शन्नो अग्रवाल
दयानंद जी, नमस्कार !
अभी आप का उपन्यास ''बांसगांव की मुनमुन'' पढ़ कर समाप्त किया है। इसे पढ़ते हुए कितनी ही बार मन भर-भर आया। अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर संघर्ष करते हुये अपने लिये मुकाम हासिल करने वाली मुनमुन के लिये आँखें भीगतीं रहीं।जैसा कि नाम से ही पता लगता है कि उपन्यास की केन्द्र मुनमुन है।सारी कहानी व उसके पात्र मुनमुन के चारों तरफ घूमते हैं, बिना उसके उनका कोई सार नहीं।
समाज में कई बार एक बेटी की शादी के बाद क्या स्थिति होती है और ससुराल वाले अपनी असलियत छुपाकर अपनी बहू की क्या हालत कर देते हैं इस उपन्यास से अच्छी तरह विदित होता है।आज के बदलते हुये परिवेश में व अपने जीवन में बढ़ती हुई जिम्मेवारियों से बहनों के प्रति अपने कर्तव्यों की तरफ भाइयों की उदासीनता का नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है।बहन की शादी के बारे में अपने कर्तव्य को भली-भांति न निभाकर बाद में पछताने से क्या फायदा ''जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत...'' वाली बात।नौकरी करने के फैसले पर अडिग होकर मुनमुन ने अच्छा किया क्योंकि पति या ससुराल वालों की इच्छा या धमकी के आगे झुककर नौकरी छोड़ देने वाली हर औरत की कदर नहीं होती है।गाँव में रहते हुये भी मुनमुन को पारिवारिक अनुभवों से पैसे की कदर करना आ गया था और नौकरी छोड़ने के लिये उसने सर नहीं झुकाया कि पता नहीं बाद में किसके आगे हाथ फैलाना पड़े, इससे तो अच्छा है कि अपने बल-बूते पर रहे।आज के जमाने में औरत की नौकरी छुड़वाने और आश्वासन देने वाले पतियों के वादे बाद में टूट जाते हैं।जो भोली औरतें उनकी बातें मान लेती हैं उन्हें बाद में पछताना पड़ता है।
शादी के बाद औरतों को अक्सर अपमानजनक बातें सुननी पड़ती हैं ''पैसे अपने बाप के यहाँ से ले आती, तुझे तो तेरे बाप ने मुझ पर पटक दिया था'' या फिर ''मुझसे शादी क्यों कर ली (जैसे वह शादी के लिये मरी जा रही थी) अपने बाप के यहाँ ही रह लेती'' आदि, आदि।कहते हैं कि बेटी के नसीब के बारे में कोई कुछ नहीं जानता।इस पुरुष प्रधान समाज में अगर पति अच्छा व समझदार हुआ तो समझो बेटी के भाग्य खुल गये वरना उसकी बदनसीबी।इस उपन्यास में मुनमुन का पति राधेश्याम शायद पहले से ही पियक्कड होगा किन्तु उसका बाप दीपक से झूठ बोल गया कि वह तो गौने के बाद मुनमुन के व्यवहार के कारण फ्रस्ट्रेशन में पीने लगा था।अरे वो बेटे का बाप है तो झूठ बोलेगा ही अपने बेटे के लिये।बहू जिसे अपना पिता समझती है ऐसे झूठे ससुर के लिये किस बहू के मन में सम्मान रहेगा? अगर अन्याय की वजह से लड़की वापस अपने मायके आ जाती है तो कई बार अपने अहम के कारण पति अपनी पत्नी को वापस भी नहीं लेने जाते।और यदि उसके बाद कोई मायके से उसे ससुराल छोड़ जाये तो लड़की को ताने मिलते हैं और परिस्थिति विकट हो जाती है।
