साक्षी के कार्यक्रम में बोलते हुए दयानंद पांडेय |
भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय |
'ओह अच्छा हां।' मैं ने कहा और पूछा कि, ' तुम सरोकारनामा पढ़ते हो?' तो वह बोला, 'हां।' मैं चक्कर में पड़ गया। फिर उस ने बताया कि अमिताभ जी ने इस के बारे में बताया था। और मुझ से कह कर उन्हों ने ही गूगल पर सर्च करवाया था। मैं समझ गया कि यह आयोजक की मुझे जानने की एक औपचारिकता भर है। सरोकारनामा पढ़ने-पढाने से उस का कोई वास्ता या रिश्ता नहीं है। वैसे भी वह लड़का जिस का नाम मयंक पारिख है, उदयपुर में टैक्सटाइल की पढा़ई कर रहा है, साहित्य या पढ़ने जैसी और चीज़ों से उस का बहुत नाता-रिश्ता है नहीं। है तो बस इतना ही कि मंगलेश डबराल की तरह ही उस का अटक-अटक कर बोलना। बस! खैर, भीलवाडा़ शहर के एक बाइपास पर बने अग्रवाल धर्मशाला में ले जा कर उस लड़के ने मुझे ठहरा दिया। और बताया कि कल का कार्यक्रम भी इसी जगह होगा। धर्मशाला नई बनी हुई थी। सो साफ-सुथरी थी। होटल के कमरों जितनी ही सुविधाओं से चाक चौबंद। ए. सी. वगैरह सब। बस कहने भर को ही धर्मशाला थी। पर किसी पांच सितारा होटल से भी ज़्यादा खुला-खुला और रौनकदार। बस कारपेट नहीं थी और वेटर भी नहीं थे। बाकी सब। अभी नहा धो कर बैठे ही थे कि भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर मय दल-बल के आ गए। एक बुके लिए हुए। बडी़ आत्मीयता से मिले। प्रदीप भटनागर ठेंठ इलाहाबादी हैं। मैं जब लखनऊ में स्वतंत्र भारत में था तब प्रदीप जी स्वतंत्र भारत में इलाहाबाद के संवाददाता थे। इलाहाबाद में अमिताभ बच्चन का चुनाव कवर करने के उत्साह से लबालब वह मुझे पहली बार लखनऊ में ही मिले थे। प्रदीप जी उन थोडे़ से रिपोर्टरों में तब शुमार थे जो लिखने-पढने में दिलचस्पी रखते थे। और इसी लिए स्वतंत्र भारत के तब के संपादक वीरेंद्र सिंह उन्हें बहुत प्यार करते थे। और उन की रिपोर्टें उछाल कर छापते थे। वीरेंद्र सिंह जी मुझे भी बहुत प्यार करते थे बल्कि दिल्ली से स्वतंत्र भारत, लखनऊ मुझे वह ही ले भी आए थे। तो यह एक एका भी था मुझ में और प्रदीप भटनागर में। जो इलाहाबाद और लखनऊ की दूरी को मिटा देता था। यह १९८५ की बात है। बाद में वीरेंद्र सिंह जी स्वतंत्र भारत से गए तो धीरे-धीरे हम लोग भी विदा हुए। मैं तो स्वतंत्र भारत से अगस्त, १९९१ में विदा हुआ। लखनऊ में ही नवभारत टाइम्स चला गया। प्रदीप जी बाद में स्वतंत्र भारत से विदा हुए। तब जब स्वतंत्र भारत अपनी गरिमा, अपने पंख और अपनी मर्यादा बिसार तार-तार हो गया। मैं ने हालां कि लखनऊ नहीं छोड़ा। तमाम मुश्किलों, विपरीत स्थितियों और नौकरी में अपमान जीते-भुगतते भी लखनऊ में पडा़ हुआ हूं। अब तो रोज-रोज ही नौकरी करना सीखने की बात हो चली है। तो भी ओ अपने उस्ताद कह गए हैं न कि कौन जाए दिल्ली की गलियां छोड़ कर। तो