‘हां नरगिस मेरी हीरोइन थी।’ बेफिक्र हो कर अपने प्यार की दास्तान कहने वाले राज कपूर आज भी न सिर्फ़ बड़े बूढ़ों बल्कि युवा मन की भी धड़कन माने जाते हैं। तो सिर्फ़ इस लिए कि सेल्यूलाइड के परदे पर प्यार की जो भाषा राजकपूर ने तलाशी-तराशी और गढ़ी, उस की सूक्ष्मता को जो व्यापकता और संवेदना दी, वह हिंदी सिनेमा ही नहीं दुनिया भर के सिने जगत में अविरल ही नहीं अनन्य भी हैं।
कैमरे की आंख से प्यार की जो तरलता और मादकता राज कपूर लोगों की आंखों के लिए परोस गए हैं, उन की वही कला लोगों के दिलों की धड़कन बन कभी मन में समा हिलोरे लेती है तो कभी मन के पोर-पोर झकझोर जाती है। वैसे तो राजकपूर की सभी फ़िल्मों में प्यार की तन्मयता, कोमलता, और कसैलापन अपने पूरे उद्वेग के साथ उपस्थित हैं। पर राजकपूर जिसे अपना दुलारा बच्चा बताते थे उस ‘मेरा नाम जोकर’ फ़िल्म में प्यार की जो आकुलता, व्याकुलता और उस की आर्द्रता जिस समग्रता में समाई दिखती है, वह कहीं और ढूंढ़ पाना किसी दरिद्र का दिवा स्वप्न देखने जैसा ही है।
राजकपूर की फ़िल्मों में प्यार के विषाद के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों का भी विषाद भरपूर है। हास्य की पीड़ा में भी डूबी हुई हैं उन की फ़िल्में। पर जो बात, जो भाषा वह प्रेम को उकेरने, उसे पूजने में पढ़ते-पढ़ाते हैं, वह सचमुच दुर्लभ ही नहीं अनन्य भी है। यह उन के प्यार की अनन्यता ही है कि पीढ़ी दर पीढ़ी उन की इस धड़कन को समझती है। यहां ‘जेनेरेशन गैप’ का समीकरण हवा हो जाता है। और राजकपूर ‘आउट ऑफ़ डेट’ नहीं होते। उन की फ़िल्में ‘आउट ऑ्फ़ डेट’ होते न होते प्यार की ठेंठ परिभाषा बनी लोगों के मन में बसी हुई हैं। उन की फ़िल्मों के गाने तो जैसे लोगों की जान हैं। राजकपूर वस्तुत: अभिनेता उतने अच्छे नहीं थे। वह खुद भी अपने को अच्छा अभिनेता महीं मानते थे। जैसा दिलीप कुमार बताते भी हैं, कि उन दिनों ‘मशाल’ रिलीज हुई थी। एक रात राज कपूर ने फ़ोन किया और कहा कि एक्टर तो अभी भी एक ही है – वह है – दिलीप कुमार। वह तो सही मायने में निर्देशक ही अच्छे थे। हालां कि बतौर अभिनेता उन की जागते रहो फ़िल्म जिस का निर्देशन शंभू मित्रा और अनिल मित्रा ने किया था, आज भी उतनी ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। पर याद वह ‘आवारा’ औऱ ‘मेरा नाम जोकर’ सरीखी फ़िल्मों के लिए किए जाते हैं। ‘आवारा’ और ‘मेरा नाम जोकर’ के बाद उन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘प्रेम रोग’ ही है, बतौर निर्देशक। ‘प्रेम रोग’ में विधवा समस्या को जिस तरह राजकपूर ने ट्रीट किया है वह आसान नहीं है। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में भी उन्हों ने जो कुरूप नारी का विषय उठाया और उसे जिस भव्यता से निभाया, वह किसी और निर्देशक के लिए कठिन ही था। ‘बॉबी’ में टीन एज प्राब्लम को उन्हों ने जिस टीन एज टच के साथ छुआ वह भी आसान नहीं था। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में वह थोड़ा मैली नज़र के लिए विवाद में ज़रूर आ गए पर इस विषय को भी उस अंदाज़ में राजकपूर ही उठा सकते थे।
