कभी अध्यापक और फिर पत्रकार भी रहे प्रणव मुखर्जी अपनी सारी विद्वता और विनम्रता के बावजूद जिस तरह इन दिनों लगातार झुकने का रिकार्ड बनाए जा रहे हैं, वह एक निष्पक्ष राष्ट्रपति भी बन कर दिखाएंगे, मन में संदेह खड़ा करता है। क्यों कि आज कल जिस तरह वह लगातार झुक रहे हैं, बात-बेबात झुक रहे हैं, वह उन्हें कटघरे में खड़ा करता है। अभी ताज़ा मामला एन.सी.आर.टी. की किताबों में छपे कार्टूनों का है। दलित वोटों की ठेकेदारी करने वाले लोगों ने दशकों पुराने शंकर के कार्टून को ले कर बेहद वाहियात ऐतराज किया। और सरकार लेट गई उन के आगे। अंबेडकर से भी ज़्यादा चोट इंदिरा गांधी और नेहरु के कार्टूनों में किए गए हैं उस किताब में, और अंबेडकर पर तो खैर चोट है भी नहीं। लेकिन कांग्रेसी उलझे तो सिर्फ़ अंबेडकर के कार्टून पर। और दलित वोटों के ठेकेदारों के आगे लेट गए। एक सेकेंड की भी देरी किए बिना कपिल सिब्बल ने माफ़ी मांग ली, किताब से कार्टून हटाने का ऐलान कर दिया। पर प्रणव बाबू और आगे निकल गए। बोले, 'कार्टून क्या हम पूरी किताब हटा देंगे।' क्या वह दलित वोटरों के ठेकेदारों से डर गए? कि इतना बदहवास हो गए यह सोच कर कि कहीं ऐसा न हो कि यह दलित लोग उन्हें राष्ट्रपति की उम्मीदवारी से ही खारिज न कर दें? मायावती ब्रिगेड या पूनिया की जुबान उन्हें वोटों से महरुम न कर दे? अजीब अफ़रा-तफ़री है। समझ नहीं आता कि यह देश किस संविधान से चलता है?
अभिव्यक्ति की आज़ादी का इस तरह गला घोटना किसी भी संविधान और कानून से परे है। मायावती और पी.एल. पूनिया इसी तरह की जुगलबंदी प्रकाश झा की फ़िल्म आरक्षण के साथ भी कर चुके हैं। पूरी फ़िल्म आरक्षण के पक्ष में खडी दीखती है पर इन दोनों के दलित वोटों की दादागिरी ने उत्तर प्रदेश में फ़िल्म को बेवज़ह बैन कर उस की पब्लिसिटी मुफ़्त में कर दी। और मैं पूछता हूं कि दलित क्या देश और संविधान से ऊपर हैं? जो बात-बेबात दलित हिंसा का बवंडर खड़ा कर पूरे देश, समाज और संसद को बंधक बना ले रहे हैं इन दिनों। यह किसी लोकतांत्रिक और संवैधानिक देश के हित में तो नहीं है। मायावती खरबों रुपए का भ्रष्टाचार कर के मुस्कुराती खड़ी हैं, ए राजा ज़मानत ले कर जश्न मना रहे हैं पूरी अश्लीलता से तो सिर्फ़ इस लिए कि वह दलित हैं? काहें के दलित हैं? और किस कानून से ऊपर हैं? हैं तो क्यों हैं? लेकिन कांग्रेस और देश के तमाम राजनीतिक दल इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं। यही स्थिति देश के मुसलमानों की भी है। वह देश में अब अल्पसंख्यक नहीं हैं। पर ज़रा-ज़रा सी बात पर यह राजनीतिक दल उन के लिए सर पर कफ़न बांध लेते हैं। क्या ऐसे ही लोकतंत्र चलता है? उत्तर प्रदेश के हालिया विधान सभा चुनाव में मुसलमानों के लिए घड़ियाली आंसू बहाने वाली कांग्रेस को मुसलमानों ने अच्छा सबक सिखाया है। पर कांग्रेस है कि मानती नहीं। वह जिस तौर-तरीके से अन्ना हजारे या रामदेव से निपटती है वह भी तर्क से परे है। और प्रणव मुखर्जी अभी कांग्रेस के नीति नियंताओं में हैं। क्या देश के लोग भूल गए हैं कि रामदेव को एयरपोर्ट पर रिसीव करने गए चार मंत्रियों के