दयानंद पांडेय
सुधाकर अदीब एक निहायत रोमैंटिक आदमी हैं। उन के रोमांस का दायरा, उस का फलक इतना बड़ा है कि बस पूछिए मत। वह कब कहां और किस से रोमांस कर बैठें यह वह भी नहीं जानते। इश्क जैसे उन की तबीयत में समाया हुआ है। आखिर वाज़िद अली शाह के शहर से वाबस्ता हैं इन दिनों। तो वह कभी पौराणिक कथाओं से इश्क फ़रमाते हैं तो कभी ऐतिहासिक कथाओं से। बताइए कि अभी बीते साल ही वह राम कथा से इश्क के लिए बदनाम हुए थे। बरास्ता सौमित्र। इसी पुस्तक मेले में उन के राम कथा से इश्क के किस्से कई लोग सुना गए थे। यकीन न हो तो उदयप्रताप सिंह जी गवाह हैं। गवाह हैं इस मोती महल के फूल-पत्ते, यह तंबू-कनात, यह मंच और माइक। और तमाम पुस्तक प्रेमी। राम कथा की जो लौ लगाई थी सुधाकर अदीब ने मम अरण्य के मार्फ़त वह अभी तक मन में चंदन की तरह सुवासित है। उस मम अरण्य के चंदन की खुशबू ऐसे बसी है मन में कि जाती ही नहीं। वह अभी भी मन में टटकापन बोए हुई है। कि यह लीजिए अब वह अफ़गान शासक शेर शाह सूरी के इश्क में गिरफ़्तार हो कर उस का किस्सा बताने फिर इस पुस्तक मेले में हम सब को बटोर लाए हैं। यह आप के इश्क की कौन सी राह है शाहराह-ए-आज़म सुधाकर अदीब ! यह कौन सी ग्रांड ट्रंक रोड है, यह कौन सा शहीद पथ है जो हर साल आप का इश्क बदल जाता है? कि इश्क के बादल को कभी आप पौराणिक बना देते हैं कभी ऐतिहासिक। और लगते हैं भिंगोने। काले भूरे बादल तो हम सभी जानते ही थे। पर बादलों में भी यह रंगीनी? भाई वाह क्या कथा बांचते हैं आप ! अल्लाह करे कथा बांचने की यह खासियत आप की ऐसे ही जवान बनी रहे। अल्लाह करे ज़ोरे शबाब और ज़ियादा !शाने तारीख में इतने सारे पात्र हैं, इतनी सारी घटनाएं हैं, इतने मोड़ और इतने पेंच हैं कि उन से पाठक की मुठभेड़ भी एक तिलिस्म से कम नहीं होती। पता नहीं और पाठकों की तो मैं नहीं जानता पर अपनी बात करता हूं कि सुधाकर अदीब की कलम से कुछ पढ़ना, पढ़ना नहीं एक सिनेमा से गुज़रना है। लगता है कि जैसे सब कुछ आंखों के सामने ही गुज़र रहा हो। और वो मिसरा याद आ जाता है कृष्ण बिहारी नूर का कि आंख अपना मज़ा चाहे है, दिल अपना मज़ा चाहे है ! सुधाकर अदीब की किस्सागोई में कल्पना ऐसे ठाट मारती है गोया कमाल अमरोही की लिखी कोई फ़िल्म हो। इतनी बारीकी, इतनी सलाहियत, इतनी भावप्रवणता में भींगे दृष्य हैं शाने तारीख के कि उन सब का बहुत बयान कर पाना, यहां विस्तार दे पाना संभव नहीं। इस लिए भी कि शाने तारीख में सिर्फ़ इतिहास नहीं है। उस समय का परिवेश भी है, मनोविज्ञान भी, किसी बड़े परिवार में जहां एक व्यक्ति की कई सारी बेगमें हों, उन का सौतिया डाह हो, उस परिवार की जद्दोजहद भी जगह-जगह दर्ज है शाने तारीख में। और सब से बड़ी बात यह कि बच्चा फ़रीद कैसे तो सिलसिलेवार बड़ा होता जाता है, फ़रीद खां कहलाने लगता है, बहुत बाद में एक शेर से आमने-सामने की लड़ाई में शेर को मार कर शेर खां बनता है, तमाम नौकरियां करता-छोड़ता, लड़ाईयां लड़ता वह शेर शाह बनता है, फिर बाबर और हुंमायूं जैसों को शिकस्त देता हिंदुस्तान का शहंशाह शेर शाह