सरकार का दूध अगर निरंतर काला न होता तो यह बेटी इस तरह अपमानित हो कर सिंगापुर की धरती से हम से विदा न हुई होती। उस की विदाई पर शिलालेख न लिखना पड़ता। बेटी का इस तरह विदा होना हम सब के मुंह पर करारा तमाचा है, जूता है, जाने क्या-क्या है। अगर सरकार समझती है कि सिंगापुर भेज कर उस बेटी के निधन पर उपजी आग पर वह पानी डाल लेगी तो सरकार की बुद्धि पर तरस आता है। सरकार भूल जाती है कि ब्रिटिश हुकूमत ने बहादुरशाह ज़फ़र को भी निर्वासन दे कर रंगून भेजा था। उन्हें वहीं दफ़नाया भी गया था। ज़फ़र को लिखना पड़ा था :
कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूए-यार में।
कितना है बदनसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूए-यार में।
1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद. अंग्रेजों ने उनके दोनो बेटों मिर्ज़ा मुगल और ख़िज़ार सुलतान का सर काट कर थाली पर उनके पास भेजा था और उनको बर्मा के रंगून में तड़ी-पार की सजा दे कर भेजा था । वही पर उनका देहांत हुआ 1862 में । तो क्या इस २०१२ में डेढ़ सौ साल बाद सिंगापुर फिर वही इतिहास दुहराने की याद दिला रहा है? क्यों कि तब1862 में ज़फ़र की आज़ादी की लगाई आग देश में बुझी नहीं और ब्रिटिश बहादुरों को तमाम जतन के बाद भी देश छोड़ कर जाना पड़ा था। तो क्या यह सरकार बहादुर शाह ज़फ़र की शहादत को, उस इतिहास को दुहराने की राह पर है? और उसी धुन में मगन निरंतर अपने दूध को काला बताने और जीत लेने की फ़िक्र में है?
आप पूछेंगे कि यह काला दूध की कैफ़ियत क्या है? तो जानिए कि यह एक लतीफ़ा है। लतीफ़ा यह है कि एक लड़का एक दिन स्कूल से वापस आया और अपनी मां से पूछा कि मम्मी दूध काला होता है कि सफ़ेद? मां ने पूछा कि माज़रा क्या है? तो बेटे ने पूरी मासूमियत से बताया कि आज स्कूल में एक लड़के से शर्त लग गई है। वह लड़का कह रहा था कि दूध सफ़ेद होता है और मैं ने कहा कि दूध काला होता है। तो दूध कैसा होता है मम्मी? मम्मी ने मायूस होते हुए कहा कि बेटा फिर तो तुम शर्त हार गए। क्यों कि दूध तो सफ़ेद ही होता है। बेटा यह सुन कर निराश हो गया। लेकिन पलटते ही बोला कि, मम्मी शर्त तो मैं फिर भी नहीं हारूंगा। शर्त मैं ही जीतूंगा। मम्मी ने पूछा कि वो कैसे भला? बेटा पूरी हेकड़ी से बोला, मैं मानूंगा ही नहीं कि दूध सफ़ेद होता है, मैं तो अड़ा रहूंगा कि दूध काला होता है। जब मानूंगा कि दूध सफ़ेद होता है तब तो हारूंगा? मैं तो कहूंगा कि दूध काला ही होता है। मम्मी बेटे की इस अकलमंदी पर मुसकुरा पड़ीं।
हमारी सारी सरकारें, केंद्र की हों, प्रदेशों की हों या कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान हो, कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, कारपोरेट हो, मीडिया हो या और जो भी कोई प्रतिष्ठान हों, सभी के सभी दूध को काला बताने की मुहिम इस कदर न्यस्त हैं कि वह सचमुच भूल चुके हैं कि दूध सफ़ेद होता है। हेकड़ी, झूठ और अहंकार में जकड़ी यह सरकारें और सत्ता प्रतिष्ठान सच से कोई नातेदारी रखना ही नहीं चाहते। गोया सच से बड़ा कोई पाप नहीं होता। यह