यह जो कि नहीं होना चाहिए था, हो गया है। एक जनांदोलन के इस तरह अनायास और अचानक हुए गर्भपात की उम्मीद तो उस के दुश्मनों को भी नहीं थी। इस जनांदोलन के दुश्मन कई एक थे। जैसे यू.पी.ए. सरकार मुख्य दुश्मन थी पर सामाजिक न्याय का गान गाने वाले भी इस आंदोलन को फूटी आंख नहीं देख रहे थे। उन को बहुत डर था कि कहीं यह आंदोलन खुदा न खास्ता सफल हो गया तो उन के आरक्षण की मलाई भी यह आंदोलन बाद के दिनों में न उतार ले। शुरु के दिनों में कुछ दलित उभार की मलाई खाने वाले लोग हुंकार भर कर पूछ ही रहे थे कि इस अन्ना आंदोलन में दलित कहां है? अन्ना के खिलाफ़ छिटपुट प्रदर्शन भी किया इन लोगों ने। फिर आरोप ही लगा दिया कि यह तो सवर्णों का आंदोलन है। इस में वही लोग शामिल हैं जो कभी आरक्षण के विरोध में आंदोलन कर रहे थे।
एक जनांदोलन जो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था, ऐसे बेहूदा आरोपों का कोई प्रतिकार ही नहीं कर रहा था। आरक्षण की मलाई चाट रही पिछडी़ जातियों के मठाधीश लोग भी मुखर हुए और बताने लगे कि यह तो कारपोरेट सेक्टर द्वारा प्रायोजित आंदोलन है। न सिर्फ़ बताने लगे बल्कि प्रमाणित भी करने लगे। एक पार्टी है भारतीय जनता पार्टी। इस का विरोध करने के नाम पर लोग बड़ी जल्दी एकजुट हो जाते हैं। तो कांग्रेस ने अन्ना के पीछे भाजपा का नाम जोड़ दिया। बहुत सफाई देते रहे अन्ना और उन के साथी कि उन लोगों का भाजपा से कुछ लेना-देना नहीं। और अब वह भाजपा भी अन्ना से खतरा महसूस करते हुई न सिर्फ़ किनारे हो गई, अन्ना का विरोध भी करने लगी। वास्तव में इस जनांदोलन से सभी पारंपरिक लोगों को खतरा हो गया। खास कर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील सभी राजनीतिक पार्टियों, क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या ये, क्या वे । और आरक्षण की मलाई चाट रहे सामाजिक न्याय के गुण-गान गाने वालों को अन्ना क्या कोई भी आंदोलन रास नहीं आ सकता। आलम यह है कि अन्ना आंदोलन को कुचलने के लिए लगभग सभी ने लाक्षागृह बनाए। छोड़ा किसी ने नहीं। शुरुवात रामदेव ने की। महत्वोन्माद की बीमारी के मारे रामदेव को लगा कि उन की दुकान तो खुलने के पहले ही बंद होने की राह पर आ गई। सो वह प्रतिद्वंद्विता की आंच ले कर खड़े हो गए। रहा भी न जाए और सहा भी न जाए के अंदाज़ में। तो अन्ना आंदोलन की जड़ खोद कर पहला मट्ठा रामदेव ने ही डाला। पर जाने क्यों यह अन्ना और उन के साथियों को दिखा नहीं। और वह रामदेव से दूरी बना-बना कर ही सही गले भी मिलते रहे। अन्ना और उन की टीम से पहली गलती यही हुई। और देखिए न कि इस आंदोलन के ठीक गर्भपात के पहले भी रामदेव आए और जैसे अंतिम धक्का देते हुए बोल गए कि सवा करोड़ से कम की भीड़ पर कोई आंदोलन कैसे हो सकता है? उन से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि दिल्ली में या देश में ही सही वह कौन सी जगह है जहां एक साथ सवा करोड़ लोग इकट्ठा हो सकते हैं। हालत यह है कि दस लाख लोग भी एक साथ देश में कहीं इकट्ठा हो सकें ऐसी कोई जगह नहीं है। एक लखनऊ में मायावती के बनवाए कांशीराम स्मारक और रमादेवी पार्क हैं जिस में लगभग पांच लाख लोग इकट्ठा हो सकते हैं। और मायावती ही इतनी भीड़ इकट्ठी भी कर सकती हैं। अभी तक तो और कोई यह जगह भरना तो दूर उसे भरने की सोच भी नहीं पाया। खैर, ऐसी और कोई जगह किसी की जानकारी में हो तो कृपया देश को बताए। लफ़्फ़ाज़ी और लंतरानी हांकना और बात है। ज़मीनी हकीकत और बात है।