सूरी बनता है। शाने तारीख पढ़ कर लगता है जैसे हम कोई एक पूरा का पूरा एक दिन देख रहे हों। कि सूर्योदय हुआ, सुबह की लाली जैसा फ़रीद का बचपन उस की मां से उस की बेपनाह मुहब्बत, थोड़ी धूप कड़ी हुई तो पिता-पुत्र का टकराव, अहंकार, जेनरेशन गैप का भी नाम दे सकते हैं, फिर सौतेली माताओं के चक्कर में पिता से संघर्ष की नौबत आ जाती है। फ़रीद घर छोड़ देता है। जौनपुर आ जाता है। तालीम के लिए। यह जौनपुर की यात्रा और जौनपुर की तालीम उस की ज़िंदगी का टर्निंग प्वाइंट बन जाती है। और शाहराह-ए-आज़म की बुनियाद भी। यह सुधाकर अदीब की कथा कहने की एक तबीयत है जो शेर शाह सूरी की कथा को सूरज की तरह धीरे-धीरे ऊपर ले जाते हैं। और फिर धीरे-धीरे ही कथा को नीचे भी ले आते हैं। जैसे ज़िंदगी में उम्र के उतार पर अनुभव ज़्यादा होता है, वैसे ही इस शाने तारीख की कथा की भी धूप धीरे-धीरे उसी अनुभव में उतर कर और मीठी होती जाती है। गोया जाड़े की धूप हो। मीठी और गुनगुनी।
बाएं से अमिता दुबे, सुधाकर अदीब, उदय प्रताप सिंह और शैलेंद्र सागर शाने तारीख का लोकार्पण करते हुए
मुगलिया सल्तनत की साज़िशों से लड़ने में उस्ताद शेर खां किस डिप्लोमेसी से उन से निपटता रहता है और उन्हीं के पैतरों से उन्हें ठिकाने लगाता रहता है। वह चाहे बाबर हो या हुमायूं। और अंतत: उन्हें मात दे कर खुद शहंशाह बन बैठता है। और इस तमाम उठापटाक में वह न सिर्फ़ एक अच्छा शसक बन कर उभरता है बल्कि हिंदुस्तान को एक खूबसूरत तोहफ़ा भी दे जाता है अपने पांच साल के छोटे से कार्यकाल में। शाहराह-ए-आज़म। जिसे ब्रिटिश पीरियड में सुधार कर ग्रांड ट्रंक ने खूबसूरत शकल दी और यह सड़क उस के नाम दर्ज़ हो गई जिसे अब फ़ोर लेन की शकल में साज संवार कर अटल बिहारी वाजपेयी ने शहीद पथ का रुतबा दे दिया है। इस उपन्यास मे कबीर भी मिलते है, बुद्ध भी, सारनाथ और बनारस भी। और आचार्य चतुरसेन शास्त्री जैसे ऐतिहासिक विवरणों की चाशनी भी। वृंदावन लाल वर्मा की वह गहनता भी। रांगेय राघव की काल्पनिकता भी कहीं-कहीं छांव पाती दिखती है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के वाणभट्ट की वह भट्ट्नी उस का वह रहस्य तो नहीं मिलता पर बेगमों की श्रृंगारिकता तो मिलती ही है। उन का हुस्न, उन के नखरे तो मिलते ही हैं। चुनार के किले में अपना हुस्न छलकाती लाड मलिका का एक रुप देखें:
'अभिसार के वक्त लाड मलिका पुरुष के साथ पूर्ण उन्मुक्तता में विश्वास रखती थी। झीने परदों के पार घंटों उन दोनों का प्रेमालाप चला करता। वह ताज खां को शराब के जाम अपने हाथों से बना-बना कर पिलाती। रमण के समय पूर्ण निर्वसन देह ही उसे रास आती थी। मर्द की देह पर पसरी हुई अपने सुडौल पयोधरों को उस के वक्ष में गड़ा कर पहले तो भरपूर आनंद देती। फिर उन अंतरंग क्षणों में लाड मलिका आक्रामक हो जाती।'
यह और ऐसे अन्य तमाम विवरण इस उपन्यास में न सिर्फ़ उपस्थित हैं बल्कि जैसे युद्ध के बाद व्यक्ति के जीवन में ऐसे क्षण विश्राम देते हैं, उपन्यास में भी विश्राम देते हैं। रही बात युद्ध की तो युद्ध का तो यह उपन्यास है ही। उपन्यास के संवादों में भी कई जगह बारुदी गंध यत्र-तत्र उपस्थित है :