सरकारें, यह व्यवस्था ऐसे ट्रीट करती हैं जनता के साथ जै्से कभी किसी कारखाने के मालिकान और मैनेजमेंट कारखाने के कर्मचारियों के साथ ट्रीट करते थे। कि सारे सच और तर्क मालिकान और मैने्जमेंट के और सारी गलती कर्मचारियों की। सारे सरकारी कानून कर्मचारियों के हित में पर सारा सरकारी अमला मालिकान के पक्ष मे। तो कानून उस का हो जाता था जिस के हाथ में लाठी। और अंतत: साबित हो जाता था कि समरथ को नहीं दोष गोंसाई ! नतीज़ा सामने है कि अब इन कारखानों मे कहीं कोई कानून नहीं चलता। मालिकान जो चाहते हैं, वही कानून होता है।
सरकारें भी अब इसी राह पर हैं। वह सरकार नहीं, देश नहीं कोई कारखाना चला रही हैं। अपनी मिलकियत और जागीर समझ कर। कहीं कोई प्रतिपक्ष नहीं है। पक्ष और प्रतिपक्ष का खेल बस इतना ही बाकी रह गया है कि अभी हमारा टर्न, फिर तुम्हारा टर्न ! बस ! जनता-जनार्दन बस उन के लिए सत्ता पाने का इंस्ट्रूमेंट भर है।
नहीं इस बेटी के साथ हुए दुराचार पर जनता खास कर युवा जिस तरह उद्वेलित और आंदोलित हुए और सरकार और सिस्टम ने उन से निपटने के जो तरीके अपनाए, जो लाक्षागृह बनाए वो बेहद शर्मनाक है। यह और यही तरीके वह अन्ना हजारे, रामदेव और अरविंद केजरीवाल के आंदोलनों के साथ भी आजमा चुकी है। जैसे अभ्यस्त हो चली है आंदोलनों के लिए लाक्षागृह बनाने के लिए। अब कि जैसे इसी बार नहीं कुछ मिला तो सिपाही सुभाष तोमर की आंदोलनकारियों की पिटाई से हुई मौत का ढिंढोरा पीट दिया। जब कि हार्ट अटैक से वह अपनी मौत मरा। मेट्रो स्टेशन बंद कर दिया, रास्ते बंद कर दिए। निहत्थे बच्चों की पिटाई की। उन पर इस बला की ठंड में पानी चलाया। वाटर केनन से। और जब सब कुछ से हार गए तो बता दिया कि दस आतंकवादी दिल्ली में घुस आए हैं जो इस आंदोलन में शरीक हो कर कुछ अप्रिय कर सकते हैं। हद है भई ! एक दांव आंदोलन के राजनीतिज्ञ होने का भी चलाया पुलिस कमिश्नर की चिट्ठी के जरिए। बताया कि इस आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लोग भी शामिल हो गए हैं। हद है। आखिर क्यों नहीं शामिल हों भला? क्या उन के पास नागरिक अधिकार नहीं हैं? गनीमत कि इस पर कम्युनिल कलर चढ़ा कर सेक्यूलर चश्मा नहीं लगाया। तो शायद इस लिए भी कि इस में वामपंथी छात्र संगठन भी खुल कर सामने थे। तो सरकार की यह तरकीब तितर-बितर हो गई। फिर शुरु हुई पुलिस और प्रशासन की नूरा कुश्ती। एस.डी.एम. की बात सामने आई कि पुलिस ने उन्हें पीड़ित का बयान ठीक से नहीं लेने दिया पुलिस ने। शीला दीक्षित की चिट्ठी और शिंदे की लुकाछुपी शुरु हो गई। अब यह देखिए शिंदे बेअसर होते दिखे तो वित्त मंत्री चिदंबरम को कमान संभालनी पड़ी। फिर ट्रांसपोर्ट और परिवहन विभाग आमने-सामने हो गए। एक दूसरे की गलती बताते हुए। आंदोलन फिर भी शांत नहीं हुआ। भ्रष्टाचार में डूबी सरकार के हाथ-पांव फूल गए। फिर सब की समझ में आ गया कि अब लड़की बचने वाली तो है नहीं और कही उस के निधन की आग में दहक कर आंदोलन उग्र हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे। सो सिंगापुर भेज दिया उसे आनन-फानन ! तो क्या आंदोलन अब ठंडा पड़ जाएगा?
पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहा राव के समय उन के लिए एक स्लोगन चलता था कि निर्णय न लेना भी एक निर्णय है। उन्हीं नरसिंहा राव के वित्त मंत्री रहे आज के प्रधानंत्री मनमोहन सिंह ने उस स्लोगन को और आगे बढ़ाया है। कि निर्णय लेते हुए तो दिखो पर निर्णय मत लो। संसद में महिला आरक्षण बिल पेश कर के भी वह पास नहीं करावा पाए तो इस लिए कि वह ऐसा चाहते ही नहीं थे। लोकपाल के साथ भी वह यही खेल खेल गए। और अभी ताज़ा-ताज़ा दलितों को प्रमोशन में आरक्षण मसले पर भी वह इसी खेल को दुहरा गए हैं। नहीं याद कीजिए कि अमरीका के साथ वह परमाणु समझौते को ले कर कैसा तो खेल गए थे? सरकार गिरने की चिंता नहीं की। क्यों कि वास्तव में वह भारत की पसंद के प्रधानमंत्री नहीं, अमरीका और वर्ड बैंक की पसंद के प्रधानमंत्री हैं। इतने लाचार और असहाय कि उन्हें राहुल और सोनिया से मिलने के लिए टाइम मांगना पड़ता है। कभी मिलता है, कभी नहीं मिलता है। अपनी मर्जी से वह मंत्रिमंडल तो क्या खांसी जुकाम भी नहीं तय कर सकते है। आर्थिक सुधार और उदारीकरण के नाम पर महगाई और भ्रष्टाचार का जो निर्मम खेल खेल रहे हैं वह इस का देश और लोगों पर क्या असर पड़ रहा है इस की रत्ती भर भी उन को फ़िक्र नहीं है। तो शायद इस लिए भी कि वह जनता द्वारा चुन कर नहीं आते। जनता का जो दर्द है, वह नहीं जानते। उन के पांव बिवाई फटे पांव नहीं हैं। इस लिए इस का दर्द नहीं जानते वह। वह सिर्फ़ प्रधानमंत्री की कुर्सी बचाए रखने का दर्द जानते हैं। येन-केन-प्रकारेण। लेकिन दुराचार और हिंसा की मारी यह बेटी अपने बलिदान की इबारत लिख कर आंदोलन और उबाल की जो आग बो गई है, वह राख होने वाली नहीं है। समय की दीवार पर लिखी इस आग को राजनीतिक पार्टियां पढे़ और समय रहते यह चोर-सिपाही का खेल खेलना और नूरा-कुश्ती बंद करें नहीं जनता उन को जला कर भस्म कर देगी। इस बेटी की आह को असर करने की उम्र अब खत्म होने को है। क्यों कि हालात अब बद से बदतर हो चुके हैं। ज़फ़र के एक शेर में ही जो कहें कि:
चश्मे-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन
जैसी अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
तो राजनीतिक पार्टियों के दुकानदार और यह सरकारें, कार्यपालिका और न्यायपालिका भी होश में आ जाएं। नहीं जनता अभी तक तो सिर्फ़ बलात्कारियों को मांग रही है, बेटी को इंसाफ़ देने के लिए। कल को आप राजनीतिक आकाओं को भी बस मांगने ही वाली है। फिर तो यह पुलिस, यह सेना सब इस जनता के साथ में होगी, आप की सुरक्षा में नहीं। जनता को इस कदर बगावत पर मत उकसाइए। इस अनाम बेटी की शहादत, जिस की मिजाजपुर्सी में समूचा देश खड़ा हो गया, खुद-ब-खुद, यही कह रही है। आंदोलनों के लिए लाक्षागृह बनाने से बाज़ आइए। नहीं जनता, यह व्यवस्था बदलने को तैयार खड़ी है। इस भारत को मिस्र की राह पर मत ले जाइए। खूनी क्रांति से इस देश समाज को बचाने की ज़रुरत है। उस बेटी को प्रणाम कीजिए, और सुधर जाइए राजनीति, न्यापालिका और कार्यपालिका के हुक्मरानों। इस देश के नौजवान आप के गरेबान तक पहुंच चुके हैं। बहुत हो गया काला दूध बताने का खेल। यह लतीफ़ा अब देश बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है।
salam karta hu. man ko chu liya shabdo ne
ReplyDeletemanoj kumar
editor
samagam, bhopal
बहुत तार्किक और संवेदित करने वाला आलेख .