अन्ना आंदोलन की दूसरी बडी़ कमज़ोरी उन के साथियों का बड़बोलापन था। जनता की थोडी़ सी भीड़ देख कर मदमस्त हो गए यह लोग और अपने को संभाल नहीं पाए। जिस का जो मन किया जिस-तिस मुद्दे पर बेलगाम बोलता गया। कशमीर से लगायत लोकपाल तक। देश की जो सब से बड़ी ताकत है संसदीय व्यवस्था, उस पर भी चोट करने से बाज़ नहीं आए यह लोग। यह लोग यह भूल गए कि यह संसदीय व्यवस्था और यह लोकतंत्र ही है जो आप को यह सब करने और बोलने दे रही है। कालिदास बन गए और उसी डाल को काटने में लीन हो गए। दूसरे यह लोग भूल गए कि कोई भी जनांदोलन हथेली पर सरसो उगाना नहीं है। यह लगभग एक तरह की किसानी है। खेती-बारी है। बरसों लग जाते हैं मिट्टी बनाने में। खाद-पानी देते-देते मिट्टी बनती है। और फिर इस में भी यह पपीते की खेती भी नहीं है कि लगाते ही 6 महीने में फल मिलने लगता है पर 6 महीने ही में पपीता खत्म भी हो जाता है। जनांदोलन जैसे कटहल की खेती है। कि लगाती एक पीढ़ी है, खाती आगे की पीढ़ियां हैं। गांधी के पहले भी तमाम-तमाम लोगों ने आज़ादी की लड़ाई लडी थी। और फिर गांधी भी कोई दो एक दिन में ही कामयाब नहीं हो गए थे। चंपारण के भी हीरो वह कोई एक-दो दिन में ही नहीं हो गए थे। जालियावाला बाग से लगायत दांडीयात्रा तक बहुत पानी बहा। लोगों ने लाठियां जेल और ज़ुल्म सहे। फिर कहीं साबरमती के संत के नाम आज़ादी दिलवाने का तमगा लगा। दिल्ली फिर भी तुरंत नहीं मिली थी। जे. पी. को भी इंदिरा गांधी की तानाशाही से लड़ने में बहुत समय लगा था। वी. पी. सिंह को भी बोफ़ोर्स को आंदोलन ब्ना कर, जनमोर्चा और फिर राजीव सरकार के पतन तक की लडा़ई में समय लगा था। पका-पकाया नतीज़ा किसी भी आंदोलन को नहीं मिला, कभी भी, कहीं भी। पर यह अन्ना और उन की टीम जैसे सब कुछ तुरंत पा लेना चाहती थी। भ्रष्टाचार से लडा़ई न हो गोया फ़ास्ट फ़ूड हो। मैगी या बर्गर हो जो फटाफट तैयार हो जाए। तिस में कोढ़ में खाज का काम किया इलेक्ट्रानिक मीडिया ने। भीड़ और, कैंडिल मार्च के फ़ैशन परेड दिखा-दिखा कर। हद ही हो गई थी। हां, यह सही है कि इस अन्ना आंदोलन में किसान और मज़दूर की भागीदारी उस तरह नहीं थी, जिस तरह होनी चाहिए थी। और इसी लिए यह आंदोलन शुरु ही से गगन विहारी आंदोलन बन गया था। चैनलों के कंधे पर सवार यह आंदोलन ज़मीनी आंदोलन नहीं बन पाया। अन्ना यहीं छले गए। वह अपनी थाली और मंदिर में रहने को अपनी थाती बताते रहे पर उन के साथी उड़ते रहे मीडिया मैनेजमेंट के डैनों पर। वैसे ही जैसे राहुल की जनसभाएं या किसी दलित के घर जाना-खाना इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा होती हैं। भट्टा पारसौल से लगायत मुंबई से स्लीपर क्लास की यात्रा तक। तो जो नतीज़ा राहुल को चुनावों में मिला लगभग वही नतीज़ा अन्ना आंदोलन कहिए, जनांदोलन कहिए उस को भी वही नतीज़ा मिला। यह आंदोलन पब्लिसिटी तो पा गया पर ज़मीन नसीब नहीं हुई इसे। आंदोलन के कर्ता-धर्ता यह भूल गए कि गांवों और कस्बों में बिजली ही नहीं आती जो लोग टी.वी. देख कर आंदोलित हों। दूसरे अगर जहां कहीं लोग-बाग टी.वी. थोडा़ बहुत देख भी लेते हैं, वहां दूरदर्शन देखा जाता है, ये खबरिया चैनल नहीं जो उन्हें शेर बनाते फिर रहे थे। तो जनता से कटा यह जनांदोलन खबरिया चैनलों के कंधे पर चलता भी तो कितने दिन चलता भला? वह भी दिल्ली और मुंबई के ज़ोर पर। जहां के लोग जो बगल में किसी के मर जाने पर भी मुंह फेर लेते हैं। लाश सड़ जाती है, बदबू मारने लगती है तो पुलिस बुलाते हैं। उस दिल्ली और मुंबई के लोगों के ज़ोर पर? तिस पर तमन्ना 'मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ' की !