किन्तु यहाँ तो मुनमुन के विद्रोह करने पर भी उसका ससुर और उसका पति उसे वापस लाना चाहते हैं।लेकिन फिर दीपक की पत्नी खोलती है राज, जिसे संदेह है कि ''अब ये मामला दांव-पेंच का हो गया है।वह दहेज विरोधी मुक़दमे से बचने और तलाक लेने की जुगत में है।अब वह मुनमुन नाम की झंझट से छुटकारा पाना चाहता है l'' लेकिन मुनमुन भी झुकने वालों में से नहीं।और ये समाज भी ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'' वालों में से है।मुनमुन की बहादुरी की मिसाल से उसके पक्ष में हो गया।समय के पलटा खाते ही लोग उसको प्रशंसा की दृष्टि से देखने लगे।मुनमुन तो झांसी की रानी बन गयी जिसकी बहादुरी के चर्चे फैलने लगे।काश हर लड़की मुनमुन जैसी हो जिसमे अपने साथ होते हुये अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार लेने की हिम्मत हो।तभी मुनमुन की ससुराल जैसे लोगों को कुछ सीख मिल सकती है।जब तक मुनमुन कमजोर रही उसे सबने लतियाया और जब अत्यचार और अन्याय के विरुद्ध लड़ते-लड़ते मुनमुन पत्थर हो गई तो वह सताई हुई औरतों के लिये एक प्रेरणा बन गयी।
अत्याचारी पति की हरकतों से तंग आकर और उसके हाथों बार-बार मार खाकर सहनशीलता की चरम सीमा लाँघ चुकी मुनमुन ने जब अपने पति की लाठी से धुनाई की तो किसी भी देखने वाले ने चूँ तक नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि उसका पति कितना निकम्मा और जल्लाद है जिसका अत्याचार सहते-सहते वह थक चुकी है।लेकिन औरत के जीवन में ये कैसी बिडम्बना है कि सहते-सहते जब वह द्दुर्गा बन जाती है तो कुछ लोगों से उसे प्रशंसा मिलने लगती है।पर जो लोग किसी कारण से बौखलाये होते हैं वह उसके विरुद्ध तमाम लोगों को भड़काने लगते हैं।लेकिन मुनमुन जैसी लड़कियाँ अपने उसूलों को नहीं बदलतीं, दृढता से अपनी तय की हुई राह पर चलती रहती हैं।दूसरों को राय व सहारा देने वाली मुनमुन अपनी लड़ाई में अपने को अकेला पाकर भी अपनी परिस्थितियों से किसी तरह जूझती हुई पथरीली और काँटे भरी राहें तय करके अपने मुकाम को हासिल करती है फिर भी शादी का सवाल उसके आगे उठता रहता है।शादी के एक भयानक अनुभव से गुजर कर क्या दूसरी बार चांस लेना जरूरी है? अगर औरत अपनी आर्थिक समस्या खुद हल कर ले तो क्या वो बिना शादी के एक नये वातावरण में खुली साँस नहीं ले सकती? दिमाग में सवाल घूमते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि उसे फिर धोखा मिले।कुछ भी हो अंत तक पढ़कर और मुनमुन के संघर्षों के बारे में सोचते हुये उनका हिसाब लगाते-लगाते आँखें बरबस बरस पड़ीं।
आपने ''बांसगांव की मुनमुन'' उपन्यास में जीवन की वास्तविकता पर कितनी खूबसूरती व सादगी से भाव उकेरे हैं इसके लिये आपको बहुत बधाई | शुरुआत में इतने लाड़-प्यार में पली एक लड़की का जीवन इतना बदल गया, लोग बदल गये, उनकी भावनायें बदल गयीं | और अंत में भोली सी मुनमुन समय के निर्मम थपेड़े खाकर खुद भी अन्यायी लोगों के प्रति कठोर व निर्मम बन गयी | लेकिन समाज को किसी लड़की का निडर होकर अपने फैसलों पर जीना कहाँ बर्दाश्त होता है | इन सभी पहलुओं पर सोचते हुये स्त्री की दशा को लेकर मन में आँधी सी उठी | बरसों बाद हिंदी का पूरा उपन्यास पढ़ा | और जिंदगी में पहली बार उस पर समीक्षा भी लिख बैठी (लिखने से अपने को रोक ना सकी) |
समीक्ष्य पुस्तक :
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए
प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012
दयानंद जी, नमस्कार !