समूह में एक प्रणव मुखर्जी भी थे। प्रणव मुखर्जी को इस तरह अगुवानी करने जाने की ज़रुरत क्या थी आखिर? सारी वरिष्ठता और विवेक क्यों पानी मांग गया? और अन्ना या रामदेव को जिस वकीली तौर-तरीकों से निपटाया गया वह क्या था? प्रणव मुखर्जी के साथ एक बड़ी दिक्कत यह है कि आज की तारीख में वह जिस राजनीतिक कद की ऊंचाई को छू रहे हैं वह अपनी योग्यता के दम पर नहीं बल्कि सोनिया गांधी के प्रति अमोघ निष्ठा के दम पर छू रहे हैं। जिसे आम बोल-चाल में चमचई कहा जाता है। वह हर संकट में सोनिया के हनुमान बन कर प्रकट हो जाते हैं और जैसा कि हम बचपन में रामलीला में देखते थे कि हनुमान राम को पीछे से कहते क्या ललकारते रहते थे कि, 'मारिए महराज जी !' कुछ-कुछ ठीक वैसे ही प्रणव मुखर्जी सोनिया गांधी से कहते हैं कि ऐसी स्थिति में जो आप की सास इंदिरा जी होतीं तो ऐसे करतीं! और वह इस तरह सोनिया गांधी के राजा बाबू कहिए, राजा बेटा कहिए, बन जाते हैं। और कि प्रणव मुखर्जी के यही तत्व सोनिया और उन के राजकुमार राहुल को भा गए हैं और प्रणव उन्हें क्लिक कर गए हैं। इस लिए भी कि एक बोनलेस व्यक्ति उन्हें महामहिम की कुर्सी खातिर चाहिए। प्रणव उन की यह शर्त भी पूरी करते हैं। पर दुर्भाग्य से यही तत्व प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति योग्य नहीं बनने का कारण भी बनते हैं।
इस लिए भी कि भले ही हमारे देश में राष्ट्रपति रबर स्टैंप की तरह माना जाता हो पर उस की रीढ़ तो फिर भी होनी ही चाहिए। आखिर फखरुद्दीन अली अहमद भी हमारे राष्ट्रपति हो कर गए ही हैं जिन्हों ने बिना कैबिनेट की मंज़ूरी के देश में आपातकाल लगाने की प्रधान मंत्री इदिरा गांधी की सिफ़ारिश मान कर आपातकाल लगाने पर मुहर मार दिया था। पर यह संविधान का सरासर उल्लंघन था। यह भी भला हम कैसे भूल सकते हैं? और यह घटना भी हमें मालूम ही है कि ज्ञानी जैल सिंह राष्ट्रपति थे लेकिन चौरासी के सिख दंगे में वह राष्ट्रपति भवन में भी खुद को महफ़ूज़ नहीं महसूस रहे थे। उन की उस विवशता का, उन की उस लाचारी और असहाय होने का बड़ा मार्मिक चित्रण खुशवंत सिंह ने किया है। इस देश ने राजेंद्र प्रसाद और राधाकृष्णन जैसे राष्ट्रपति भी देखे हैं। उन की शान और रफ़्तार भी देखी है। नीलम संजीव रेड्डी को भी हम कैसे भूल जाएं कि जगजीवन राम के पास सांसदों की संख्या ज़्यादा होने के बावजूद उन्हों ने पक्षपात कर के चरण सिंह को प्रधान मंत्री की शपथ लेने के लिए बुला लिया था तो सिर्फ़ इस लिए कि उन्हें जगजीवन राम से एक पुराना हिसाब चुकता करना था। हुआ यह था कि तब जगजीवन राम रक्षा मंत्री हुआ करते थे और नीलम संजीव रेड्डी राज्यपाल। एक मौके पर जगजीवन राम के सामने ही आदत के मुताबिक वह बीड़ी पीने लगे तो जगजीवन राम ने उन्हें प्रोटोकाल की याद दिला कर अपनी नापसंदगी जताई और उन की बीड़ी बुझवा दी थी। नीलम संजीव रेड्डी को यह अपना अपमान लगा था। तब तो वह चुप रह गए थे। पर १९७९ में उन्हें इस अपमान का बदला इस तरह चुकाया कि भले ही आप के पास सांसद ज़्यादा हों, हम तो नहीं मानते और चरण सिंह को प्रधान मंत्री पद की शपथ दिलवा दी। महामहिम