अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा में प्रासंगिकता का
सवाल ही मुझे सिरे से अप्रासंगिक लगता है। दरअसल राजनीतिक पार्टियों के कारपोरेट
कल्चर में तब्दील होते जाने की विकृति की खाद में उपजा यह सवाल अटल बिहारी वाजपेयी की अस्मिता पर ही नहीं भारतीय राजनीति की अस्मिता
पर भी प्रश्न चिन्ह लगाना है। यह और ऐसे सवाल उठाने वाले लोग भारतीय परंपरा और
संस्कृति को भूल कर ही ऐसी बातें करते हैं। क्या भारतीय समाज में ऐसा संभव है कि
कोई बुजुर्ग रिटायर हो जाए, कमाना बंद कर दे, बीमार पड़ जाए तो उसे घर से बाहर निकाल
कर सड़क पर फेंक दिया जाए? वह भारतीय परंपरा जहां प्रकृति, पेड़ पक्षी, नदियां,
पत्थर सभी पूजे जाते हैं? बुद्ध, महावीर और फिर गांधी की प्रासंगिकता अगर इस तेज़ी से बदल रहे हिंसक समाज में है तो तय मानिए कि सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी में
ही नहीं भारतीय राजनीति और भारतीय समाज में भी अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता है
और कि रहेगी भी।
अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय माटी की वह सुगंध हैं
जो मिटाए नहीं मिटती। वो कहते हैं न कि ‘हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी
पर रोती है, बड़ी मुश्किल से हो
ता है चमन में दीदावर पैदा।’ तो अटल बिहारी वाजपेयी वही दीदावर हैं। यकीन नहीं होता तो ज़्यादा नहीं एक साथ चार-पांच घटनाएं याद कीजिए। एक पोखरण में परमाणु परीक्षण,
दूसरी उन की लाहौर बस यात्रा और फिर कारगिल। फिर मुशर्रफ की आगरा यात्रा और फिर
भारतीय संसद भवन पर हमला। वाजपेयी जी लगातार शांति के कबूतर उड़ाते रहे। पहले कहते
ज़रूर रहे थे कि ‘आतंकवाद और संवाद एक साथ नहीं चलेगा’ और फिर संसद पर हमले के
बाद वह अब लड़ाई आर या पार की होगी। सीमा पर सेनाएं भी तैनात हो गईं। समूचा देश उन
के इस फैसले के साथ था। अब यह अटल बिहारी वाजपेयी पर मुनःसर था कि वह पाकिस्तान के
खिलाफ युद्ध का बिगुल बजाएं कि नहीं बजाएं। सेनाएं आमने सामने थीं। हो सकता था कि
पाकिस्तान तहस नहस हो जाता। हो सकता था कि पाकिस्तान एटमी लड़ाई छेड़ देता। कुछ भी
हो सकता था। पर ऐसे में मानवता का क्या होता? हिरोशिमा नागासाकी के दंश आज भी दुनिया में मौजूद हैं। फिर इस नई तबाही का अंजाम क्या होता? मनुष्यता
कांप न जाती? फिर आज की दुनिया का भूगोल क्या होता? इतिहास क्या होता? और कि क्या
यह बांचने देखने के लिए हम आप भी होते? होते भी तो क्या ऐसे ही होते? सैल्यूट
कीजिए अटल बिहारी वाजपेयी को कि तमाम-तमाम थुक्का फज़ीहत के उन्हों ने युद्ध का बिगुल नहीं बजाया। बजा दिया होता जो युद्ध उन्हों ने
तो मनुष्यता उन्हें क्षमा नहीं कर और तय मानिए कि अगर पोखरण नहीं किया होता उन्हों
ने तो पाकिस्तान भारत को जीने नहीं देता। और तमाम इन विसंगतियों और बाधाओं के वह
बस यात्रा पर जाते हैं। मिलता है पीठ में कारगिल का छुरा। फिर भी वह कारगिल के
खलनायक जो तब तक पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन जाते हैं, उस मुशर्रफ को आगरा बुला
भेजते हैं। तो सच मानिए कि यह गांधी के देश में ही संभव बन सकता है, जिन्ना या
किसी क्लिंटन, बुश या ओबामा के देश में नहीं।
तो उस अटल बिहारी वाजपेयी को आप भूल जाएंगे? और
उस शांति के कबूतर उड़ाने वाले की प्रासंगिकता के फिजूल सवाल सुलगाएंगे? भई यह तो
हद है।
आज की तारीख में मनमोहन सिंह सरकार के मंत्री ए.