ReplyDeleteसत्ताधारी अनिर्णय में, विरोधी अनिश्चय में, बुद्धिजीवी बहस में, अभिभावक अवसाद में महिलाएं सड़कों पर ... बलात्कारी फिर भी बेलगाम । धन्य है आज की व्यवस्था, आज का समाज । बहरहाल एक विचारोत्तेजक लेख ।
ReplyDeletedayanand ji
ReplyDeletebahut bahut badhai. Safed v kale doodh ki kahani vaqai aj ke samay men bilkul sahi utar rahi hai.In andhon ko sirf chamchagiri aur apne matlab ki baat samajh men aati hai. Asha hai apka yeh lekh desh ke karndharon men kuchh chetna jagayega.
बेहतरीन प्रस्तुति है, साधुवाद
ReplyDeleteदयानंद जी आपके आलेख से यदि सबक लिया जा सके तो कितना अच्छा हो
ReplyDeletebahut samvedanpoorn .. lekin likh likh kar kahin ham haar toh nahin jayenge .. kya kal subah ke akhbaar men balaatkaar kii khabar nahin milegi?
ReplyDeleteआपकी लेखनी का मै वर्षों से कायल रहा हूँ , हमेशा की तरह आपका यह लेख भी बेहद विचारोत्तेजक है !
ReplyDeleteदेखना दया जी , ये दामिनी की दुःखद स्मृतियां , ये रूदन , ये अफसोस , ये नेताओं के घडियाली आंसू , झूठे आश्वासनों में लिपटी उनकी तकरीरे, ये लोगों के लम्बे लम्बे जुलुस, ये जलती मोमबत्तियां ,
सब अतीत का एक गीत भर बन कर उन फिजाओं और वायुमंडल में लुप्त हो जायेगा , जिसमे दामिनी की चिता से उठी धुएं की लकीरें और उसमें सिमटी उसकी चीत्कार कल लुप्त हो जायेगी
बस शेष रह जाएगी दामिनी की यादें , उसके फिर लौट आने की झूठी उम्मीद , एक दुखी माँ की लोरियों का स्वर ,एक लाचार पिता के टूटे सपनों की वेदना, यह सब देश की राजधानी के कलंकित इतिहास का एक पन्ना भर हो के रह जायेगा , वह इतिहास जो न जाने येसी कितनी ही दमनियों के खून से सना पड़ा है ....
यह आग न बुझे, देश की जनता जागती रहे , उस लड़की का बलिदान सोये हुए लोगों को जगाता रहे , देश सार्थक परिवर्तन का मुंह देख सके | काश यह हो ! आमीन!
ReplyDeleteइला
दरअसल लेख तो हर कोई लिखता है लेकिन हिम्मत से मद्दे के साथ लिखना और है...इसलिए आपको साधुवाद कि आप डरते नहीं..
ReplyDeleteसार्थक , चिन्तनप्रधान एवं सक्रियता प्रदान करने वाला आलेख
ReplyDeleteबलिदान की इबारत par आंदोलन और उबाल की आग bahut sundar samvednaon ko chhoone wala marmsprshi. बेहतरीन प्रस्तुति है, साधुवाद
ReplyDeleteसमय की शिला पर लिखी इस इबारत को हुक्मरान अभी भी न समझे तो क्रांति होने को है क्योंकि आवाम का धैर्य अब जवाब दे चुका है
ReplyDeleteसमय की शिला पर लिखी इस इबारत को हुक्मरान अभी भी न समझे तो क्रांति होने को है क्योंकि आवाम का धैर्य अब जवाब दे चुका है
ReplyDeleteबेबाक और अत्यंत संवेदनशील लेख , बधाई सर ।
ReplyDeleteएक विचारोत्तेजक लेख !
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