के पद के लिए इस बात को भी दाग की तरह ही आज भी याद किया जाता है। देश ने ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को भी बतौर महामहिम देखा है जिस ने अफ़जल गुरु जैसे आतंकवादी की फांसी की फ़ाइल मिलते ही उसी शाम दस्तखत कर गृह मंत्रालय को भेज दिया था। कोई दबाव स्वीकार नहीं किया था। अब अलग बात है कि उन के मुस्लिम होने का भ्रम फैला कर कांग्रेस बिना कुछ कहे संकेतों ही में सही सारी देरी का ठीकरा उन पर फोडवाती रही। देश प्रतिभा सिंह पाटिल को भी देख ही रहा है जो पद पर रहते हुए ज़मीन घोटाला और भ्रष्टाचार के अन्य आरोपों में घिरी पडी हैं। तो क्या प्रणव मुखर्जी राजेंद्र प्रसाद, राधाकृष्णन, कलाम जैसों की राह पर चल पाएंगे? कि फखरुद्दीन अली अहमद, ज्ञानी जैल सिंह, प्रतिभा पाटिल को ही दुहराएंगे? कि राष्ट्रपति हो कर भी वह सोनिया के हनुमान बन कर ही उन्हें बताते फिरेंगे कि इंदिरा जी होतीं तो ऐसी घड़ी में ऐसे करतीं! बतर्ज़ मारिए महराज जी ! कहना ज़रा कठिन भी है और बहुत आसान भी। क्यों कि पूत के पांव तो पालने में दिख ही रहे हैं।
फ़िलहाल तो जैसा कि वह बताते रहे हैं कि प्रधानमंत्री होने के बावजूद अभी भी मनमोहन सिंह उन्हें 'सर !' कह कर संबोधित करते हैं। जैसा कि वह रिज़र्व बैंक के गवर्नर के टाइम उन से कहते थे। जब कि प्रणव बाबू इस के लिए उन्हें हमेशा टोकते रहते हैं कि नहीं अब आप 'सर !' हैं। जो भी हो अब समय एक बार फिर करवट ले रहा है और तमाम इफ़-बट के बावजूद प्रणव मुखर्जी, मनमोहन सिंह के फिर से सर होने जा रहे हैं। महामहिम सर !
राजनीति हमेशा ही से संभावनाओं का शहर रही है। पर यह राजनीति समझौता एक्सप्रेस भी अब बन चली है। प्रणव मुखर्जी इस के सब से बड़े उदाहरण बन कर हमारे सामने उपस्थित हैं। जैसी कि अटकलें और खबरें हमारे सामने हैं, प्रणव मुखर्जी देश के प्रथम नागरिक बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हैं। रायसीना हिल्स उन की प्रतीक्षा में है। प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बनने को ले कर अगर कोई मुझ से पहली प्रतिक्रिया पूछे तो कहूंगा कि शिष्या हो तो ममता बनर्जी जैसी। आज अगर प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति बनना तय माना जा रहा तो सिर्फ़ इस लिए कि ममता बनर्जी आज की तारीख में एक उन्हीं के नाम पर आंख मूंद कर समर्थन कर सकती हैं। कर भी रही हैं। वह जैसे प्रणव बाबू को राष्ट्रपति बनवा कर गुरु-दक्षिणा देना चाहती हैं। प्रणव ममता के राजनीतिक गुरु हैं। ममता राजनीति के अपने इस नए अध्याय में चाहे जितनी बड़ी तानाशाह बन कर उभरी हों, पर एक बात तो तय है कि अभी वह जो चाहती हैं करवा लेती हैं। यह ममता भय ही है कि रेल का किराया रोल-बैक हो जाता है, दिनेश त्रिवेदी का मंत्री पद हजम हो जाता है। वह प्रणव को राष्ट्रपति बनवाने की भले पैरोकारी कर रही हैं पर प्रणव मुखर्जी को पेट्रोल के दाम नहीं बढ़ाने दे रहीं हाल-फ़िलहाल। कम से कम बजट सत्र में तो नहीं ही। बाद में चाहे जो हो। पर अगर अभी दाम बढ़ाया तो वह सरकार गिरा देंगी। कम से कम उन की धमकी यही है।