राजा जो सत्तर हज़ार करोड़ के घोटाले में गले तक फंसे पड़े हैं,
महंगाई से ले कर आई.पी.एल. तक के दल दल में धंसे पड़े शरद पवार हैं, बिगड़ैल और
बड़बोली ममता बनर्जी हैं, और जाने कौन-कौन हैं पर मनमोहन सिंह संकेतों में भी इन
को कुछ कह पाने का साहस नहीं कर पाते। पर अटल बिहारी बाजपेयी?
केंद्र में गठबंधन सरकार का बिस्मिल्ला करने
वाले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में यह अराजकता ऐसे तो नहीं ही देखी गई। और फिर
यही वाजपेयी थे जिन्हों ने पार्टी की राय को दरकिनार कर नरेंद्र मोदी को राजधर्म का
पाठ याद दिलाया था और इस्तीफा देने की सलाह दी थी। पर आडवाणी काकस ने इस राजधर्म
को ठेंगा दिखा दिया। फिर तो गोवा में जब अटल बिहारी कहा कि
ना टायर्ड, ना रिटायर्ड, आडवाणी जी के नेतृत्व में विजय की ओर प्रस्थान। जिसे पूरे
देश ने सुना और देखा कि कैसे तो इस एक जुमले में समूची भाजपा दहल गई थी और फिर वाजपेयी
के चरणों में नतमस्तक हो गई थी।
यह वाजपेयी ही हैं जिन को नेहरू भी दुलारते थे। यह
वाजपेयी ही हैं जो लाख विरोध के बावजूद १९७१ में पाकिस्तान को हराने और बंगलादेश
बनने पर इंदिरा गांधी को दुर्गा कह रहे थे। यह वही वाजपेयी हैं जिन को नरसिंह राव और
चंद्रशेखर सरीखे लोग भी बड़े सम्मान से गुरुदेव कह कर संबोधित करते थे। एक शिक्षक
का बेटा जो विद्यार्थी जीवन में वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेता था, फिर
कविताएं लिखने लगा और देखते देखते पत्रकार हो गया। तरुण भारत, राष्ट्र धर्म और
पांचजन्य के संपादक रहे अटल बिहारी वाजपेयी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अनुशासित
स्वयं सेवक भी रहे ज़रूर पर किसी की तानाशाही को स्वीकार किया हो मुझे याद नहीं
आता। अकसर लोग उन के लिए कहते रहे हैं कि ‘सही आदमी पर गलत पार्टी में’ तो यह क्या
है? दरअसल वाजपेयी जी कवि चाहे जितने खराब रहे हों पर राजनीतिज्ञ वह हमेशा से
अच्छे ही रहे। प्रजातांत्रिक मर्यादाओं से कभी वह च्युत नहीं हुए। जय पराजय का
स्वाद वह निरंतर चखते रहे पर कभी विचलित नहीं हुए। प्रजातंत्र में सहमति-असहमति
दोनों ही शब्दों की प्रासंगिकता हमेशा ही से रही है। तो किसी बिंदु पर, किसी
मुद्दे पर अगर किसी से या पार्टी में ही सही असहमति या सहमति हो जाती है तो उसे
किसी व्यक्ति विशेष की प्रासंगिकता से जोड़ कर देखना छोटी और तर्कहीन बात होती है।
असहमति के स्वर वहां नहीं उठते जहां तानाशाही होती है। प्रजातांत्रिक धागे से बुनी
व्यवस्था में असहमति होना एक स्वस्थ परंपरा ही है। हां, असहमति और अनुशासनहीनता
दोनों ही दो बातें हैं। तो यह ठीक है कि वाजपेयी से असहमत लोग भी भाजपा में हमेशा
से रहे हैं।
पर वाजपेयी से ज़्यादातर असहमत लोगों का हश्र
क्या हुआ सभी जानते हैं। जानते हैं कि वाजपेयी से जो भी टकराया टूट गया। टूट कर
चूर हो गया। नाम एक नहीं अनेक हैं। बलराज मधोक, प्रकाशवीर शास्त्री, सुब्रमण्यम
स्वामी, गोविंदाचार्य, उमा भारती, कल्याण सिंह से लगायत लालकृष्ण आडवाणी तक जाने
कितने जाने अनजाने नाम हैं। यह सब के सब लोग पार्टी में खुद ही अप्रासंगिक होते गए। पर वाजपेयी?