अन्ना और उन की वह टीम यह भी भूल गई कि कांग्रेस नाम का मगरमच्छ उन्हें लीलने को एक नहीं कई मोर्चों पर मुंह बाए खड़ा है। और जो वह एक शेर है कि, 'मैं सच भी बोलूंगा तो हार जाऊंगा/ वह झूठ भी बोलेगा तो लाजवाब कर देगा।' कांग्रेस इस शेर के अमल में लाजवाब है। कपिल सिब्बल से लगायत, चिदंबरम, सलमान खुर्शीद जैसे वकीलों की कुटिल फ़ौज तो थी ही सोनिया जैसी मदारी भी थी जो बडे़-बडे़ लोगों को अपनी डिप्लोमेसी में नचा कर शीशे में उतार देती है। जो एक साथ मुलायम और मायावती को बिठा लेती है। मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी जैसों को अपना सेवक बना कर एक इशारे पर नचा लेती है। आडवाणी और भाजपा जैसी घाघ पार्टी को भी थूक कर चटवा लेती है और पूरी शालीनता से। बडे़-बडे़ लालू, करुणानिधि उस के यहां पानी भरते हैं। उस सोनिया को हंसते हुए अन्ना कहते थे कि उस के बारे में क्या बोलें, औरत है, बीमार है। बताइए यह भी कोई बात हुई? दिग्विजय सिंह जैसों के कुतर्क का तोड़ भी नहीं था, अन्ना और उन के लोगों के पास। और चिंगारी जो शोला बन सकती थी, फ़ुस्स हो गई। अनुभवहीनता और जल्दबाज़ी में उस आंदोलन का गर्भपात हो गया।
अफ़सोस इस बात का नहीं है कि यह अन्ना आंदोलन का गर्भपात हो गया। अफ़सोस इस बात का है कि अब कोई किसी आंदोलन की क्या फिर कभी सोचेगा? इस नई बाज़ार व्यवस्था ने आदमी को अकेला कर दिया है। उस के पास अपने ही लिए टाइम नहीं है, अपने परिजनों के लिए टाइम नहीं है, तो आंदोलन तो उस की कल्पना में भी नहीं है। सीमा आज़ाद जैसों को पुलिस जब चाहती है बरसों के लिए जेल में ठूंस देती है। और कोई आहट तक नहीं होती सडक पर। लोग ड्राइंगरूम में या फ़ेसबुक पर चर्चा कर के सो जाते हैं। कोई आंदोलन नहीं होता। राजनीतिज्ञों, अफ़सरों का अतिशय भ्रष्टाचार, कारपोरेट सेक्टर की मनमानियां, जल, जंगल, ज़मीन की लडा़ई ,बिल्डरों का खेती की ज़मीनों का हड़पते जाना, आकाश छूती मंहगाई यह सब अब किसी को क्यों नहीं आंदोलित करता? क्यों लोग सुन्न हो चुके हैं? ऐसे में अन्ना आंदोलन का खड़ा होना एक बड़ी घटना थी। पर उस का इस तरह अचानक गर्भपात हो जाना उस से भी बडी घटना है और अफ़सोसनाक घटना है।
अन्ना और उन की उस टीम ने लगता है कि बीते आंदोलनों और आज के हालात पर कभी बैठ कर गौर नहीं किया। उपवास बुद्ध और गांधी पैदा करता है, ब्लैकमेलर नहीं। अन्ना टीम ने उपवास की ताकत से सरकार को झुकाने यानी ब्लैकमेल करने की आदत बना ली। और भूल गए कि सत्ता वह भले राम की ही क्यों न हो कुचक्र ही रचती है। किसी भी सत्ता से लड़ाई सत्य के हथियारों से ही लडी़ जा सकती है, उपवास भी उस का एक रास्ता है। पर जब आप उपवास को तोप की तरह इस्तेमाल करने लगेंगे तो वह अपनी उपयोगिता खो देगा। नमक से नमक का ही काम लीजिए, चीनी का नहीं। या फिर चीनी से भी नमक का काम मत लीजिए। अन्ना और उन के साथियों ने दुर्भाग्य से यही किया। और पता नहीं किस 'होशियार' ने उन्हें राजनीतिक विकल्प देने का सपना दिखा दिया। और यह लोग उस सपने पर समूचे आंदोलन की बलि चढा़ बैठे। भूल गए यह लोग कि कोई भी समाज बदलता