दरअसल राजकपूर की फ़िल्मों के केंद्र में ही औरत समाई रहती थी। ‘जागते रहो’, ‘आवारा’ से ले कर ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक औरत उन की कमज़ोरी थी। हालां कि यही बात दिल्ली की एक सेमिनार में मैं ने कही तो एक प्रसिद्ध महिला फ़िल्म समीक्षक ने मेरी बात काटते हुए कहा कि औरत नहीं औरत की छातियां राज कपूर की कमज़ोरी थीं। और फिर उन्हों ने जागते रहो, आवारा, संगम, सत्यम शिवम सुंदरम से ले कर राम तेरी गंगा मैली तक की फ़िल्मों की फेहरिस्त फ्रेम दर फ्रेम रख दी, कि कहां-कहां राज कपूर नायिकाओं की छातियां देख-देख कर तृप्त हुए। और दर्शकों को भरपेट तृप्ति दिलाई। इसी रौ में वह यह भी बोल गई कि जागते रहो में फ़िल्म के आखिर में राजकपूर नरगिस द्वारा पानी पिलाने से नहीं उन की नंगी छातियां देख कर तृप्त हुए। उन दिनों ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी की खुली छातियों को ले कर पूरे देश में बेवज़ह बवाल मचा हुआ था। सो उन फ़िल्म समीक्षिका की यह बेहूदी बात सुनी भी गई। पर जब मैं ने फ्रेम दर फ्रेम राज कपूर की फ़िल्मों की औरतों की त्रासदी के तार खास कर ‘प्रेम रोग’ की विधवा को रेखांकित कर उन की निर्देशकीय सोच को रेखांकित किया तो वह फ़िल्म समीक्षका पानी पानी हो गईं। और सचाई भी यही थी।
हां, सच यह भी था कि राज कपूर मेरा नाम जोकर की विफलता के बाद मसाला परोसने पर भी उतर आए थे और ‘मेरा नाम जोकर’ की उस कव्वाली की जबान में कहे कि, ‘कहीं दाग न लग जाए’ वाली बात वह भूलने लग गए थे। क्षमा करें यहां हम राजकपूर की फ़िल्मों की शास्त्रीय समीक्षा या उन का बखान करने नहीं , सिर्फ उन को याद करने ही बैठे हैं।
याद आता है तबीयत खराब होने के बावजूद दादा साहब फालके पुरस्कार लेने वह दिल्ली आए हुए थे। तब भला कौन जानता था कि यह खुशी का समय उन के लिए हर्ष और उल्लास के बजाय दुर्दांत और जान सांसत में डालने वाला बन जाएगा। उस समय दूरदर्शन से बात चीत में बार-बार वह अपने बिछड़े संगी साथियों का ज़िक्र जिस विह्वलता से कर रहे थे, उसे सुन कर बहुत अच्छा लग रहा था।
तब क्या पता था कि वह अपने बिछड़े संगी साथियों से मिलने के लिए आकुल व्याकुल हो कर यह सब कहे जा रहे हैं। वह तो बस अपनी धुन में यह कह विस्मित से, चकित से भावातिरेक में थे कि, यह पुरस्कार पिता श्री पृथ्वीराज कपूर को भी मिला था। आज मुझे मिला और लेने भी मैं ही आया। फिर वह इस सम्मान में अपने को खारिज कर इस का सारा श्रेय अपने संगी साथियों को देते रहे कि यह पुरस्कार उन का ही है। अपने तकनीशियनों तक को याद कर के वह अपनी आंखें नम करते रहे। गायक मुकेश और संगीतकार शंकर-जयकिशन को भी वह उसी ‘विज़न’ औऱ उसी याद में हेरते रहे। इस वक्त जिस व्यक्ति की सब से ज़्यादा याद उन्हें सालती रही थी वह उन के महबूब संगी साथी और गीतकार शैलेंद्र की थी। शैलेंद्र को याद कर तब राजकूपर की आंखें और दिल दोनों भर-भर आते थे। बस भरभरा कर रोए नहीं वह। मेरा नाम जोकर के लिए शैलेंद्र के लिखे गीत को भी वह बरबस गुनगुना पड़े, “कल खेल में हम हों न हों...!” बल्कि अंगरेजी में हो रही बात चीत में बोलते-बोलते वह इस गाने को अपने होठों पर चढ़ा बैठे और सुध-बुध खो हिंदी ही में बतियाते रहे थे। तब कौन जानता भली कि शैलेंद्र जी के गुम होने की कसक की भरपाई वह इस तरह करेंगे। तो क्या उन्हें पता था?