फ़ातेहा अर्थात विजय के लिए प्रार्थना पढ़ने के बाद शेर खां ने अपने सिपहसालारों को हुक्म दिया कि, 'वापस चलो। अब हमारा निशाना मुगल बादशाह हुमायूं है। काट दो मुगलों को गाजर-मूली की तरह।'
पेशबंदी, सुलह-सफाई, जोड़-तोड़, घात-प्रतिघात के तमाम प्रसंगों, तमाम उथल-पुथल और तमाम मार-काट के दौरान जो एक बात इस शाने तारीख की शान में चार चांद लगाती चलती है वह है , इस की
भाषा का लालित्य, इस का दृष्यबंध, संवाद और इस का सूफ़ियाना रंग। इस पूरे उपन्यास में शेरशाह सूरी का व्यक्तित्व इस कदर पाज़िटिव बन कर उपस्थित होता है गोया वह इस उपन्यास का नायक नहीं वरन महानायक हो। सुधाकर अदीब कई जगह उस के ऐबों, उस की रणनीतिक चालबाज़ियों को भी ऐसे वर्णित करते हैं जैसे वह कोई बहुत पुण्य का काम कर रहा हो। उस की सत्ता-पिपासा की दुरभि-संधियां भी उन्हें मोहक लगती हैं तो इस लिए भी कि शेरशाह सूरी उन का प्रिय नायक ही नहीं महानायक है। सुधाकर अदीब शेरशाह के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हैं कि उसे एकाधिक बार अकबर से भी आगे की बात बताते हुए अकबर से भी बड़ा शासक साबित करते मिलते हैं। वह अपने नायक से इतना इश्क करते हैं कि उस के हर अच्छी-बुरी बात को वह सैल्यूट करते ही नहीं, पाठकों से भी करवा लेते हैं। तो इस लिए भी कि वह तोहफ़-ए-शेरशाही पेश कर रहे हैं। अर्थात शेरशाह सूरी का तोहफ़ा। कई बार लगता ही नहीं कि वह शेरशाह के जीवन पर आधारित कोई उपन्यास लिख रहे हैं, बल्कि लगता है कि वह शेरशाह सूरी को खिराजे-अकीदत पेश कर रहे हैं बरास्ता शाने तारीख। यही इस उपन्यास की खासियत है और सफलता भी। यही काम बीते साल उन्हों ने मम अरण्य लिख कर किया था। राम कथा को सौमित्र बन कर नए तरीके से कह कर। राम की भक्ति में डूब कर। अब की वह तोहफ़-ए-शेरशाही पेश कर गए हैं शेरशाह सूरी की रुह में घुस कर। यह भक्ति आसान नहीं है। यह लिखना सुधाकर अदीब को सूफ़ी बना जाता है। यह नसीब विरलों को ही नसीब होता है। इतिहास के सागर में डूबना, हज़ारों किरदारों से मिलना और कुछ को मोती की तरह निकाल कर पात्र के रुप में तराश कर पाठकों के सामने परोसना बहुत कठिन काम है। इस में मेहनत तो है ही, खतरे भी बहुत हैं।
रामायण, महाभारत जैसे चरित्रों पर उपन्यास लिखना थोड़ा आसान है, जानी पहचानी कहानियों और प्रसंगों पर कलम चलाना और तमाम अनजान चरित्रों को, अनाम चरित्रों को उपन्यास में मांजना ज़रा नहीं बहुत कठिन है। कई अनाम चरित्रों और उन के मनोविज्ञान को परोसना बहुत जटिल काम है। वह भी ऐतिहासिक दर्पण में उन्हें उतारना और उसी सज-धज में रखना किसी लेखक के लिए कितना दुष्कर होता है यह लिखने वाला ही जानता है। और वह भी किसी शासक से जुड़ी कथा हो तो और विकट। अंमृत लाल नागर ने भी कई पौराणिक उपन्यास लिखे हैं। मानस के हंस, खंजन नयन, एकदा नैमिषारण्य जैसे उपन्यास उन के खाते में हैं। पर इन उपन्यासों को लिखने के लिए उन्हें कितनी साधना करनी पड़ी, वह बार-बार इसे बताते