है जनांदोलन से, राजनीतिक आंदोलन से नहीं। राजनीतिक आंदोलन से सत्ता पाई जा सकती है, समाज नहीं बदला जा सकता। अभी ज़रुरत समाज को बदलने की थी। समाज बदलेगा तभी राजनीति बदलेगी। अभी तो सच यही है कि इस समाज में कोई ईमानदार आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता, जीतना तो बहुत दूर की कौडी़ है। समाज से सिर्फ़ भ्रष्टाचार ही नहीं सांप्रदायिकता और जाति-पाति, छुआछूत आदि भी हटाना होगा तभी एक बेहतर राजनीतिक विकल्प खड़ा हो पाएगा। अभी तो जितनी गंदी कांग्रेस है, उतनी ही गंदी भाजपा भी है, उतनी ही गंदी वामपंथी पार्टियां हैं, उतनी ही गंदी सपा-बसपा टाइप क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं। जैसे देश की सभी नदियां दूषित-प्रदूषित हो कर सिर्फ़ सीवर का पानी और फ़ैक्ट्रियों का कचरा ढोने को अभिशप्त हो चली हैं, ठीक वैसे ही सभी के सभी राजनीतिक दल भी उद्योग जगत और कारपोरेट जगत के पैसे और जातियों के अंगार की सवारी पर सवार हैं। आप आएंगे अभी की राजनीति में तो शेर होते हुए भी आप को भी सियारों की शादी में बैंड बजाना ही पड़ेगा। फिर व्यवस्था क्या बदलेंगे, आप खुद बदल कर धूर्त हो जाएंगे। अब से चेतिए अन्ना जी। जानिए कि आंदोलन या जनांदोलन कोई जादू की छड़ी नहीं है। एक सतत प्रक्रिया है बदलाव की। सो शुरुआत समाज बदलने से कीजिए। देश और समाज को बदलने में मराठियों का कभी बड़ा योगदान रहा है। शिवा जी, गोपाल कृष्ण गोखले, डा. अंबेडकर से लगायत बाबा राघवदास से नाना जी देशमुख तक एक लंबी कड़ी है। आप में भी वह तत्व दिखते हैं। पैसा और सिर्फ़ पैसा के पीछे भागने वाले इस समाज को पहले बदलना ज़रुरी है। फिर सत्ता और पैसा के पीछे भागने वाली राजनीति बदलने की सोचिए। बाहुबलियों और भ्रष्टचारियो से निपटने की सोचिए। राजनीति, कारपोरेट और मीडिया के गठजोड़ को तोड़ना मुश्किल ज़रुर है, पर ज़रुरी भी है। सो खबरिया चैनलों और अपने दिखावे के साथियों से परहेज़ करिए। बात फिर से शुरु कीजिए। अब की देश के किसी भी गांव से शुरु कीजिए। किसी शहर से नहीं। आहिस्ता-आहिस्ता बात बनेगी और ज़रुर बनेगी। हां, आहिस्ता-आहिस्ता। आंदोलन ऐसे ही शुरु होते हैं। रामदेव की तरह दुकान लगा कर नहीं। अब देखिए न कि देखा-देखी में आप का आंदोलन अभी और बिलकुल अभी तो रामदेव की दुकान के काम आ गया है। आप की सारी मेहनत और तपस्या खाद बन गई रामदेव की दुकान के लिए। कोई बात नहीं। अभी कुछ दिन आराम और चिंतन के बाद उठिए।इस लिए भी कि गरीबों को रोटी नहीं, मोबाइल देने वाली इस राजनीतिक व्यवस्था का बदलना अब बहुत ज़रुरी हो गया है। तब तक के लिए नागार्जुन की यह एक कविता बांचिए :
भूल जाओ पुराने सपने
सियासत में
न अड़ाओ
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, महाराज,
राजनीतिक फतवेवाजी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह जाए, तो-
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर
आहिस्ते से गुन-गुनाना :
‘‘बैस्नो जन तो तेणे कहिए
जे पीर पराई जाणे रे’’
देखना, 2 अक्टूबर के
दिनों में उधर मत झाँकना
-जी, हाँ, महाराज !