कोई चार दशक के भी अधिक समय तक हिंदी सिनेमा की धरती पर (आकाश नहीं) राज करने वाले राज कपूर उम्र के चौथेपन में भी अल्लाह को प्यारी हो गई नरगिस को बड़ी शिद्दत और बेकली से याद करते थे और खुले आम मंजूर करते थे कि, ‘हां, नरगिस मेरी ज़िंदगी में हीरोइन थीं।’ यह कहना राज कपूर के ही वश की बात थी।
ऐसे में याद आता है मेरा नाम जोकर फ़िल्म का वह अंतिम फ्रेम जिस में राजू की अलग-अलग समय की तीनों प्रेमिकाएं सर्कस देखने बैठी हैं और राजू के दिल के आपरेशन में डाक्टर लगे हुए हैं। वह उस का दिल निकाल लेते हैं और हड़बड़ाया राजू आपरेशन टेबिल के सिरहाने धंसा पड़ा खड़ा है। पर यह दृश्य देखते ही एक क्षण को हंसी आती है। पर दूसरे ही क्षण जब राजू अपना दिल ढूंढते हुए बारी-बारी से अंगरेजी में पूछता है कि क्या किसी ने मेरा दिल देखा है? अपने-अपने पतियों के साथ बैठी उस की तीनों प्रेमिकाएं नहीं में सिर हिला देती हैं। फिर गाने के दुहराव के साथ फ़िल्म खत्म होती है। बल्कि फ़िल्म खत्म नहीं होती और एक इबारत उभरती है, ‘पाजिटिवली दिस इज नॉट एंड।’
आज राजकपूर नहीं हैं पर उन की फ़िल्में है। उन की फ़िल्मों में बसा प्यार है। उन की फ़िल्मों के बेहतरीन और बेशुमार गीत हैं। ऐसे में मेरा नाम जोकर में हसरत जयपुरी का लिखा और मुकेश का गाया वह गीत होठों पर आता है, ‘चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुम को उम्र भर, तुम को न भूल पाएंगे.....।’ और मेरा नाम जोकर फ़िल्म की वह आखिरी इबारत भी याद आती है, ‘पाजिटिवली दिस इज नॉट एंड।’
कैमरे की आंख से प्यार की जो तरलता और मादकता राज कपूर लोगों की आंखों के लिए परोस गए हैं, उन की वही कला लोगों के दिलों की धड़कन बन कभी मन में समा हिलोरे लेती है तो कभी मन के पोर-पोर झकझोर जाती है। वैसे तो राजकपूर की सभी फ़िल्मों में प्यार की तन्मयता, कोमलता, और कसैलापन अपने पूरे उद्वेग के साथ उपस्थित हैं। पर राजकपूर जिसे अपना दुलारा बच्चा बताते थे उस ‘मेरा नाम जोकर’ फ़िल्म में प्यार की जो आकुलता, व्याकुलता और उस की आर्द्रता जिस समग्रता में समाई दिखती है, वह कहीं और ढूंढ़ पाना किसी दरिद्र का दिवा स्वप्न देखने जैसा ही है।
राजकपूर की फ़िल्मों में प्यार के विषाद के साथ-साथ सामाजिक विसंगतियों का भी विषाद भरपूर है। हास्य की पीड़ा में भी डूबी हुई हैं उन की फ़िल्में। पर जो बात, जो भाषा वह प्रेम को उकेरने, उसे पूजने में पढ़ते-पढ़ाते हैं, वह सचमुच दुर्लभ ही नहीं अनन्य भी है। यह उन के प्यार की अनन्यता ही है कि पीढ़ी दर पीढ़ी उन की इस धड़कन को समझती है। यहां ‘जेनेरेशन गैप’ का समीकरण हवा हो जाता है। और राजकपूर ‘आउट ऑफ़ डेट’ नहीं होते। उन की फ़िल्में ‘आउट ऑ्फ़ डेट’ होते न होते प्यार की ठेंठ परिभाषा बनी लोगों के मन में बसी हुई हैं। उन की फ़िल्मों के गाने तो जैसे लोगों की जान हैं। राजकपूर वस्तुत: अभिनेता उतने अच्छे नहीं थे। वह खुद भी अपने को अच्छा अभिनेता महीं मानते थे। जैसा दिलीप कुमार बताते भी हैं, कि उन दिनों ‘मशाल’ रिलीज हुई थी। एक रात राज कपूर ने फ़ोन किया और कहा कि एक्टर तो अभी भी एक ही है – वह है – दिलीप कुमार। वह तो सही मायने में निर्देशक ही अच्छे थे। हालां कि बतौर अभिनेता उन की जागते रहो फ़िल्म जिस का निर्देशन शंभू मित्रा और अनिल मित्रा ने किया था, आज भी उतनी ही प्रासंगिक और महत्वपूर्ण है। पर याद वह ‘आवारा’ औऱ ‘मेरा नाम जोकर’ सरीखी फ़िल्मों के लिए किए जाते हैं। ‘आवारा’ और ‘मेरा नाम जोकर’ के बाद उन की सर्वश्रेष्ठ फिल्म ‘प्रेम रोग’ ही है, बतौर निर्देशक। ‘प्रेम रोग’ में विधवा समस्या को जिस तरह राजकपूर ने ट्रीट किया है वह आसान नहीं है। ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ में भी उन्हों ने जो कुरूप नारी का विषय उठाया और उसे जिस भव्यता से निभाया, वह किसी और निर्देशक के लिए कठिन ही था। ‘बॉबी’ में टीन एज प्राब्लम को उन्हों ने जिस टीन एज टच के साथ छुआ वह भी आसान नहीं था। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में वह थोड़ा मैली नज़र के लिए विवाद में ज़रूर आ गए पर इस विषय को भी उस अंदाज़ में राजकपूर ही उठा सकते थे।
दरअसल राजकपूर की फ़िल्मों के केंद्र में ही औरत समाई रहती थी। ‘जागते रहो’, ‘आवारा’ से ले कर ‘राम तेरी गंगा मैली’ तक औरत उन की कमज़ोरी थी। हालां कि यही बात दिल्ली की एक सेमिनार में मैं ने कही तो एक प्रसिद्ध महिला फ़िल्म समीक्षक ने मेरी बात काटते हुए कहा कि औरत नहीं औरत की छातियां राज कपूर की कमज़ोरी थीं। और फिर उन्हों ने जागते रहो, आवारा, संगम, सत्यम शिवम सुंदरम से ले कर राम तेरी गंगा मैली तक की फ़िल्मों की फेहरिस्त फ्रेम दर फ्रेम रख दी, कि कहां-कहां राज कपूर नायिकाओं की छातियां देख-देख कर तृप्त हुए। और दर्शकों को भरपेट तृप्ति दिलाई। इसी रौ में वह यह भी बोल गई कि जागते रहो में फ़िल्म के आखिर में राजकपूर नरगिस द्वारा पानी पिलाने से नहीं उन की नंगी छातियां देख कर तृप्त हुए। उन दिनों ‘राम तेरी गंगा मैली’ में मंदाकिनी की खुली छातियों को ले कर पूरे देश में बेवज़ह बवाल मचा हुआ था। सो उन फ़िल्म समीक्षिका की यह बेहूदी बात सुनी भी गई। पर जब मैं ने फ्रेम दर फ्रेम राज कपूर की फ़िल्मों की औरतों की त्रासदी के तार खास कर ‘प्रेम रोग’ की विधवा को रेखांकित कर उन की निर्देशकीय सोच को रेखांकित किया तो वह फ़िल्म समीक्षका पानी पानी हो गईं। और सचाई भी यही थी।
हां, सच यह भी था कि राज कपूर मेरा नाम जोकर की विफलता के बाद मसाला परोसने पर भी उतर आए थे और ‘मेरा नाम जोकर’ की उस कव्वाली की जबान में कहे कि, ‘कहीं दाग न लग जाए’ वाली बात वह भूलने लग गए थे। क्षमा करें यहां हम राजकपूर की फ़िल्मों की शास्त्रीय समीक्षा या उन का बखान करने नहीं , सिर्फ उन को याद करने ही बैठे हैं।
याद आता है तबीयत खराब होने के बावजूद दादा साहब फालके पुरस्कार लेने वह दिल्ली आए हुए थे। तब भला कौन जानता था कि यह खुशी का समय उन के लिए हर्ष और उल्लास के बजाय दुर्दांत और जान सांसत में डालने वाला बन जाएगा। उस समय दूरदर्शन से बात चीत में बार-बार वह अपने बिछड़े संगी साथियों का ज़िक्र जिस विह्वलता से कर रहे थे, उसे सुन कर बहुत अच्छा लग रहा था।