यहां भी वही हो गया है कि कौन जाए लखनऊ की गलियां छोड़ कर ! सो पडा़ हुआ हूं लखनऊ में। हूं गोरखपुर का पर लखनऊ की गलियों ने मोह रखा है। जाने नहीं देतीं कभी, कहीं ये गलियां। बीच में एक बार थोड़े दिनों के लिए दिल्ली वापस गया भी पर लखनऊ की गलियों ने फिर पुकार लिया। वापस आ गया। पर प्रदीप जी ने रोजी रोटी के फेर में इलाहाबाद छोड़ दिया। जैसे कि तमाम मित्रों ने अपने-अपने शहर छोड़ दिए। और बैतलवा फिर डाल पर गुहराते हुए अपने शहर आते-जाते रहते हैं। घर-परिवार के फेर में। प्रदीप जी भी शहर दर शहर बदलते हुए अभी डेढ़ महीने पहले अलवर से भीलवाड़ा पहुंचे हैं। वह जब अलवर में थे तब भी बुलाते रहते थे कि आइए कभी घूम जाइए। पर प्रदीप जी के बार-बार इसरार पर भी नहीं जा पाया अलवर। अब की जब भीलवाडा़ जाने की बात हुई तो एक दिन शाम को प्रदीप जी का फ़ोन आया कि क्या आप भीलवाड़ा आ रहे हैं? मैं ने ज़रा हिचकते हुए बताया कि आ तो रहा हूं, पर आप को कैसे पता चला? तो वह बोले कि एक विज्ञप्ति आई है, उसी में बताया गया है कि आप मुख्य वक्ता हैं।
भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय |
भीलवाड़ा में दैनिक भास्कर के संपादक प्रदीप भटनागर और उन के सहयोगियों के साथ बातचीत करते दयानंद पांडेय |
बहरहाल अमिताभ जोशी जैसे लोग यहां पेड न्यूज़ का उद्योग लगा बैठे हैं। पता चला कि यह साक्षी उन का दूसरा उपक्रम है। इस के पहले भी वह यह काम कर चुके हैं नारायणी नाम की पत्रिका निकाल कर। बतौर लेखक, अन्वेषक और प्रधान संपादक बन कर कई स्वनाम-धन्य स्त्रियों को नारायणी के पृष्ठों पर अवतरित कर के।
कार्यक्रम के बाद शाम ६ बजे ही आमंत्रित लोगों का भोजन भी शुरु हो गया। पर मैं चला गया भास्कर दफ़्तर। प्रदीप भटनागर के सहयोगियों के साथ बैठ कर कोई दो घंटे विभिन्न मसलों पर बात हुई। प्रदीप भटनागर भी साथ थे। उन की केबिन में ही बात हुई। नवीन जोशी, जसराज ओझा, नरेंद्र जाट, ज्ञान प्रकाश, प्रदीप व्यास, भूपेंद्र सिंह, पवन, और तेज़ नारायन जैसे युवा साथियों के साथ। चिंता वहां के साथियों में भी यही थी कि पत्रकारिता के बिगड़ते स्वरुप को कैसे बचाया जाए? मैं ने उन्हें दो टूक बताया कि किसी भी अखबार में चाहे कितने भी समझौते क्यों न हों, सामाजिक सरोकार से जुड़े रह कर ही पत्रकारिता को साफ-सुथरा रख कर बचाया जा सकता है। सामाजिक सरोकार से जुड़े़ मसलों पर मालिकों, मैनेजमेंट, सत्ता या अफ़सरों आदि का कभी कोई दबाव आदि भी नहीं होता। समाज में इस की स्वीकार्यता भी होती है। अखबार और पत्रकारिता की विश्वसनीयता और साख भी बनती है। और फिर जब समाज बदलेगा तो राजनीति आदि भी बदलेगी ही, सिस्टम भी बदलेगा ही। भ्रष्टाचार, पेड न्यूज़, प्रभाष जोशी, अन्ना, रामदेव, एफ़.डी.आई., मंहगाई आदि पर भी बात हुई। भास्कर के साथियों से यह बतियाना सुखद लगा। अखबार छोड़ने की गहमागहमी थी, नहीं हम लोग और बैठते। कुछ साथियों ने दूसरे दिन भी बैठने की बात की। पर मुझे दूसरे दिन सुबह ही निकलना था अजमेर के लिए। इस लिए उन से क्षमा मांग ली।