जसवंत सिंह फिजूल में पार्टी से निकाले जाते हैं
तो वह वाजपेयी के पास जाते हैं। शिबू सोरेन मुख्यमंत्री बनते हैं तो आशीर्वाद लेने
वाजपेयी के पास जाते हैं। राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी या और लोग भी आशीर्वाद लेने
जाते ही रहते हैं वाजपेयी के पास। हां, उमा भारती भी। अब यह ताज़ा सवाल जो भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता का उठाया गया है तो मैं
समझता हूं कि राम जेठमलानी की राज्यसभा में भाजपा की ओर से भेजे जाने की आड़ में
ही उठाया गया है या उठवाया गया है। वह जेठमलानी जो कभी वाजपेयी मंत्रिमंडल में रहे
हैं और वाजपेयी के खिलाफ चुनाव लड़ कर ज़मानत भी गंवा चुके हैं। फिर
भी वह भाजपा की ओर से राज्यसभा में भेजे जा रहे हैं तो यह प्रजातांत्रिक धागे की
बुनावट का सुफल है कुछ और नहीं। कि जहां असहमति के स्वर का भी सम्मान होता है। लोग
भूल जाते हैं कि नेहरू के धुर विरोधी लोहिया लगातार नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ते
रहे। नेहरू ने लोहिया को संदेश भेजा कि मैं आप को संसद में बैठे देखना चाहता हूं,
आप कहीं और से चुनाव लड़ें। लोहिया मान गए थे और चुनाव क्षेत्र फूलपुर के बजाय
कन्नौज कर लिया और संसद पहुंचे। नेहरू जैसे लोग चाहते थे कि अच्छे लोग संसद
पहुंचें। चाहे वह उन के धुर विरोधी ही क्यों न हों। वह प्रजातंत्र प्रेमी लोग थे।
वह तो बाद में उन की बेटी इंदिरा ने प्रजांतंत्र का वृक्ष उखाड़ फेंका और नाती
राजीव गांधी तक आते-आते बात यहां तक आ गई कि कैसे नाकेबंदी कर बड़े-बड़े
राजनीतिज्ञों को संसद या विधान सभा में आने से रोका जाए। भले ही हेमवती नंदन
बहुगुणा के खिलाफ अमिताभ बच्चन को उतारा जाए या कि अब किसी मुरली मनोहर जोशी के
खिलाफ मुख्तार अंसारी को खड़ा कर दिया जाए। पर वाजपेयी जैसे लोग इस बात के साक्षी
हैं कि हमारे प्रजातांत्रिक दिये में अभी भी तेल है और कि वह अवशेष रहेगा।
सहमतियां-असहमतियां अपनी जगह हैं वाजपेयी जी अपनी जगह। तो यह क्या है?
स्पष्ट है कि यह अटल बिहारी वाजपेयी की प्रासंगिकता का प्रताप ही है कुछ और नहीं। एक समय था कि जब जेठमलानी लगातार बयान
पर बयान ठोंके जा रहे थे। बोफोर्स के जामाने से ही उन की यह आदत थी रोज ब रोज सवाल
पूछने की। तो वह वाजपेयी जी से भी सवाल पर सवाल पूछ रहे थे। बहुत आजिज अटल
बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि, ‘मेरे मित्र जेठमलानी को यह नहीं मालूम कि चुप रहना
भी एक कला है’। वाजपेयी जी की प्रासंगिकता का फोड़ा फोड़ने वाले राजनीतिक पंडितों
को वाजपेयी जी का यह कहा ही याद दिलाना मैं समझता हूं काफी है।
बहुत अच्छा संस्मरण!
ReplyDeleteशोध-परख राजनैतिक प्रासंगिकता से रूबरू करवाने मे आपकी लेखनी का जबाब नहीं। अति-उत्तम विश्लेषण .....सादर शुभेक्षा ......जनार्दन यादव
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