2 अक्टूबर वाले सप्ताह में
राजघाट भूलकर भी न जाना
उन दिनों तो वहाँ
तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है
कुर्ता भी फट सकता है
हां, बाबा, अर्जुन नागा !
आमीन !
एक जनांदोलन जो भ्रष्टाचार के खिलाफ़ था, ऐसे बेहूदा आरोपों का कोई प्रतिकार ही नहीं कर रहा था। आरक्षण की मलाई चाट रही पिछडी़ जातियों के मठाधीश लोग भी मुखर हुए और बताने लगे कि यह तो कारपोरेट सेक्टर द्वारा प्रायोजित आंदोलन है। न सिर्फ़ बताने लगे बल्कि प्रमाणित भी करने लगे। एक पार्टी है भारतीय जनता पार्टी। इस का विरोध करने के नाम पर लोग बड़ी जल्दी एकजुट हो जाते हैं। तो कांग्रेस ने अन्ना के पीछे भाजपा का नाम जोड़ दिया। बहुत सफाई देते रहे अन्ना और उन के साथी कि उन लोगों का भाजपा से कुछ लेना-देना नहीं। और अब वह भाजपा भी अन्ना से खतरा महसूस करते हुई न सिर्फ़ किनारे हो गई, अन्ना का विरोध भी करने लगी। वास्तव में इस जनांदोलन से सभी पारंपरिक लोगों को खतरा हो गया। खास कर प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में तब्दील सभी राजनीतिक पार्टियों, क्या कांग्रेस, क्या भाजपा, क्या ये, क्या वे । और आरक्षण की मलाई चाट रहे सामाजिक न्याय के गुण-गान गाने वालों को अन्ना क्या कोई भी आंदोलन रास नहीं आ सकता। आलम यह है कि अन्ना आंदोलन को कुचलने के लिए लगभग सभी ने लाक्षागृह बनाए। छोड़ा किसी ने नहीं। शुरुवात रामदेव ने की। महत्वोन्माद की बीमारी के मारे रामदेव को लगा कि उन की दुकान तो खुलने के पहले ही बंद होने की राह पर आ गई। सो वह प्रतिद्वंद्विता की आंच ले कर खड़े हो गए। रहा भी न जाए और सहा भी न जाए के अंदाज़ में। तो अन्ना आंदोलन की जड़ खोद कर पहला मट्ठा रामदेव ने ही डाला। पर जाने क्यों यह अन्ना और उन के साथियों को दिखा नहीं। और वह रामदेव से दूरी बना-बना कर ही सही गले भी मिलते रहे। अन्ना और उन की टीम से पहली गलती यही हुई। और देखिए न कि इस आंदोलन के ठीक गर्भपात के पहले भी रामदेव आए और जैसे अंतिम धक्का देते हुए बोल गए कि सवा करोड़ से कम की भीड़ पर कोई आंदोलन कैसे हो सकता है? उन से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि दिल्ली में या देश में ही सही वह कौन सी जगह है जहां एक साथ सवा करोड़ लोग इकट्ठा हो सकते हैं। हालत यह है कि दस लाख लोग भी एक साथ देश में कहीं इकट्ठा हो सकें ऐसी कोई जगह नहीं है। एक लखनऊ में मायावती के बनवाए कांशीराम स्मारक और रमादेवी पार्क हैं जिस में लगभग पांच लाख लोग इकट्ठा हो सकते हैं। और मायावती ही इतनी भीड़ इकट्ठी भी कर सकती हैं। अभी तक तो और कोई यह जगह भरना तो दूर उसे भरने की सोच भी नहीं पाया। खैर, ऐसी और कोई जगह किसी की जानकारी में हो तो कृपया देश को बताए। लफ़्फ़ाज़ी और लंतरानी हांकना और बात है। ज़मीनी हकीकत और बात है।