तब क्या पता था कि वह अपने बिछड़े संगी साथियों से मिलने के लिए आकुल व्याकुल हो कर यह सब कहे जा रहे हैं। वह तो बस अपनी धुन में यह कह विस्मित से, चकित से भावातिरेक में थे कि, यह पुरस्कार पिता श्री पृथ्वीराज कपूर को भी मिला था। आज मुझे मिला और लेने भी मैं ही आया। फिर वह इस सम्मान में अपने को खारिज कर इस का सारा श्रेय अपने संगी साथियों को देते रहे कि यह पुरस्कार उन का ही है। अपने तकनीशियनों तक को याद कर के वह अपनी आंखें नम करते रहे। गायक मुकेश और संगीतकार शंकर-जयकिशन को भी वह उसी ‘विज़न’ औऱ उसी याद में हेरते रहे। इस वक्त जिस व्यक्ति की सब से ज़्यादा याद उन्हें सालती रही थी वह उन के महबूब संगी साथी और गीतकार शैलेंद्र की थी। शैलेंद्र को याद कर तब राजकूपर की आंखें और दिल दोनों भर-भर आते थे। बस भरभरा कर रोए नहीं वह। मेरा नाम जोकर के लिए शैलेंद्र के लिखे गीत को भी वह बरबस गुनगुना पड़े, “कल खेल में हम हों न हों...!” बल्कि अंगरेजी में हो रही बात चीत में बोलते-बोलते वह इस गाने को अपने होठों पर चढ़ा बैठे और सुध-बुध खो हिंदी ही में बतियाते रहे थे। तब कौन जानता भली कि शैलेंद्र जी के गुम होने की कसक की भरपाई वह इस तरह करेंगे। तो क्या उन्हें पता था?
कोई चार दशक के भी अधिक समय तक हिंदी सिनेमा की धरती पर (आकाश नहीं) राज करने वाले राज कपूर उम्र के चौथेपन में भी अल्लाह को प्यारी हो गई नरगिस को बड़ी शिद्दत और बेकली से याद करते थे और खुले आम मंजूर करते थे कि, ‘हां, नरगिस मेरी ज़िंदगी में हीरोइन थीं।’ यह कहना राज कपूर के ही वश की बात थी।
ऐसे में याद आता है मेरा नाम जोकर फ़िल्म का वह अंतिम फ्रेम जिस में राजू की अलग-अलग समय की तीनों प्रेमिकाएं सर्कस देखने बैठी हैं और राजू के दिल के आपरेशन में डाक्टर लगे हुए हैं। वह उस का दिल निकाल लेते हैं और हड़बड़ाया राजू आपरेशन टेबिल के सिरहाने धंसा पड़ा खड़ा है। पर यह दृश्य देखते ही एक क्षण को हंसी आती है। पर दूसरे ही क्षण जब राजू अपना दिल ढूंढते हुए बारी-बारी से अंगरेजी में पूछता है कि क्या किसी ने मेरा दिल देखा है? अपने-अपने पतियों के साथ बैठी उस की तीनों प्रेमिकाएं नहीं में सिर हिला देती हैं। फिर गाने के दुहराव के साथ फ़िल्म खत्म होती है। बल्कि फ़िल्म खत्म नहीं होती और एक इबारत उभरती है, ‘पाजिटिवली दिस इज नॉट एंड।’
आज राजकपूर नहीं हैं पर उन की फ़िल्में है। उन की फ़िल्मों में बसा प्यार है। उन की फ़िल्मों के बेहतरीन और बेशुमार गीत हैं। ऐसे में मेरा नाम जोकर में हसरत जयपुरी का लिखा और मुकेश का गाया वह गीत होठों पर आता है, ‘चाहे कहीं भी तुम रहो, चाहेंगे तुम को उम्र भर, तुम को न भूल पाएंगे.....।’ और मेरा नाम जोकर फ़िल्म की वह आखिरी इबारत भी याद आती है, ‘पाजिटिवली दिस इज नॉट एंड।’
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