सड़क तक की कैफ़ियत बांच रहे थे। धूमिल जैसे अपनी कविताओं से इस व्यवस्था और संसद पर तेजाब डाल रहे थे। एक बानगी देखिए:
मुझ से कहा गया कि
संसद देश की धड़कन को
प्रतिबिंबित करने वाला दर्पण है
जनता को
जनता के विचारों का नैतिक समर्पण है
लेकिन क्या यह सच है?
या यह सच है कि
अपने यहां संसद-
तेली की वह घानी है
जिस में आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहां एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिस ने सत्य कह दिया है
उस का बुरा हाल क्यों है?'
धूमिल ने यह सवाल भी पूछा है:
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ--
'यह तीसरा आदमी कौन है ?'
मेरे देश की संसद मौन है।
ठीक ऐसे ही द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने जाने तंज में यह कविता लिखी थी, यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,/सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।' या कि किसी और भाव में पता नहीं। पर मशहूर बहुत हुई थी तब के दिनों। और हालात सचमुच वही हैं आज की तारीख में। कि सब के सब किन्नर नरेश बन चुके हैं। सो पूरी कविता को यहां बांचिए और खुद से पूछिए कि क्या हमारे शासक सत्ता का दुरुपयोग किन्नर नरेश बन कर ही नहीं कर रहे?
यदि होता किन्नर नरेश मैं, राजमहल में रहता,
सोने का सिंहासन होता, सिर पर मुकुट चमकता।
बंदी जन गुण गाते रहते, दरवाजे पर मेरे,
प्रतिदिन नौबत बजती रहती, संध्या और सवेरे।
मेरे वन में सिह घूमते, मोर नाचते आँगन,
मेरे बागों में कोयलिया, बरसाती मधु रस-कण।
यदि होता किन्नर नरेश मैं, शाही वस्त्र पहनकर,
हीरे, पन्ने, मोती माणिक, मणियों से सजधज कर।
बाँध खडग तलवार, सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता,
बड़े सवेरे ही किन्नर के राजमार्ग पर चलता।
राज महल से धीमे-धीमे, आती देख सवारी,
रूक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।
जय किन्नर नरेश की जय हो, के नारे लग जाते,
हर्षित होकर मुझ पर सारे, लोग फूल बरसाते।
सूरज के रथ-सा, मेरा रथ आगे बढ़ता जाता,
बड़े गर्व से अपना वैभव, निरख-निरख सुख पाता।
खैर,इस गुस्से का इज़हार करते हुए पूर्व मेयर किन्नर अमरनाथ को देर से ही सही श्रद्धांजलि देने के साथ ही खूब बड़ा वाला सैल्यूट करने को दिल करता है ! खूब बड़ा वाला सैल्यूट अमरनाथ ! यह सैल्यूट करते समय बचपन के वह दिन याद आते हैं जब अमरनाथ के खूब हसीन दिन थे। और हम तब यह भी नहीं जानते थे कि अमरनाथ किन्नर हैं। या कि किन्नर क्या बला है और कि उस के दुख क्या-क्या हैं? बल्कि अंतहीन हैं।
अंतहीन दुखों सहित विदा हो गये अमरनाथ,अमरनाथ जी को सादर श्रधांजलि !
ReplyDeleteSusri Aasha ..Amarnath ji se may milana chahta tha jab Kinner Katha likhi ja rahi thi... fir jab Gorakhpur may Pustak mela may Kinner Katha key paper back Sanskaran aane ki baat hui to mene amarnath ji ke bare may pata kiya per dukh hua ki vah hamare beech nahi rahe..Khair aaj unhe yaad kar Dayanand ji ne na keval shardhanjali gyapit ki he balki Amarnath ji ke bare kai baate pata chali aur sabse achchi baat to ye rahi ki unhone sare aalekh may Kinner ko Sirf Kinner kaha he Hijra nahi .. es liye vey vishesh roop se sadhuvad ke patra he...
ReplyDeletesach kahne kii himmat ke liye badhaai.
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