अन्ना आंदोलन की दूसरी बडी़ कमज़ोरी उन के साथियों का बड़बोलापन था। जनता की थोडी़ सी भीड़ देख कर मदमस्त हो गए यह लोग और अपने को संभाल नहीं पाए। जिस का जो मन किया जिस-तिस मुद्दे पर बेलगाम बोलता गया। कशमीर से लगायत लोकपाल तक। देश की जो सब से बड़ी ताकत है संसदीय व्यवस्था, उस पर भी चोट करने से बाज़ नहीं आए यह लोग। यह लोग यह भूल गए कि यह संसदीय व्यवस्था और यह लोकतंत्र ही है जो आप को यह सब करने और बोलने दे रही है। कालिदास बन गए और उसी डाल को काटने में लीन हो गए। दूसरे यह लोग भूल गए कि कोई भी जनांदोलन हथेली पर सरसो उगाना नहीं है। यह लगभग एक तरह की किसानी है। खेती-बारी है। बरसों लग जाते हैं मिट्टी बनाने में। खाद-पानी देते-देते मिट्टी बनती है। और फिर इस में भी यह पपीते की खेती भी नहीं है कि लगाते ही 6 महीने में फल मिलने लगता है पर 6 महीने ही में पपीता खत्म भी हो जाता है। जनांदोलन जैसे कटहल की खेती है। कि लगाती एक पीढ़ी है, खाती आगे की पीढ़ियां हैं। गांधी के पहले भी तमाम-तमाम लोगों ने आज़ादी की लड़ाई लडी थी। और फिर गांधी भी कोई दो एक दिन में ही कामयाब नहीं हो गए थे। चंपारण के भी हीरो वह कोई एक-दो दिन में ही नहीं हो गए थे। जालियावाला बाग से लगायत दांडीयात्रा तक बहुत पानी बहा। लोगों ने लाठियां जेल और ज़ुल्म सहे। फिर कहीं साबरमती के संत के नाम आज़ादी दिलवाने का तमगा लगा। दिल्ली फिर भी तुरंत नहीं मिली थी। जे. पी. को भी इंदिरा गांधी की तानाशाही से लड़ने में बहुत समय लगा था। वी. पी. सिंह को भी बोफ़ोर्स को आंदोलन ब्ना कर, जनमोर्चा और फिर राजीव सरकार के पतन तक की लडा़ई में समय लगा था। पका-पकाया नतीज़ा किसी भी आंदोलन को नहीं मिला, कभी भी, कहीं भी। पर यह अन्ना और उन की टीम जैसे सब कुछ तुरंत पा लेना चाहती थी। भ्रष्टाचार से लडा़ई न हो गोया फ़ास्ट फ़ूड हो। मैगी या बर्गर हो जो फटाफट तैयार हो जाए। तिस में कोढ़ में खाज का काम किया इलेक्ट्रानिक मीडिया ने। भीड़ और, कैंडिल मार्च के फ़ैशन परेड दिखा-दिखा कर। हद ही हो गई थी। हां, यह सही है कि इस अन्ना आंदोलन में किसान और मज़दूर की भागीदारी उस तरह नहीं थी, जिस तरह होनी चाहिए थी। और इसी लिए यह आंदोलन शुरु ही से गगन विहारी आंदोलन बन गया था। चैनलों के कंधे पर सवार यह आंदोलन ज़मीनी आंदोलन नहीं बन पाया। अन्ना यहीं छले गए। वह अपनी थाली और मंदिर में रहने को अपनी थाती बताते रहे पर उन के साथी उड़ते रहे मीडिया मैनेजमेंट के डैनों पर। वैसे ही जैसे राहुल की जनसभाएं या किसी दलित के घर जाना-खाना इवेंट मैनेजमेंट का हिस्सा होती हैं। भट्टा पारसौल से लगायत मुंबई से स्लीपर क्लास की यात्रा तक। तो जो नतीज़ा राहुल को चुनावों में मिला लगभग वही नतीज़ा अन्ना आंदोलन कहिए, जनांदोलन कहिए उस को भी वही नतीज़ा मिला। यह आंदोलन पब्लिसिटी तो पा गया पर ज़मीन नसीब नहीं हुई इसे। आंदोलन के कर्ता-धर्ता यह भूल गए कि गांवों और कस्बों में बिजली ही नहीं आती जो लोग टी.वी. देख कर आंदोलित हों। दूसरे अगर जहां कहीं लोग-बाग टी.वी. थोडा़ बहुत देख भी लेते हैं, वहां दूरदर्शन देखा जाता है, ये खबरिया चैनल नहीं जो उन्हें शेर बनाते फिर रहे थे। तो जनता से कटा यह जनांदोलन खबरिया चैनलों के कंधे पर चलता भी तो कितने दिन चलता भला? वह भी दिल्ली और मुंबई के ज़ोर पर। जहां के लोग जो बगल में किसी के मर जाने पर भी मुंह फेर लेते हैं। लाश सड़ जाती है, बदबू मारने लगती है तो पुलिस बुलाते हैं। उस दिल्ली और मुंबई के लोगों के ज़ोर पर? तिस पर तमन्ना 'मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों ' की !