दूसरे दिन नाश्ता कर के अजमेर के लिए चला।
पुष्कर में मनमोहक सरोवर पर |
ब्रह्मा-गायत्री मंदिर पर |
पुष्कर के एक और मंदिर पर |
शाम हो चली थी। एक और मंदिर दिखा। यहां भी भीड़ मिली। यहां भगवान जी को घुमाया जा रहा था। बाकायदा पुजारी लोग पालकी में ले कर घुमा रहे थे। आरती का दिया भी घूम रहा था। चढ़ावा लेने के लिए। आरती ली, फ़ोटो खिंची और चल दिए। बस स्टैंड के ठीक पहले एक जगह एक स्त्री घास बेचती मिली। वहीं कुछ गाय झुंड में घास खा रही थी। वह स्त्री आते-जाते लोगों से गुहार लगाती रहती थी कि गाय को घास खिलाते जाइए। पांच रुपए में, दस रुपए में। कुछ लोग उस स्त्री की सुन लेते थे, कुछ नहीं। इसी तरह पुष्कर झील के किनारे भी एक जगह गऊ घाट भी दिखा था। वहां शायद गऊ दान होता हो। मैं देखते हुए ही चला आया था। गया नहीं। वापसी के लिए बस स्टैंड पर आ गया। एक बस सवारियों से भर चुकी थी। दूसरी के इंतज़ार में बैठ गया। थोड़ी देर में दूसरी बस भी आ गई। और तुरंत भर गई। पर अभी चली भी नहीं थी कि पता चला कि पंक्चर हो गई। हार कर उस पहली ही बस में आना पड़ा।
जब अजमेर शहर करीब आ गया तो कंडक्टर से मैं ने कहा कि, ' दरगाह जाना है सो वहां जाने के लिए जो करीब का स्टापेज़ हो बता दीजिएगा उतरने के लिए।' उस ने बता दिया कि, 'आगरा गेट पर उतर जाइएगा।' मैं ने कहा कि, 'यह भी आप को बताना पड़ेगा कि आगरा गेट कहां है?' कंडक्टर शरीफ़ आदमी था। उस ने हामी भर दी। पर मेरी सीट के पीछे बैठे एक दो लोग मेरी पड़ताल में लग गए। यह कहते हुए कि, 'आ रहे हो पुष्कर से और जा रहे हो दरगाह?' उन्हों ने नाम पूछा। और बोले, 'पंडत हो कर भी दरगाह?' मैं ने कहा कि, 'हां।' फिर, 'कहां से आए हो?' पूछा। मैं ने बताया कि, 'लखनऊ से। ' तो वह बोले, 'तब तो तुम्हें जाना ही है। यह तुम्हारा दोष नहीं लखनऊ का है। पर क्यों पुष्कर का सारा पुण्य दरगाह में जा कर भस्म कर देना चाहते हो?' इस के बाद वह और उस का एक साथी नान स्टाप फ़ुल वाल्यूम में जितना और जैसा भी ऊल-जलूल बक सकते थे बकते रहे। पहले तो मैं ने टाला। पर जब ज़्यादा हो गया तो मैं कुछ प्रतिवाद करने के लिए मुंह खोल ही रहा था कि बगल में बैठे व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया और कुछ न बोलने का संकेत किया। मुझे भी लगा कि प्रतिवाद में बात बढ़ सकती है सो चुप लगा गया। बस में उस व्यक्ति की बात के समर्थन में कुछ और लोग भी बोलने लगे। अंट-शंट। आपत्तिजनक। खैर तभी आना सरोवर के पास से बस गुज़री तो मुझे गौहाटी में ब्रह्मपुत्र की याद आ गई। पर बात को बदलने की गरज़ से मैं ने उस लगातार बोलते जा रहे आदमी से पूछा कि, 'यह आना सरोवर है ना !'