अभी आप का उपन्यास ''बांसगांव की मुनमुन'' पढ़ कर समाप्त किया है। इसे पढ़ते हुए कितनी ही बार मन भर-भर आया। अग्नि परीक्षाओं से गुजर कर संघर्ष करते हुये अपने लिये मुकाम हासिल करने वाली मुनमुन के लिये आँखें भीगतीं रहीं।जैसा कि नाम से ही पता लगता है कि उपन्यास की केन्द्र मुनमुन है।सारी कहानी व उसके पात्र मुनमुन के चारों तरफ घूमते हैं, बिना उसके उनका कोई सार नहीं।
समाज में कई बार एक बेटी की शादी के बाद क्या स्थिति होती है और ससुराल वाले अपनी असलियत छुपाकर अपनी बहू की क्या हालत कर देते हैं इस उपन्यास से अच्छी तरह विदित होता है।आज के बदलते हुये परिवेश में व अपने जीवन में बढ़ती हुई जिम्मेवारियों से बहनों के प्रति अपने कर्तव्यों की तरफ भाइयों की उदासीनता का नमूना भी यहाँ देखने को मिलता है।बहन की शादी के बारे में अपने कर्तव्य को भली-भांति न निभाकर बाद में पछताने से क्या फायदा ''जब चिड़ियाँ चुग गयीं खेत...'' वाली बात।नौकरी करने के फैसले पर अडिग होकर मुनमुन ने अच्छा किया क्योंकि पति या ससुराल वालों की इच्छा या धमकी के आगे झुककर नौकरी छोड़ देने वाली हर औरत की कदर नहीं होती है।गाँव में रहते हुये भी मुनमुन को पारिवारिक अनुभवों से पैसे की कदर करना आ गया था और नौकरी छोड़ने के लिये उसने सर नहीं झुकाया कि पता नहीं बाद में किसके आगे हाथ फैलाना पड़े, इससे तो अच्छा है कि अपने बल-बूते पर रहे।आज के जमाने में औरत की नौकरी छुड़वाने और आश्वासन देने वाले पतियों के वादे बाद में टूट जाते हैं।जो भोली औरतें उनकी बातें मान लेती हैं उन्हें बाद में पछताना पड़ता है।
शादी के बाद औरतों को अक्सर अपमानजनक बातें सुननी पड़ती हैं ''पैसे अपने बाप के यहाँ से ले आती, तुझे तो तेरे बाप ने मुझ पर पटक दिया था'' या फिर ''मुझसे शादी क्यों कर ली (जैसे वह शादी के लिये मरी जा रही थी) अपने बाप के यहाँ ही रह लेती'' आदि, आदि।कहते हैं कि बेटी के नसीब के बारे में कोई कुछ नहीं जानता।इस पुरुष प्रधान समाज में अगर पति अच्छा व समझदार हुआ तो समझो बेटी के भाग्य खुल गये वरना उसकी बदनसीबी।इस उपन्यास में मुनमुन का पति राधेश्याम शायद पहले से ही पियक्कड होगा किन्तु उसका बाप दीपक से झूठ बोल गया कि वह तो गौने के बाद मुनमुन के व्यवहार के कारण फ्रस्ट्रेशन में पीने लगा था।अरे वो बेटे का बाप है तो झूठ बोलेगा ही अपने बेटे के लिये।बहू जिसे अपना पिता समझती है ऐसे झूठे ससुर के लिये किस बहू के मन में सम्मान रहेगा? अगर अन्याय की वजह से लड़की वापस अपने मायके आ जाती है तो कई बार अपने अहम के कारण पति अपनी पत्नी को वापस भी नहीं लेने जाते।और यदि उसके बाद कोई मायके से उसे ससुराल छोड़ जाये तो लड़की को ताने मिलते हैं और परिस्थिति विकट हो जाती है।
किन्तु यहाँ तो मुनमुन के विद्रोह करने पर भी उसका ससुर और उसका पति उसे वापस लाना चाहते हैं।लेकिन फिर दीपक की पत्नी खोलती है राज, जिसे संदेह है कि ''अब ये मामला दांव-पेंच का हो गया है।वह दहेज विरोधी मुक़दमे से बचने और तलाक लेने की जुगत में है।अब वह मुनमुन नाम की झंझट से छुटकारा पाना चाहता है l'' लेकिन मुनमुन भी झुकने वालों में से नहीं।और ये समाज भी ''जिसकी लाठी उसकी भैंस'' वालों में से है।मुनमुन की बहादुरी की मिसाल से उसके पक्ष में हो गया।समय के पलटा खाते ही लोग उसको प्रशंसा की दृष्टि से देखने लगे।मुनमुन तो झांसी की रानी बन गयी जिसकी बहादुरी के चर्चे फैलने लगे।काश हर लड़की मुनमुन जैसी हो जिसमे अपने साथ होते हुये अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार लेने की हिम्मत हो।तभी मुनमुन की ससुराल जैसे लोगों को कुछ सीख मिल सकती है।जब तक मुनमुन कमजोर रही उसे सबने लतियाया और जब अत्यचार और अन्याय के विरुद्ध लड़ते-लड़ते मुनमुन पत्थर हो गई तो वह सताई हुई औरतों के लिये एक प्रेरणा बन गयी।