अन्ना और उन की वह टीम यह भी भूल गई कि कांग्रेस नाम का मगरमच्छ उन्हें लीलने को एक नहीं कई मोर्चों पर मुंह बाए खड़ा है। और जो वह एक शेर है कि, 'मैं सच भी बोलूंगा तो हार जाऊंगा/ वह झूठ भी बोलेगा तो लाजवाब कर देगा।' कांग्रेस इस शेर के अमल में लाजवाब है। कपिल सिब्बल से लगायत, चिदंबरम, सलमान खुर्शीद जैसे वकीलों की कुटिल फ़ौज तो थी ही सोनिया जैसी मदारी भी थी जो बडे़-बडे़ लोगों को अपनी डिप्लोमेसी में नचा कर शीशे में उतार देती है। जो एक साथ मुलायम और मायावती को बिठा लेती है। मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी जैसों को अपना सेवक बना कर एक इशारे पर नचा लेती है। आडवाणी और भाजपा जैसी घाघ पार्टी को भी थूक कर चटवा लेती है और पूरी शालीनता से। बडे़-बडे़ लालू, करुणानिधि उस के यहां पानी भरते हैं। उस सोनिया को हंसते हुए अन्ना कहते थे कि उस के बारे में क्या बोलें, औरत है, बीमार है। बताइए यह भी कोई बात हुई? दिग्विजय सिंह जैसों के कुतर्क का तोड़ भी नहीं था, अन्ना और उन के लोगों के पास। और चिंगारी जो शोला बन सकती थी, फ़ुस्स हो गई। अनुभवहीनता और जल्दबाज़ी में उस आंदोलन का गर्भपात हो गया।
अफ़सोस इस बात का नहीं है कि यह अन्ना आंदोलन का गर्भपात हो गया। अफ़सोस इस बात का है कि अब कोई किसी आंदोलन की क्या फिर कभी सोचेगा? इस नई बाज़ार व्यवस्था ने आदमी को अकेला कर दिया है। उस के पास अपने ही लिए टाइम नहीं है, अपने परिजनों के लिए टाइम नहीं है, तो आंदोलन तो उस की कल्पना में भी नहीं है। सीमा आज़ाद जैसों को पुलिस जब चाहती है बरसों के लिए जेल में ठूंस देती है। और कोई आहट तक नहीं होती सडक पर। लोग ड्राइंगरूम में या फ़ेसबुक पर चर्चा कर के सो जाते हैं। कोई आंदोलन नहीं होता। राजनीतिज्ञों, अफ़सरों का अतिशय भ्रष्टाचार, कारपोरेट सेक्टर की मनमानियां, जल, जंगल, ज़मीन की लडा़ई ,बिल्डरों का खेती की ज़मीनों का हड़पते जाना, आकाश छूती मंहगाई यह सब अब किसी को क्यों नहीं आंदोलित करता? क्यों लोग सुन्न हो चुके हैं? ऐसे में अन्ना आंदोलन का खड़ा होना एक बड़ी घटना थी। पर उस का इस तरह अचानक गर्भपात हो जाना उस से भी बडी घटना है और अफ़सोसनाक घटना है।
अन्ना और उन की उस टीम ने लगता है कि बीते आंदोलनों और आज के हालात पर कभी बैठ कर गौर नहीं किया। उपवास बुद्ध और गांधी पैदा करता है, ब्लैकमेलर नहीं। अन्ना टीम ने उपवास की ताकत से सरकार को झुकाने यानी ब्लैकमेल करने की आदत बना ली। और भूल गए कि सत्ता वह भले राम की ही क्यों न हो कुचक्र ही रचती है। किसी भी सत्ता से लड़ाई सत्य के हथियारों से ही लडी़ जा सकती है, उपवास भी उस का एक रास्ता है। पर जब आप उपवास को तोप की तरह इस्तेमाल करने लगेंगे तो वह अपनी उपयोगिता खो देगा। नमक से नमक का ही काम लीजिए, चीनी का नहीं। या फिर चीनी से भी नमक का काम मत लीजिए। अन्ना और उन के साथियों ने दुर्भाग्य से यही किया। और पता नहीं किस 'होशियार' ने उन्हें राजनीतिक विकल्प देने का सपना दिखा दिया। और यह लोग उस सपने पर समूचे आंदोलन की बलि चढा़ बैठे। भूल गए यह लोग कि कोई भी समाज बदलता है जनांदोलन से, राजनीतिक आंदोलन से नहीं। राजनीतिक आंदोलन से सत्ता पाई जा सकती है, समाज नहीं बदला जा