'हां है तो।' वह ज़रा रुका और बोला, 'नहाओगे क्या?' वह ज़रा देर रुका और बोला, 'अरे शहर का सारा लीवर-सीवर यहीं गिरता है।' फिर वह एक श्मशान घाट की प्रशंसा में लग गया और कहने लगा कि कुछ मांगने जाना ही है तो वहां जाओ। कोई निराश नहीं लौटता। आदि-आदि। और वह फिर मुझे समझाने में लग गया कि, 'पंडत पुष्कर का पुण्य दरगाह में जा कर मत नष्ट करो ।' कि तभी कंडक्टर ने बताया कि, 'आगरा गेट आने वाला है, गेट पर चले जाइए।'
मैं आगरा गेट पर उतर गया।
अजमेर में ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर |
'जी जनाब !' कह कर वह भी शुरु हो गए। नान स्टाप। वहा की बदइंतज़ामी पर, सड़कों में जगह-जगह गड्ढे दिखाते हुए। गंदगी दिखाते हुए। कहने लगे कि, 'लूट मचा रखी है !'
'किस ने?' मैं ने पूछा।
'अफ़सरान ने !' वह बोले, 'कलक्टर से लगायत सब के सब। नहीं कितना पैसा गवर्नमेंट देती है, बाहर से फ़ंड आता है, पर सब लूट कर खा जाते हैं यह सब ! आप जाइए पुष्कर ! फिर देखिए कि वहां क्या चमाचम सड़कें है। क्या इंतजामात हैं, सफाई है। पर यहां तो अंधेरगर्दी है लूट है।' मौलाना जैसे फटे पड़ रहे थे। उन की शिकायतों का कोई अंत नहीं था।
थोडी देर बाद मैं ने बात बदलने के लिहाज़ से कहा कि, 'यहां सवारी नहीं आती?'
'बादशाह अकबर यहां पैदल आए थे !' वह बड़े नाज़ से बोले, 'चलिए पैदल ! हर्ज़ क्या है?' और वह फिर शुरु हो गए। जल्दी ही हम दरगाह के मुख्य दरवाज़े पर आ गए। यहां भी काशी में विश्वनाथ मंदिर की तरह और पुष्कर में ब्रह्मा-गायत्री मंदिर की तरह जूते-चप्पल रखने के लिए फूल, प्रसाद, चढ़ाने के लिए चद्दर आदि लेना अनिवार्य था। लेकिन चढ़ाने के लिए चद्दर, अगरबत्ती और प्रसाद मैं पहले ही ले चुका था। अब यहां सिर्फ़ फूल लेना बाकी था। खैर मुख्य दरवाज़े के बगल में जूता-चप्पल जमा करने की एक जगह थी। पांच रुपए जोड़ा की दर से। मैं ने वहीं जमा किया। अंदर भी जा कर सब सामान मिल रहे थे। तो मैं ने फिर एक टोकरी फूल लिया। और चला मत्था टेकने ख्वाज़ा साहब की दर पर। पर भीतर जाते ही गुमान यहां भी टूटा। पंडे यहां भी थे, खादिम के रुप में। रसीद कटवाने के लिए फ़रेब और दादागिरी यहां भी थी। पैसे चढ़ाने की पुकार यहां भी थी और लाज़िम तौर पर। चिल्ला-चिल्ला कर। एक खादिम तो बाकायदा चिल्लाते हुए कह रहे थे गल्ले का पैसा यहां जमा करो। और हाथ से चादर, फूल सब झपट कर खुद पीछे की तरफ़ फेंक देते थे। और लोगों को भेड़-बकरी की मानिंद हांक देते थे कि, 'उधर चलो !' ज़बरदस्ती। हमारे लखनऊ में खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर तो ऐसा कुछ भी नहीं होता। भीड़ वहां भी खूब होती है। खैर यहां मैं ने ऐतराज़ किया और कहा भी उन से कि, ' पुलिस वालों जैसा सुलूक तो मत करिए।' और ज़रा तेज़ आवाज़ में ऐतराज़ दर्ज़ करवाया। तो वह थोडे़ नरम पड़े। और जब मैं ने कहा कि, 'देखिए उस तरफ़ तो लोग खुद फूल और चादर चढ़ा रहे हैं। और यहां आप ने हम जैसों को खुद फूल और चादर चढ़ाने नहीं दिया।' तो वह हिकारत से बोले, 'ध्यान से देखो, वह भी खादिम लोग ही हैं।' कह कर वह फिर भेंड़-बकरी की तरह सब को हांकने में लग गए। भीड़ हालां कि ज़्यादा नहीं थी आफ़ सीज़न के चलते। पर कम भी नहीं थी। कोई आधा घंटा से ज़्यादा लग गया दो कदम की दूरी चल कर मत्था टेकने में। वी. आई.