अत्याचारी पति की हरकतों से तंग आकर और उसके हाथों बार-बार मार खाकर सहनशीलता की चरम सीमा लाँघ चुकी मुनमुन ने जब अपने पति की लाठी से धुनाई की तो किसी भी देखने वाले ने चूँ तक नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि उसका पति कितना निकम्मा और जल्लाद है जिसका अत्याचार सहते-सहते वह थक चुकी है।लेकिन औरत के जीवन में ये कैसी बिडम्बना है कि सहते-सहते जब वह द्दुर्गा बन जाती है तो कुछ लोगों से उसे प्रशंसा मिलने लगती है।पर जो लोग किसी कारण से बौखलाये होते हैं वह उसके विरुद्ध तमाम लोगों को भड़काने लगते हैं।लेकिन मुनमुन जैसी लड़कियाँ अपने उसूलों को नहीं बदलतीं, दृढता से अपनी तय की हुई राह पर चलती रहती हैं।दूसरों को राय व सहारा देने वाली मुनमुन अपनी लड़ाई में अपने को अकेला पाकर भी अपनी परिस्थितियों से किसी तरह जूझती हुई पथरीली और काँटे भरी राहें तय करके अपने मुकाम को हासिल करती है फिर भी शादी का सवाल उसके आगे उठता रहता है।शादी के एक भयानक अनुभव से गुजर कर क्या दूसरी बार चांस लेना जरूरी है? अगर औरत अपनी आर्थिक समस्या खुद हल कर ले तो क्या वो बिना शादी के एक नये वातावरण में खुली साँस नहीं ले सकती? दिमाग में सवाल घूमते हैं कि कहीं ऐसा ना हो कि उसे फिर धोखा मिले।कुछ भी हो अंत तक पढ़कर और मुनमुन के संघर्षों के बारे में सोचते हुये उनका हिसाब लगाते-लगाते आँखें बरबस बरस पड़ीं।
आपने ''बांसगांव की मुनमुन'' उपन्यास में जीवन की वास्तविकता पर कितनी खूबसूरती व सादगी से भाव उकेरे हैं इसके लिये आपको बहुत बधाई | शुरुआत में इतने लाड़-प्यार में पली एक लड़की का जीवन इतना बदल गया, लोग बदल गये, उनकी भावनायें बदल गयीं | और अंत में भोली सी मुनमुन समय के निर्मम थपेड़े खाकर खुद भी अन्यायी लोगों के प्रति कठोर व निर्मम बन गयी | लेकिन समाज को किसी लड़की का निडर होकर अपने फैसलों पर जीना कहाँ बर्दाश्त होता है | इन सभी पहलुओं पर सोचते हुये स्त्री की दशा को लेकर मन में आँधी सी उठी | बरसों बाद हिंदी का पूरा उपन्यास पढ़ा | और जिंदगी में पहली बार उस पर समीक्षा भी लिख बैठी (लिखने से अपने को रोक ना सकी) |
समीक्ष्य पुस्तक :
बांसगांव की मुनमुन
पृष्ठ सं.176
मूल्य-300 रुपए
प्रकाशक
संस्कृति साहित्य
30/35-ए,शाप न.2, गली नंबर- 9, विश्वास नगर
दिल्ली- 110032
प्रकाशन वर्ष-2012
इस समीक्षा को अपने ब्लॉग में स्थान देने के लिये आपका बहुत-बहुत धन्यबाद l
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर समीक्षा दी...अच्छा लगा अपने पढ़ा पूरा :)
ReplyDeleteधन्यबाद वसु, बहुत खुशी हुई जानकर कि तुम्हें मेरी समीक्षा पसंद आयी....
ReplyDeleteदयानंद जी, आपका हार्दिक आभार l
ReplyDeleteबहुत धन्यबाद रूपचन्द्र जी l आपको व सभी मित्रों को नववर्ष की अनंत शुभकामनायें l
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