मित्रो, यह फ़ोटो १९७९-८० की है। तब की जब मैं कविताएं लिखता था। कहानी
जैसे मन में अंकुआ रही थी। इस लिए भी कि जो बातें जीवन और समाज में घट रही
थीं, उन्हें कहने के लिए कविता का कैनवस नाकाफी जान पड़ रहा था। वैसे भी
कविता, कवि सम्मेलनी कविता, भड़ैती में निसार हो रही थी और छपी कविता
दुरुहता की खोह में समा रही थी, या नारेबाज़ी, पोस्टरबाज़ी में कुर्बान हो कर
जनता से दूर जा रही थी। यह बीमारी कविता
के साथ-साथ कहानी और उपन्यास में भी घुल रही थी। पर कहानी कविता के
मृत्यु-पाठ से फिर भी दूर थी। और आज देखिए न कि कविता की क्या गति बना दी
है हमारे कवियों ने? कि कविता तो अब जनता के लिए रही ही नहीं। प्रकाशक भी
पैसा ले कर कविता छापने लगे। यह भी अब अतीत की बात हो गई है। अब तो कविता
के नाम पर सिर्फ़ भड़ैती रह गई है या माऊथ कमिशनरी। मतलब लफ़्फ़ाज़ी ! अच्छी
कविता तो अब दुइज का चांद हो गई है जो कभी-कभी ही पढ़ने या सुनने को मिलती
है। और बताऊं कि बावजूद इस सब के जीवन में लय और ऊर्जा अब भी कविता ही से
मिलती है। भले ही मैं ने कविता लिखना तीन दशक पहले छोड़ दिया है।
इस लिए कि
अच्छी कविता, पढ़ते या सुनते ही जुबान पर चढ जाने वाली कविता मैं भी तब नहीं
लिख रहा था। तो भी यह फ़ोटो जब आज मिली तो वह अपनी कविताई के दिन बड़ी
शिद्दत से याद आ गए। वह पहले और दूसरे प्रेम के पाठ में लिखी जाने वाली
कविता के दिन भी। डा. सुरेश के गीत में जो कहूं कि सोने के दिन, चांदी के
दिन आए गए आंधी के दिन ! तो ऐसे ही कुछ थे मेरी कविता के दिन ! बुद्धिनाथ
मिश्र के गीत की याद करते हुए कहूं तो ये तुम्हारी कोंपलों सी नर्म बाहें
और मेरे गुलमोहर से दिन ! के दिन थे। बुद्धिनाथ जी तो तब गाते थे एक बार और
जाल फेंक रे मछेरे, जाने किस मछली में बंधन की चाह हो ! और यहां बिना जाल
के ही मछुवारे बने घूमते गाते फिरते थे। दुष्यंत को भी गाते फिरते कि एक
जंगल है तेरी आंखों में मैं जहां राह भूल जाता हूं। दुष्यंत सुलगते भी थे
मन में एक चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए और धूमिल भी मचलते रहते थे यह पूछते
हुए कि एक आदमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी सेंकता है/ एक आदमी रोटी से
खेलता है/ मैं पूछता हूं कि/ यह तीसरा आदमी कौन है/ मेरे देश की संसद मौन
है ! मुक्तिबोध की साहित्यिक की डायरी की छांव में पूछते ही रहते थे कि मर
गया देश, जीवित रहे तुम ! और सनकाते ही रहते थे कि कहीं आग लग गई, कहीं
गोली चल गई ! वह सचमुच कविता ही के दिन थे ! हां, अब कहानी के दिन हैं।
उपन्यास के दिन हैं। वो सोने के दिन और चांदी के दिन आंधी की तरह विदा हो
गए हैं। वो मेरी कविता के दिन ! साइकिल चलाते हुए सोम ठाकुर का वह गीत गुहराते हुए गाना कि, जाओ पर संध्या के संग लौट आना तुम ! वह गुहराने और गुनगुनाने के दिन ! ऐसे क्या फिर-फिर लौटेंगे वे दिन? याद आते हैं वे दिन माहेश्वर तिवारी के उस गीत की तरह कि, याद तुम्हारी आई जैसे कंचन कलश भरे, जैसे कोई किरन अकेली पर्वत पार करे ! मन में तो
कविता अब भी अंकुआती फिरती है ! फिर कविता लिखने का मन करता है। उन दिनों
को गुहराने और मनुहारने को मन करता है। क्या मैं फिर कविता लिख पाऊंगा?
अच्छी कविता जो पढ़ते ही , सुनते ही जुबान पर चढ़ जाए। मन को भिंगो जाए !
सुलगा जाए ! जैसे कबीर की कविता।
पाण्डेयजी! कविता लिखने का मन करता है तो ज़रूर लिखिए। क्या कुंवर नारायण की कविता पढ़ते-सुनते जुबान पर चढ़ जाती है। मन को भिंगो जाती है !... कई लखटकिया पुरस्कार पाने के बावजूद मुझे आज तक कुँवर नारायण का कोई पाठक नहीं मिला। बस चंद कवि मित्र ही उनका ज़िक्र करते हैं। हिंदी कविता की इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी।
ReplyDeleteमुझे यह बोध था कि मेरे गीतों के साथ मेरी अनुज पीढ़ी की कोमल भावनाएँ पल-बढ़ रही हैं, इसीलिए मैंने अपने समवयस्क बेसुरे-बेताले लोगों की सफलता की सीख नहीं मानी और गीतों की पगडंडी पर पूरे आत्मविश्वास के साथ चलता रहा। दयानंद जी का यह लेख मेरी उसी तपस्या का सुफल है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह तपस्या आनेवाले दिनों में और फलेगी-फूलेगी।
ReplyDeleteअच्छी कविता गीत विधा में हो या न हो , आकर्षित करती है और जुबान पर चढ़ती भी है । सुन्दर आलेख !
ReplyDeleteअच्छा होता कि आपने अपनी भी कुछ कवितायें इस ब्लॉग पर डाली होतीं और उनकी गुण वत्ता का फैसला पाठक पर छोड़ा होता ।