पी. ट्रीटमेंट होता है हर जगह । हर मंदिर, हर दरगाह में। यहां भी था। उसी दिन पूर्व मंत्री और भाजपा नेता शाहनवाज़ भी चादर चढ़ाने गए थे। और भी बहुतों की फ़ोटो देखी थी मैं ने वहां चादर चढा़ते हुए। पर हमारी चादर और फूल चढाई नहीं गई बस पीछे फेंक दी गई खादिम के द्वारा। और सब की ही तरह। पर मत्था टेकने और सिर झुकाने का सुख मिला, सवाब मिला, इसी से संतोष किया। बाहर आ कर फ़ोटो भी खिंची। फ़ोटो खींचने पर किसी को ऐतराज़ भी नहीं हुआ। बस एक आदमी ने सलाह दी और ज़रा डपट कर दी कि पीठ ख्वाज़ा साहब की तरफ़ कर के खडे़ हो कर फ़ोटो मत खिंचवाइए। यह खादिम नहीं, हमारी तरह श्रद्धालु थे। तो भी मुझे हंसी आई और वह शेर याद आ गया कि:
जाहिद शराब पीने दे मस्ज़िद में बैठ कर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो !
पूरे परिसर में खूब रोशनी और चहल-पहल है। लोग-बाग भी खूब हैं। औरत-मर्द, बूढे-बच्चे सभी। श्रद्धा में नत और तर-बतर। कोई नमाज़ पढ़ता, कोई आराम करता और परिवारीजनों से बतियाता हुआ। हाथ पैर धोता सुस्ताता हुआरास्ते में एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर लौट रहा हूं बरास्ता दिल्ली गेट, आगरा गेट डाकबंगला। आ कर सो जाता हूं। सवाब और सुख से भरा-भरा। सुबह ११ बजे लखनऊ वापसी की ट्रेन है। गरीब-नवाज़ है। कूपे में अजमेर से अकेला हूं। अजमेर छूट रहा है। जयपुर से बाटनी के प्रोफ़ेसर स्वर्णकार श्रीमती स्वर्णकार के साथ आ गए हैं हैं। इधर-उधर की बातचीत है। बबूल की चुभन की उन से बात करता हूं। वह कहते हैं कि हां बहुत सारा डेज़र्ट है तो। बात जयपुर के गुलाबीपन की होती है। बात ही बात में वह बताते हैं कि राजस्थान के बाकी हिस्से तो कंगाल हैं। खास कर मेवाड़ वगैरह। लड़-भिंड़ कर खजाना खाली कर दिया। वह जैसे तंज़ पर आ जाते हैं और कहते हैं कि पर जयपुर के राजा लोग लड़ने-भिड़ने में कभी यकीन नहीं किए। चाहे जय सिंह रहे हों या मान सिंह। मुगल पीरियड रहा हो या ब्रिटिश पीरियड। सो खज़ाना हमेशा भरा रहा। वह हंसते हैं। उन के बच्चे सेटिल्ड हो गए हैं और वह हरिद्वार जा रहे हैं। शाम को हरकी पैड़ी पर आरती का आनंद लेने की योजना बना रहे हैं। राजस्थान छूट रहा है धीरे-धीरे। हरियाणा आ रहा है। हरियाणा छूट रहा है। दिल्ली आ रहा है। प्रोफ़ेसर स्वर्णकार को दिल्ली में ट्रेन बदलनी है। वह उतर जाते हैं। एक जैन साहब आ जाते हैं। व्यापारी हैं। खाना हम दोनों खा रहे हैं। वह घर का लाया खाना खा रहे हैं। बता रहे