लीलाधर जगूडी की एक कविता है, 'भय भी शक्ति देता है।' तो सरकार को ममता का यह भय आम आदमी को शक्ति देता है। अस्थाई ही सही। एफ़. डी. आई. से लगायत एन.सी.टी.सी. तक पर ममता का सोटा केंद्र पर तना दिखता है। केंद्र सरकार सांस नहीं ले पाती। हालां कि अभी हिलेरी क्लिंटन उन्हें एफ़.डी.आई. पर ताज़ा-ताज़ा पिघला कर गई हैं। अभी देखना बाकी है कि ममता की मोमबत्ती हिलेरी की आंच में कितना पिघली है। खैर, पिछली यू.पी. ए. सरकार में कुछ दूसरे तरह से लालू अपनी गुंडई चलाते थे। अपने २५ सांसदों के समर्थन का डर दिखा कर। प्रणव तब भी डरते थे, प्रणव अब भी डरते हैं। सोचिए कि सरकार के प्रधानमंत्री हैं मनमोहन सिंह पर डरते प्रणव मुखर्जी हैं। सरकार जब-तब भंवर में फंसती ही रहती है। खेवनहार बनते हैं प्रणव मुखर्जी। यहां तक कि जब वह खुद चिदंबरम से सीधा टकराव ले कर उन्हें बिलकुल खा जाना चाहते थे। तब एक बार तो लगा कि वह अब सरकार से बगावत कर वी. पी. सिंह की भूमिका में तो नहीं आ जाएंगे? पर नहीं शायद हवा के खिलाफ़ खड़ा होने और बगावत करने का माद्दा अब उन में शेष नही रहा। तभी तो अपनी भावनाओं के खिलाफ़ खुद खेवनहार बन कर खड़े हो गए। और ऐलान कर बैठे कि उन की कोई जासूसी नहीं हुई। साथ ही चिदंबरम को टू-जी की खतो-किताबत की खता से भी उबार दिया। बगावत की जो गंध आ रही थी उन की बाडी लैंगवेज़ और उन की कार्यशैली से, वह अचानक काफूर हो गई। तो क्या यह दूध के जले प्रणव मुखर्जी छांछ भी फूंक-फूंक कर पीने लगे?
१९८४ में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब प्रणव मुखर्जी वित्त मंत्री थे। इंदिरा के बाद कौन? की बात पर उन्हों ने अपने नंबर दो की हैसियत बता कर दबी जुबान प्रधान मंत्री पद की दावेदारी जताई थी। अरूण नेहरु तब उन से इतना खफ़ा हुए कि उन्हें पहले राजीव गांधी मंत्रिमंडल से बाहर करवाया, राजीव के कान भर कर और फिर पार्टी से भी बाहर करवा दिया। प्रणव मुखर्जी को दूसरी पार्टी बनानी पड़ी। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस। बाद के दिनों में बोफ़ोर्स की आंधी से सत्ता से बाहर हुए राजीव गांधी से फिर से उन का समझौता हो गया और अपनी पार्टी का विलय कर वह फिर कांग्रेस में लौट आए। बाद के दिनों मे नरसिंहा राव ने उन्हें योजना आयोग का अध्यक्ष बनाया। फिर विदेश मंत्री भी बनाया। फिर जब मनमोहन सिंह पहली बार प्रधान मंत्री बने तब भी प्रणव मुखर्जी ने एक गलती कर दी। जब मनमोहन का नाम चर्चा में आया तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के सवाल पर वह बोल गए कि मैं ने तो उन्हें रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था। प्रकारांतर से दबी जुबान फिर दावेदारी की बात आ गई। उन की राह में एक रोड़ा फिर आ गया। तो भी किसी तरह उन्हें सोनिया गांधी ने रक्षा मंत्री बनवा दिया और लोकसभा में सदन का नेता भी। बाद में विदेश मंत्री बने। फिर अंतत: वित्त मंत्री। और अब तो वह सरकार के संकटमोचक भी हैं। उन का व्यवहार, उन की विनम्रता, उन की विद्वता सभी राजनीतिक पार्टियों में उन की स्वीकार्यता बढाती है। हर कोई उन के गुन गाता है।
लेकिन उन की आर्थिक नीतियां?
वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी के दौर में आम आदमी की जैसे कमर क्या रीढ़ ही टूट गई है। आखिर इंदिरा गांधी सरकार में भी वह वित्त मंत्री रहे हैं। एक समय इंदिरा गांधी का सब से लोकप्रिय नारा था गरीबी हटाओ। वह अपने भाषणों में कहती भी थीं कि मैं कहती हूं - गरीबी हटाओ, वह कहते हैं - इंदिरा हटाओ! तो उस दौर के वित्त मंत्री रहे प्रणव मुखर्जी और कांग्रेस ने गरीबों का जीना मुहाल कर दिया है। उन की आर्थिक नीतियों ने भ्रष्टाचार और काले धन का जो विष वृक्ष खड़ा किया है, पैसे को जिस तरह राक्षस बनाया है, जो कारपोरेट सेक्टर का पहाड़ खड़ा किया है, खेल के नाम पर आई.पी.एल यानी इंडियन पैसा लीग के मार्फ़त जो नंबर दो का एक करना सिखाया है उस से गरीबों की तो आह भी नहीं निकल रही। गरीब उजड़ कर रह गए हैं। तिस पर उन का योजना आयोग जो २८ रुपए रोज की कमाई वालों को भी ए.पी.एल.में गिन कर जले पर जिस तरह नमक छिड़क रहा है उस का क्या करें? आटा से भी मंहगा अब भूसा बिकने लगा है। दूध, सब्जी, दाल सब के दाम आसमान पर हैं। मनमोहन सिंह के आर्थिक उदारीकरण की जो चाबुक प्रणव मुखर्जी ने आम आदमी पर चलाई है, कैसे मान लें कि वह एक अच्छे राष्ट्रपति भी साबित होंगे?
सोचिए कि प्रणव मुखर्जी जाने कितनी बार कह चुके हैं कि मंहगाई इतने दिन बाद कम हो जाएगी। डेड लाइन पर डेड लाइन। पर मंहगाई है कि सुरसा की तरह बढ़ती ही जा रही है। सुरसा का मुंह तो फिर भी कम हुआ पर प्रणव मुखर्जी और मनमोहन प्लस सोनिया की मंहगाई के पिटारे का मुंह है कि बढ़ता ही जा रहा है। अमीर और अमीर होता जा रहा है, गरीब और गरीब। आटा के दाम पर भूसा बिक रहा है, काजू-बादाम के भाव दाल बिक रही है, घी के दाम दूध बिक रहा है, सब्जी और फल तो पूछिए मत। गरीब की थाली में वह कभी आता है तो कभी गूलर का फूल बन जाता है। शिक्षा और चिकित्सा भी गरीब आदमी कहिए, आम आदमी कहिए, मध्यम और निम्न वर्ग कहिए उस के लिए अब चांद पर जाने की मानिंद हो गया है। मेडिको इंश्योरेंस कंपनियां, अस्पताल और सारे निजी स्कूल सिर्फ़ लूट का अड्डा बन चले हैं। रुपया औंधे मुंह गिरा पड़ा है तो प्रणव मुखर्जी और उन की मंडली की बला से। सोना सुर्ख हो रहा है, चपरासी के घर से भी करोड़ो रुपए बरामद हो रहा है तो उन की बला से। उन को तो बस रायसीना हिल्स पहुंचना है। क्रिकेट के खेल में भी अब खेल भावना की जगह व्यवसाय भावना या गंदी भावना आ गई है तो क्या हुआ, प्रणव बाबू का आयकर विभाग उस से टैक्स नहीं लेगा। हां, वह सर्विस टैक्स तो लेंगे, वैट तो लगाएंगे और हर मद में। खैर मनाइए कि अभी संसद चल रही है, पर रायसीना हिल्स जाने के पहले पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस में भी वह आग लगा कर ही जाएंगे। किसानों का गेहूं रखने के लिए सरकार के पास बोरे नहीं हैं तो क्या डिस्टलरी तो हैं ना, वह सड़ा गेहूं खरीद कर शराब बनाने के लिए। सोचिए कि फ़रवरी-मार्च में आलू की नई फ़सल आई है अभी और आलू की किल्लत शुरु है। १८ रुपए किलो आलू अभी बिकने लगा है। कहां गया यह आलू? अखबारों मे खबर छपी थी कि बंपर आलू हुआ है। तो क्या वह खबर झूठी थी? या यह खबर झूठी है कि अभी टू जी के आरोपी ए राजा ने भले ही पंद्रह महीने बाद ही सही ज्यों ही पहली बार बेल की अप्लीकेशन दी, उन्हें ज़मानत दे दी गई। और दिल्ली से लगायत चेन्नई तक जो सडकों से ले कर होटलों तक में जश्न मनाया गया है खुलेआम, आतिशबाज़ी की गई है और पूरी अश्लीलता से, क्या यह खबर भी झूठी है?