सकता। अभी ज़रुरत समाज को बदलने की थी। समाज बदलेगा तभी राजनीति बदलेगी। अभी तो सच यही है कि इस समाज में कोई ईमानदार आदमी चुनाव नहीं लड़ सकता, जीतना तो बहुत दूर की कौडी़ है। समाज से सिर्फ़ भ्रष्टाचार ही नहीं सांप्रदायिकता और जाति-पाति, छुआछूत आदि भी हटाना होगा तभी एक बेहतर राजनीतिक विकल्प खड़ा हो पाएगा। अभी तो जितनी गंदी कांग्रेस है, उतनी ही गंदी भाजपा भी है, उतनी ही गंदी वामपंथी पार्टियां हैं, उतनी ही गंदी सपा-बसपा टाइप क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं। जैसे देश की सभी नदियां दूषित-प्रदूषित हो कर सिर्फ़ सीवर का पानी और फ़ैक्ट्रियों का कचरा ढोने को अभिशप्त हो चली हैं, ठीक वैसे ही सभी के सभी राजनीतिक दल भी उद्योग जगत और कारपोरेट जगत के पैसे और जातियों के अंगार की सवारी पर सवार हैं। आप आएंगे अभी की राजनीति में तो शेर होते हुए भी आप को भी सियारों की शादी में बैंड बजाना ही पड़ेगा। फिर व्यवस्था क्या बदलेंगे, आप खुद बदल कर धूर्त हो जाएंगे। अब से चेतिए अन्ना जी। जानिए कि आंदोलन या जनांदोलन कोई जादू की छड़ी नहीं है। एक सतत प्रक्रिया है बदलाव की। सो शुरुआत समाज बदलने से कीजिए। देश और समाज को बदलने में मराठियों का कभी बड़ा योगदान रहा है। शिवा जी, गोपाल कृष्ण गोखले, डा. अंबेडकर से लगायत बाबा राघवदास से नाना जी देशमुख तक एक लंबी कड़ी है। आप में भी वह तत्व दिखते हैं। पैसा और सिर्फ़ पैसा के पीछे भागने वाले इस समाज को पहले बदलना ज़रुरी है। फिर सत्ता और पैसा के पीछे भागने वाली राजनीति बदलने की सोचिए। बाहुबलियों और भ्रष्टचारियो से निपटने की सोचिए। राजनीति, कारपोरेट और मीडिया के गठजोड़ को तोड़ना मुश्किल ज़रुर है, पर ज़रुरी भी है। सो खबरिया चैनलों और अपने दिखावे के साथियों से परहेज़ करिए। बात फिर से शुरु कीजिए। अब की देश के किसी भी गांव से शुरु कीजिए। किसी शहर से नहीं। आहिस्ता-आहिस्ता बात बनेगी और ज़रुर बनेगी। हां, आहिस्ता-आहिस्ता। आंदोलन ऐसे ही शुरु होते हैं। रामदेव की तरह दुकान लगा कर नहीं। अब देखिए न कि देखा-देखी में आप का आंदोलन अभी और बिलकुल अभी तो रामदेव की दुकान के काम आ गया है। आप की सारी मेहनत और तपस्या खाद बन गई रामदेव की दुकान के लिए। कोई बात नहीं। अभी कुछ दिन आराम और चिंतन के बाद उठिए।इस लिए भी कि गरीबों को रोटी नहीं, मोबाइल देने वाली इस राजनीतिक व्यवस्था का बदलना अब बहुत ज़रुरी हो गया है। तब तक के लिए नागार्जुन की यह एक कविता बांचिए :
भूल जाओ पुराने सपने
सियासत में
न अड़ाओ
अपनी ये काँपती टाँगें
हाँ, महाराज,
राजनीतिक फतवेवाजी से
अलग ही रक्खो अपने को
माला तो है ही तुम्हारे पास
नाम-वाम जपने को
भूल जाओ पुराने सपने को
न रह जाए, तो-
राजघाट पहुँच जाओ
बापू की समाधि से जरा दूर
हरी दूब पर बैठ जाओ
अपना वो लाल गमछा बिछाकर
आहिस्ते से गुन-गुनाना :
‘‘बैस्नो जन तो तेणे कहिए
जे पीर पराई जाणे रे’’
देखना, 2 अक्टूबर के
दिनों में उधर मत झाँकना
-जी, हाँ, महाराज !
2 अक्टूबर वाले सप्ताह में
राजघाट भूलकर भी न जाना
उन दिनों तो वहाँ
तुम्हारी पिटाई भी हो सकती है
कुर्ता भी फट सकता है
हां, बाबा, अर्जुन नागा !
आमीन !
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