हैं कि बाहर का खाना नहीं खाते वह। लहसुन प्याज वाली दिक्कत है। अमरीका तक में वह महीने भर रहे पर बचा गए। देशी घी वाला खाना है, बताना नहीं भूलते वह। अब दिल्ली छूट रही है। जाते वक्त ट्रेन आगरा के रास्ते राजस्थान ले गई थी, भरतपुर, बांदीकुई वगैरह होती हुई जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा। अब की राजस्थान छूटा अलवर होते हुए, हरियाणा, दिल्ली के रास्ते। सोते हुए। गए थे जागते हुए। भरतपुर में तब नींद टूटी थी। अब की वापसी में शाहजहांपुर में टूटी है। कुछ परिवार हैं जो अजमेर से लौटे हैं सबाब ले कर। उतरते वक्त खामोशी के बजाय हलचल मचाते हुए उतर रहे हैं। भोर के पौने तीन बजे हैं। लोग उतर रहे हैं। सोए हुए बच्चों और सामान को हाथ में लिए हुए। सवाब का सुकुन चेहरे पर है ज़रुर पर बोल रहे हैं कि अपना मुल्क ही अपना मुल्क होता है। अपने मुल्क की बात ही कुछ और है। तो क्या अजमेर उन का दूसरा मुल्क था? क्या रघुवीर सहाय इसी लिए, इसी तलाश और तनाव में लिख गए हैं दिल्ली मेरा परदेस ! याद आता है कि साक्षी के कार्यक्रम में रोमिला ने स्त्रियों के संदर्भ में एक वाकया सुनाया था। कि एक कुम्हार घड़ा बना रहा था। घडा़ बनाते-बनाते वह किन्हीं खयालों में खो गया। कि तभी मिट्टी बोली कुम्हार-कुम्हार यह क्या कर रहे हो? घड़े की जगह मुझे सुराही क्यों बना रहे हो? कुम्हार ने कहा कि माफ़ करना मेरा विचार बदल गया। मिट्टी तकलीफ़ से भर कर बोली तुम्हारा तो सिर्फ़ विचार बदला, पर मेरी तो दुनिया बदल गई।
तो यहां अजमेर से शाहजहांपुर की यात्रा में इन लोगों का मुल्क बदल गया। अपने मुल्क आने की खुशी में वह लोग भूल गए कि हमारे जैसे लोगों की नींद भी टूट गई है। बशीर बद्र याद आ गए हैं :
वही ताज है, वही तख़्त है, वही ज़हर है, वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है, ये वही बुतों का निज़ाम है
वापस जा कर सोने की कोशिश करता हूं। सोने में ट्रेन कहीं लखनऊ से आगे न निकल जाए, यह सोच कर सो नहीं पाता हूं। पर कब सो गया पता नहीं चला। आगे की यात्रा करने वाले लोग आ गए हैं। नींद उन के आने से टूट गई है। सुबह हो गई है। लखनऊ आ गया है। गरीब-नवाज़ छूट रही है। आमीन !
बहुत enjoy किया आपका यात्रा vritant .हम रहें कहीं भी,जायें कहीं भी खट्टे मीठे अनुभवों का मिश्रण ही मिलता है और फ़िर हर नयी यात्रा अन्दर बाहर कुछ न कुछ जोड़ ही जाती है.
ReplyDeleteDetailed विवरण और समीक्षात्मक टिप्पणियों ने vritaant को रोचक तो बनाया ही है उसे गम्भीरता भी दी है.
नौ साल पहले अजमेर गया था. पहले ख्वाजा ग़रीब नवाज़ कि दरगाह पर और उसके बाद पुष्कर. ब्रह्मा जी के दरबार में हाजिरी लगाकर जो सुख मिला था उसे शब्दों में नहीं बता सकता. वहां जाकर यह गौरव हासिल हुआ था कि दुनिया के इकलौते ब्रह्मा जी के मंदिर में मेरी भी हाजिरी लग गई है. आपने वह यात्रा फिर से ताज़ा कर दी.