प्रणव बाबू आप कैसे वित्त मंत्री हैं? आप कैसे संकटमोचक हैं इस सरकार के? यह सरकार है भी? यह लोक कल्याणकारी राज्य ही तो है? कि कारपोरेट सेक्टर और अमीरों की रखवाली का ठेका लेने वाली कोई एजेंसी? कि पूरी अर्थव्यवस्था सिर्फ़ एक सच मुनाफ़ा और सिर्फ़ मुनाफ़ाखोरी में तब्दील है? सच बताइए प्रणव बाबू आप रायसीना हिल्स जाने की आखिर सोच भी कैसे रहे हैं इतने सारे दाग ले कर? भला वहां सो भी पाएंगे आप? अभी तो आप रीढ़ गंवा कर वित्त मंत्री बने बैठे हैं अपनी शपथ भूल-भाल कर। कल को तो आप राष्ट्रपति बन कर मुझे डर है कि रबर स्टैंप बनने के साथ ही साथ बोनलेस भी हो ही जाएंगे। सोनिया और राहुल की इच्छा के अनुरुप। एक भी हड्डी नहीं शेष रह जाएगी आप की। फिर आप जाने किन-किन लोक-विरोधी, जन-विरोधी अध्यादेशों पर आंख मूंद-मूंद कर दस्तखत करते जाएंगे। सोनिया जी, मनमोहन जी के प्रति आप की यह अमोघ निष्ठा जाने क्या-क्या करवा ले जाएगी आप से। धृतराष्ट्र तो जन्मांध था, आप तो नहीं हैं? पढ़े-लिखे और विचारवान हो कर भी यह सब कैसे करते जा रहे हैं? श्रीकांत वर्मा ठीक लिख गए हैं कि, 'मगध में विचारों की बहुत कमी है !'
तो इस विचारहीन सत्ता में आप कैसे रहते-जीते हैं भला? दम नहीं घुटता आप का?
आखिर आप उस बंग-भूमि से आते हैं जहां से एकला चलो रे जैसा गान फूटता है। जहां से रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, रवींद्रनाथ टैगोर, बंकिम चंद्र, राजा राम मोहन राय, नेता जी सुभाष चंद्र बोस, खुदीराम बोस,शरत चंद्र,ऋत्विक घटक, नज़रुल इस्लाम, सत्यजीत राय, महाश्वेता देवी आदि जैसे स्वतंत्र-चेता लोगों की एक लंबी और समृद्ध परंपरा आती है। और तो और सोमनाथ चटर्जी जैसे आप के समकालीन लोग भी हैं जो बतौर लोकसभा अध्यक्ष संसदीय परंपरा को निभाने के लिए वर्षों पुरानी पार्टी से किनारे हो लेते हैं। तमाम जली-कटी सुन लेते हैं, लगभग बेगाने हो जाते हैं पर संसदीय परंपरा पर दाग नहीं लगने देते। कम से कम इन जैसों या बंग-भूमि की ही लाज निभाने की कोशिश आप भी कर लेते तो बात ही कुछ और होती !
आप ही बताइए प्रणव बाबू कि यह देश की कराहती जनता आप को राष्ट्रपति के रुप में कैसे देखेगी भला? इंदिरा जी का वह भाषण फिर याद आ रहा है कि मैं कहती हूं गरीबी हटाओ, वह कहते हैं - इंदिरा हटाओ ! यह गरीबी हटाने का छल-कपट कब बंद होगा हमारे भावी महामहिम श्री राष्ट्रपति महोदय ! मुहम्मद रफ़ी का गाया एक गीत है, 'जो तुम पर मिटा हो, उसे ना मिटाओ !' यह जनता आप सब को बडी उम्मीद से वोट दे कर भेजती है महामहिम ! अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए, धृतराष्ट्रों की अनंत लिप्सा पूरी करने के लिए नहीं। काश कि आप राजनीतिज्ञों की यह अमोघ निष्ठा देश की बहुसंख्यक जनता के साथ बिना किसी भेद-भाव के होती, मुनाफ़े की अर्थव्यवस्था, घोटालों, काला-धन, भ्रष्टाचार, किसी परिवार और जाति-पाति आदि के साथ नहीं, तो क्या बात होती !
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