थे। कितना उन्हें घूमना और पढ़ना पड़ा इस के व्यौरे भी बहुत हैं। तो इस शेर शाह सूरी से इश्क में कितने पापड़ सुधाकर अदीब ने बेले होंगे यह वह ही बेहतर जानते होंगे। उस शेर शाह सूरी के बाबत जिस की समूची ज़िंदगी संघर्ष और सिर्फ़ संघर्ष में, युद्ध लड़ते हुए ही बीती हो। जिस के बारे में बहुत ज़्यादा प्रामाणिक रुप से कोई साहित्य न हो। जो कहीं बहुत ज़्यादा टिक कर नहीं रहा हो। उस के बारे में पढ़ना और फिर साहस कर के लिखना आसान नहीं है। वैसे तो इसी लखनऊ में एक समय भगवती चरण वर्मा और मुगलों ने सल्तनत बख्श दी जैसी अनूठी रचना रच गए हैं जिस का इतिहास से कई लेना देना नहीं है। और दिखने में सारा मामला ऐतिहासिक ही लगता है।
वाल्टर स्काट को अगर अंगरेजी में वृंदावन लाल वर्मा ने नहीं पढ़ा होता और उन के मन में भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को सब के सामने लाने की भूख न जागी होती तो शायद हिंदी में ऐतिहासिक उपन्यास लिखने की परंपरा नहीं आई होती, ऐसा कहा जाता है। शेरशाह सूरी पर उपन्यास लिख कर सुधाकर अदीब ने न सिर्फ़ सड़क बना कर भारत को एक सूत्र में पिरोने वाले उस शासक की जीवन- गाथा को लिखा है बल्कि देश के एक गौरवपूर्ण इतिहास से साबका भी करवाया है। अगर किसी फ़िल्मकार की नज़र इस उपन्यास पर पड़ जाए तो एक अच्छी फ़िल्म भी बन जाएगी। इस उपन्यास में इस की सारी संभावनाएं भरी पड़ी हैं। बीते साल सुधाकर अदीब का उपन्यास मम अरण्य भी मैं ने पढ़ा था और अब की साल शेर शाह सूरी भी पढ़ा है। हालां कि एक रचना का किसी और रचना से मुकाबला नहीं हो सकता। और कि राम कथा के अमृत का रस ही अपने आप में अनन्य है। फिर भी सुधाकर अदीब अगर बुरा न मानें तो मैं कहना चाहता हूं कि मम अरण्य पर भारी है यह शाने तारीख ! यह बीस है मम अरण्य के मुकाबले। यह मेरी नज़र है और मेरी राय भी। आप को इस से असहमत होने का पूरा अधिकार है। पर यह गंगा जमुनी तहज़ीब का तकाज़ा है या कुछ और लेकिन सुधाकर अदीब से एक सवाल भी पूछने का मन हो रहा है यहां, आप सब के सामने कि आखिर क्या देखा आप ने जो शेरशाह सूरी से इतना इश्क कर बैठे आप? जो इस मकबूलियत से आप ने हम सब को तोहफ़त-ए-शाने तारीख नज़र कर दी? आप की यह इश्कबाज़ी नित नए गुल खिलाए हम तो सच में यही चाहते हैं। अल्लाह करे ज़ोरे शबाब और ज़ियादा ! आप के इस इश्क की खुशबू दुनिया जहान तक पहुंचे। आमीन !
[ लखनऊ में चल रहे राष्ट्रीय पुस्तक मेले में शाने तारीख के विमोचन में में दिया गया भाषण ]
समीक्ष्य पुस्तक :
शाने तारीख
लेखक- सुधाकर अदीब
प्रकाशक- लोकभारती प्रकाशन
पहली मंज़िल, दरबारी बिल्डिंग, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद-211001
पृष्ठ - 328
मूल्य-450 रुपए
कोटिशः धन्यवाद भाई दयानंद पांडेय जी इस उत्साहवर्द्धक समीक्षा के लिए । आप सरीखे समालोचक ही एक लेखक का मनोबल बढ़ाते हैं और उसे उसकी आगे की और भी गंभीर जिम्मेदारियों का एहसास दिलाते हैं । आपकी लेखनी को नमन ।
ReplyDeleteShandaar sameeksha. ........
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