ReplyDeleteशबाहत हुसैन विजेता
पढ कर अच्छा लगा, मैरे एक गुस्ताखी की है, आपके दरगाह व पुष्कर के रिपोर्ताज के अंश अपने पोर्टल पर दिए हैं, जरा देखिए
ReplyDeletehttp://ajmernama.com/chaupal/18838
Tumhare yatra vrittant ka jawab nahin ek hi saans mein lagatar padhta chala gaya tumhe badhai aur sunder bhavishya ki shubhkaamnayen
ReplyDeleteअभी अभी आपका यात्रा वृतान्त पढ़ा उदयपुर की बहुत याद आई.अजमेर, जयपुर, भीलवारा, मैं बहुत गया हू अगर अप उन लोगों से मेरे बारे में पूछते तो शायद वे लोग बताते खैर अपने घटी घटनाओं का सजीव चित्रण किया है अप कलम के धनी हें पाठकों को बांध लेते हें धार्मिक स्थलों पर गुंडागर्दी आनेवालों से दुर्व्यव्हार मारपीट आम बात है कला और साहित्य की खोल में चलने वाले खेल का आपने पर्दाफास किया है कुल मिला कर आपकी यात्रा ठीकठाक रही ऐसा मुझे लगता है कभी मौका मिला तो हम साथ चलेंगे ---उदयभान मिश्र
ReplyDeleteअद्भुत संस्मरण! पुष्कर और अजमेर के किस्से अलग-अलग लिखते तो अच्छा रहता। :)
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत संस्मरण ! जिसमे लोगों व जगहों के बारे में आपके दिल की साफगोई भी जाहिर होती है l इसे पढ़कर लग रहा है जैसे मैं भी भारत दर्शन कर आई l पढ़ते हुये राजस्थान से लखनऊ तक की यात्रा के बीच उन तमाम जगहों को मन की आँखें देखती रहीं l पुष्कर के सरोवर के बारे में पढ़ती थी बचपन में और आज फिर उसका उल्लेख यहाँ पर और उसके साथ मंदिर, दरगाह, बाजार व लोगों की भीड़ के विस्तृत वर्णन के बीच में कल्पना में मैं भी घूमती रही l लोगों व उन जगहों की वास्तविकता का डिटेल में वर्णन पढ़कर उनका अंदाजा होता है l ऊपर से हर जगह यात्रा में आप-बीती को खुलकर बयान करना l इस सबने इस संस्मरण में जैसे चार चाँद लगा दिये l आपके इस लेखन पर आपको बधाई l
ReplyDeleteप्रिय भाई, मैं भी शकुन्तलाजी के मौखिक आमन्त्रण पर ही गया था,जिनसे मेरी पहली भेंट कुछ दिन पहले पिंडवाड़ा (सिरोही) में हुई थी। वह अमिताभ नाम का प्राणी बहुत मायावी है। बाहरी लोगों को फँसाने के लिए वह शकुन्तला जी का ही इस्तेमाल करता है। इस बार उसने अमिताभ मीडिया सेंटर का उद्घाटन कराया था। अग्रवाल धर्मशाला के खुले सभागार में। बाकी सारी व्यवस्था वैसी ही दीन-हीन थी। तीन दिन पहले मुझे सूचना मिली थी, इसलिए रेल टिकट का इन्तजाम वे नहीं कर पाये। साथ में दो और पत्रकारों को ले आने का अग्रह था; सो सुरेश ऋतुपर्ण और टिल्लन रिछारिया से चिरौरी की और वे मान गये। तीनो नहीं जानते थे कि उस डैंजर ज़ोन में क्या होनेवाला है। वहाँ बस स्टैंड के पास एक साधारण होटल में ठहराये गये। उसके घर पर जो पूड़ी-सब्जी का लंच मिला, उसीसे हम स्तर समझ गये। कार्यक्रम के बाद बड़ी मुश्किल से टैक्सी का खर्चा उससे निकाल पाया।शकुन्तला जी ने हाथ खड़े कर दिये थे। रास्ते का सारा खर्च मुझे अपने जेब से निकालना पड़ा। जयपुर में भतीजी रहती है। उसीके यहाँ दानापानी लिखा था। मूड इतना खराब हो गया था कि पुष्कर जाने का मन ही नहीं हुआ। सो सीधे दिल्ली लौट आया,सिर्फ़ मनोरम सहयात्रा का सुख लेकर।
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